पादरी विलियम बायर, नेटफ्लिक्स और मेरी दादी |
पादरी रेवरेंड विलियम बायर ईसाई मिशनरी थे और बनारस कई साल रहे. भारत में ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के दौरान मिल रही चुनौतियों का सामना बायर साहब डट कर करते रहे. इस विषय में वे अपने देश चिट्ठियाँ भेजा करते थे. इन्हीं चिट्ठियों का संकलन १८४० में प्रकाशित हुआ, नाम था ‘लेटर्स ऑन इंडिया: विथ स्पेशल रिफरेंस टू द स्प्रेड ऑफ़ क्रिश्चियनीटी’. मेरी दादी ने बायर साहब की यह किताब नहीं पढ़ी. पढ़ना तो दूर वह इनका नाम भी नहीं जानती थीं. बायर साहब से कुछ सौ साल बाद मेरी दादी जन्मी होंगी, उसके कुछ ५० साल बाद मैं हूँ और फिर है अपना यह नेटफ्लिक्स. नेटफ्लिक्स पर जब भी मैं कोई यूरोपियन हिस्टोरिकल ड्रामा देखती हूँ, मुझे मेरी दादी और पादरी रेवरेंड विलियम बायर अक्सर याद आते हैं.
पादरी रेवरेंड विलियम बायर की किताब और भारतीय स्त्रियों के बारे में दर्ज पादरी साहब के बयानों से जब मैं गुज़रती हूँ तब दादी मेरी अपनी अनुभूत वास्तविकताओं और भारतीय समाज की ज़मीनी हक़ीक़त की गवाह बन कर पादरी की बातों पर मुसकुराती हुई आ खड़ी होती हैं- परिवार की मुखिया के अपने प्रभुत्वशाली रूप में. एक सख़्त माँ, सास और मृदु देवरानी के रूप में.
वैसे तो यूरोपीय कंटेंट स्वतंत्र रूप से भी उपलब्ध हैं लेकिन फिलहाल नेटफ्लिक्स पर यह सहजता और बहुतायत में उपलब्ध हैं. नेटफ्लिक्स की बात करती हूँ तो अर्नाल्ड हाउजर याद आते हैं, कला के लिए भव्यता चाहिए, पूंजी चाहिए. अगर एँटरटेनमेंट इंडस्ट्री अपने पाँव इतनी न पसारती तो क्या नेटफ्लिक्स के संभव होने की भूमिका बन पाती?
निश्चित रूप से नहीं. तो इस पूंजी ने, जिसने शोषण किया, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद कायम करने में भूमिका निभाई, उसी ने एक दूसरी राह भी खोली है जो सांस्कृतिक संवाद की है.
याद आता है कि कभी जब 30 साल पहले बॉलीवुड की फिल्में देखनी होती थीं तो किन्हीं-किन्हीं घरों में एचबीओ चैनल चला करता था. कुछ 20 साल पहले कभी-कभार संपन्न घरों में ‘डिस्कवरी’ और ‘हिस्ट्री’ चैनल का नाम भी सुनने को मिलने लगा. विदेशी कंटेंट के नाम पर भारतीय घरों की पहुँच इन्हीं तक थी. विदेशी के नाम पर बहुत हुआ तो कुछ अमेरिकन चैनल दिख जाते थे, कोरियन या एशियाई कंटेंट क्या होता है इसकी भनक तो हाल के दशक में लगी है.
यह नेटफ्लिक्स ही तो है जिसने आज फोन को अनलॉक कर एक स्वीप करने भर से दुनिया भर की संस्कृतियों, सभ्यताओं का ऐतिहासिक जीवन पटल खोलकर हमारे सामने रख दिया है जिससे गुज़रते हुए कई बार हम अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक गिरेबान में झांकने को मजबूर हो जाते हैं.
नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध यूरोपियन कंटेंट खासकर पीरियड और हिस्टोरिकल ड्रामा देखते हुए ऐसा लगता है कि अपने घर की खिड़की से हम पड़ोसी के घर में झाँक रहे हैं और पड़ोसी के सारे झूठे दावों की पोल खुलती जा रही है. उपनिवेश और पश्चिममोह भारतीय समाज पर एक लम्बे समय से हावी रहा है. सभ्यतागत श्रेष्ठता और महिलाओं की बेहतर स्थिति के दावों ने यूरोप को हमेशा अगले पायदान पर रखा है. लेकिन नेटफ्लिक्स पर इस समय कई ऐसी वेब सीरीज हैं जो यूरोपीय समाज की इस आदि प्रगतिशील छवि को चुनौती देती हैं.

इस मामले में सबसे गहरी छाप ब्रिजर्टन छोड़ता है. ब्रिजर्टन जूलिया क्वीन की इसी नाम की उपन्यास श्रृंखला पर आधारित सीरीज है जिसके निर्माता क्रिस वान डूसन हैं. उन्नीसवीं शती के आरंभिक दशकों के लन्दन के कुलीन समाज, उसके तौर-तरीकों, परिष्कृत अभिरुचियों, भव्य नृत्य समारोहों के बीच युवक-युवतियों के बीच पनपता प्रेम इस सीरीज की मुख्य थीम है. बेहतरीन किस्सागोई से इतर जो बात किसी भारतीय महिला दर्शक को इस सीरीज के बारे में सबसे ज्यादा आकर्षित करती है वह यह कि, लो जी! यह केवल हमारी मम्मियां नहीं हैं जो दहेज़ और शादी की चिंता और चरित्र की शुचिता में मरी जा रही हैं, यही हाल तो कमबख्त इनके यहाँ भी रहा है! हालांकि रीजेंसी युग पर आधारित इस वेब सीरीज में ऐतिहासिक तथ्यों के मामले में खासी छूट ली गयी है लेकिन समाज का चित्रण काफी हद तक सटीक है. इस सीरीज में यह दिखाया गया है कि रीजेंसी युगीन लन्दन में लड़कियों की शादी के लिए ‘डॉवरी’ कितनी बड़ी चुनौती थी. फैदरिंगटन परिवार की लेडी फैदरिंगटन बेटियों की शादी और ‘डॉवरी’ के जुगाड़ के लिए हर संभव चालाकियां करती दिखाई गयी हैं. इस लोकप्रिय वेब सीरीज की काफी आलोचना इसलिए तो हुई कि इसमें महारानी शारलात को अफ्रीकी मूल का बताया गया है और समाज का चित्रण तुलनात्मक रूप से आधुनिक है, लेकिन शादी और डॉवरी वाले मसले पर कोई विवाद उठा हो, ऐसा नहीं है.
वैसे भी यह तो ऐतिहासिक सच है कि जब पुर्तगालियों ने राजकुमारी कैथरीन का विवाह इंग्लैंड के चार्ल्स द्वितीय से किया तब ब्रितानियों को बंबई दहेज़ में मिली. मतलब कि अंग्रेज़ दहेज़ लेते भी थे और देते भी थे, और यह यूरोप का आम-चलन था लेकिन भारतीय इतिहास में अंग्रेजों का आगमन और समाज-सुधार और भारतीय महिलाओं की स्थिति ऐसे चित्रित होती है जैसे कि सबसे दबी-कुचली भारतीय स्त्रियाँ ही थीं और अंग्रेज़ न आए होते तो न जाने भारतीय महिलाओं का क्या होता! यूरोपीय समाज में महिलाओं की स्थिति भारतीय महिलाओं से कतई बेहतर नहीं थी. रीजेंसी कालीन लन्दन में पहली बार जब १८३२ में निश्चित संपत्ति के मालिक सामान्य पुरुषों को वोट करने के अधिकार मिले तब महिलाओं को इससे मरहूम रखा गया और इसके लगभग सौ सालों बाद महिलाओं को वोट का अधिकार मिला. इस तरह ब्रिजर्टन इस मिथक को तोड़ता है कि दहेज़ केवल भारतीय समाज की महामारी थी और यूरोप इससे बरी था.

इसी तरह बेहद लोकप्रिय वेब सीरीज वाइकिंग्स में एक सामंत के शव के साथ उसकी दासी को जलते हुए दिखाया गया है. वाइकिंग जिन्हें अरब ‘रूस’ भी कहा करते थे, उनमें प्रभुत्वशाली सामंतों के शव को बड़ी-बड़ी नावों में पूरे साजो-सामान के साथ जलाने की प्रथा थी. दासी को शराब पिला कर नाव पर पूरे साजो-सामान और सामंत के शव के साथ जलाया जाता था ताकि वह अपने मालिक का साथ दूसरी दुनिया में भी दे और मनोरंजन करे. इस आशय का सन्दर्भ मध्ययुगीन अरब लेखक अहमद इब्न फादलान ने दिया है. हालांकि फादलान का यह रिसाला ९ वीं शती का है और इस लिहाज से यह काफ़ी पहले की बात ठहरती है. लेकिन स्टेक पर बाँध कर स्त्रियों को ज़िंदा जलाने का कानूनी दंड विधान ब्रिटिश कॉमन लॉ के तहत आरंभिक आधुनिक काल तक प्रचलन में था.
हेरेसी, हाई ट्रीजन, पेटी ट्रीजन के मामलों में स्त्रियों को ज़िंदा जलाया जाता था. कॉमन लॉ के तहत अपराधों के मामले में यह दंड तो था ही लेकिन विच हंटिंग और विच ट्रायल के नाम पर ब्रिटेन समेत पूरे यूरोप में हजारों-हजार औरतों को ज़िंदा जलाया गया. १७३५ में विचक्राफ्ट एक्ट के लागू होने के बाद ग्रेट ब्रिटेन में विच हंटिंग पर कानूनी प्रतिबन्ध लगाया जा सका. जो ब्रिटिश अपने यहाँ कुछ दशकों पहले तक औरतोंं को लगभग हर बात में स्टेक पर बाँध कर ज़िंदा जला देते थे उन्हें भारतीय सती प्रथा काफी शर्मनाक लगी वह भी तब जब सती प्रथा का स्वरूप अखिल भारतीय नहीं था. ऐसा कहने का आशय यह कतई नहीं कि भारतीय सती प्रथा को प्रतिबंधित करना सराहनीय नहीं था. ऐसा कहने के पीछे आशय बस यह है कि गोरे साहब के कन्धों पर अन्य समाजों को सभ्य बनाने का जो तथाकथित बोझ था, वह कितना मनगढ़ंत था!

यह दीगर बात है कि यूरोप में ईसाई महिलाएँ कभी परदे में नहीं रहीं, घर की चहारदीवारी में सीमित नहीं रहीं और इस मामले में भारतीय समाज दकियानूस रहा, भले ही उसकी जो भी वजह रही. लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि यूरोप में स्त्रियाँ बहुत सुखी थीं. ऐसा कहने का एकमात्र आधार इंग्लैंड की बहुतेरी महारानियों का खौफ़नाक अंत है. इंग्लैंड के राजा हेनरी 8 की 6 महारानियों को ही लें. इन ६ महारानियों में केवल दो सौभाग्यशाली रहीं. जबकि दो, अरोगोन की कैथरीन और क्लीव्स की ऐनी को हेनरी ने तलाक दिया. बाकी दो, ऐन बोलेन और कैथरीन होवार्ड का सिर धड़ से अलग कर व्यभिचार के आरोप में इन्हें मौत के घाट उतार दिया गया. ऐन बोलेन इंग्लैंड की पहली महिला शासक एलिजाबेथ प्रथम की माँ थी. ऐन बोलेन पर कई डॉक्यूमेंट्री बन चुकी हैं, जिनमें से एक इसी नाम से नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है. ट्यूडर राजवंश पर इसी नाम से बनी वेब सीरीज में भी इन घटनाओं को विस्तार में दिखाया गया है. भारतीय इतिहास में ऐसा कोई वाकया याद करना मुश्किल है जब व्यभिचार के आरोप में या वैसे भी किसी रानी का सिर कलम किया गया हो.
हालांकि यह तर्क भी दिया जा सकता है कि जब भारतीय महिलाओं और यहाँ तक की रानियों को हरम की चहारदीवारी से बाहर निकलने की सहूलियत ही नहीं थी तब सिर कलम करने की नौबत आती भी कहाँ? लेकिन यह सवाल करते ही मुझे फिर से बनारस के ईसाई मिशनरी पादरी रेवरेंड विलियम बायर और उनके पत्र याद आने लगते हैं. उत्तर भारत के गंगा किनारे की बात करते हुए अपने तीसरे पत्र में मिशनरी काम में भारतीय महिलाओं के कारण आ रही मुश्किलों का बयान करते हुए बायर साहब भारतीय स्त्रियों के बारे में बहुत सी शिकायतें करते हैं, लेकिन ये शिकायतें किसी तारीफ़ से कम नहीं लगतीं. परदे में रहने और आधुनिक ढंग की शिक्षा न मिलने के बावजूद इनका जैसा चित्रण बायर साहब ने किया है, उसके हिसाब से ये भारतीय महिलाएँ खासी दबंग लगती हैं. भारतीय महिलाओं का हाल बायर साहब की ज़ुबानी कुछ यूं है-
“भारतीय स्त्री समाज ईसाईयत के प्रचार-प्रसार में अगली सबसे बड़ी बाधा है. भला या बुरा दोनों ही करने में ये स्त्रियाँ बहुत प्रभावशाली हैं.”
लगभग खीझते हुए अंदाज में पादरी साहब आगे कहते हैं,
“लेकिन दूसरों का भला करने की बजाय बुरा करना इन महिलाओं को ज्यादा सुहाता है भले ही इनकी अपनी खुद की स्थिति ऐसी है कि किसी अच्छाई के दर्शन इन्हें शायद ही कभी हो सकें!”
यहाँ किसी अच्छाई से बायर साहब का स्पष्ट आशय गास्पेल से है. इस ‘अच्छाई’ को कई अन्य रूपों जैसे पर्दा प्रथा से मुक्ति, शिक्षा, विधवा विवाह आदि से न समझिए.
बायर आगे बताते हैं कि
“महिलाओं की आबादी का एक बड़ा हिस्सा पर्दे में रहता है और पुरुष समाज और सार्वजनिक स्थानों पर कभी उपस्थित नहीं होता. हालांकि नीची जात की स्त्रियों को जनसामान्य के बीच आवाजाही की सुविधा है लेकिन वे भी बीच-बाजार पुरुषों की संगत में खड़े होने की आदी नहीं और सत्य (गास्पेल) की पुकार सुन शायद ही कभी पलटती हों. इसलिए हम केवल पुरुषों को ही गास्पेल का सच सुना पाते हैं. अगर इन पुरुषों के दिलो-दिमाग़ पर गास्पेल की कोई छाप पड़ती है तो घर जाते ही उनकी पत्नियां सारी मेहनत पर पानी फेर देती हैं. इस तरह स्त्री समाज का सारा प्रभाव हमारे विरोध में आ खड़ा हुआ है. वैसे भी देश कोई हो, हर जगह की महिलाएँ अन्धविश्वासी हैं. उनके पूर्वाग्रह पुरुषों से ज्यादा कट्टर होते हैं. स्त्रियों को ऐसे मौके भी लगभग न के बराबर मिलते हैं जब उनका मन–परिवर्तन हो सके. इस तरह समझा जा सकता है कि स्त्रियाँ किस तरह हमारे राह की सबसे बड़ी मुसीबत हैं.
कुछ लोग ऐसा सोच सकते हैं कि ऐसे देश में स्त्रियों का प्रभाव क्या ही होगा जहाँ उन्हें न तो शिक्षा मिलती है और न ही लोगों के बीच सामूहिक स्थानों पर उपस्थित होने की अनुमति है, लेकिन ऐसा सोचना भूल है. हिन्दू पुरुष अपने घर की स्त्रियों के पूरे प्रभाव में रहते हैं. उच्च जातियों में तो यही स्थिति है. इतना ही नहीं, राजनीतिक मामलों में भी औरतोंं का गहरा दखल है. कुछ महिलाएँ ऐसी हैं जिनके चेहरे किसी ने नहीं देखे लेकिन राज-काज के मामलों में अगुआई करने के लिए विख्यात हैं. निचले तबके के पुरुष अक्सर यह दुहाई देते मिल जाते हैं कि अगर उसकी पत्नी, माँ या बहन ने नहीं रोका होता तो वे क्या-क्या कर चुके होते! यह हाल तब है जब हिन्दू शास्त्रों में लिखा है कि स्त्रियों से सलाह कभी नहीं लेनी चाहिए. आम जीवन में भी लोग ये उक्ति दोहराते मिल जाते हैं. लेकिन इस बात का हकीकत से कोई वास्ता नहीं है, इस मामले में किसी भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए!
जनानखाने में स्त्रियों की ज़बान पर लगाम लगाना हिन्दू पुरुषों की प्रवृत्ति नहीं रही है. भले ही हिन्दुओं ने ये रिवाज़ मुसलमानों की देखा-देखी अपनाया हो या फिर आक्रान्ताओं से अपनी स्त्रियों को बचाने की मज़बूरी में, लेकिन इस बदतर हालत के बावजूद महिलाओं का हिन्दू समाज में खासा प्रभाव हमेशा से रहा है और आज भी है. लेकिन यह प्रभाव ही गास्पेल की राह में सबसे बड़ी बाधा है. अंधविश्वास बनाए रखने और बढ़ावा देने में इस देश की महिलाएँ कितनी तेज़ हैं यह इस बात से समझा जा सकता है कि इन महिलाओं ने कई यूरोपियों का धर्म परिवर्तन करा दिया है. इनमें से कई तो खासे पढ़े-लिखे और प्रतिष्ठित पद पर थे लेकिन यहाँ की महिलाओं के ऐसे प्रभाव में आए कि अपना धर्म बदलने में शर्म नहीं आयी.
एक दूसरी बात भी है जिसे यूरोप में कोई स्वीकार नहीं करेगा. भारत में अंग्रेज़ गंगा में डुबकी लगाने, पूजा–पाठ करने, संस्कृत मंत्र उच्चरित करने और वे सारे अनुष्ठान करने के लिए प्रसिद्ध हैं जो कि ब्राह्मण करते हैं, और यह सब इन हिन्दुस्तानी महिलाओं के प्रभाव के कारण है. हालांकि यह सब अब काफी कम हो गया है, लेकिन मैंने यह सब अपनी आँखों से देखा है. अगर इन महिलाओं को गास्पेल सुनने का बराबरी का मौका मिले तो संभव है कि इनका प्रभाव इनकी खुद की स्थिति सुधारने में कारगर होगा.
ये महिलाएँ खासी तीव्र, स्फूर्त और ग्रहणशील हैं. एक राजकुमार ने पूर्वाग्रह त्याग कर एक बार धर्म पर बात करने के लिए अपनी धर्मपत्नी से मेरा परिचय कराया. उस नवयुवती की प्रतिभा और तत्वज्ञान से मैं आश्चर्य में पड़ गया. वह युवती निश्चित रूप से अन्य देशी महिलाओं से ज्यादा प्रतिभाशाली थी और धर्म का उसका ज्ञान प्रकांड पंडितों की कोटि का था. लेकिन इस बात की आशा नहीं की जा सकती कि वह युवती अपने प्रभाव का इस्तेमाल अपने घर में सच्चे धर्म (गास्पेल) के प्रसार के लिए करेगी. हालांकि वर्तमान में महिलाओं को गास्पेल के ज्ञान की सबसे ज्यादा जरूरत है क्योंकि सबसे ज्यादा पददलित वे ही हैं लेकिन इस बुराई से हम अभी पार नहीं पा सके हैं. हालांकि जैसे-जैसे नेटिव ईसाइयों की संख्या बढ़ेगी, यह स्थिति बदलेगी, और बहुत सारी शिक्षित ईसाई महिलाओं का उदय होगा और जिनकी पहुँच जनाने तक होगी तब आशा की जा सकती है कि महिलाओं की यह सूरत बदलेगी.”
तो कुल मिलाकर अगर पादरी साहब की माने तो भारतीय हिन्दू महिलाएँ खासी प्रभावशाली थीं. घर की चहारदीवारी में परदे के पीछे से वे घर और परिवार तो चलाती ही थीं, साथ ही राजनीति में भी दखल रखती थीं. पादरी साहब ये जितनी शिकायतें करते हैं, उनकी तसदीक मेरी दादी करती है. पादरी साहब ने जो तस्वीर बयान की है, वह पादरी साहब से लगभग डेढ़ सौ साल बाद मैंने अपने घर-खानदान में हकीकत में देखी-सुनी है. बीसवीं शती के चौथे दशक में जन्मी मेरी दादी आज़ाद भारत की आबोहवा में जवान हुई. मिडिल स्कूल तक की पढ़ाई और मास्टरनी बनने की संभावनाएँ पीछे छोड़ १६ साल में ६० लोगों के संयुक्त परिवार में सबसे छोटी बहू बन कर आयीं. हमारे गाँव-घर में महिलाओं को उनके मायके के गाँव के नाम से बुलाया जाता था.
दो फीट चौड़ी मिट्टी की दीवारों पर पटरों की छत डालकर बने दो मंजिला बड़े मकान में घर की सारी महिलाएँ, बेटियाँ और बच्चे रहते थे, पुरुष घर से बाहर मरहड़ा में रहते थे. केवल खाना खाने और रात में सोने के लिए उनका घर में आना होता था. यह कहने की जरूरत नहीं कि घर की महिलाएँ घूँघट में रहती थीं लेकिन लड़कियों को हर तरह की छूट थी. घर की महिलाओं के बीच पदानुक्रम था, बहुएँ सास को और देवरानी, जेठानी को पलट कर जवाब नहीं दे सकती थीं. लेकिन लोकप्रिय सिनेमा से इतर हमारे घर की महिलाओं में एकता बहुत थी. पुरुषों की अनबन से बच्चे और महिलाएँ अप्रभावित रहते थे. घर के पुरुष महिलाओं का सम्मान करते थे. घर की सबसे बड़ी स्त्री का दबदबा पूरे परिवार पर होता था. मेरी दादी जो कभी घर की छोटी बहू थी वह एक समय के बाद सबसे उम्रदराज बचीं और घर की मुखिया हुईं. घर के पुरुषों पर दादी का रुतबा था और उसकी बात मानी जाती थी. और हाँ, तब दादी घूंघट नहीं करती थी. मेरी माँ ने घर-बाहर घूंघट करना तब बंद किया जब दादी की मृत्यु हुई और वह घर-भर की महिलाओं में ज्येष्ठ बचीं.
कुल मिलाकर पादरी साहब ने जो कुछ भी बयान किया, पादरी साहब से डेढ़ सौ साल बाद भी अपने घर-परिवार के बारे में मुझे सौ प्रतिशत सही लगा. यह बात अलबत्ता है कि मैं इस मामले में किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पाती कि मेरे घर की महिलाओं की स्थिति अच्छी थी या बुरी, वे सशक्त थीं या अशक्त! पादरी साहब का यह बयान उन्नीसवीं शती के मध्य का है जबकि मेरे परिवार की महिलाओं की यह हकीकत उनसे डेढ़ सौ साल बाद की है. मतलब कि भारतीय परिवारों में डेढ़ सौ सालों में कुछ नहीं बदला? और मामला जस का तस बना रहा? जबकि इन डेढ़ सौ सालों में यूरोप में स्त्रियाँ कहाँ से कहाँ पहुँच गयीं.
पादरी साहब के पास भारतीय महिलाओं की स्थिति सुधारने का एक मात्र उपाय उन तक गास्पेल का सच पहुंचाना था. जग जाहिर है, पादरी साहब का यह प्रयास कम से कम उत्तर भारत में गंगा किनारे तो सफल नहीं रहा और न ही महिलाओं की हालत में कुछ ख़ास सुधार हुआ जैसा पादरी साहब चाहते थे. ब्रिटिश साहबों ने और बाद में चले सुधार आन्दोलनों ने जरूर भारतीय स्त्रियों का कुछ भला किया था. जैसे कि मेरी दादी पारंपरिक ज्ञान के साथ-साथ मिडिल स्कूल तक पढ़ी थीं. उपनिवेशन और संबंधित सामयिक बदलावों ने भारतीय पारिवारिक संरचना को बदला. हमारा संयुक्त परिवार भी टूटा और हम भाई-बहनों की परवरिश शहर में एकल परिवार में हुई. गाँव के संयुक्त परिवार के किस्से सुनते शहर के अकेलेपन में हम भाई-बहन बड़े हुए. बहुत सारे बदलाव सुधारों के तहत हुए, बहुत सारे आधुनिकता के नाम पर.
पर मेरी माँ जो परास्नातक थीं, उन्हें शहर में हर कोई उनके नाम से जानता था.
![]() ‘भक्ति परम्परा का प्राच्यवादी पाठ’ 2018 में नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित. |
यूरोप के बरक्स भारतीय महिलाओं की घर में सीमित स्वायत्त स्थिति पर आपने रोचक अंदाज़ में लिखा है.
लेख में आपने लिखा है – ‘अगर एँटरटेनमेंट इंडस्ट्री अपने पाँव इतनी न पसारती तो क्या नेटफ्लिक्स के संभव होने की भूमिका बन पाती?’
सामग्री की सहज उपलब्धता निरंतर बढती गयी है. टोरेंट और पाइरेट बे ने जो काम प्रतिलिप्याधिकार कानूनों के उल्लंघन से किया वो अब मनोरंजन उद्योग कम मूल्य पर कर रहा है. क्लासिफाइड दस्तावेज़ों के अतिरिक्त सब कुछ उपलब्ध हो रहा है. मुझे लगता है ‘मनोरंजन उद्योग’ का इस रूप में ‘पांव पसारना’ ही अपने आप में बडी घटना है. इसके बाद “नेट्फ्लिक्स’ को तो सम्भव होना ही था.