कालजयी रचनाकार काल को इसीलिए जीत लेते हैं कि उनसे हमेशा अंकुर फूटते रहते हैं, उनमें यह संभावना रहती है. देश–काल से परे भी उनके सभ्यागत निहितार्थ होते हैं. कोलम्बिया के उपन्यासकार गैबरिएल गार्सिया मार्केज ऐसे ही लेखक हैं, उन्होंने हिंदी कहानी को तो सबल ढंग से प्रभावित किया ही है एक युवा कवि की कविताओं में भी वह इतने नवोन्मेषी होंगे ?
अंचित की ये कविताएं उसी आतुर प्रेम के इर्द गिर्द हैं जिस प्रेम के आसपास मार्केज अपने को सृजित करते हैं.
अंचित की कविताएँ
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ll मार्केज के पुनर्पाठ ll
विषय प्रवेश
जितनी दूर जाता हूँ तुमसे–
उतना तुम्हारे पास.
दुनिया के अलग अलग शहरों में
अलग अलग सीढ़ियाँ हैं.
और क़दमों को तो बस चलते जाना है.
प्रेम का जीव विज्ञान पैदा होता है
रात्रि के उदर से
और तुमसे दूर अपनी निर्मिति–अनिर्मिति से उलझा हुआ
स्वयं –हंता.
एक मन डूबता है –
पराए आसमान में.
एक असफल प्रयास कि
आत्मा अपनी यात्रा समाप्त करे.
तुम मेरी हार की सहयात्री हो –
मेरे साथ ही टूट कर बिखरी हुई.
निराशा के समय प्यास की पूर्ति.
बताओ
हम अपनी उम्मीदों का क्या करें–
जब तक वे नहीं टूटती
हम अपने प्रेमों का क्या करें –
जब तक वे असफल नहीं होते.
हम अपनी बाँहों का क्या करें कि
बार बार हमने इनमें नए प्रेम भरे?
आख़िरी सवाल अपनी संतुष्टि से करना चाहिए.
उसके पैरों में भँवर पड़े, इसका दोषी कौन है?
तुम जिस बिछौने पर सोयी हो –
उसका रास्ता अबूझ है
और मेरी महत्वाकांक्षा फिर रही है
दूसरे दूसरे शयनकक्षों में.
फ़्लॉरेंटीनो अराइज़ा के ख़त
जहाँ सड़क ख़त्म होती थी वहाँ दूर बहुत दूर रात डूब जाती थी
और जहाँ सड़क शुरू होती थी, वहाँ एक कोने में बैठा मैं
रोज़ तुम्हारा इंतज़ार करता था.
इंतज़ार करते हुए जलता था चाँद से,
उसकी चमड़ी को दाग़ देना चाहता,
वैसे छूना था तुम्हारा जिस्म,
चाँद छूता था जैसे.
अपनी लाल शाल से जितना ऊन मैंने उधेड़ा,
हर धागा भरा तुम्हारे ना होने की बेचैनी से.
प्रेम खोए बिना कैसे प्रेम होता है ये मैं नहीं जानता
इसीलिए भी तुम्हारा न दिखना ज़रूरी था.
चाँद से चिढ़ता, मैं जिस जिस स्त्री के पास गया,
उन सब की गोदों में समंदर थे और
मेरे अंदर की आग को और भड़काते रहे.
हर एक दिन जिस दिन तुमने मुझे याद नहीं किया
मेरा एक एक केश सफ़ेद होता रहा.
जिस जिस रात तुम सोयी मुझसे दूर,
अपनी शर्मिंदगी को एक ताबीज़ में बांधे
बंदरगाहों पर भटकता रहा,समंदर खोजता.
तुम दिखोगी तब बसंत आएगा,
जब बसंत आएगा,मेरे शरीर पर फिर फूल उगेंगे.
तुम आओगी तो प्यार करोगी,
तुम आओगी तो मेरी ज़िंदगी भर जाएगी रातों से.
मैं यही सपना देखता था बिना सोए
और इसने ही मुझे जिलाए रखा .
शायर दोस्त राहुल के लिए
और औरतें होंगी
जो इंतज़ार करेंगी तुम्हारा
कि तुम लौटो जंगों से उनकी तरफ़,
तुम्हारे घाव उनकी संवेदना के पात्र बनेंगे
उनकी याद में तुम कई बार विरह गीत बनोगे
वो सुंदर होंगी, तुम्हारी आत्मा में,उनके जितने भी चित्र होंगे…
वो तुम्हारे पूर्व प्रेमों के चिन्ह सहलाती हुई
तुमसे प्रेम करेंगी,तुम्हारे शयनकक्ष में छोड़ेंगी अपने स्वप्न
उनके कोमल वक्ष तुम्हारी कामना में फिर देवता बनेंगे
प्रेम की आख़िरी पंक्ति से एक दिन,मेरे यात्री
लौटोगे तुम फिर मंच की ओर वापस
अपनी यात्रा समाप्त करते हुए –
उनकी लालसाओं के लिए
अपने दंभ घसने के दिन फिर आएँगे.
फिर से –
उन औरतों के तुम पहले पुरुष नहीं होगे,
जैसे वो तुम्हारी पहली औरतें नहीं होंगी.
भूल जाने की अचूक दवा
कोई नहीं है दुनिया में.
फिर भी आगे बढ़ते हुए हम अलग अलग गंधों में बिचरेंगे
हम और कुछ कर नहीं सकते,
कुछ बस में नहीं है,
प्रेम एक दुर्घटना की तरह ही याद रहता है,
अगली दुर्घटना तक.
दुखता हुआ घाव भर जाता है समय के साथ,
हमारा नायक़त्व इन सचों से बचता हुआ,मुँडेरें ढूँढता,
सूरज में जलता रहेगा.
प्रेम करते हुए और कविता करते हुए
हम भूलते रहेंगे सही और ग़लत कि अंत में
सिर्फ़ प्रेमी होना ही अंतिम लक्ष्य.
मान कर हम चलेंगे
युद्ध की ओर कि एक आदर्श औरत बैठी है
पूरी दुनिया से विद्रोह कर हमारे लिए अपनी बाहें खोले
एक शयनकक्ष है स्वपन की सबसे अंदर की दीर्घ गुफ़ाओं में
जहाँ तुम उसकी कमर से उलझे हुए हो.
जीवन हमारी भिक्षा की थैली में कुछ नहीं डालता,और आदर्श के तालु
सिर्फ़ संघर्ष का स्वाद क़बूल करते हैं.
हमारा प्रयोजन सिर्फ़ प्रेम करना है और युद्ध –
दिन इसी संकल्प के साथ शुरू होगा.
आख़िरी ख़त
मेरे अंदर कुछ बार बार चिंहुकता है
अपने गाँव की उस दीवार
(जिस के पास खड़ा कर लोगों को गोलियाँ मारी जाती थीं)
से सटकर खड़े होते ही,
मेरे अंदर कोई लहर उठती है,
और बहुत दूर जो समंदर है
उससे मिल जाना चाहती है.
वेदना के जिस खारे समंदर पर कोई पुल नहीं है,
तुम एक टापू की तरह इंतज़ार करती हो.
याद करना कि मैं भी इंतज़ार करता हूँ,
सब सूरजों और चाँदों के बीतते हुए,
लकड़ियों के गीले होते और सूखते हुए,
परछाइयों को दीवार बनते हुए देखते हुए
स्मृति–दोषों के साधारणीकरण के बाद भी,
हर दूसरी स्त्री के कान चूमते हुए,
बार बार लौट जाता हूँ अपने अंदर.
भीड़ के छोटे छोटे चौखाने,
आत्मा पर जोंक की तरह चिपकते हैं
और एकांत का परिश्रम, आईनों को चमकाने भर ही फ़लिभूत होता है,
मिट्टी की ओर लौट जाना तब– गाढ़ी भूरी मिट्टी,जिससे सनी हुई
ख़ून की एक मोटी जमती हुई लहर,
और तीन सौ लोग – नोचते हुए मेरी आत्मा.
जितनी बार लौटता हूँ बाहर,
सन्न करती है भीड़, आपाधापी,
कि कुछ नहीं बदलता हर बार,
बिना फ़िल्टर का शोर और सब ध्वनियों को काट फेंकने की जदोजहद.
एक भयंकर तूफ़ान आता है और मेरा जहाज़ ऐसे थपेड़े खाता है
मानों पानी हमदोनो का पाप हो–
खींचता हुआ बार बार और हम बार बार विरह उद्वेलित समर्पण करते हुए.
(मैं नाविक हूँ, मेरे पैर में घिरनी बनी है– कोई साइरन नहीं
जैसे ग्रीक समंदरों में होती है, पानी का छद्म काफ़ी है.)
फिर भी तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ
क्योंकि लैम्प की रोशनी में जलती हुई रातों का प्रयोजन यही है,
क्योंकि पीली धूप और बरसातों को मैंने और किसी तरह नहीं देखा,
क्योंकि मेरी आत्मा जहाँ सिली हुई है मेरे माँस से,
वहाँ जब भी चोट लगती है, मुझे महसूस होता है कि
मैं रेगिस्तान में टंगा हुआ जब भी आसमान की तरफ़ देखूँगा,
मेरी हथेलियों में जब भी मोटी कीलों से छेद किए जाएँगे,
मुझे सर ऊपर उठाए ये चीख़ना नहीं पड़ेगा कि
तुमने मुझे अकेला क्यों छोड़ दिया?
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अंचित
(उम्र २७ के आस-पास)
पटना में रहते हैं. गद्य कविताओं का संग्रह, ‘ऑफनोट पोयम्स’ के नाम से प्रकाशित है.
anchitthepoet@gmail.com
(सभी फ़िल्म -फोटो मार्केज़ के उपन्यास Love In the Time of Cholera पर इसी नाम से निर्देशक Mike Newell की फ़िल्म से)
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‘Love In the Time of Cholera’ के एक अंश का अनुवाद यहाँ पढ़ें– अपर्णा मनोज