• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » विष्णु खरे : क्यों दिखाऊँ मैं प्रधानमंत्री को अपनी फ़िल्म ?

विष्णु खरे : क्यों दिखाऊँ मैं प्रधानमंत्री को अपनी फ़िल्म ?

        कैन लोच की फिल्म “आइ,डेनिअल ब्लेक” को इस वर्ष के कान फिल्म महोत्सव का सर्वोच्च पुरस्कार ‘’पाल्म द्’ओर’’दिया गया है. उन्होंने साफ कहा है कि वह नहीं चाहते कि उनकी फ़िल्म उनके प्रधानमन्त्री  जेम्स कैमेरॉन देखें.   विख्यात फ़िल्म आलोचक और हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार विष्णु खरे प्रत्येक दूसरे सप्ताह के पहले […]

by arun dev
June 5, 2016
in फ़िल्म
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

 

 
 
 
कैन लोच की फिल्म “आइ,डेनिअल ब्लेक” को इस वर्ष के कान फिल्म महोत्सव का सर्वोच्च पुरस्कार ‘’पाल्म द्’ओर’’दिया गया है. उन्होंने साफ कहा है कि वह नहीं चाहते कि उनकी फ़िल्म उनके प्रधानमन्त्री  जेम्स कैमेरॉन देखें.
 
विख्यात फ़िल्म आलोचक और हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार विष्णु खरे प्रत्येक दूसरे सप्ताह के पहले रविवार के अपने इस चर्चित स्तम्भ में इसका खुलासा करते हैं. आखिर क्यों लोच मना कर रहे हैं, और क्या कभी भारत में यह संभव है ?

क्यों दिखाऊँ मैं प्रधानमंत्री को अपनी फ़िल्म ?                             

विष्णु खरे

 

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि किसी विख्यात भारतीय फिल्म-निदेशक को कोई महान अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले और वह अपने प्रैस-सम्मेलन में कहे कि वह नहीं चाहेगा कि नरेंद्र मोदी  उसकी फिल्म को देखें क्योंकि प्रधानमंत्री की योजना में ग़रीबों को सज़ा देना शामिल है? या वह कहे कि प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी बेरोज़गार जनता को उसकी बेरोज़गारी के लिए दंड दे रहे हैं? कि समाज का उनका जो मॉडल है वह बेकारी को उपजाता है और जो लोग उस पर सवाल उठाते हैं वह बेवजूद बिला जाते हैं. तो क्यों दिखाऊँ मैं उन्हें अपनी यह फिल्म?
 
वरिष्ठ ब्रिटिश निदेशक कैन लोच को उनकी फिल्म ‘’आइ,डेनिअल ब्लेक’’ (‘मैं,डेनिअल ब्लेक’) के लिए जब 22 मई को कान, फ्रांस में फिल्म महोत्सव का सर्वोच्च पुरस्कार ‘’पाल्म द्’ओर’’ (‘’स्वर्ण ताड़पत्र’’) दिया गया, जो कि उनका दूसरा था, पहला उन्हें उनकी 2006 की फिल्म ‘’The Wind That Shakes the Barley’’ ‘जौ हिलाने वाली हवा’ पर मिला था, तो उन्होंने कुछ ऐसे ही निर्भीक और दोटूक शब्दों में अपने देश के प्रधानमंत्री जेम्स कैमेरॉन और सत्तारूढ़ कन्ज़र्वेटिव पार्टी को याद किया. लोच शुरू से ही वामोन्मुख रहे हैं और उन्होंने कई प्रकार के प्रतिबद्ध राजनीतिक पापड़ बेले  हैं, जिनमें लेबर पार्टी में तनाव-भरी आवाजाही और एक नई वाम-झुकाव वाली ‘’लैफ़्ट यूनिटी पार्टी’’ की स्थापना भी शामिल हैं. वह विश्व के सर्वाधिक सियासी और जुझारू फिल्मकारों में गिने जाते हैं, लेकिन बी.बी.सी. का उदाहरण देते हुए उनका यह विवादास्पद कहना भी है कि यदि तुम ऐसे बड़े संस्थानों में हो तो बने रहो और भीतर से लड़ो. वह हमारे हैं कि नहीं ? हिंदी में लोच-जैसी प्रतिबद्धता सिर्फ़ ख्वाज़ा अहमद अब्बास में देखी जा सकती है लेकिन अब्बास की फिल्मों की गुणवत्ता में उतार-चढ़ाव कहीं ज्यादा हैं. लोच के यहाँ कठोर कलात्मक ज़िम्मेदारी भी प्रतिबद्धता की एक अहम शर्त है.
 
डेनिअल ब्लेक एक 57 वर्षीय बढ़ई है जिसे दिल की गंभीर बीमारी है और उसके डॉक्टर ने कह दिया है कि उसे अपना यह सख्त मेहनत का पेशा मुल्तवी करना होगा. ब्लेक की पत्नी पहले ही इसी तरह की बीमारी के कारण गुज़र चुकी है. ब्लेक के पास अपनी कोई जमा-पूँजी, बीमा वगैरह नहीं है – भावनात्मक या आर्थिक सहारे के लिए बाल-बच्चे भी नहीं हैं. ब्लेक को गुज़ारे के लिए मजबूरन ख़ुद्दारी तर्क़ कर सरकार की गरीबी-रेखा जन-कल्याण सहायता योजना के दफ़्तरों में जाना पड़ता है जिनमें काफ़्का की कहानियों-जैसा नौकरशाही का भूल-भुलैयाँ लाल-फीता तिलिस्म है और जहाँ कोई भी काम कंप्यूटर पर बीसियों फॉर्म भरे बिना शुरू भी नहीं हो सकता. ब्लेक के लिए कंप्यूटर, फॉर्म, अर्ज़ियाँ, उन्हें भरना, सही-गलत के निशान लगाना  वगैरह एकदम अजनबी हैं. सड़कों और दफ़्तरों को नापते हुए उसकी मुलाक़ात एक अपने-ही जैसी बेसहारा, नाउम्मीद, दो स्कूली उम्र के बच्चों की एक युवा-सी माँ से होती है. धीरे-धीरे चारों जीवन-संघर्ष करते एक त्रासद कुनबे में बदल जाते हैं.
 
यह कहानी 19वीं सदी के चार्ल्स डिकेन्स या टॉमस हार्डी के ज़माने की नहीं, ब्रिटेन के दक्षिण एशियाइओं या अफ़्रीकी अश्वेतों या मध्य-पूर्व के शरणार्थी मुस्लिमों-कुर्दों की नहीं, ठीक 2016 के गोरे मजलूम ‘’अंग्रेज़ों’’ की  है. यह जन्नत की हक़ीक़त है. ग़रीबों के लिए यह एक अपमान भरा दुस्स्वप्न है. वह दो-जून के भोजन, एक मजदूरी-सरीखे बेरोज़गारी-वेतन के लिए उन सरकारी दफ्तरों पर आश्रित हैं जहाँ अमानवीय जनशत्रुओं का वर्चस्व है जो अपने सामने खड़े ऐसे गूँगे सवालियों  को मस्तिष्कविहीन कीड़े-मकोड़ों से कम नहीं समझते और उन्हें इस फ़ॉर्म से उस फ़ॉर्म, इस खिड़की से उस खिड़की, इस दफ़्तर से उस दफ़्तर के बीच दौड़ाते रहते हैं.

 

थोड़ी-बहुत मानवीयता तब भी बाकी है लेकिन वह अपने-जैसों के बीच ही है. कैन लोच फिल्म में कहीं पिलपिले नहीं होते. उनकी निगाह सामाजिक और सरकारी क्रूरताओं से कभी हटती नहीं. वह जनवादी-मार्क्सवादी हैं, वर्ग-शत्रु को खूब पहचानते हैं. अपने देश के खाते-पीते तबक़े के भयावह ढोंग और पाखण्ड को वह दशकों से देख और दिखा रहे हैं. वह धुनी आदमी हैं. आज जब विश्व में सार्थक-निरर्थक हर क़िस्म का सिनेमा बनाया जा रहा है, लोच ने फिल्मों में सामाजिक यथार्थ की अपनी ज़िद छोड़ी नहीं है. वह स्वीकार करते हैं कि जिस दिन से मैंने अपने नव-यथार्थवादी उस्ताद वित्तोरिओ दे सीका की कृति ‘’बाइसिकिल चोर’’ देखी,मेरा अपना सिनेमा तय हो गया. लेकिन लोच लगातार इस ‘’गुरु-शिष्य परंपरा’’ का समसामयिक विकास करते आ रहे हैं. सैकड़ों निदेशक और करोड़ों दर्शक उन्हें हैरत से तक रहे हैं.
 
यह बेहद शादमानी और अचम्भे  की बात है कि अभी अगले ही इतवार को लोच अस्सी बरस के हो जाएँगे और बिना यह जाने कि इसी बरस उन्हें कान का यह दूसरा स्वर्ण ताड़पत्र सम्मान मिलेगा, उन पर एक 97 मिनट की डाक्यूमेंट्री Versus ‘’वर्सेस’’ – ‘बरअक्स’ – बनी है जो बाक़ायदा सिनेमाघरों में दिखाई जाएगी. आखिरकार लोच ने टीवी के लिए 1998 तक 30 फ़िल्में और 1967 की ‘’Poor Cow’’ (‘बेचारी गैया’) से लेकर अब तक 31 कथा-फ़िल्में बना डाली हैं, जिन्हें कितने पुरस्कार मिले हैं इसका हिसाब रखना मुश्किल है.
लोच ने अपनी यह नव्यतम यशस्वी फ़िल्म शायद सिर्फ़ तीन महीनों में बना डाली थी लेकिन किसी भी शॉट में न तो हड़बड़ी दिखती हैं, न ढील, न थकान. उनकी फ़िल्में auteur (सृष्टा-निदेशक) और ensemble (निजी टीम) की होती हैं. सब काम इशारों-ही-इशारों में होता होगा. उनकी इस फ़िल्म पर, और पिछली फ़िल्मों पर भी, कुछ आरोप भावुकता, उपदेशात्मकता, आदर्शवाद और संवाद-बाहुल्य के लगाए गए हैं लेकिन सब मानते हैं कि लोच के दिलो-दिमाग़ अब भी सही जगह पर सही काम कर रहे हैं. 
 
महाकवि टी.एस.एलिअट ने कहा है : Old men should be explorers…कविकुलगुरु डब्ल्यू.बी.येट्स ने वरदान माँगा है : Give me an old man’s frenzy. लोच शायद दुआ करते होंगे : Grant me an old man’s enraged commitment. ‘’आइ,डेनिअल ब्लेक’’ कान के अलावा अभी कहीं रिलीज़ नहीं हुई है लेकिन इस नासमिटे इन्टरनैट पर कुछ घंटों के लिए डकैती की एकाध तस्वीरे-यार  आकर फ़रार हो जाती है – सही महूरत में जिसने जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली सो देख ली. ब्रिटिश सरकार अपनी खुद की यूरो-करतूतों से पहले ही बेज़ार है, अब कान-जैसी सिने-विश्व राजधानी में सैकड़ों पत्रकारों के बीच कैन लोच की खुली चुनौतियों से उसकी मुश्किलें कुछ और बढ़ गई हैं. ब्रिटेन में तो यह डर भी प्रकट किया जा रहा है कि कैमेरॉन सरकार कोई षड्यंत्र कर कहीं इस फिल्म को वहाँ दिखाने ही न दे. यह एक अत्यंत मार्मिक कृति है और दर्शकों को अश्रुपूरित कर देती है.
बहुत महत्वपूर्ण बात है कि गर्बाचौफ़ के विश्वासघात के बाद लगभग सारे पुराने-नए यूरोप में मजलूम जनता की ज़िन्दगी इसी तरह का एक अभिशाप बना दी गई है. शेष लगभग सारे विश्व में यही बदहाली है. सरकार कोई भी हो, भारत में भी सरकारी दफ़्तरों, सार्वजनिक जगहों  में मर्दों, औरतों, बच्चों को रोज़ करोड़ों अपमानों और बेइज़्ज़तियों से गुज़रना पड़ता है.

 

किसे मालूम भारत में यह फ़िल्म कैसे और कब सार्वजनिक होगी. कैन लोच की यह कृति पूरे भूमंडल के लिए प्रासंगिक है. यह बात जुदा है कि नपुंसक मुम्बइया ‘’इंडस्ट्री’’ में, जहाँ सरकारी आतंक और जूताचाट का विडंबनात्मक राज है, प्रधानमंत्रियों और सरकारों को चुनौतियाँ देनेवाला कैन लोच जैसा अजब आज़ाद मर्द, हक़ मग़फ़िरत करे, कभी पैदा नहीं होगा.

_______________

विष्णु खरे
vishnukhare@gmail.com / 9833256060
Tags: कैन लोच
ShareTweetSend
Previous Post

परख : रेत-रेत लहू (जाबिर हुसेन)

Next Post

परख : मल्यों की डार : गीता गैरोला

Related Posts

No Content Available

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक