पादरी विलियम बायर, नेटफ्लिक्स और मेरी दादी |
पादरी रेवरेंड विलियम बायर ईसाई मिशनरी थे और बनारस कई साल रहे. भारत में ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के दौरान मिल रही चुनौतियों का सामना बायर साहब डट कर करते रहे. इस विषय में वे अपने देश चिट्ठियाँ भेजा करते थे. इन्हीं चिट्ठियों का संकलन १८४० में प्रकाशित हुआ, नाम था ‘लेटर्स ऑन इंडिया: विथ स्पेशल रिफरेंस टू द स्प्रेड ऑफ़ क्रिश्चियनीटी’. मेरी दादी ने बायर साहब की यह किताब नहीं पढ़ी. पढ़ना तो दूर वह इनका नाम भी नहीं जानती थीं. बायर साहब से कुछ सौ साल बाद मेरी दादी जन्मी होंगी, उसके कुछ ५० साल बाद मैं हूँ और फिर है अपना यह नेटफ्लिक्स. नेटफ्लिक्स पर जब भी मैं कोई यूरोपियन हिस्टोरिकल ड्रामा देखती हूँ, मुझे मेरी दादी और पादरी रेवरेंड विलियम बायर अक्सर याद आते हैं.
पादरी रेवरेंड विलियम बायर की किताब और भारतीय स्त्रियों के बारे में दर्ज पादरी साहब के बयानों से जब मैं गुज़रती हूँ तब दादी मेरी अपनी अनुभूत वास्तविकताओं और भारतीय समाज की ज़मीनी हक़ीक़त की गवाह बन कर पादरी की बातों पर मुसकुराती हुई आ खड़ी होती हैं- परिवार की मुखिया के अपने प्रभुत्वशाली रूप में. एक सख़्त माँ, सास और मृदु देवरानी के रूप में.
वैसे तो यूरोपीय कंटेंट स्वतंत्र रूप से भी उपलब्ध हैं लेकिन फिलहाल नेटफ्लिक्स पर यह सहजता और बहुतायत में उपलब्ध हैं. नेटफ्लिक्स की बात करती हूँ तो अर्नाल्ड हाउजर याद आते हैं, कला के लिए भव्यता चाहिए, पूंजी चाहिए. अगर एँटरटेनमेंट इंडस्ट्री अपने पाँव इतनी न पसारती तो क्या नेटफ्लिक्स के संभव होने की भूमिका बन पाती?
निश्चित रूप से नहीं. तो इस पूंजी ने, जिसने शोषण किया, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद कायम करने में भूमिका निभाई, उसी ने एक दूसरी राह भी खोली है जो सांस्कृतिक संवाद की है.
याद आता है कि कभी जब 30 साल पहले बॉलीवुड की फिल्में देखनी होती थीं तो किन्हीं-किन्हीं घरों में एचबीओ चैनल चला करता था. कुछ 20 साल पहले कभी-कभार संपन्न घरों में ‘डिस्कवरी’ और ‘हिस्ट्री’ चैनल का नाम भी सुनने को मिलने लगा. विदेशी कंटेंट के नाम पर भारतीय घरों की पहुँच इन्हीं तक थी. विदेशी के नाम पर बहुत हुआ तो कुछ अमेरिकन चैनल दिख जाते थे, कोरियन या एशियाई कंटेंट क्या होता है इसकी भनक तो हाल के दशक में लगी है.
यह नेटफ्लिक्स ही तो है जिसने आज फोन को अनलॉक कर एक स्वीप करने भर से दुनिया भर की संस्कृतियों, सभ्यताओं का ऐतिहासिक जीवन पटल खोलकर हमारे सामने रख दिया है जिससे गुज़रते हुए कई बार हम अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक गिरेबान में झांकने को मजबूर हो जाते हैं.
नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध यूरोपियन कंटेंट खासकर पीरियड और हिस्टोरिकल ड्रामा देखते हुए ऐसा लगता है कि अपने घर की खिड़की से हम पड़ोसी के घर में झाँक रहे हैं और पड़ोसी के सारे झूठे दावों की पोल खुलती जा रही है. उपनिवेश और पश्चिममोह भारतीय समाज पर एक लम्बे समय से हावी रहा है. सभ्यतागत श्रेष्ठता और महिलाओं की बेहतर स्थिति के दावों ने यूरोप को हमेशा अगले पायदान पर रखा है. लेकिन नेटफ्लिक्स पर इस समय कई ऐसी वेब सीरीज हैं जो यूरोपीय समाज की इस आदि प्रगतिशील छवि को चुनौती देती हैं.

इस मामले में सबसे गहरी छाप ब्रिजर्टन छोड़ता है. ब्रिजर्टन जूलिया क्वीन की इसी नाम की उपन्यास श्रृंखला पर आधारित सीरीज है जिसके निर्माता क्रिस वान डूसन हैं. उन्नीसवीं शती के आरंभिक दशकों के लन्दन के कुलीन समाज, उसके तौर-तरीकों, परिष्कृत अभिरुचियों, भव्य नृत्य समारोहों के बीच युवक-युवतियों के बीच पनपता प्रेम इस सीरीज की मुख्य थीम है. बेहतरीन किस्सागोई से इतर जो बात किसी भारतीय महिला दर्शक को इस सीरीज के बारे में सबसे ज्यादा आकर्षित करती है वह यह कि, लो जी! यह केवल हमारी मम्मियां नहीं हैं जो दहेज़ और शादी की चिंता और चरित्र की शुचिता में मरी जा रही हैं, यही हाल तो कमबख्त इनके यहाँ भी रहा है! हालांकि रीजेंसी युग पर आधारित इस वेब सीरीज में ऐतिहासिक तथ्यों के मामले में खासी छूट ली गयी है लेकिन समाज का चित्रण काफी हद तक सटीक है. इस सीरीज में यह दिखाया गया है कि रीजेंसी युगीन लन्दन में लड़कियों की शादी के लिए ‘डॉवरी’ कितनी बड़ी चुनौती थी. फैदरिंगटन परिवार की लेडी फैदरिंगटन बेटियों की शादी और ‘डॉवरी’ के जुगाड़ के लिए हर संभव चालाकियां करती दिखाई गयी हैं. इस लोकप्रिय वेब सीरीज की काफी आलोचना इसलिए तो हुई कि इसमें महारानी शारलात को अफ्रीकी मूल का बताया गया है और समाज का चित्रण तुलनात्मक रूप से आधुनिक है, लेकिन शादी और डॉवरी वाले मसले पर कोई विवाद उठा हो, ऐसा नहीं है.
वैसे भी यह तो ऐतिहासिक सच है कि जब पुर्तगालियों ने राजकुमारी कैथरीन का विवाह इंग्लैंड के चार्ल्स द्वितीय से किया तब ब्रितानियों को बंबई दहेज़ में मिली. मतलब कि अंग्रेज़ दहेज़ लेते भी थे और देते भी थे, और यह यूरोप का आम-चलन था लेकिन भारतीय इतिहास में अंग्रेजों का आगमन और समाज-सुधार और भारतीय महिलाओं की स्थिति ऐसे चित्रित होती है जैसे कि सबसे दबी-कुचली भारतीय स्त्रियाँ ही थीं और अंग्रेज़ न आए होते तो न जाने भारतीय महिलाओं का क्या होता! यूरोपीय समाज में महिलाओं की स्थिति भारतीय महिलाओं से कतई बेहतर नहीं थी. रीजेंसी कालीन लन्दन में पहली बार जब १८३२ में निश्चित संपत्ति के मालिक सामान्य पुरुषों को वोट करने के अधिकार मिले तब महिलाओं को इससे मरहूम रखा गया और इसके लगभग सौ सालों बाद महिलाओं को वोट का अधिकार मिला. इस तरह ब्रिजर्टन इस मिथक को तोड़ता है कि दहेज़ केवल भारतीय समाज की महामारी थी और यूरोप इससे बरी था.

इसी तरह बेहद लोकप्रिय वेब सीरीज वाइकिंग्स में एक सामंत के शव के साथ उसकी दासी को जलते हुए दिखाया गया है. वाइकिंग जिन्हें अरब ‘रूस’ भी कहा करते थे, उनमें प्रभुत्वशाली सामंतों के शव को बड़ी-बड़ी नावों में पूरे साजो-सामान के साथ जलाने की प्रथा थी. दासी को शराब पिला कर नाव पर पूरे साजो-सामान और सामंत के शव के साथ जलाया जाता था ताकि वह अपने मालिक का साथ दूसरी दुनिया में भी दे और मनोरंजन करे. इस आशय का सन्दर्भ मध्ययुगीन अरब लेखक अहमद इब्न फादलान ने दिया है. हालांकि फादलान का यह रिसाला ९ वीं शती का है और इस लिहाज से यह काफ़ी पहले की बात ठहरती है. लेकिन स्टेक पर बाँध कर स्त्रियों को ज़िंदा जलाने का कानूनी दंड विधान ब्रिटिश कॉमन लॉ के तहत आरंभिक आधुनिक काल तक प्रचलन में था.
हेरेसी, हाई ट्रीजन, पेटी ट्रीजन के मामलों में स्त्रियों को ज़िंदा जलाया जाता था. कॉमन लॉ के तहत अपराधों के मामले में यह दंड तो था ही लेकिन विच हंटिंग और विच ट्रायल के नाम पर ब्रिटेन समेत पूरे यूरोप में हजारों-हजार औरतों को ज़िंदा जलाया गया. १७३५ में विचक्राफ्ट एक्ट के लागू होने के बाद ग्रेट ब्रिटेन में विच हंटिंग पर कानूनी प्रतिबन्ध लगाया जा सका. जो ब्रिटिश अपने यहाँ कुछ दशकों पहले तक औरतोंं को लगभग हर बात में स्टेक पर बाँध कर ज़िंदा जला देते थे उन्हें भारतीय सती प्रथा काफी शर्मनाक लगी वह भी तब जब सती प्रथा का स्वरूप अखिल भारतीय नहीं था. ऐसा कहने का आशय यह कतई नहीं कि भारतीय सती प्रथा को प्रतिबंधित करना सराहनीय नहीं था. ऐसा कहने के पीछे आशय बस यह है कि गोरे साहब के कन्धों पर अन्य समाजों को सभ्य बनाने का जो तथाकथित बोझ था, वह कितना मनगढ़ंत था!

यह दीगर बात है कि यूरोप में ईसाई महिलाएँ कभी परदे में नहीं रहीं, घर की चहारदीवारी में सीमित नहीं रहीं और इस मामले में भारतीय समाज दकियानूस रहा, भले ही उसकी जो भी वजह रही. लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि यूरोप में स्त्रियाँ बहुत सुखी थीं. ऐसा कहने का एकमात्र आधार इंग्लैंड की बहुतेरी महारानियों का खौफ़नाक अंत है. इंग्लैंड के राजा हेनरी 8 की 6 महारानियों को ही लें. इन ६ महारानियों में केवल दो सौभाग्यशाली रहीं. जबकि दो, अरोगोन की कैथरीन और क्लीव्स की ऐनी को हेनरी ने तलाक दिया. बाकी दो, ऐन बोलेन और कैथरीन होवार्ड का सिर धड़ से अलग कर व्यभिचार के आरोप में इन्हें मौत के घाट उतार दिया गया. ऐन बोलेन इंग्लैंड की पहली महिला शासक एलिजाबेथ प्रथम की माँ थी. ऐन बोलेन पर कई डॉक्यूमेंट्री बन चुकी हैं, जिनमें से एक इसी नाम से नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है. ट्यूडर राजवंश पर इसी नाम से बनी वेब सीरीज में भी इन घटनाओं को विस्तार में दिखाया गया है. भारतीय इतिहास में ऐसा कोई वाकया याद करना मुश्किल है जब व्यभिचार के आरोप में या वैसे भी किसी रानी का सिर कलम किया गया हो.
हालांकि यह तर्क भी दिया जा सकता है कि जब भारतीय महिलाओं और यहाँ तक की रानियों को हरम की चहारदीवारी से बाहर निकलने की सहूलियत ही नहीं थी तब सिर कलम करने की नौबत आती भी कहाँ? लेकिन यह सवाल करते ही मुझे फिर से बनारस के ईसाई मिशनरी पादरी रेवरेंड विलियम बायर और उनके पत्र याद आने लगते हैं. उत्तर भारत के गंगा किनारे की बात करते हुए अपने तीसरे पत्र में मिशनरी काम में भारतीय महिलाओं के कारण आ रही मुश्किलों का बयान करते हुए बायर साहब भारतीय स्त्रियों के बारे में बहुत सी शिकायतें करते हैं, लेकिन ये शिकायतें किसी तारीफ़ से कम नहीं लगतीं. परदे में रहने और आधुनिक ढंग की शिक्षा न मिलने के बावजूद इनका जैसा चित्रण बायर साहब ने किया है, उसके हिसाब से ये भारतीय महिलाएँ खासी दबंग लगती हैं. भारतीय महिलाओं का हाल बायर साहब की ज़ुबानी कुछ यूं है-
“भारतीय स्त्री समाज ईसाईयत के प्रचार-प्रसार में अगली सबसे बड़ी बाधा है. भला या बुरा दोनों ही करने में ये स्त्रियाँ बहुत प्रभावशाली हैं.”
लगभग खीझते हुए अंदाज में पादरी साहब आगे कहते हैं,
“लेकिन दूसरों का भला करने की बजाय बुरा करना इन महिलाओं को ज्यादा सुहाता है भले ही इनकी अपनी खुद की स्थिति ऐसी है कि किसी अच्छाई के दर्शन इन्हें शायद ही कभी हो सकें!”
यहाँ किसी अच्छाई से बायर साहब का स्पष्ट आशय गास्पेल से है. इस ‘अच्छाई’ को कई अन्य रूपों जैसे पर्दा प्रथा से मुक्ति, शिक्षा, विधवा विवाह आदि से न समझिए.
बायर आगे बताते हैं कि
“महिलाओं की आबादी का एक बड़ा हिस्सा पर्दे में रहता है और पुरुष समाज और सार्वजनिक स्थानों पर कभी उपस्थित नहीं होता. हालांकि नीची जात की स्त्रियों को जनसामान्य के बीच आवाजाही की सुविधा है लेकिन वे भी बीच-बाजार पुरुषों की संगत में खड़े होने की आदी नहीं और सत्य (गास्पेल) की पुकार सुन शायद ही कभी पलटती हों. इसलिए हम केवल पुरुषों को ही गास्पेल का सच सुना पाते हैं. अगर इन पुरुषों के दिलो-दिमाग़ पर गास्पेल की कोई छाप पड़ती है तो घर जाते ही उनकी पत्नियां सारी मेहनत पर पानी फेर देती हैं. इस तरह स्त्री समाज का सारा प्रभाव हमारे विरोध में आ खड़ा हुआ है. वैसे भी देश कोई हो, हर जगह की महिलाएँ अन्धविश्वासी हैं. उनके पूर्वाग्रह पुरुषों से ज्यादा कट्टर होते हैं. स्त्रियों को ऐसे मौके भी लगभग न के बराबर मिलते हैं जब उनका मन–परिवर्तन हो सके. इस तरह समझा जा सकता है कि स्त्रियाँ किस तरह हमारे राह की सबसे बड़ी मुसीबत हैं.
कुछ लोग ऐसा सोच सकते हैं कि ऐसे देश में स्त्रियों का प्रभाव क्या ही होगा जहाँ उन्हें न तो शिक्षा मिलती है और न ही लोगों के बीच सामूहिक स्थानों पर उपस्थित होने की अनुमति है, लेकिन ऐसा सोचना भूल है. हिन्दू पुरुष अपने घर की स्त्रियों के पूरे प्रभाव में रहते हैं. उच्च जातियों में तो यही स्थिति है. इतना ही नहीं, राजनीतिक मामलों में भी औरतोंं का गहरा दखल है. कुछ महिलाएँ ऐसी हैं जिनके चेहरे किसी ने नहीं देखे लेकिन राज-काज के मामलों में अगुआई करने के लिए विख्यात हैं. निचले तबके के पुरुष अक्सर यह दुहाई देते मिल जाते हैं कि अगर उसकी पत्नी, माँ या बहन ने नहीं रोका होता तो वे क्या-क्या कर चुके होते! यह हाल तब है जब हिन्दू शास्त्रों में लिखा है कि स्त्रियों से सलाह कभी नहीं लेनी चाहिए. आम जीवन में भी लोग ये उक्ति दोहराते मिल जाते हैं. लेकिन इस बात का हकीकत से कोई वास्ता नहीं है, इस मामले में किसी भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए!
जनानखाने में स्त्रियों की ज़बान पर लगाम लगाना हिन्दू पुरुषों की प्रवृत्ति नहीं रही है. भले ही हिन्दुओं ने ये रिवाज़ मुसलमानों की देखा-देखी अपनाया हो या फिर आक्रान्ताओं से अपनी स्त्रियों को बचाने की मज़बूरी में, लेकिन इस बदतर हालत के बावजूद महिलाओं का हिन्दू समाज में खासा प्रभाव हमेशा से रहा है और आज भी है. लेकिन यह प्रभाव ही गास्पेल की राह में सबसे बड़ी बाधा है. अंधविश्वास बनाए रखने और बढ़ावा देने में इस देश की महिलाएँ कितनी तेज़ हैं यह इस बात से समझा जा सकता है कि इन महिलाओं ने कई यूरोपियों का धर्म परिवर्तन करा दिया है. इनमें से कई तो खासे पढ़े-लिखे और प्रतिष्ठित पद पर थे लेकिन यहाँ की महिलाओं के ऐसे प्रभाव में आए कि अपना धर्म बदलने में शर्म नहीं आयी.
एक दूसरी बात भी है जिसे यूरोप में कोई स्वीकार नहीं करेगा. भारत में अंग्रेज़ गंगा में डुबकी लगाने, पूजा–पाठ करने, संस्कृत मंत्र उच्चरित करने और वे सारे अनुष्ठान करने के लिए प्रसिद्ध हैं जो कि ब्राह्मण करते हैं, और यह सब इन हिन्दुस्तानी महिलाओं के प्रभाव के कारण है. हालांकि यह सब अब काफी कम हो गया है, लेकिन मैंने यह सब अपनी आँखों से देखा है. अगर इन महिलाओं को गास्पेल सुनने का बराबरी का मौका मिले तो संभव है कि इनका प्रभाव इनकी खुद की स्थिति सुधारने में कारगर होगा.
ये महिलाएँ खासी तीव्र, स्फूर्त और ग्रहणशील हैं. एक राजकुमार ने पूर्वाग्रह त्याग कर एक बार धर्म पर बात करने के लिए अपनी धर्मपत्नी से मेरा परिचय कराया. उस नवयुवती की प्रतिभा और तत्वज्ञान से मैं आश्चर्य में पड़ गया. वह युवती निश्चित रूप से अन्य देशी महिलाओं से ज्यादा प्रतिभाशाली थी और धर्म का उसका ज्ञान प्रकांड पंडितों की कोटि का था. लेकिन इस बात की आशा नहीं की जा सकती कि वह युवती अपने प्रभाव का इस्तेमाल अपने घर में सच्चे धर्म (गास्पेल) के प्रसार के लिए करेगी. हालांकि वर्तमान में महिलाओं को गास्पेल के ज्ञान की सबसे ज्यादा जरूरत है क्योंकि सबसे ज्यादा पददलित वे ही हैं लेकिन इस बुराई से हम अभी पार नहीं पा सके हैं. हालांकि जैसे-जैसे नेटिव ईसाइयों की संख्या बढ़ेगी, यह स्थिति बदलेगी, और बहुत सारी शिक्षित ईसाई महिलाओं का उदय होगा और जिनकी पहुँच जनाने तक होगी तब आशा की जा सकती है कि महिलाओं की यह सूरत बदलेगी.”
तो कुल मिलाकर अगर पादरी साहब की माने तो भारतीय हिन्दू महिलाएँ खासी प्रभावशाली थीं. घर की चहारदीवारी में परदे के पीछे से वे घर और परिवार तो चलाती ही थीं, साथ ही राजनीति में भी दखल रखती थीं. पादरी साहब ये जितनी शिकायतें करते हैं, उनकी तसदीक मेरी दादी करती है. पादरी साहब ने जो तस्वीर बयान की है, वह पादरी साहब से लगभग डेढ़ सौ साल बाद मैंने अपने घर-खानदान में हकीकत में देखी-सुनी है. बीसवीं शती के चौथे दशक में जन्मी मेरी दादी आज़ाद भारत की आबोहवा में जवान हुई. मिडिल स्कूल तक की पढ़ाई और मास्टरनी बनने की संभावनाएँ पीछे छोड़ १६ साल में ६० लोगों के संयुक्त परिवार में सबसे छोटी बहू बन कर आयीं. हमारे गाँव-घर में महिलाओं को उनके मायके के गाँव के नाम से बुलाया जाता था.
दो फीट चौड़ी मिट्टी की दीवारों पर पटरों की छत डालकर बने दो मंजिला बड़े मकान में घर की सारी महिलाएँ, बेटियाँ और बच्चे रहते थे, पुरुष घर से बाहर मरहड़ा में रहते थे. केवल खाना खाने और रात में सोने के लिए उनका घर में आना होता था. यह कहने की जरूरत नहीं कि घर की महिलाएँ घूँघट में रहती थीं लेकिन लड़कियों को हर तरह की छूट थी. घर की महिलाओं के बीच पदानुक्रम था, बहुएँ सास को और देवरानी, जेठानी को पलट कर जवाब नहीं दे सकती थीं. लेकिन लोकप्रिय सिनेमा से इतर हमारे घर की महिलाओं में एकता बहुत थी. पुरुषों की अनबन से बच्चे और महिलाएँ अप्रभावित रहते थे. घर के पुरुष महिलाओं का सम्मान करते थे. घर की सबसे बड़ी स्त्री का दबदबा पूरे परिवार पर होता था. मेरी दादी जो कभी घर की छोटी बहू थी वह एक समय के बाद सबसे उम्रदराज बचीं और घर की मुखिया हुईं. घर के पुरुषों पर दादी का रुतबा था और उसकी बात मानी जाती थी. और हाँ, तब दादी घूंघट नहीं करती थी. मेरी माँ ने घर-बाहर घूंघट करना तब बंद किया जब दादी की मृत्यु हुई और वह घर-भर की महिलाओं में ज्येष्ठ बचीं.
कुल मिलाकर पादरी साहब ने जो कुछ भी बयान किया, पादरी साहब से डेढ़ सौ साल बाद भी अपने घर-परिवार के बारे में मुझे सौ प्रतिशत सही लगा. यह बात अलबत्ता है कि मैं इस मामले में किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पाती कि मेरे घर की महिलाओं की स्थिति अच्छी थी या बुरी, वे सशक्त थीं या अशक्त! पादरी साहब का यह बयान उन्नीसवीं शती के मध्य का है जबकि मेरे परिवार की महिलाओं की यह हकीकत उनसे डेढ़ सौ साल बाद की है. मतलब कि भारतीय परिवारों में डेढ़ सौ सालों में कुछ नहीं बदला? और मामला जस का तस बना रहा? जबकि इन डेढ़ सौ सालों में यूरोप में स्त्रियाँ कहाँ से कहाँ पहुँच गयीं.
पादरी साहब के पास भारतीय महिलाओं की स्थिति सुधारने का एक मात्र उपाय उन तक गास्पेल का सच पहुंचाना था. जग जाहिर है, पादरी साहब का यह प्रयास कम से कम उत्तर भारत में गंगा किनारे तो सफल नहीं रहा और न ही महिलाओं की हालत में कुछ ख़ास सुधार हुआ जैसा पादरी साहब चाहते थे. ब्रिटिश साहबों ने और बाद में चले सुधार आन्दोलनों ने जरूर भारतीय स्त्रियों का कुछ भला किया था. जैसे कि मेरी दादी पारंपरिक ज्ञान के साथ-साथ मिडिल स्कूल तक पढ़ी थीं. उपनिवेशन और संबंधित सामयिक बदलावों ने भारतीय पारिवारिक संरचना को बदला. हमारा संयुक्त परिवार भी टूटा और हम भाई-बहनों की परवरिश शहर में एकल परिवार में हुई. गाँव के संयुक्त परिवार के किस्से सुनते शहर के अकेलेपन में हम भाई-बहन बड़े हुए. बहुत सारे बदलाव सुधारों के तहत हुए, बहुत सारे आधुनिकता के नाम पर.
पर मेरी माँ जो परास्नातक थीं, उन्हें शहर में हर कोई उनके नाम से जानता था.
![]() ‘भक्ति परम्परा का प्राच्यवादी पाठ’ 2018 में नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित. |
यूरोप के बरक्स भारतीय महिलाओं की घर में सीमित स्वायत्त स्थिति पर आपने रोचक अंदाज़ में लिखा है.
लेख में आपने लिखा है – ‘अगर एँटरटेनमेंट इंडस्ट्री अपने पाँव इतनी न पसारती तो क्या नेटफ्लिक्स के संभव होने की भूमिका बन पाती?’
सामग्री की सहज उपलब्धता निरंतर बढती गयी है. टोरेंट और पाइरेट बे ने जो काम प्रतिलिप्याधिकार कानूनों के उल्लंघन से किया वो अब मनोरंजन उद्योग कम मूल्य पर कर रहा है. क्लासिफाइड दस्तावेज़ों के अतिरिक्त सब कुछ उपलब्ध हो रहा है. मुझे लगता है ‘मनोरंजन उद्योग’ का इस रूप में ‘पांव पसारना’ ही अपने आप में बडी घटना है. इसके बाद “नेट्फ्लिक्स’ को तो सम्भव होना ही था.
आत्मपरकता और सांस्कृतिक महिमामंडन की प्रवृत्ति का आंतरिकीकरण कर यदि घरों में भारतीय स्त्री की उपस्थिति को देखें तो वह बेहद गरिमामयी, कमांडिंग और दैवी लगती है, पर वास्तविकता पर्दे की पीछे छुपी है और बिल्कुल उलट है । भारत समेत पूरे संसार में पितृसत्ता ने उसे समान रूप से पराधीन बनाया है।
उन्नीसवीं सदी में पं० रमाबाई ‘हिन्दू स्त्री का जीवन’ और बीसवीं सदी में अज्ञात हिदू महिला ‘सीमंतनी उपदेश’ में भारतीय स्त्री के नारकीय जीवन का छुपा पक्ष सामने लाती हैं तो वर्जीनिया वुल्फ ब्रिटिश पितृसत्ता के स्त्री-द्वेषी चेहरे को और सीमोन द बउवार सेकेंड सेक्स में फ़्रांसीसी स्त्री की कशमकश को। स्त्रियाँ हरम में हों या गृहस्थी के आंगन में या खेतखदान में, हर जगह हर देश-काल में वस्तु की तरह ट्रीट की जाती रही हैं। आज ढेर से कानूनी अधिकारों और शिक्षा- अभिव्यक्ति की आज़ादी के बावजूद उसकी आवाज़ अनसुनी कर दी जाती है। इसलिए मुझे लगता है कि परतंत्रता/सम्मान को निकष बनाकर दो देशों की स्त्री-स्थिति में तुलना करने की बजाय यह विचारना ज्यादा ज़रूरी है कि कैसे ग्लोबल समाज ने एक-दूसरे के प्रभाव/ सहयोग से समय की निरंतरता में तमाम अंतर्विरोधों और अवरोधों के बावजूद स्त्री-मुक्ति, चेतना सहभागिता के लिए प्रयास किए। यदि सती प्रथा की समाप्ति के लिए ब्रिटिश शासन ने सहयोग दिया तो इसे ब्रिटिशर्स का दोहरापन कैसे माना जा सकता है? यह नहीं भूलना चाहिये कि वह समय अमेरिका, फ्रांस सहित ब्रिटेन आदि देशों में भी स्त्री के मानवाधिकारों की मानीखेज लड़ाई लड़ रहा था।
यूं भी
वैचारिक/ समाजशास्त्रीय साहित्य की अपेक्षा फ़िल्में रिएलिटी की बजाय भावनाओं के उद्दीपन पर ज़्यादा केंद्रित रहती हैं ताकि मुनाफा कमाया जा सके। हिंदी सिनेमा के पुराने गाने जिस मधुर संगीत के साथ स्त्री के ऑब्जेक्टिफिकेशन को मूल्य का दर्जा देते हैं, उनके गंभीर निहितार्थों को तभी जाना जा सकता है जब गीत के लिरिक्स को मेलोडी से मुक्त कर स्वतंत्र विचार किया जाए।
टिप्पणी के लिए धन्यवाद रोहिणी जी। आपकी टिप्पणी में मुख्यतः चार बिंदुओं की ओर इशारा है जिस पर मैं कुछ बातें रखना चाहूंगी,
1. भारतीय हिंदू स्त्रियों के बारे में गरिमामयी, कमांडिंग और दैवीय लगने वाला यह ऑब्जरवेशन पादरी रेवरेंड विलियम बायर का है। मैंने स्वानुभव के आधार पर इसकी तस्दीक मात्र की है।
2. ‘भारत समेत पूरे संसार में पितृसत्ता ने स्त्रियों को पराधीन बनाया है’ मैं इस वक्तव्य से सहमत नहीं हूं। भारत का ही उदाहरण लें तो पूर्वोत्तर के राज्य और केरल परंपरागत रूप से मातृ -प्रधान समाज रहे हैं। यहूदी समाज भी मातृ -प्रधान है, यहूदियों में ब्लड -लाइन मां से चलती है ना कि पिता से। वर्जीनिया वुल्फ के पति यहूदी थे और वह इस नाते उनसे कभी-कभी घृणा भी करती थीं। समाज को स्याह और सफेद के खांचे में बांटकर देखना उसकी जड़ों को कमजोर करता है। सामान्यीकरण से बचना विमर्श के हित में है। पितृसत्ता मात्र ने स्त्री को वस्तु नहीं बनाया, स्त्री को वस्तु बनाने में पूंजी और बाजार का उससे बड़ा हाथ है।
3. यह बात आपने बहुत सुंदर कही कि वैश्विक समाज ने एक दूसरे के सहयोग से स्त्री मुक्ति के संदर्भ में जो साझा प्रयास किए हैं उन पर जोर देना ज्यादा अर्थपूर्ण है। लेकिन माफ़ करिए, 200 सालों में ब्रिटिश उपनिवेशन ने भारतीय समाज का केवल भला किया, मैं इस बात से इत्तेफाक़ क़तई नहीं रखती। ब्रितानियों ने न केवल उपनिवेशितों बल्कि महिलाओं और कैथोलिकों के संदर्भ में हमेशा दोहरे मानक अपनाए हैं। भारत में सती प्रथा पर बैन 1829 में लगाया लेकिन अपने यहां स्त्रियों को वयस्क मताधिकार 1928 के पहले ना दिया। और जब स्त्रियों को अपने यहां वयस्क मताधिकार 1928 में दे दिया तब भी उपनिवेशित भारत में वही समान अधिकार भारतीय स्त्रियों को नहीं दिया। अभी कुछ दशकों पहले तक ब्रिटेन में कैथोलिकों को दोगुना कर भरना होता था, इस बात का जिक्र शायद ही कोई करे। यह दोहरापन नहीं तो क्या है ?
4. उपनिवेशन और मानसिक गुलामी ने भारतीय समाज सहित स्त्रियों की स्थिति किस तरह और जटिल बनाई, इसे समझने के लिए भी बारीक नज़र चाहिए। क्या उपनिवेशन पूंजी का खेल नहीं था? क्या इस पूंजी केंद्रित बाज़ार ने स्त्रियों को वस्तु नहीं बना दिया है? क्या जो महिलाएं पहले केवल घर का काम करती थीं, वह अब घर और ऑफिस के दोहरे तनाव से जूझते हुए पार्लर में अपने ऊपर कुछ पैसे उड़ाकर खुशी महसूस करती हैं, क्या सच में वही स्त्री की स्वतंत्रता है? स्त्री की स्वतंत्रता के मायने क्या हैं ?
5. मैं ज़ोर देकर कहना चाहूंगी कि स्त्री और पुरुष कभी भी एक दूसरे के दुश्मन ना थे, ना हैं, और ना होंगे! हमेशा से यह सामाजिक व्यवस्था और बाजार है जिसने निर्णायक भूमिका निभाई है। वर्जीनिया वुल्फ ‘एंड्रोगाइनिज्म’ में विश्वास करती थीं और सीमोन-दी-बोउआ ने कभी भी अपने लिए स्त्रीवादी विमर्शकार का संबोधन स्वीकार नहीं किया। जूलिया क्रिस्तेवा द्वारा वर्णित सेकेंड-वेव फेमिनिज्म़ का दौर बीत चुका है और फ्रेंच फेमिनिज्म़ के असली मायने केवल लुसी इरीग्रे के लेखन तक ही सीमित नहीं हैं।
6. आलेख में जिन वेब सीरीजों का उल्लेख किया गया है वे मात्र कल्पना पर आधारित नहीं है, वे ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और तथ्यों का पुनर्सृजन हैं। आलेख में उल्लिखित कोई भी तथ्य अनैतिहासिक नहीं है। ओटीटी जैसे लोकप्रिय माध्यम से आम लोगों के बीच इन ऐतिहासिक तथ्यों का प्रेषित होना बहुत सारे मिथकों को बड़े स्तर पर तोड़ता है अन्यथा यह सारी बातें इतिहास की किताबों का संदर्भ देकर भी की जा सकती हैं। लेकिन इतिहास की किताबों की जनमानस तक न तो उतनी पहुंच है और न ही उतना प्रभाव जितना कि इन हिस्टोरिकल ड्रामाज़ का है।
और अंत में, मेरे आलेख का आशय स्त्रियों की दुर्दशा का समर्थन किसी भी हाल में नहीं है। निश्चित रूप से हाथ से हाथ मिलाकर हर विपरीत परिस्थिति का सामना करते हुए अपनी राह बनाना स्त्री समाज के लिए अपेक्षित है।
समृद्ध आलेख तृप्ति जी,इस लेख को पुनर्जागरण के दौर में यूरोपीय स्त्रियों की वास्तविक सामाजिक सांस्कृतिक की दिशा में विकसित किया जा सकता है।बधाई
संजय जी, आपने बिल्कुल ठीक कहा कि पूंजी आधारित मनोरंजन उद्योग का पांव पसारना अपने आप में एक बड़ी घटना है। मेरा जोर भी इसी बात पर है कि यदि उदारीकरण, बाजारीकरण और वैश्वीकरण ने पूंजीवादी रंगमंच न सजाया होता तो नेटफ्लिक्स और अन्य ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की सूरत ना बन पाती। यह कहते हुए मैं पूंजी की भूमिका पर ज़ोर देना चाह रही हूं। यह सही है कि टॉरेंट, पायरेट-बे और यू-ट्यूब के बाद ओटीटी जैसे प्लेटफॉर्म्स की भूमिका ख़ुद-ब-ख़ुद बन गई थी। आपने टॉरेंट और पायरेट-बे का बहुत अच्छा ज़िक्र किया, बहुत सारे लोग आज भी ओटीटी पर पैसे जाया नहीं करते।
आलेख सूचनाप्रद है और कई कोनों से पढने-समझने लायक. इसमें एक प्रकार से पाश्चात्य और प्राच्य समाज में महिलाओं की तत्कालीन और वर्तमान स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन की प्रस्तुति हुई है.अतीत के झरोखे से देखें तो पाश्चात्य जगत की तथाकथित प्रगतिशीलता का रहस्योद्घाटन हुआ है. प्रशंशनीय काम.
भावी शोधर्थियों को नए नजरिए से सोचने -समझने के लिए प्रेरित करने में समर्थ गंभीर शोध-आलेख.
लेखिका को धन्यवाद.
यूरोप में पुनर्जागरणकालीन स्त्री ने मध्यकालीन सामंती समाज से प्राक- आधुनिक राष्ट्र राज्य
तक जो रास्ता तय किया उससे परिवार और राजनीति की संरचना में आमूल
बदलाव देखे गए।इस दौर में स्त्री नैतिकता के नए प्रतिमान गढ़े गए,बोकाशियो और
अरस्तू जैसे विचारकों ने स्त्रियों के लिए दैहिक शुचिता,मानसिक पवित्रता को
अनिवार्य जीवन मूल्यों के रूप में घोषित कर दिया। साथ ही पब्लिक स्फियर में
पुरुष की श्रेष्ठता को बारम्बार स्थापित करने का प्रयास किया गया और ऐसे सब
मामले जिनमें नीति-निर्धारण या नेतृत्व की ज़रूरत नहीं होती,उनमें स्त्रियों को
स्थान दिया गया।रेनेसां के सम्पूर्ण विचार में स्त्री के लिए घरेलू देवदूती की भूमिका
तजवीज़ की गयी,एथेंस को इसके उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है जहां कला
और बौद्धिकता के उत्कृष्ट माहौल में भी स्त्रियों के लिए घर की चारदीवारी को ही
सबसे उपयुक्त स्थान माना जाता था।समूचे दरबारी साहित्य में स्त्रियों के प्रति
रुढ़िग्रस्त मानसिकता के दर्शन होते हैं,जिसके पीछे सामाजिक -सांस्कृतिक कारणों
को देखा जा सकता है।११ वीं और १२ वीं शताब्दी में दरबारों में जो प्रेम सम्बन्धी
काव्य दांते जैसे कवियों ने लिखा उससे एक नई तरह की साहित्यिक परंपरा की
शुरुआत हुई,जिसने मध्यकालीन प्रेम -सम्बन्धी अवधारणाओं और वर्जनाओं की
जगह प्रेम और नैतिकता का एक नया ही आदर्श सामने रखा। इससे पहले की
दरबारी कविता सामंतशाही मूल्यों से संत्रस्त कविता थी,जिसमे किसी अधीन या
किसान स्त्री की कामना करने वाले सामंत को प्रेरित करने वाले स्रोत थे,इस सन्दर्भ
में कुलीन या सामंत के लिए कोई नैतिक बंधन नहीं था,दूसरी तरफ स्त्री के लिए प्रेम
का अर्थ था -कि वह प्रेमपात्री बनकर ही खुश रहे और प्रेमी की प्रत्येक इच्छा का
सम्मान करे ,उसे प्रसन्न रखे’-दरबारी प्रेम दरअसल प्रेमियों के बीच पारस्परिक
स्वच्छन्दता की वकालत करता था।लेकिन दूसरे ढंग से देखें तो इस तरह का प्रेम
आभिजात्य और कुलीन स्त्रियों को ही प्रेम करने करने का अधिकार देता था,जबकि
अधीनस्थ और गरीब स्त्रियाँ प्रेम पात्र बनकर और ज्यादा अधीनस्थ बन जाती थीं।
दरअसल दरबारी किस्म के प्रेम में अधीनता के कई आयाम थे -सबसे पहले तो स्त्री
को घरेलू और पालतू बनाना,जिसके लिए भले ही स्त्री के आगे घुटने टेककर प्रेम की
भिक्षा मांगनी पड़े,या विनम्रतापूर्वक प्रेम -निवेदन करना।दूसरे स्त्री को ऐसे
भावात्मक नियंत्रण में रखना कि वह स्वतंत्रता की कल्पना भी न कर सके और प्रेम
का यथोचित प्रतिदान देने के लिए निरंतर प्रस्तुत रहे।तीसरे उससे इस योग्य बनाना
कि वह पति /प्रेमी के प्रति कर्तव्यशील,पवित्र और ईमानदार रहे,जबकि सामंत या
जमींदार और स्त्री के सम्बन्ध एकरैखीय नहीं हो सकते थे। पितृसत्तात्मक व्यवस्था
की आवश्यकताओं के अनुरूप ये सम्बन्ध बदलते रहते थे,और इस तरह दरबारी-
प्रेम दाम्पत्य संबंधों से बिलकुल अलग और स्वतंत्र हुआ करते थे।पारिवारिक सम्बन्ध
अपनी गति और सीमा में चलते रहते थे, उनका सामंत की अन्यान्य प्रेमिकाओं से
कोई लेना -देना नहीं होता था।एक सामंत की एकाधिक प्रेमिकाएं हो सकती थीं और
वह पत्नी से यौन शुचिता की अपेक्षा रखता था ,वहीँ प्रेमिका से इस तरह की मांग
करना संभव नहीं था क्योंकि विवाहेतर प्रेम अलग था और वह विवाह -संस्था को
कहीं से भी ध्वस्त नहीं करता था।लेकिन कलात्मक सृजन के लिए विवाहेतर सम्बन्ध
ही महत्वपूर्ण विषय बना।ऐसा नहीं था कि इससे विवाह संस्था नितांत अप्रभावित
ही रही ,लेकिन उसकी चरमराहट और टूटन सामंतशाही के अंतर्गत अति सामान्य
प्रवृत्ति के रूप में पहचानी गयी।सवाल यह है कि ऐसे सम्बन्ध आखिर ‘अवैध’माने
जाने के बावजूद समाज में चलते कैसे रहे?इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि
विवाह एक ऐसा सम्बन्ध था जो दूसरों के द्वारा स्थिर किया हुआ होता था
,सामाजिक जीवन के निर्वहन के लिए विवाह को ज़रूरी माना गया। चर्च द्वारा भी
विवाहेतर संबंधों को हीन माना जाता था लेकिन इस तरह के दरबारी प्रेम
(courtly love) या विवाहेतर संबंध को वैधता भी प्रदान की। ईसाइयत में प्रचलित
प्रेम की अवधारणा ने इसे परिपुष्ट भी किया।ईसाईयत में प्रेम को सर्वोपरि माना
गया और प्रेम की उद्दात्तता में यौनेच्छा का विरेचन करने पर बल दिया गया।धीरे-
धीरे विवाहेतर संबंधों में प्रेम और सेक्स का मिश्रण हो गया और ईसाईयत के
उपदेश किसी काम न आ सके और ऐसे संबंधों पर सामन्ती समाज की खलबलियाँ
मंद पड़ने लगीं।धन और साधन संपन्न लोग चर्च के उपदेशों को उसी सीमा तक
ग्रहण करते थे, जिस सीमा तक वह उनके निहित हितों के साधन में सहायक था।
जान केली के अनुसार दरबारी प्रेम के स्वरुप में निरंतर बदलाव आते रहे ।बारहवीं
शताब्दी के दौरान इस तरह का प्रेम और आकर्षण दरबारों में हास्य और मज़ाक का
विषय भी बना और बहुत सारा साहित्य विवाहेतर प्रेम संबंधों और प्रसंगों को लेकर
मनोरंजक साहित्य भी लिखा गया।Adultery या अवैध प्रेम संबंधों को लेकर चर्चाएँ
भी खूब हुआ करती थीं.इन सबके बीच स्त्री की चतुराई ,मूर्खता,सौन्दर्यऔर धोखों के
किस्से और चर्चे दरबारों में चर्चा का आम विषय थे।उधर स्त्री से यह अपेक्षित था कि
एक ओर वह विवाह में पति को भी प्रसन्न रखे ,दावतों का आयोजन करे और दूसरी
ओर प्रेमी के प्रति भी समर्पित रहे।शुचिता और नैतिकता के मिश्रण और द्वंद्व में
‘प्रेम’एक आकस्मिक घटना के रूप में सामने आया करता।अवैधता बहुत तरह की
सावधानी की मांग करती थी लेकिन प्रेम ऐसे संबंधों में भी विशुद्ध प्रेम की इरोटिक
प्रकृति से इंकार नहीं किया जा सकता।इसकी अपेक्षा पुनर्जागरण के दौर की स्त्री
अपेक्षाकृत ज्यादा स्वतंत्र हुई।वह प्रेम सम्बन्ध रखने या न रखने के लिए स्वाधीन
थी।स्पष्टत: यह वैचारिक मुक्ति की ओर संकेत करता है, जिसमें स्त्री अपनी इच्छा से
सम्बन्ध रखने की दिशा में कदम बढ़ाती दीखती है। ऐसे बहुत से साहित्यिक साक्ष्य
मिलते हैं जिनमें स्त्री विवाहेतर सम्बन्ध रख रही थी -जिसमें वह स्वेच्छा से
आवाजाही भी कर रही थी ।आदान-प्रदान के सम्बन्ध के बावजूद.क्या ये प्रसंग सिर्फ
साहित्य का विषय थे या सामाजिक परिस्थितियाँ भी स्त्री के प्रति मानसिक
अनुकूलन को बदल रही थीं?लेकिन स्त्री की पवित्रता की पारंपरिक अवधारणा और
पुरुष पर उसकी निर्भरता के बावज़ूद प्रेम संबंधों में स्वच्छंद आवाजाही आश्चर्य पैदा
करती है।विवाहेतर और दरबारी प्रेम सम्बन्ध एक तरह का स्टेटस सिम्बल भी
था,और बहुत प्रचलित था।समूचे मध्यकालीन यूरोपीय साहित्य में परस्त्री प्रेम की
कवितायेँ और श्रृंगार प्रसंग भरे पड़े हैं,यह तभी संभव था जब पितृसत्ता इसे प्रश्रय
और सहयोग देती क्योंकि चर्च की तयशुदा नैतिकता इसके खिलाफ़ पड़ती
थी।हालाँकि शुरूआती दौर में चर्च और पुरुष प्रधान समाज को इस तरह के संबंधों
से कोई दिक्कत नहीं थी,क्योंकि इसमें पुरुष के लिए ढेर स्वतंत्रता थी। दिक्कत तब शुरू
हुई जब स्त्रियाँ भी अपनी यौनिकता को लिए सामने आने लगीं। जहां ईसाईयत का
मूलाधार परदुःख कातरता ,करुणा और प्रेम था,वहीँ साहित्य में ऐसे प्रेमी का करूण
चित्रण होने लगा ,जो अपने मालिक की पत्नी से प्रेम करता है ,निवेदन करता है और
उसके लिए प्राण न्योछावर करने को तैयार रहता है।वह स्वामी को धोखा देता है
पर स्वामिनी की सेवा करने के लिए ,उसकी प्रसन्नता के लिए हरदम तैयार रहता
है।इसतरह का प्रेम वैधता की श्रेणी में नहीं आता था,जो इस बात की तरफ भी
संकेत करता है कि अधिकतर यूरोप में इस दौर में आभिजात्य विवाह-सम्बन्ध किसी राजनैतिक लाभ या
धन के लिए स्थिर होते थे ,जिनमें प्रेम और भावात्मक लगाव का अभाव होता
था.तृप्ति श्रीवास्तव का लेख इस बात की तस्दीक करता है।दरबारी प्रेम को विषय बनाकर
लिखे गए साहित्य से ऐसी भावनाएं विरेचित
भी होने लगीं और पारंपरिक साहित्य से उसकी टकराहट भी बढ़ी।सामंती माहौल में
स्त्री की यौनिक और अन्य आवश्यकताओं में कोई फ़र्क नहीं किया जाता था और
परिवारों की आतंरिक संरचना में धर्म और चर्च का भय भी अंतर्गुम्फित था।दूसरी
तरफ ऐसे सामंती परिवार जहां संपत्ति का उत्तराधिकार स्त्री को मिलता था वहां
पति उसकी पूरी खानदानी संपत्ति की देखभाल और प्रबंधन किया करता था ,ऐसी
स्त्री से विवाह सम्बन्ध बनाने के लिए अच्छे अच्छे परिवारों के व्यक्ति आतुर रहते
थे।पति या प्रेमी से सुने हुए अनुभवों और कभी कभी स्वयं उपस्थित रहकर भी
स्त्रियाँ राजदरबार में कवितायेँ और गीत लिखती थीं -जिनका मूल स्वर रोमांटिक
होता था,रनिवासों और अन्तःपुरों में ऐसे नाटक भी खेले जाते थे जो मुख्यत: प्रेम
पर आधारित होते थे।प्राक-आधुनिक युग आते -आते दरबार सिर्फ दिखावे की चीज़
रह गए थे लेकिन अब भी साधारण स्त्रियों के लिए राजनीतिक सत्ता या नेतृत्वकारी
भूमिका प्राप्त करना दूर की बात थी ,बावजूद इसके कि कुछ स्त्रियाँ सफल शासक भी
हुईं।लेकिन आम तौर पर स्त्री के प्रति समाज का जो रवैया था उसे नोबेलिटी पर
लिखी पुस्तक में देखा जा सकता है जिसमें स्त्रियों से शिक्षित होने के साथ -साथ
अच्छी नृत्यांगना,गायिका,चित्रकार,सुंदरी और आकर्षक व्यक्तित्वशाली बनने की
अपेक्षा की गयी है। इन दिनों स्त्री से अपने आप को ऐसा बनाने की अपेक्षा की
गयी जो दूसरे को प्रसन्नता और जीवन्तता से भर दे।लेकिन आकर्षक दीखना और
आकर्षित करना ये दो बातें थीं -जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण थीं,जबकि दरबारों में
चर्चा का विषय था राजनीति और युद्ध। वह स्त्री जो दरबार में आती -जाती थी
उससे यह अपेक्षा की जाती थी कि वह आकर्षित करे ,लुभाए लेकिन नीति -निर्धारण
या राजनीतिक मसलों पर कोई राय न रखे।उसका युवा और आकर्षक दीखना,हाव-
भाव सञ्चालन में सावधानी बरतना ही ज़रूरी था ,दरबारों में अक्सर पुरुष ही वक्ता
की भूमिका में होते थे और स्त्रियाँ श्रोता.स्त्रियों को कैसा दीखना ,कैसा होना
चाहिए ,इसके बारे में भी पुरुष ही सोचते थे।