ख्यात आलोचक विचारक प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने देशी आधुनिकता पर अन्वेषण के सिलसिले में वोल्गा नदी के किनारे रूस के प्रसिद्ध शहर अस्त्राखान की यात्रा की. वहां १६ वी शताब्दी से ही भारतीय व्यापारिओं की दमदार उपस्थिति के प्रमाण मिले हैं. यह यात्रा दिलचस्प तो है ही महत्वपूर्ण इस अर्थ में है कि यह यूरोपीय आधुनिकता की अवधारणा के बरक्स खुद भारतीय आधुनाकिता के पक्ष के कई आयाम रखती है, एक तरह से इस विचार पर ‘पैराडाइम चेंज’.
यह एक विचारक और अन्वेषक की यात्रा है जो कवि भी है.
अस्त्राखान के आसमान में दो दो चाँद…
पुरुषोत्तम अग्रवाल
पलास और एडेल के विवरणों को एक साथ पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दी व्यापारियों की हालत बिगड़ने की शुरुआत के बाद भी नये व्यापारी भारत से आते रहे. वे आते थे, किस्मत चमकाने की उम्मीद में, और उनकी मौजूदगी नोट की जाती थी, आश्चर्यजनक रूप से गरीब लोगों के रूप में. यह भी जाहिर है कि उनका आना जब भी बंद हुआ, व्यापार की संभावनाएं खत्म होने के कारण हुआ, समुद्र पार करने को पाप मानने के कारण नहीं.
पलास के कोई पचास साल बाद, एक फ्रेंच दंपती ने भी अस्त्राखान की यात्रा के दौरान हिन्दी कोठी में होती पूजा में शिरकत की थी. पति शोधकर्ता थे, और पत्नी-एडेल ओमेर द’ गेल थीं कवि. नाम सुनते ही मन में आया कि उनके नाम का ‘ओमेर’कहीं उस समय के यूरोपीय बौद्धिक जगत में व्याप्त ओमर खय्याम की ख्याति का संकेत तो नहीं करता? जो हो, उन्होंने 1839 में लिखा अपनी अस्त्राखान का यात्रावृत्त- ‘स्वर्ण सदी में दो यात्राएं’. हिन्दियों की लगातार बिगड़ती हालत का पता तो इससे लगता ही है, यह भी मालूम पड़ता है कि या तो एडेल सभी हिन्दुओं के लिए ‘ब्राह्मण’ शब्द का प्रयोग कर रही हैं, या फिर अस्त्राखान में ब्राह्मण भी उल्लेखनीय संख्या में थे. हिन्दी-तातार रक्त-मिश्रण का भी एडेल स्पष्ट उल्लेख करती हैं, और चूँकि कवि थीं, सो, पूजा का वर्णन करने के बाद, सवाल पूछती हैं— “क्या यह सही नहीं कि पूजा कम से कम और भगवान का आदर अधिक से अधिक करना चाहिए”.
हमने एडेल की ‘स्वर्ण सदी में दो यात्राएं’ का उद्धृत अंश पढ़ा एकातेरिना सोस्मिना की पुस्तक ‘लेरमतोव के जीवन की कहानी’ (2011) से. सोस्मिना एडेल को उद्धृत करती हैं—
\”यहाँ बहुत सारे भारतीय हैं, लेकिन अब पहले की तरह व्यापार नहीं करते. ब्राह्मण पहले काल्मीक औरतों के साथ रहते थे, अब इनके बच्चे तातार कहलाते हैं. दो एशियाई खूनों के मिलने से बनी इस नस्ल के नाक-नक्श यूरोपीय हो गये हैं, न तो काल्मीकों जैसी चुंधी आँखें हैं न भारतीयों जैसा सांवला रंग. ये दोगले बच्चे कोई काम करने से मना नहीं करते. यहां फारस के लोग भी हैं. रूस में लगे अनेक प्रतिबंधों के कारण अस्त्राखान में व्यापारिक गतिविधि ठप्प हो गयी है. कुछ सौ ही भारतीय बचे हैं, और वे एकदम ग़रीब हैं. इनकी और फारसियों की दुकानों पर महंगे फैशनेबल कपड़े तक उपलब्ध नहीं हैं.
\”यहाँ बहुत सारे भारतीय हैं, लेकिन अब पहले की तरह व्यापार नहीं करते. ब्राह्मण पहले काल्मीक औरतों के साथ रहते थे, अब इनके बच्चे तातार कहलाते हैं. दो एशियाई खूनों के मिलने से बनी इस नस्ल के नाक-नक्श यूरोपीय हो गये हैं, न तो काल्मीकों जैसी चुंधी आँखें हैं न भारतीयों जैसा सांवला रंग. ये दोगले बच्चे कोई काम करने से मना नहीं करते. यहां फारस के लोग भी हैं. रूस में लगे अनेक प्रतिबंधों के कारण अस्त्राखान में व्यापारिक गतिविधि ठप्प हो गयी है. कुछ सौ ही भारतीय बचे हैं, और वे एकदम ग़रीब हैं. इनकी और फारसियों की दुकानों पर महंगे फैशनेबल कपड़े तक उपलब्ध नहीं हैं.
एक दिन एक ब्राह्मण के घर पूजा में शामिल होने का मौका मिला. वहाँ कुछ नहीं था, सिवा तुर्की ढंग के एक दीवान के. पूजा-सामग्री और प्रतिमाओं ने हमारा ध्यान खींचा. दो ब्राह्मण पूजा की तैयारी कर रहे थे, एक का चेहरा तांबई था और टोपी मलमल की थी. उसने सबका ध्यान अस्त होते हुए सूर्य की ओर खींचा और एक समुद्री सीपी (जाहिर है कि शंख) बजाने लगा. सूरज जैसे इसी सीपी की आवाज में डूब गया. ये लोग दीवार में लगे एक स्लेटी रंग के पत्थर की पूजा कर रहे थे, और उसे महान विरक्त की आत्मा बता रहे थे, यह पत्थर इन लोगों के अनुसार करामाती था.
इन लोगों ने अगरबत्तियां जलाईं, जिनके धुंए और खुशबू के बादल में चीजें अजीब लगने लगीं, हम पर ऐसा प्रभाव हुआ कि सच और फैंटेसी का फर्क मिट गया. सब कुछ गहरी चुप्पी में डूब गया. अचानक कुछ ‘रिचुअल’ हुए और दोनों ब्राह्मण घुटनों के बल गिर कर प्रार्थना करने लगे. पूजा में डूबे इन लोगों की आँखें चमकने लगीं. माहौल डरावना हो गया, ब्राह्मण दैत्यों जैसे लगने लगे. अब ये गतिविधियां प्रार्थना जैसी नहीं लग रही थीं. मुझे तो डर, आश्चर्य, उत्सुकता और घृणा का मिला-जुला अहसास हो रहा था. ये लोग अगर स्वयं थक न गये होते तो हम लोग यह सब और सह न पाते.
क्या यह सही नहीं कि पूजा कम से कम और भगवान का आदर अधिक से अधिक करना चाहिए.\”
पलास और एडेल के विवरणों को एक साथ पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दी व्यापारियों की हालत बिगड़ने की शुरुआत के बाद भी नये व्यापारी भारत से आते रहे. वे आते थे, किस्मत चमकाने की उम्मीद में, और उनकी मौजूदगी नोट की जाती थी, आश्चर्यजनक रूप से गरीब लोगों के रूप में. यह भी जाहिर है कि उनका आना जब भी बंद हुआ, व्यापार की संभावनाएं खत्म होने के कारण हुआ, समुद्र पार करने को पाप मानने के कारण नहीं.
एडेल से पहले, पी.एस. पलास से भी आठ बरस पहले, मिखाइल चुल्कोव लखपति और विपन्न दोनों तरह के हिन्दी व्यापारियों का उल्लेख करते हैं. मिखाइल चुल्कोव ने ‘रूसी व्यापार का इतिहास- आरंभ से लेकर अब तक’ नामक पुस्तक यूनिवर्सिटी प्रेस, मॉस्को से 1785 में प्रकाशित की थी, यह पुस्तक ‘साम्राज्ञी इकेतरीना’ को समर्पित है, हम ज़ोया की कृपा से इसका 1785 वाला मूल संस्करण देख सके. ‘अगरिजानों’ के लिए काफी तीखी शब्दावली का प्रयोग करते हुए चुल्कोव लिखते हैं-
\”अस्त्राखान की हिन्दी सराय में…अब यह एक रिहाइशी चौक या बाड़ा है… भारतीय कोठी पुराने मठों की तरह पत्थर की बनी है, यहाँ सौ भारतीय निवास और व्यापार करते हैं. उनके घरों के दरवाजे बाहर की ओर नहीं, अंदर आँगन की ओर खुलते हैं. ये लोग आम तौर से अस्त्राखान में बिना वीजा के दस-बीस-तीस के समूह में रहते हैं. इनमें लखपति लोग भी हैं, लेकिन ये न तो स्थानीय व्यापारी होने का प्रमाण पत्र लेते हैं न ज़मींदार होने का. इसीलिए नागरिक कर्त्तव्य भी नहीं निभाते. सिर्फ पेशेवर टैक्स देते हैं 12 रूबल की दर से. रूसी इनके साथ काम करते हैं,जिनमें मुख्यत: अस्त्राखान के तातार हैं. इन्हें भारतीय उधार माल देते हैं उधार पर ब्याज लेते हैं, बहुत से तातार उनके ऋण तले दबे हैं, और ऋण के बदले अपनी पत्नियाँ सौंप देते हैं जिनसे भारतीयों ने बहुत से बच्चे पैदा किए हैं. जिन्हें अस्त्राखान में अगरिजान तातार कहा जाता है- याने वे तातार जो गिरवीं (रूसी शब्द है- ज़ालोग) रखी गयी तातारिनों से पैदा हुए हैं.
हिन्दी सराय में बने घरों के दरवाजे आज तक भी बाहर की ओर नहीं, अंतर आँगन की ओर ही खुलते हैं!\”
चुल्कोव से भी पहले, ‘पूतिशेस्तविए पा रूसी’ (रूस की यात्रा) नामक पुस्तक में “शुरुआती अगस्त 1769 से 5 सितंबर 1770 तक” की अपनी यात्रा का विवरण देते हुए, इंपीरियल एकेडमी ऑफ साइंस, लंदन के डॉक्टर सेम्युअल ग्योर्ग गिमेलिन और भी कठोर शब्द अगरिजानों के संदर्भ में इस्तेमाल कर रहे थे:
\”अस्त्राखान में तातारों के तीन मोहल्ले हैं, इनमें से पहला अगरिजान मोहल्ला कहलाता है. अगरिजान तातार शब्द है, जिसका अर्थ है, विवाहेतर संबंध से उत्पन्न, अवैध संतान ( रूसी में शब्द है वीरदका) अगरिजान याने वो तातार जो भारतीयों से पैदा हुए हैं, भारतीय तातारिनों से शादी करके बच्चे पैदा करते हैं जिनकी तादाद इतनी ज्यादा है कि पूरा मोहल्ला बन गया है.\”
ज़ोया ने जो हमें दिखाया, वह मूलत: जर्मन में प्रकाशित इस पुस्तक का 1777 में सेंट पीटर्सबर्ग से छपा हुआ रूसी अनुवाद था.
अस्त्राखान में ही प्रोफेसर रहे एलेग्जेंदर आई. युख्त(1917-1994) की रशियन हिस्ट्री इंस्टीट्यूट, मास्को से 1994 में प्रकाशित, ‘पूर्वी देशों के साथ व्यापार और रूस का घरेलू व्यापार’ नामक पुस्तक में दी गयी सूचनाएं रोचक हैं, और सुरेन्द्र गोपाल, स्टीफन डेल और अरूप बैनर्जी द्वारा दी गयी सूचनाओं से मेल खाती हैं. ब्यौरों में जाना यहाँ जरूरी नहीं, लेकिन, युख्त के अपने शब्दों में, सोलहवीं सदी से ही सक्रिय भारतीय व्यापारी “18 वीं सदी में काफी ज्यादा माल लाने लगे थे, फारस के व्यापारियों जितना ही…” और, इन्हें नगर के समाज में “बहुत ऊंचा दर्जा हासिल था”. क्यों न होता, जबकि ‘रूस के कुल आयात का 10.6% भारतीय ही लाते थे. कुछ चीजों पर एकाधिकार इस हद तक कि उनका पिचासी फीसदी से ज्यादा कारोबार इन्हीं के हाथ में था, निर्यात गतिविधि का 40% अस्त्राखान में अड्डा जमाए बैठे भारतीय व्यापारियों के हाथ ही में था’.
युख्त बताते हैं, ‘भारतीय व्यापारी स्थानीय ईसाइयों के बजाय मुस्लिम तातारों के साथ सामाजिक संबंध ज्यादा बनाते थे, स्वाभाविक ही था क्योंकि इन हिन्दू व्यापारियों के लिए ईसाइयों की तुलना में मुस्लिम समाज अधिक जाना-पहचाना था. कुछ तो स्थानीय तातार औरतों से संबंध बना कर घरजमाई ही बन जाते थे. धीरे-धीरे ये लोग अस्त्राखानिस्खइंजित्सेफ(अस्त्राखानी भारतीय) कहलाने लगे. भारतीय और तातारी संपर्क से उत्पन्न संतानें अगरिजान कहलाईं. जनगणनाओं में इनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ती हुई नोट की गयी है. 1738 में 48, 1746 में 109 और 1824 में 117. इनके वंशज अब अगरिजान तातार कहलाते हैं’.
इन्हीं अगरिजानों की खोज में तो हम आए हैं, लेकिन स्थानीय समाज और संस्कृति के स्वभाव के कारण अपनी अलग पहचान बनाए रखना कठिन होता गया, और ये लोग अपने अपने आपको अगरिजान कहने में संकोच करने लगे, स्वयं को पूरी तरह रूसी या फिर तातार जताने लगे. ‘अगरिजान’ शब्द संकोचजनक रक्तमिश्रण की ओर संकेत जो करता था. इस बार तो नहीं, अगली बार शायद कोई मिले जो अपने आपको अभी तक अगरिजान कहता हो, एक जमाने में तो पूरा मोहल्ला था, इन लोगों का, जिमिलिनो गोरद याने आम लोगों की बस्ती में. खैर.
अगरिजानों के प्रति तत्कालीन ‘श्रेष्ठ’ समाज के मन में कैसे भाव थे, यह चुल्कोव और गिमेलिन के उद्धरणों से आपको मालूम पड़ ही गया है. आशंका यही है कि ऐसे ही भाव अभी भी होंगे, तभी तो अपने आपको ‘अगरिजान’ कहने को कोई तैयार नहीं. हालाँकि, इल्या वसीलिविच के अनुसार, अपने को भारतवंशी मानने में संकोच के बावजूद यह तथ्य अपनी जगह है कि अस्त्राखान के अनेकों तातार साँवले हैं. इल्या का यह कहना बहुत ही मानीखेज था कि, “अगरिजान शब्द की व्युत्पत्ति और व्याख्या भारतीय भाषाओं में खोजें, हमारे यहाँ इसकी व्याख्या संभव नहीं”.
करनी ही है इस व्याख्या की खोज, भारतीय भाषाओं में भी, रूसी में भी.
भारतीय व्यापारियों की उपयोगिता के कारण सत्ता-तंत्र में उनका प्रभाव था, लेकिन अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध के आते आते, चूँकि विभिन्न कारणों से भारत से होने वाले व्यापार में कमी आ रही थी, सो इनका प्रभाव भी घट रहा था. हिन्दी व्यापारियों से परेशान रूसी व्यापारी अब इनका प्रभाव घटाने में कामयाब हो रहे थे. ऐसा भी लगता है कि इस समय, स्थानीय समाज में इन लोगों के प्रति असहिष्णुता बढ़ रही थी, उन पर ईसाइयत लादने की कोशिशें की जा रही थीं. नीतिगत धरातल पर सत्ता-प्रतिष्ठान नहीं चाहता था कि भारतीय व्यापारियों की जीवन-पद्धति में हस्तक्षेप किया जाए, लेकिन व्यवहार में, चर्च के दबाव में, या स्थानीय व्यापारियों की ईर्ष्या के कारण भारतीय व्यापारियों की मुश्किलें बढ़ने लगी थीं, यह बात विभिन्न स्रोतों को ध्यान से देखने पर जाहिर हो जाती है.
ये व्यापारी मॉस्को तक व्यापार करते थे, हालांकि ईर्ष्या-दग्ध रूसी व्यापारी चाहते थे कि भारतीयों की गतिविधियां अस्त्राखान से आगे न बढ़ पाएं, फिर भी ये लोग मॉस्को में थे, वहाँ इनकी बस्ती थी. स्थानीय अभिजन की ईर्ष्या से बचने के लिए ज्यादातर भारतीय व्यापारी, इल्या के शब्दों में, “लो-प्रोफाइल मैंटेन करते थे”, सादा जीवन बिताते थे. 1770 तक यह व्यवस्था थी कि पूर्वी देशों के व्यापारी यूरोपीय रूस के बाहर ही रहें. 1770 मे अस्त्राखान के इलाके में स्तीफान राजिन के नेतृत्व में किसान विद्रोह हुआ, जिसकी धार विदेशी व्यापारियों के विरुद्ध करने में स्थानीय व्यापारियों और सामंतों ने सफलता पाई. दूसरी ओर, तातारों ने विद्रोहियों के हमलों से भारतीयों की रक्षा की. रूसी सत्ता-प्रतिष्ठान को भारतीय व्यापारियों के महत्व का कितना बोध था, यह इससे भी जाहिर होता है कि इस विद्रोह के बाद, नुक्सान की भरपाई के लिए, केंद्रीय सत्ता के नेक इरादों का यकीन दिलाने के लिए ‘अस्त्राखान इंजित्सकी’ को मास्को तक व्यापार करने की औपचारिक अनुमति दे दी गयी.
14-16 सितंबर 2004 को ‘रूस की ऐतिहासिक नियति और वी. एम. तातिशेव की विरासत’ पर अस्त्राखान में एक सेमिनार आयोजित किया गया था. तातिशेव अठारहवीं सदी में अस्त्राखान के गवर्नर थे. इल्या के शब्दों में, तातिशेव “लीजेंडरी फिगर थे, बिजनेस समझते थे”; इसीलिए उन्होंने भारतीय व्यापारियों को आश्वस्त भी किया था, और इसीलिए भारतीयों का एक प्रमुख व्यापार-जवाहरात का कारोबार -सरकारी हाथो में भी ले लिया था. भारतीय बड़ी तादाद मे फारस में बसे थे. फारस बड़ा केंद्र था, किसी माल के फारस पहुंचने की ही देर थी उसके बाद तो भारतीय और आरमीनियाई उसे दुनिया भर के बाजारों में फैला ही देते थे. भारतीय व्यापारी मुख्यत: बुखारा और हीबा (खीबा) के रास्ते आते थे, इन्हीं शहरों में उनके अड्डे पहले पहल बने थे. भारतीयों के व्यापार में जहाजों का व्यापारी जहाजों का खूब इस्तेमाल होता था, फारस तक तो माल जहाजों पर ही आता था. उसके बाद, अपनी सुविधा के अनुसार, ये लोग ‘सुखोइ’ ( सूखे!) रास्ते से आते थे, या कैस्पियन पार करते थे.
जवाहरात फारस के रास्ते भारत से ही आते थे, जार के लिए जवाहरात का चयन करने वाला जौहरी भी एक लंबे अरसे तक भारतीय ही था— इस व्यापार में आरमीनियाई तो भारतीयों के प्रतिस्पर्धी थे ही, यूरोपीय कंपनियाँ भी महत्वपूर्ण थीं. इस तितरफा प्रतिस्पर्धा में रूसी व्यापारी पिछड़ जाते थे. तातिशेव द्वारा जवाहरात-व्यापार के सरकारीकरण से विदेशियों की प्रतिस्पर्धा से घरेलू व्यापार को होने वाले नुक्सान में कमी तो आई होगी. रूसी व्यापार की जायज हित-चिंता के बावजूद तातिशेव ने सरकारी प्रशासन को रूसी व्यापारियों की ईर्ष्या का उपकरण नहीं बनने दिया.
1744 में रिटायर होने के बाद, वासिली तातिशेव इतिहास-लेखन में जुट गये, और ‘दैवीय इच्छा’ की बजाय ‘मानवीय चित्त’ के विकास को इतिहास की निर्धारक शक्ति निरूपित किया. स्वाभाविक है कि तातिशेव अस्त्राखान की सामूहिक स्मृति में प्रगतिशील जीवन-दृष्टि और आर्थिक उन्नति के प्रतीक बन गये हैं.
तातिशेव के सम्मान में आयोजित इस सेमिनार में प्रस्तुत एन.ए, पपोव का पेपर-“ 18वीं सदी में अस्त्राखान में भारतीय बस्ती की दैनंदिन समस्याओं का इतिहास” –रोचक सूचनाएं देता है.
भारतीय व्यापारियो को आश्वस्त करने के लिए, तातिशेव ने 26 दिसंबर, 1744 को आदेश जारी किया, “आने वाले व्यापारियों के साथ वैसे ही अच्छे संबंध रखे जाएंगे, जैसे आज तक रहे हैं, उन पर लगाए गये अदालती मामले उन्हीं के कानूनों के अनुसार निबटाए जाएंगे, उन पर ईसाइयत लादने की कोशिशें बर्दाश्त नहीं की जाएंगी, और वे अपनी धार्मिक गतिविधियां, अपने रीति-रिवाज अबाध रूप से जारी रख सकेंगे”. इसके पहले सत्रह सितंबर को तातिशेव एक आदेश जारी करके ‘यहाँ रहने वाले व्यापारियों का स्टेटस’ निर्धारित कर चुके थे. इस आदेश के अनुसार, भारतीय व्यापारी आगे से अस्त्राखान के ही व्यापारी कहलाएंगे, लेकिन अपनी सांस्कृतिक पहचान सुरक्षित रखते हुए, “अपने मामलों को निपटाने के लिए अपने न्यायाधीश नियुक्त करने का अधिकार सुरक्षित रखते हुए”.
जाहिर है, संकेत भारतीयों के बीच प्रचलित बिरादरी पंचायतों की ओर है. गवर्नर का आदेश इन पंचायतों के न्यायिक अधिकार-क्षेत्र को औपचारिक मान्यता दे रहा था. इन पंचायतों की गतिविधियों को व्यवस्थित रूप देने के लिए विशेष अदालती संगठन- रातगाउस- के गठन की बात भी आदेश में कही गयी है.
यह आदेश सत्रहवीं सदी से चली आ रही औपचारिक, प्रशासनिक स्थिति का पुन: रेखांकन ही कर रहा था. सत्रहवीं सदी में, भारतीय व्यापारी अपनी गतिविधियाँ ईरान से रूस तक बढ़ा रहे थे. इसी सदी के तीसरे दशक में रूसी शासकों ने विदेशी व्यापारियों को सक्रिय रूप से बढ़ावा देने की नीति अपनाई. भारतीय व्यापार के केंद्र के रूप में अस्त्राखान का विकास इसी नीति का परिणाम था. भारत के साथ व्यापार का अर्थ है समृद्धि, यह बात अन्य यूरोपीय ताकतों के साथ रूसी सत्ता भी जानती थी. भारत पहुँचने वाले रास्तों की खोज करने में रूसी पहले से सक्रिय थे. अफांसे निकितिन 1466-72 भारत में था, उसके विवरण सुलभ हैं, और वह वेनिस निवासी कोंटी (1435-44) और वास्को डि गामा के अलावा अकेला यूरोपियन है जिसने उस वक्त के भारत के बारे में लिखा है.
अस्त्राखान में बसने वाले भारतीय व्यापारियों में हिन्दू ही थे, मुसलमान रहे भी होंगे, तो इक्का-दुक्का ही. रूसी समाज के लिए मुसलमान तो जाने-पहचाने थे, लेकिन ये पैगन, मूर्तिपूजक, गोपूजक लोग, जो कि अपने मुर्दों को दफनाने के बजाय जलाते थे…इन्हें पचाना स्थानीय समाज के लिए कठिन था. राजसत्ता इन पैगनों की उपयोगिता जानती थी, इसलिए इन मारवाड़ी, पंजाबी, मुलतानी, गुजराती और सिंधी हिन्दुओं को अपने धर्म, रीति-रिवाज के पालन की छूट देना चाहती थी, लेकिन सीमित ही छूट. इल्या वसीलिविच ने याद दिलाया कि “उदारता का अर्थ मंदिर-निर्माण की अनुमति नहीं था”….बस, इतना ही कि आप अपनी हिन्दी सराय के किसी कमरे में, या अपने घर में अपने ढंग से पूजा करें, तो रोक-टोक नहीं है. सिद्धांतत: यह भी कि यदि कोई कट्टरपंथी आपकी पूजा आदि में व्यवधान डाले तो उसे रोका जाएगा; लेकिन, कई बार, स्थानीय प्रशासन की सहानुभूति भी कट्टरपंथियों के साथ ही होती थी. उधर मॉस्को को ‘जन-भावनाओं’ की रक्षा करने से ज्यादा चिंता धन-निर्माण की थी इसलिए स्थानीय प्रशासन के विरोध के बावजूद, 1683 में रूसी सरकार ने इन पैगनों को नगर के बाहर अपने मृतकों के शवदाह की छूट दे दी थी. इस कानूनी मान्यता के बावजूद शवदाह को सामाजिक मान्यता कभी नहीं मिली. स्थानीय रूसी समाज की नाराजी से बचने के लिए शवदाह नगर के बाहर जंगल में छुप कर ही करना होता था. हाँ, केन्द्रीय सरकार के इस रवैये का यह नतीजा जरूर हुआ कि सत्रहवीं सदी तक हिन्दुओं को जबरन रशियन ऑर्थोडॉक्स चर्च में शामिल नहीं किया गया.
पपोव आगे बताते हैं, वोल्गा-जल का उपयोग गंगा-जल की जगह करने वाले इन भारतीय व्यापारियों की बस्ती में दरवेशों को वही आदर मिलता था, जो ब्राह्मणों को. हिन्दी सराय में तीन कमरे सामूहिक गतिविधियों के लिए था, इनमें मुख्य था, “ताकुर दुआरा” (कहने की आवश्यकता नहीं कि यह ‘ठाकुर-द्वारा’ का रूसी उच्चारण है.) सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि “पुजारी ब्राह्मण स्थानीय भी होते थे, और बाहर से भी आते थे, बड़े व्यापारी अपने साथ ब्राह्मणों को लेकर आया करते थे”.
जाहिर है कि इनमें से कुछ यहीं रह जाते थे, लेकिन कुछ वापस भी जाते थे, वरना “स्थानीय” और “बाहर से आने” वालों के बीच अंतर करने की जरूरत नहीं पड़ती. यह भी जाहिर है कि व्यापार करने वाले बनियों में ही नहीं, धर्मोदेशों और रीति-रिवाजों का निष्ठापूर्वक पालन करने वाले ब्राह्मणों में भी ऐसे लोग थे, जो समुद्र-यात्रा निषेध की परवाह नहीं करते थे, और परवाह न करने के अपराध मे जाति-बाहर भी नहीं कर दिये जाते थे. वियतनाम, ईरान, मिश्र, रूस और ईथियोपिया तक में बसे व्यापारियों और दीगर भारतीयों की जीवन-पद्धति का गंभीर अध्ययन भारतीय इतिहास के बारे में प्रचारित किये गये अनेक अंधविश्वासों का उपचार कर सकता है.
पपोव इन हिन्दू व्यापारियों की जीव-दया के बारे में पोलिश यात्री यापतोत्स्की द्वारा 1797 में की गयी टिप्पणी उद्धृत करते हैं, “बहेलियों से पक्षी खरीद कर भारतीय उन्हें आजाद कर देते हैं, आवारा कुत्तों को भोजन कराते हैं, जीवदया का व्यवहार करते हैं”. यापतोव्स्की ने यह भी लिखा है कि “ये लोग शाम को बाग़ में हवाखोरी करते हैं. हिन्दी सराय चौकोर इमारत है, इसके अंदर विशाल आँगन है. यहाँ के निवासियों की दुकान में ही घर होता है, खिड़कियां नहीं बस छत में रोशनदान होता है, छोटी अंगीठी पर खाना बनाते हैं. ये लंबी बांहों वाले कुर्ते पहनते थे, उस पर सिल्क का गाउन और उस पर ठंड के दिनों में बोरी सा रंग-बिरंगा कपड़ा. पगड़ी ऐसे बाँधते थे कि चाँद दिखती थी, पुजारी लोग सफेद या लाल पगड़ी बाँधते थे”.
यापतोस्की ने भी पलास और एडेल की तरह, हिन्दी सराय के ‘ताकुर दुआरा’ में पूजा होते देखी थी, जोकि पपोव के शब्दों में, “उसे उतनी ही पसंद आई, जितनी कि आ सकती थी!”
विभिन्न स्रोतों से अस्त्राखान के हिन्दी व्यापारियों के नाम भी प्राप्त होते हैं. डेल की बात याद करें, इन हिन्दू नामों के उच्चारण समझने और अपनी भाषा में उन्हें दर्ज करने में रूसी अधिकारियों को दिक्कत होती थी. सबसे ज्यादा मार्के की बात यह है कि इस तरह दर्ज किये गये नामों में जातिवाचक शब्दों का उल्लेख तक नहीं है. इनमें से किसी नाम के साथ वह नहीं मिलेगा, जिसे आज हम ‘सरनेम’ कहते हैं. व्यक्ति के नाम के साथ जो शब्द लगाया गया है, वह या तो उसके पिता का नाम सूचित करता है, या उसके निकास का स्थान. बगारी आलमचंदोफ याने आलमचंद का बेटा बगारी, टेकचंद लालयेव याने लाल का बेटा टेकचंद; और अमरदास मुल्तानी याने मुल्तान का अमरदास, मारवाड़ी बारायेव याने मारवाड़ का बारायेव.
इन व्यापारियों में सबसे बड़े, संपन्न व्यापारी थे- जेगात्रा फतेचंद. 25 सालों तक आयात-निर्यात के काम पर छाए रहे फतेचंद की कंपनी का नाम सभी कस्टम रजिस्टरों में मिलता है. 1730 में सबसे ज्यादा चुंगी फतेचंद ने ही चुकाई थी. इनकी कंपनी कैस्पियन सागर में तैनात रूसी नौसेना को भी माल सप्लाई करती थी. लेकिन इन व्यापारियों में सबसे नाटकीय जीवन और चरित्र मारवाड़ी बारायेव का ही था. बीस साल के छोटे से अरसे में ही मारवाड़ी बारायेव ने जो उतार-चढ़ाव देखे, उनसे लगता है जैसेकि वह जीवन नहीं, कोई उपन्यास जी रहा था. बारायेव शब्द संभवत: बालदेव या बलदेव का रूसी उच्चारण हो. कौन जाने, यह शब्द ‘बारायेव’ अपने ‘बड़ा’ का ही कामचलाऊ रूसीकरण हो, इस मारवाड़ी के ‘बड़ा आदमी’ बनने की कहानी का संकेतक हो.
जो हो, बारायेवजी से मुलाकात तो ठीक से, इस खोज-यात्रा के दूसरे दिन ही हुई. पहले दिन का अंत हो रहा था, हमें तो पता नहीं चला, कब लंच का समय हुआ, कब चाय का. ज़ोयाजी ने ही चाय पिलवा दी थी. ज़ोया बार-बार याद दिलाती थीं, श्री के.एल. मलिक की, जिन्हें मैं ही नहीं, बहुत से लोग, ‘जेएनयू लाइबेरी की आत्मा’ मानते हैं. वैसा ही सहज ही मदद करने का स्वभाव, अपने पुस्तकालय के बारे में वैसी ही मुकम्मल जानकारी, अपने प्रिय विषय में वैसी ही महारत…
होटल पहुँचने के बाद, तरोताजा हो कर, सोचा कि ‘सिटी सेंटर’ भी तो देखा जाए, शाम की रौनक देखी जाए. निकले वीक्तर महोदय के रथ में, और यह लीजिए, थोड़ी देर में फिर से क्रुप्सकाया लाइब्रेरी के ही आस-पास के इलाके में. फर्क यह कि अब रोशनी सितंबर की चमकीली धूप की नहीं, बिजली की रंग-बिरंगी बत्तियों की थी. वीक्तर साहब की ओर देखा तो शरारत या भोलेपन से मुस्करा कर उन्होंने फरमाया, ‘दिन में आप काम करने आए थे, अभी सैर करने…लेकिन सिटी सेंटर तो वही रहेगा ना जो दिन में था…’
बिल्कुल ठीक बात…
क्रुप्सकाया लाइब्रेरी के दायें हाथ, भीतर की ओर जाती सड़क पर बनी, रंग-बिरंगी रोशनियों से सजी दुकानों से गुजरते हुए जब पीछे की तरफ पहुँचे तो देखा एक पार्क के चारों तरफ सरकारी इमारतें. नीम-अंधेरा और सन्नाटा. लेकिन जो इक्का दुक्का लोग वहाँ टहल रहे थे या बेंचों में पार्क पर बैठे थे, उनके ढंग-डौल से जाहिर था कि सन्नाटे का मतलब असुरक्षा नहीं है. न जाने क्यों, येरेवान के चमकीले और गुलजार रिपब्लिक चौक से अस्त्राखान का यह खामोश चौक ज्यादा अपना सा लगा. लगभग उदास, कुछ अंधेरे कुछ उजाले में कुछ सोचता सा, अपने आप से जैसे कुछ बतियाता सा..
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अनिल इधर-उधर टहल रहे थे, मैं एक बेंच पर जा बैठा था, चुपचाप…अंदर तक चुपचाप. कोई यादें नहीं, कोई बातें नहीं. इक्का-दुक्का कोई बात मन में आए भी तो बिना कोई छाप छोड़े फिसल जाए. कोई थकान नहीं, उत्तेजना भी नहीं.
मैं उदास नहीं, सिर्फ खामोश था. किसी से अलग नहीं, सिर्फ एकांत में था.
अनिल बात बूझ रहे थे, टहलते रहे, किसी से शायद कुछ देर बतियाया भी उन्होंने.
पता नहीं, कितनी देर बाद, हौले से मेरा कंधा छू कर, बहुत धीमी आवाज में अनिल ने कहा, ‘देर हो रही है, चलें पुरुषोत्तम?’
हाँ, और क्या, चलें…
बाद में, अनिल ने थोड़े संकोच, थोड़ी शरारत के साथ बताया कि उन्होंने मेरे एकांत का फोटो ले लिया था
उसी रात, यह फोटो लिया था, लेकिन दोस्तों से साझा किया मार्च के अंतिम सप्ताह में, फेसबुक के जरिए. उन दिनों, मुराकामी का नया उपन्यास ‘वन क्यू ऐट फोर’ पढ़ रहा था. ऐसा उपन्यास जिसे खत्म करने को जी न चाहे. पढ़ते पढ़ते एकाएक ही इस फोटो में दिखते ‘अस्त्राखान के आसमान में दो-दो चाँद’ याद आ गये थे…
फोटो के साथ लिखा,‘मुराकामी के उपन्यास वन क्यू ऐट फोर (1Q84) में जो लोग 1984 से 1Q84 की समानांतर दुनिया में चले जाते हैं उन्हें आसमान में एक की जगह दो चाँद दिखते हैं…
मुझे तो सितंबर की उस रात अस्त्राखान के आकाश में वोल्गा के ऊपर ये टो चाँद दिख गये थे, देखिए कैसे पास आ कर आपस में कानाफूसी कर रहे हैं…
1984 के समानांतर के 1Q84 की तरह वह सितंबर 2011 के समानांतर मेरा अपना सितंबर 2011था…अस्त्राखान में….’
दोस्तों को फोटो पसंद आया. मुझे अच्छे लगे उनके कमेंट्स. यारों ने अपनी फोटोग्राफी कला का भी लोहा माना. प्रबोध झिंगन से बरसों से मुलाकात नहीं हुई है, उन्हें मेरे ‘व्यक्तित्व के इस नये पहलू का परिचय पा कर सुखद आश्चर्य हुआ’; हालाँकि पहलू नया है नहीं. जैसाकि समीर ने इस प्रसंग में याद किया, ‘जनाब को फोटोग्राफी में बहुत रुचि है’. सईद अयूब को मिस्र की तिलिस्मी कहानियाँ याद आने लगीं, तो अशोक पांडेय ने ‘इससे सुंदर नजारा नहीं देखा’; प्रकाश राय को तो यह फोटो देख कर क्या, अस्त्राखान शब्द सुनते ही इब्न बतूता की याद आने लगती है.
मनीषा कुलश्रेष्ठ को याद आई वह कविता, ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’…और उन्होंने पूछा, ‘सरजी जे है का चीज?’ चीज तो वही है जो थी, अस्त्राखान के आसमान में दो-दो चाँद; सबके सितंबर, 2011 के समानांतर, मेरा अपना सितंबर, 2001—अस्त्राखान में…
और इस समानांतर सितंबर की अगली तारीख—बारह… इस बार के सफर का आखिरी दिन…वही लाइब्रेरी, वही कमरा…बारायेव..
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(राजकमल प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य यात्रा-वृतांत ‘हिन्दी सराय: अस्त्राखान वाया येरेवान’ का एक अंश. यह यात्रा सितंबर 2011 में की गयी थी.)