मरिया वीस्वावा अन्ना शिंबोर्स्का(२ जुलाई, १९२३- १ फरवरी, २०१२)हरिमोहन शर्मा |
पोलिश कवयित्री, निबंधकार, अनुवादक और 1996 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता मरिया वीस्वावा अन्ना शिंबोर्स्का हिंदी पाठकों के लिए अपेक्षाकृत एक जाना पहचाना नाम है. इन्हें इनके लोकप्रिय नाम वीस्वावा शिंबोर्स्का के नाम से अधिक जाना जाता है. इनका जन्म 2 जुलाई 1923 को पोलैंड के औद्योगिक शहर पोजनान के पास कूर्निक के एक गांव ब्निन में हुआ था. यह पोलैंड के दक्षिण में स्थित है. कुछ समय बाद 1931 में ये पोलैंड के प्राचीन सांस्कृतिक शहर क्राकूव आ गईं और मृत्यु- पर्यंत यहीं रहीं.
इनके परिवार में ये दो बहनें और माता-पिता थे. इनके पिता विन्सेंट एक कुलीन सामंत (काउंट) के यहाँ मैनेजर थे. इन्हें बचपन में वे स्वरचित कविता सुनाने के लिए पैसे दिया करते. धीरे-धीरे इन्हें चित्रकारी का शौक हुआ. प्रारंभिक शिक्षा आगे बढ़ती कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल घिरने लगे. देश के दक्षिण में मौजूद नाज़ी जर्मनी ने एक सितंबर 1939 को पोलैंड पर आक्रमण कर दिया तो 17 सितंबर 1939 को देश के पूर्व से लगते बड़े देश सोवियत रूस ने धावा बोल दिया. पोलिश सरकार निर्वासित हो फ्रांस चली गई. बाद के दिनों उसे वहां से भी विस्थापित हो ब्रिटेन जाना पड़ा. अक्तूबर तक मारकाट और विध्वंस के बाद दोनों बड़े देशों- सोवियत रूस और जर्मनी ने पोलैंड के पूर्वी और दक्षिण हिस्से को आपस में बांट कर अपने कब्जे में कर लिया. इन तीन-चार साल में नाज़ियों ने पोलैंड में वह क्रूरतम नरसंहार किया जो विश्व इतिहास में शायद ही किसी ने किया होगा.
पोलिश यहूदियों, रोमाओं तथा अन्य गैर पोलिश जातियों को चुन- चुन कर गैस चैंबर के हवाले कर दिया गया . कहते हैं कि इस दूसरे विश्व युद्ध के दौर में असंख्य लोग नाज़ी हिंसा के शिकार हुए. अनेक भूमिगत युद्ध में मारे गए. बहुत से निर्वासित होकर दूसरे देशों में चले गए.
द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत के आसपास 1943-1944 में लाल सेना ने पोलैंड को नाज़ी जर्मनी के चंगुल से मुक्त कराया. इस तरह सोवियत रूस ने पोलैंड पर अपना आधिपत्य जमा लिया और वहाँ क्रमशः पोलिश कम्युनिस्ट पार्टी का शासन स्थापित हो गया. दूसरे महायुद्ध के दौर में देश में अराजकता और उथल-पुथल मची हुई थी. शिक्षा-संस्थाएँ बंद हो गईं थीं. कुछ भूमिगत स्कूल पढ़ाई जारी रखे हुए थे. इन्हीं में से एक भूमिगत स्कूल से इन्होंने जर्मन यातना से बचते-बचाते 1941 में सेकेंडरी स्कूल पूरा किया. उस समय वहाँ के नियम के अनुसार प्रत्येक युवा को सेना या सरकारी नौकरी में से कोई एक विकल्प चुनना होता था. इन्होंने 1943 में रेलवे में नौकरी कर ली. निश्चय ही इस समय युवा काल में प्रवेश कर रही शिंबोर्स्का के मनोजगत पर दूसरे विश्वयुद्ध और नाज़ी जर्मनी की हिंसा और अत्याचार की अनेक घटनाएँ अंकित हुई होंगी. इसकी कुछ झलक इनकी कविताओं में भी देखी जा सकती है. भले ही ये स्थूल घटनाओं को अपनी कविताओं में न आने देती हों. आसपास के जीवन-जगत से अपनी कविताएँ बुनती हों. फिर भी अपने समय के गहरे असर इनकी कविताओं में देखे जा सकते हैं.
युद्ध की समाप्ति के बाद 1945 से 1948 के बीच इन्होंने पोलैंड के क्राकूव में स्थित याग्येलोनीयन विश्वविद्यालय में पोलिश भाषा और साहित्य का अध्ययन प्रारंभ किया. फ्रांसीसी भाषा सीखी. फ्रेंच भाषा इन्हें अच्छी लगती थी. इन्होंने फ्रांसीसी साहित्य का अनुवाद भी किया. पोलिश भाषा और साहित्य में इनका मन नहीं रमा तो इसे छोड़कर इन्होंने समाजशास्त्र की पढ़ाई की. पर ये इसे भी आर्थिक तंगी के चलते पूरा नहीं कर पाईं. इसप्रकार इनकी औपचारिक पढ़ाई यहीं स्थगित हो गई . गीत कविता कहानी लेखन की शुरुआत 1945 से हो चुकी थी. इनकी पहली कविता – ‘शब्द की तलाश’ इसी वर्ष ‘झैन्निक पोल्स्की’ (दैनिक पोलैंड) नामक पत्र में प्रकाशित हुई. फिर तो कविता लिखने का सिलसिला चल निकला. 1953 से 1981 के दौरान ये क्राकूव के साप्ताहिक ‘ज़िचे लित्रात्स्किये’ (साहित्यिक जीवन) नामक पत्र में सह संपादक और स्तंभ लेखक के रूप में काम करने लगीं. इस समय देश में अनेक उतार-चढ़ाव आ रहे थे. ये अपने समय का सूक्ष्म निरीक्षण करतीं एकांत और शांत भाव से साहित्य- लेखन करती रहीं. इस दौरान इन्होंने गैर जरूरी पठन पाठन नाम से स्तंभलेखन भी किया जो बहुत दिनों तक चला .
जैसा कि कहा गया उस समय देश में नाज़ियों को हटाकर कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी थी. शुरू में उसने कुछ अच्छे काम भी किये. इस समय ये कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित हुईं. इन्होंने सोचा कि संसार के अनेक मसलों का हल समाजवादी विचारों से किया जा सकता है. पर शीघ्र ही पोलिश कम्युनिस्ट पार्टी पर रूसी स्तालिनवाद का प्रभाव पड़ने लगा. कट्टरपंथी विचारधारा के चलते वहां के लोगों में बेचैनी और हताशा घर करने लगी. उनके स्वतंत्र विचारों पर पहरा और दमन की कार्यवाही तेज होने लगी. ये समझ गईं कि इस विचारधारा से भी मानवता का भला नहीं हो सकता. यह प्रारंभ से ही मानव जाति के लिए कुछ करना चाहती थीं. पर जल्द ही समझ आ गया कि विचारधाराओं से व्यापक जनसाधारण का भला नहीं हो सकता. अतः 1957 तक इन्होंने कम्युनिस्ट विचारधारा से अपने को अलग करते हुए अपनी आरंभिक कविताओं से भी किनारा कर लिया.
जैसा कि कहा गया शिंबोर्स्का इतिहास और जीवन की स्थूल घटनाओं को अपनी कविताओं में लाना पसंद नहीं करती थीं. परंतु पोलैंड किसी ना किसी तरह हमेशा पड़ौसी देशों के कारण संघर्षों में घिरा रहता. विदेशी सत्ता के दांत उस पर लगे रहते तो पोलिश जनता भी उनसे निरंतर जूझती रहती. ऐसे में कवि हमवतनों से अलग कैसे रह सकता है? वह तो संघर्षरत जनता का हिस्सा व उसका प्रतिनिधि होता है. इस सबके प्रभाव इनकी कविता में आ जाना स्वाभाविक है. नाज़ियों द्वारा किए गए नरसंहार की झलक शिंबोर्स्का की निम्नलिखित ‘अभी भी’ शीर्षक कविता में बहुत ही सूक्ष्म और मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त हुई है . देखें:
सीलबंद माल गाड़ियों में
मुल्क के बीच से गुजर रहे हैं नाम
कहां तक जाएंगे, क्या कभी उतरेंगे
मत पूछिये, नहीं बताऊंगी- मुझे नहीं मालूम.
नाम नातान मुट्ठी से पीटता है दीवार
पागल नाम इज़ाक, गाता है गीत
नाम सारा, चिल्लाती है पानी
नाम आरोन- जो प्यासा मर रहा है
कूदो मत! चलती मालगाड़ी से नाम डेविड
तुम हो नाम पराजय की सजा भोगने वाला
यह नाम किसी को नहीं दिया जाता
बेघर इस देश में, यह नाम उठाना ज्यादा भारी है.
बेटे का नाम स्लाव होना चाहिए
क्योंकि यहां गिने जाते हैं सिर के बाल
यहाँ अलग करते हैं अच्छे को बुरे से|
नाम व आंखों- पलकों के रूपाकार से.
मत कूदो चलती गाड़ी से- बेटा लेक्ख
मत कूदो चलती गाड़ी से – अभी समय नहीं मत कूदो, रात पसर रही है – हंसी जैसी
नकल करती ठक ठक पहियों और पटरियों की.
भीड़ के बादल तैर रहे हैं देश के ऊपर
बड़े बादल से छोटी – सी बारिश, एक आंसू थोड़ी बारिश, एक आंसू, खुश्क समय
पटरिया जा रही हैं, काले जंगल में.
ठक ठक ठक ठक. बजते पहिए, बिना मैदानों के जंगल में
ठक ठक ठक ठक. जंगल के बीच, चीखती निकलती है गाड़ी.
(अनुवाद: हरिमोहन शर्मा)
यदि हम शिंबोर्स्का की कविताओं को देखें तो ये प्रायः मानव-अस्तित्व की गहन समस्याओं से जूझती नज़र आती हैं. पर विषय वस्तु को ये अपनी कविता में सहज सरलतम रूप में लाना अपना कर्तव्य मानतीं. इन्हें भारी-भरकम शब्दों का प्रयोग करना भी पसंद नहीं रहा. ये निरंतर शब्दों को भारहीन बनाने का प्रयास करती हैं. यही कारण है कि इन्हें द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर पोलिश काव्य-संवेदना में आते बदलाव को रेखांकित करने वाली बौद्धिक दृष्टि से परिष्कृत ‘नयी लहर’ की महत्वपूर्ण कवयित्री माना गया. इनमें गहरी भावप्रवणता के साथ-साथ समय समाज सभ्यता की निस्संगता, भावशून्यता एवं विडंबना झलकती है.
शिंबोर्स्का अपनी कविताओं में मनुष्य-जीवन की विसंगत वास्तविकताओं को बिंबों-प्रतीकों के माध्यम से सहज ही व्यक्त कर देती हैं. छठे दशक के प्रारंभ में पोलैंड की कम्युनिस्ट सरकार ने कामगारों पर दमन तथा विद्यार्थियों के प्रदर्शन पर कठोर कार्रवाई की तथा इस तरह की अन्य अनेक कार्रवाइयाँ उस समय हो रही थी. ऐसे में किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का विचलित होना स्वाभाविक था. इन्हीं दिनों शिंबोर्स्का ने ‘ब्रुगेल के दो बंदर’ नामक कविता लिखी. यह एक छोटी कविता है. पाठकों की सुविधा के लिए पूरी कविता यहां दी जा रही है:
सपना आता है कुछ ऐसा मुझे
अपनी अंतिम मौखिक परीक्षा का
खिड़की में बैठे हैं दो बंदर जंजीर से बंधे
खिड़की के बाहर तिरता आसमान
और ठाठे मारता समुद्र.
पर्चा है मानव इतिहास का
और मैं झींकती- हकलाती.
घूरता है मुझे एक बंदर
सुनता है व्यंग्य से
और दूसरा जैसे ऊंघता.
जब – जब सवालों पर चुप होती हूं मैं
चेताता वह मुझे
धीमे से खड़का कर अपनी जंजीर.
(अनुवाद: हरिमोहन शर्मा)
ब्रुगेल द एल्डर 16 वीं शताब्दी के प्रसिद्ध डच चित्रकार थे. उन्होंने एक ऊंचे से भवन की दीवार की खिड़की में लोहे की श्रृंखला से बंधे दो बंदर चित्रित किए हैं. गहरी रेखा और रंगों में. वे खिड़की में बैठे हैं और खिड़की के पार शहर का विस्तार दिखाई देता है. ऊंचे नीचे भवन तथा आसमान में स्वच्छंद उड़ान भरते पक्षी. सुदूर बंदरगाह. कहा जाता है कि ये जंजीरों में बंधे बंदर चंद पैसों में खरीद लिए गए थे . यानी पैसों के लिए उनकी स्वतंत्रता छीन ली गई . चित्र में इनमें से एक बंदर घूर कर व्यंग्यात्मक दृष्टि से सामने देख रहा है. तो दूसरा चिंतित मुद्रा में सिर नीचे किए संभवतः अपनी नियति के विषय में सोच रहा है. शायद यह कि कुछ पैसों के लिए उसका सौदा क्यों कर दिया गया? इस चित्र की अनेक प्रकार से व्याख्या की गई है.
परंतु शिंबोर्स्का अपनी कविता में इसका अपने ढंग से इस्तेमाल करती हुई बताती हैं कि उन्हें ऐसा सपना आया कि उनकी मानव इतिहास की परीक्षा चल रही है. वह परीक्षा दे रही हैं. खिड़की में दो बंदर जंजीर से बंधे बैठे हैं. मानव इतिहास पर उनसे प्रश्न पूछे जा रहे हैं. पर प्रश्न का उत्तर इनके पास नहीं है. प्रश्न क्या है इसे कविता में स्पष्ट नहीं किया गया. परंतु जंजीर से बंधे बंदर क्या अपने आप में प्रश्न नहीं ? जिन बंदरों को पेड़ पौधों के बीच उछल कूद करते हुए उन्मुक्त होना चाहिए था, उन्हें उनके खरीददारों ने स्वार्थ और लोभवश जंजीरों में बांधकर जकड़ रखा है.
उनकी स्वतंत्रता छीन ली गई है. क्यों? इसका क्या उत्तर हो सकता है. कवयित्री का कहना है कि उत्तर न खोज पाने के क्रम में ये झींकती-हकलाती हैं. उत्तर नहीं सोच पातीं. तब उनमें से एक बंदर उन्हें प्रेरित करता है. अपनी जंजीर खड़खड़ा कर. मानो कह रहा हो कि तुम ने भले ही हमें बांध लिया हो परंतु हम ही तुम्हारे पूर्वज हैं. तुम हम से ही विकसित होकर मनुष्य बने हो. पर सोचो यह कैसा विकास है कि अपने पूर्ववर्तियों को ही चंद पैसों के लिए बांध लिया. अपनी सत्ता अपने अहंकार में चूर होकर. यह व्यवस्था तुम्हें कहाँ ले जाएगी?
क्या यही विकसित सभ्यता कहलाती है? कथनीय है कि इसे तत्कालीन पोलैंड की राजनीतिक-ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पढ़ें तो पता चलेगा कि नाज़ी जर्मनी के नृशंस अत्याचार से छूटे पोलैंडवासी अब सोवियत रूस के कब्जे में फंस गए हैं. क्या यही आधुनिक सभ्यता है? हम किस ओर बढ़ रहे हैं? ये सभी ध्वनियां इस कविता में सुनी जा सकती हैं. कवयित्री ने 16वीं सदी के इस चित्र को प्रतीक रूप में उठाते हुए आज के सभ्य-सुसंस्कृत समाज की विडंबना-विसंगतियों से जोड़ दिया है. कहा जाना चाहिए कि आज भी स्थितियों में कोई विशेष अंतर नहीं आया है.
इनकी बाद की कविताओं को देखें तो इनमें क्षणभंगुरता व नश्वरता के झीने सूत्र भी दिखाई देते हैं. जिससे इनकी कविता आध्यात्मिकता की ओर झुकती हुई लगने लगती है जबकि यह इनकी विचारशीलता एवं जनता के प्रति इनकी गहरी सहानुभूति के कारण उपजी संवेदना है. बल्कि यह इनकी कविता को सार्वभौमिकता के समीप ले जाती है. इक्कीसवीं सदी तो और अधिक आत्मकेंद्रित हो गई है. वंचित समाज की किसी को परवाह नहीं. आत्मकेंद्रित व्यक्ति बस अपने तक सीमित है. कवि मानो ‘खुद से पूछे गए सवाल’ करता हुआ अपने समय समाज से पूछता है और हमें भी सोचने के लिए मजबूर करता है :
कितने आंसू सूख चुके
तुम्हारी मदद में आने से पहले?
तुम्हारी साझी जिम्मेदारी है
सहस्राब्दी की खुशहाली के लिए –
क्या तुम निरादर नहीं करती हो
एक अकेले क्षण
एक आंसू और एक चेहरे की सिकुड़न का? क्या तुम कभी भी किनारा नहीं करतीं
किसी दूसरे के संघर्ष से?
एक मेज़ पर एक ग्लास था
और किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया,
जब तक वह गिर नहीं पड़ा
बेढंगी हरकत के धक्के से.
क्या लोगों में दूसरे लोगों के लिए
चीजें होती हैं सरलतम ढंग से?
(अनुवाद: अशोक वाजपेयी रेनाता चेकाल्स्का)
कहा जा सकता है कि शिंबोर्स्का द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की पोलैंड की अत्यंत महत्वपूर्ण कवयित्री हैं. ये अपनी निर्भीकता, उन्मुक्तता, मौलिकता और जनाभिमुख अभिव्यक्ति के लिए जानी जाती हैं. इनकी कविताओं में विचारशीलता के साथ साथ तीव्र संवेदनशीलता मिलती है. साथ ही इनकी कविताओं में अस्तित्वपरक बुद्धिवाद भी हावी रहता है. दूसरे इनकी कविताओं में विद्यमान इतिहास, समाज, मानव सभ्यता के अंतर्विरोधों, कुरूपताओं, बर्बरताओं के दंश इनकी कविता को विशिष्ट बनाते हैं. इनकी अनेक रंगों और विशेषताओं वाली इस महत्वपूर्ण काव्य धारा को अभी और विस्तार से पढ़ने – देखने – समझने की आवश्यकता है.
संदर्भ :
1.आधुनिक पोलिश कविताएं, संपादन और अनुवाद – हरिमोहन शर्मा, राधाकृष्ण प्रकाशन न दि 110002,(1999)
2.कोई शीर्षक नहीं, अनुवाद – अशोक वाजपेयी रेनाता चेकाल्स्का, वाणी प्रकाशन न दि 11002,(2004)
3.वागर्थ-21, संपादक- प्रभाकर श्रोत्रिय, कलकत्ता 700017, (दिसंबर 1996)
4.www.culture.pl
5.https://en.m.wikipedia. org
कविताएँ
1.
शताब्दी का पतन
हमारी बीसवीं सदी पहले से बेहतर होनी थी जो अब कभी नहीं होगी
बचे हैं इसके गिनती के साल
डांवांडोल है इसकी चाल
सांसें बची हैं कम.
बहुत चीजें घटी हैं
जो नहीं घटनी चाहिए थीं
और जो होना चाहिए था
नहीं हुआ.
खुशी और बसंत- दूसरी चीजों के बजाय नजदीक आने चाहिए थे.
डर पहाड़ों और घाटियों से दूर भागना चाहिए था!
सच को जीतना था
झूठ के ऊपर.
कुछ एक परेशानियां नहीं आनी थीं
जैसे भूख युद्ध आदि
असहाय लोगों की असहायता का
आदर होना था
विश्वास या कुछ इसी तरह का कुछ और.
जिसने मौज मस्ती का सोचा था संसार में
अब फंसा पड़ा है
बेकार के कामों में.
मूर्खता में मज़ा नहीं
बुद्धिमत्ता में खुशी नहीं
उम्मीद
नौजवान लड़की नहीं है अब हाय.
ईश्वर सोच रहा था अंततः
आदमी अच्छा और मजबूत दोनों है
पर अच्छा और मजबूत
अभी भी दो अलग अलग आदमी हैं.
हम कैसे रहें? किसी ने मुझसे चिट्ठी में पूछा
मैं भी उससे पूछना चाहती थी
वही प्रश्न.
बार-बार, हमेशा की तरह
जैसा कि हमने देखा है
सबसे मुश्किल सवाल
सबसे सीधे होते हैं.
(अनुवाद: हरिमोहन शर्मा)
2.
यातनाएं
कुछ नहीं बदला है –
देह, दर्द का कुंड है
इसे सांस लेना,खाना और सोना होता है
पतली खाल, इसके एकदम नीचे बहता है खून
बड़ी तेजी से बढ़ते हैं, इसके दांत और नाखून
हड्डियां इसकी तोड़ी जा सकती हैं और जोड़ खींचे जा सकते हैं
यही सब सोचा जाता है यातनाओं में.
कुछ नहीं बदला है
अभी कांपती है जैसे कांपा करती थी
रोम के बनने से पहले और बाद में
बीसवीं सदी में
ईसा से पहले और बाद में
यातनाएं वैसी ही हैं जैसी हुआ करती थीं
पृथ्वी सिकुड़ गई है सिर्फ
जो कुछ हो रहा है
जैसे होता हो- बराबर के कमरे में.
कुछ नहीं बदला है
सिवा इसके कि आदमी बढ़ गए हैं
बढ़ गए हैं पुरानों के साथ-साथ नए अपराध वास्तविक, विश्वसनीय, क्षणिक और अस्तित्वहीन
पर देह के दंडित होने से निकली चीख
थी, है और रहेगी, भोली चीख-
सदियों से चली आ रही उतनी ही गहन और व्यापक.
कुछ नहीं बदला है
शायद रंग- ढंगों, समारोहों – नृत्यों के सिवा
सिर को बचाने की हाथों की अदा
फिर भी रही है वही की वही
देह तड़पती है, ऐंठती है, खिंचती है
धक्का लगने पर गिर पड़ती है जब–
घुटने टकराते हैं
चोट लगाती, सुजाती, लार टपकाती, खूनबहाती.
कुछ नहीं बदला है
सिवा नदियों के बहने के
जंगलों के आकार प्रकार के, तटों के, रेगिस्तानों और ग्लेशियरों के.
छोटी सी आत्मा उन्हीं दृश्यों के बीच घूमती है गायब हो जाती लौट आती, नजदीक आती, दूर चली जाती है
स्वयं से अजनबी होती, आत्म प्रवंचित
अभी गत संदेह, अभी संदिग्ध अपने अस्तित्व के प्रति
जबकि देह है और है और है
उसे और कहीं जाने को जगह नहीं.
(अनुवाद: हरिमोहन शर्मा)
हरिमोहन शर्मा प्रकाशन: चंद्रशेखर वाजपेयी कृत रसिक विनोद, उत्तर छायावादी काव्य भाषा, रचना से संवाद, आधुनिक पोलिश कविताएं (अनुवाद), मज़ाक (मिलान कुंदेरा), कथावीथि, साहित्य, इतिहास और आधुनिक बोध, नरेंद्र शर्मा (मोनोग्राफ- साहित्य अकादेमी), रामविलास शर्मा रचना संचयन (साहित्य अकादेमी) आदि hmsharmaa@gmail.com |