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(अर्पण कुमार और मनोहर श्याम जोशी ) |
यह इंटरव्यू मैंने साकेत, नई दिल्ली स्थित मनोहर श्याम जोशी के घर जाकर लिया था. १९९९ अपनी समाप्ति पर था और उत्तरी दिल्ली से दक्षिणी दिल्ली की लगभग २५ किलोमीटर की दूरी को पाटता हुआ मैं उनके यहाँ पहुँचा था. अपराह्न का समय था. संयोग ऐसा था कि वे उस दिन ‘भारतीय जनसंचार संस्थान’ (भा.ज.सं.), नई दिल्ली से क्लास लेकर लौटे ही थे. मैं उनके महत्व और अवदान से वाकिफ़ था, मेरे लिए उस समय राहत की बात यह थी कि वे मुझे कहीं से भी आतंकित नहीं कर रहे थे. यह बातचीत दो ढाई घंटे चली थी. अब जब वे नहीं हैं उनकी कही बातें याद आती हैं.
\’आत्म संशय का होना किसी लेखक के लिए बुरा नहीं है\’
मनोहर श्याम जोशी से अर्पण कुमार की बातचीत
अब तक की अपनी यात्रा के बारे में कुछ बताएं
अर्पण कुमार जी, जीवन के कई उतार-चढ़ावों में डूबते-उतराते और वक़्त-बेवक़्त विविध वज़ूदों को जीते हुए भले ही आज मैं छियासठ (66) छलाँग चुका हूँ, लेकिन इक्कीस (21) वर्ष से शुरू हुई मेरी मसिजीविता आज भी मद्धिम नहीं पड़ी है. मैं लखनऊ विश्वविद्यालय से विज्ञान-स्नातक हूँ और विज्ञान में विशेष रुचि लेने वाले उत्तर प्रदेश के तत्कालीन शिक्षा-मंत्री संपूर्णानंद जी द्वारा आयोजित की गई अंतर- महाविद्यालय प्रतियोगिता में जब मैंने पत्रकारीय पुट लिए अपना पर्चा ‘द रोमांस ऑफ़ इलेक्ट्रॉन्स’ पढ़ा तो मुझे ‘कल के वैज्ञानिक’ की उपाधि से नवाज़ा गया. हालाँकि द्वितीय स्थान पाने वाला छात्र, जिसका पर्चा प्रयोग आधारित था और जो आज अमेरिका में है, सही मायने में वैज्ञानिक साबित हुआ. तब तक मैं कम्युनिस्टों की सोहबत में उठने-बैठने लगा था. घर वालों को यह सब पसंद नहीं था. कुछ समय मैंने वहाँ काम किया. बाद में \’मुक्तेश्वर\’ (नैनीताल) में स्कूल-मास्टरी करने लगा और अंततः दिल्ली आ गया. राजनीति में सक्रिय पिताजी के छात्र जगन प्रसाद रावत का ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में काम कर रहे फिरोज़ गाँधी के नाम पत्र लाया था. मैं अँग्रेज़ी और हिंदी में समान अधिकार से लिखा करता था. मुझसे हर जगह पूछा जाता- ‘क्या लिख सकते हो?’ और हर जगह मेरा धृष्ट उत्तर होता था- ‘क्या नहीं लिख सकता हूँ?’
अपनी प्राथमिकता अनुसार मैं जनसत्ता गया और ₹10 प्रति कॉलम के पारिश्रमिक पर वहाँ लिखने लगा. साहित्य, क्रिकेट, संगीत, खेलकूद जिस विषय पर ज़रूरत होती, लिखता. विविध विषयों को पढ़ने की मेरी रुचि और मेरा सशक्त सामान्य ज्ञान इसमें काफ़ी मददगार साबित हुआ. ये बातें 1954-56 की हैं. इसी दौरान मैं ‘अज्ञेय’ से जुड़ा. ‘प्रतीक’ के अंतिम अंक में उन्होंने मेरी एक कहानी छापी थी. कालांतर में मैं उनके काफ़ी नजदीक आ गया. इसकी एक बड़ी वज़ह हम दोनों की समान पृष्ठभूमि और योग्यताएँ थीं. हमारी हिंदी भी समान रूप से संस्कृतनिष्ठ थी. उन्होंने ही ‘ऑल इंडिया रेडियो’ में ₹100 माहवार पर मुझे बतौर ‘कैजुअल आर्टिस्ट’ काम दिलवाया. बाद में जब मुझे ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में सहायक संपादक की एक बड़ी नौकरी मिल रही थी, उसे छोड़कर उनके आदेश पर मैं ‘दिनमान’ में उनका सहायक बना. दरअसल वे अपने जैसा ही एक आदमी वहाँ रखना चाह रहे थे जिस पर गाहे-ब-गाहे निश्चिंतापूर्वक काम छोड़कर वे कहीं जा सके. उनकी नजर में ‘मैं’ एक ऐसा ही विकल्प था.
लखनऊ में रहते हुए मैं अमृत लाल नागर जी के काफ़ी करीब आया. उन्हें भांग खाने की लत थी. उसका सेवन करने के बाद वे गाव तकिए लगाकर बैठ जाते और अपने किसी-न-किसी शिष्य को बोलकर अपनी कोई रचना लिखवाते. मैंने भी कई बार उनका डिक्टेशन लिया. बोलकर लिखवाने की यह आदत मुझे भी शायद उनसे ही पड़ी है.
आपको लगता है कि आपकी ओर से किए गए कार्य कुछ हटकर या विशिष्ट ढंग से पूरे हुए हैं.
हमने जो थोड़ा बहुत काम किया, उसके बारे में संक्षिप्त-सी चर्चा करता हूँ. हम लोगों ने हिंदी में यथार्थवादी कथा लेखन को प्रोत्साहन दिया. उन दिनों ‘यमुना बाज़ार’ ही दिल्ली की एकमात्र झोपड़पट्टी हुआ करती थी. मैंने स्वयं वहाँ दो-तीन दिन बिताकर ‘दैत्य उपसंस्कृति’ के नाम से ‘दिनमान’ में विस्तार से लिखा. इस तरह से ‘केंद्रीय सूचना सेवा’ और ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह’ से होते हुए 1967 में हिंदुस्तान टाइम्स प्रकाशन में 34 वर्ष की उम्र में ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ का संपादक बना और साथ में ही वहीं अँग्रेज़ी साप्ताहिक ‘वीकेंड रिव्यू’ का संपादन किया. उस वक्त भी मेरी यही कोशिश थी कि हिंदी पत्रकारिता में भी अँग्रेज़ी जैसी विविधता और ‘बोल्डनेस’ आए. हालाँकि कई चीज़ों में हमने अँग्रेज़ी को भी पीछे छोड़ दिया. मसलन, भारतीय पत्रकारिता में ‘क्रिकेट-विशेषांक’सबसे पहले ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में निकाला गया. इसी तरह मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर स्तंभ शुरू किया गया. महिलाओं, युवाओं, बच्चों, बूढ़ों आदि के बारे में सर्वेक्षण आधारित कई आलेख प्रस्तुत किए गए.
आपने टीवी धारावाहिकों और फ़िल्मों में कुछ ऐसा लेखन किया है, जिसका अपना एक स्थायी महत्व है.
जब मैं ‘फिल्म्स डिवीजन’ में था, वहाँ मैंने कई डॉक्यूमेंट्रीज़ के स्क्रिप्ट लिखे. मैं कुछ लोगों का इंटरव्यू ले रहा था, जो ‘सारिका’ पत्रिका में क्रमवार छप रहे थे. ‘फिल्म्स डिवीजन’ मे काम करते हुए अपने उन दिनों में मैं बाँग्ला फ़िल्मों के सुप्रसिद्ध निर्देशक ऋत्विक घटक के संपर्क में आया. हालाँकि जब मैं उनसे मिला तब अत्यधिक शराब-सेवन की वज़ह से उनकी रचनात्मक ऊर्जा क्षीण होने लगी थी, फिर भी मिथकों और पौराणिक दृष्टियों के महत्व को समझने और दृश्य-श्रव्य माध्यमों के प्रति अपने नज़रिए को स्पष्ट करने की दिशा में मैंने उनसे काफ़ी कुछ सीखा. जब मुझे टेलीविजन धारावाहिक ‘हमलोग’ का प्रोजेक्ट मिला, उसमें अपने मन मुताबिक काम करने की मेरे पास काफ़ी गुंजाइश थी. हालाँकि पहले यह धारावाहिक ‘कालचक्र’ के नाम से बनना था लेकिन जब रमेश सिप्पी इसके निर्माता बने तो इसका नाम ‘हमलोग’ रखा गया. सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तत्कालीन सचिव एस.एस. गिल ने हमें यह नाम सुझाया था. यह 1983 के अंतिम महीनों की बात है. सूचना और प्रसारण मंत्रालय चाहता था कि यह धारावाहिक आम लोगों के जीवन के निकट हो और उसमें सामान्य जन के लिए कुछ उपयोगी संदेश भी हो. यह एक सोद्देश्य सामाजिक ‘डेवलपमेंट सोप’ था, जो हर जगह प्रशंसित हुआ. आपको बताता चलूँ कि इस प्रकार के सोप ओपेरा, शुरुआत में मैक्सिको के नाटककार और निर्देशक मीगेल साबिदो ने बनाए थे. दूसरे धारावाहिकों यथा ‘बुनियाद’, ‘मुंगेरीलाल के हसीन सपने’, ‘कक्काजी कहिन’, ‘हमराही’, ‘ज़मीन-आसमान’ में भी आप देखेंगे कि मैंने किस तरह व्यावसायिक और सार्थक लेखन के बीच के सामंजस्य को भरसक टूटने नहीं दिया है.
आज जब धारावाहिकों का स्वरूप और उसका परिदृश्य काफ़ी बदल गया है, ऐसे में कुछ सार्थक करने की जगह कम ही बचती है. चार धारावाहिकों के मेरे ‘पायलट’ मौजूद हैं, मगर वे बिक नहीं पा रहे. चार अन्य धारावाहिकों का बुनियादी कार्य पूरा हो चुका है, मगर उन्हें भी निर्माता बेच नहीं पा रहे. सन् 1930 के आसपास बनारस में दाल मंडी की एक वेश्या थी जिसने कई विरोध के बावजूद बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से संगीत में एम.ए. किया था लेकिन फिर भी उसे सामाजिक स्वीकृति नहीं मिली थी और उसे विश्वविद्यालय से भगा दिया गया था. उसी वेश्या पर आधारित ‘कजरी’ नामक मेरी कहानी को यद्यपि कल्पना लाजमी ने काफ़ी पहले ख़रीद ली थी लेकिन अब तक उसका निर्माण भी नहीं हो पा रहा है. फ़िलवक़्त, कमल हसन की फिल्म ‘हे राम’ शीघ्र प्रदर्शित होने जा रही है जिसके संवाद मैंने लिखे हैं.
आप शिखर पर पहुँचकर भी काफ़ी हद तक विवादों से मुक्त नज़र आते हैं.
अर्पण जी, यह आपने कुछ ठीक ही कहा. मैं सचमुच अब तक किसी विवाद में नहीं पड़ा. यह सब कैसे हुआ, इसका उत्तर मैं क्या दूँ! हाँ, अपनी एकाध बात बतला सकता हूँ. उनसे शायद आप मुझे कुछ बेहतर समझ सकेंगे या फ़िर आपको शायद प्रत्यक्ष या कहें अप्रत्यक्ष रूप से अपने सवालों का उत्तर भी मिल आपको जाए. धारावाहिक और फ़िल्में (\’भ्रष्टाचार\’, \’अप्पू राजा\’, \’हे राम\’ और निर्माणाधीन \’ज़मीन\’) लिखता हूँ, लेकिन मुंबई में नहीं रहता. स्क्रिप्ट-लेखक के किसी एसोसिएशन से भी कभी नहीं जुड़ा. इसी तरह उपन्यास, कहानी, व्यंग्य आदि लिखता हूँ लेकिन दिल्ली में किसी साहित्यिक मंडल से नहीं जुड़ा और इसीलिए मैं हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में भी नहीं आ पाया.
मैंने \’कुरु कुरु स्वाहा\’ में आत्मव्यंग्य भी किया है, ‘जोशी जी जनसंघियों के बीच में कम्युनिष्ट थे.’ हमारी पूरी भारतीय व्यवस्था अर्धसामंती है और उसमें स्वीकृत या स्थापित होने के लिए चमचा बनने या बनाने की महत्ता काफ़ी सहायक सिद्ध होती है. इसलिए जितनी हीन भावना हिंदी वालों में है, उतनी किसी में भी देखी नहीं जाती. हाँ, अपने साहित्य-लेखन में मैं अपने शिल्प, भाषा, संप्रेषण, पठनीयता, मौलिकता को बड़ा महत्व देता हूँ.
अपनी पसंद के कुछ लेखकों के नाम बताएँ, आज के लेखकों के लिए क्या कहना चाहेंगे?
अर्जेंटीना के चर्चित कवि-गद्यकार ‘जॉर्ज लुई बोर्खेज़’ (Jorge Luis Borges) को पढ़कर मुझे काफ़ी खुशी होती है क्योंकि उसमें पश्चिम का अनुकरण नहीं है. बोर्खेज़ अपने हिसाब से और अपने देखे-सुने को लिखते हैं. वे हमेशा अपने पढ़े को अपने लिखे से अधिक महत्व देते रहे रहे. मुझे वे बड़े ईमानदार लगते हैं. उनके लेखन में साझा स्मृतियों के कई संकेत बड़े आत्मपरक रूप में उभर कर आए हैं. वे अपने पाठकों को कल्पनाशील बनाए रखने पर भी ज़ोर देते हैं. जाने क्यों, मुझे हमेशा लगता है कि हम अपनी बोली-बानी और स्थानिकता से जुड़कर जब कुछ लिखते हैं तब उसकी चमक और धमक कुछ और ही होती है. मेरा स्पष्ट मानना है कि समय की कसौटी पर वही कृति बेहतर और खरी सिद्ध हो पाती है, जिसे उसके लेखक ने अपनी जड़ों से आबद्ध होकर सिरजा है. मैं देखता हूँ कि हिंदी के हमारे ऐसे कई लेखक हैं, जो अपने लेखन में आंचलिकता के प्रयोग से बचते या कतराते हैं, जबकि यह किसी भाषा और साहित्य की समृद्धि के लिए काफ़ी ज़रूरी होती है.
मुझे अमेरिकी व्यंग्यकार ‘जेम्स थर्वर’ (James Grover Thurber) का व्यंग्य काफ़ी प्रभावित करता है. वे एक बड़े व्यंग्यकार इसलिए हैं कि उन्होंने आम आदमी की हताशा, निराशा और सनक को कुछ कॉमिक रूप में प्रस्तुत किया. उन्होंने कई कहानियाँ भी लिखीं. उनकी कई कृतियों पर कुछ फ़िल्मों का निर्माण भी हुआ.
आपको बताता चलूँ, मैं साहित्यिक रचनाओं के अलावा इतिहास, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, जासूसी उपन्यास, जनता छाप रोमांटिक व अश्लील उपन्यास सब कुछ पढ़ता हूँ. मुझे एक गंभीर बुद्धिजीवी का लबादा ओढ़ने से सख्त परहेज़ है. जीवन में यथासंभव हमें अभिनय से या किसी नकलचीपन से बचना ही चाहिए. हाँ, अपने अंदर मैं आलस्य और आत्मसंशय दोनों पाता हूँ. आलस्य को किसी भी सूरत में किसी मूल्य से नहीं जोड़ा जा सकता, लेकिन आत्मसंशय का होना किसी लेखक के लिए बुरा नहीं है. इससे लोगों के बीच कुछ भी कूड़ा-कबाड़ा लाने से वह बच जाता है. अगर आप सुविधा के लिए मुझसे ही कोई उदाहरण लें, तो आप देखें कि मेरा पहला उपन्यास \’कुरु-कुरु स्वाहा\’ सन् 1980 में प्रकाशित हुआ, जब मेरी उम्र यही कोई सैंतालिस वर्ष हो चुकी थी. जबकि दूसरी तरफ़ यह देखिए कि अठारह वर्ष की उम्र में मेरी पहली कहानी प्रकाशित हो चुकी थी. अपने इस उपन्यास को हजारी प्रसाद द्विवेदी और ऋत्विक घटक को समर्पित करते हुए मैंने लिखा है, \’हजारीप्रसाद द्विवेदी और ऋत्विक घटक इन दो दिवंगत आचार्यों की पुण्य स्मृति में इस निवेदन के साथ कि सागर थे आप, घड़े में किंतु घड़े-जितना ही समाया.\’
हजारी प्रसाद द्विवेदी मौज में आकर \’गप्प\’ को गल्प का पर्याय बता देते थे. उनकी इच्छा थी कि कभी समय निकालकर वे कोई \’मॉडर्न गप्प\’ लिख सकें. \’कुरु-कुरु स्वाहा\’ के रूप में मैंने वही कोशिश की है. अपने इस उपन्यास में मैंने ऋत्विक घटक की एक उक्ति का भी सायास प्रयोग किया है. ऐसा इसलिए कि वे बदलते समय की जटिलता को भलीभाँति समझ और पकड़ पा रहे थे. आप कह सकते हैं कि इसमें मैंने जीवन को कुछ हल्के-फुल्के ढंग से और व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया है. वैसे भी जब एक बार मेरे भीतर कहानी उतर जाती है, तो मुझे लिखने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगता. \’कसप’ और ‘हमज़ाद’ जैसे अपने उपन्यासों को मैंने लगभग एक-डेढ़ महीने में लिख दिया. संभव है कि लेखन में क़िस्सागोई की कला मुझे विरासत में मिली हो और शायद तभी मुझे अपने भीतर उतरी कथा को एक मुकम्मल स्वरूप देने में बहुत परेशानी नहीं होती है.
विभिन्न वादों में विभक्त या पूर्वाग्रह-ग्रस्त या फ़िर उससे संचालित हमारे समकाल की क्या स्थिति है? बतौर एक सजग रचनाकार आप इस पर क्या सोचते हैं?
मेरे विचार से साम्यवादी विचारधारा काफ़ी वैज्ञानिक है और उसका सपना अद्भुत है. फ़िलवक्त वह पतनोन्मुख है लेकिन इतना भर से पूंजीवाद का एकाधिकारी भविष्य तैयार नहीं हो जाता. कालक्रम में इनकी सत्ता भी किनारे लगने वाली है. आज भूत, वर्तमान, जड़-चेतन का अंतर मिट रहा है. सब एक-दूसरे से गड्डमड्ड हो रहे हैं. आज विश्व किसी वाद-विशेष में संकुचित न होकर प्रवाहवादी हो रहा है. पूंजीवाद की दो प्रचलित मान्यताएँ ‘बचत करो, इन्वेस्ट करो’ और ‘कमाओ, उड़ाओ’ आपस में ही एक दूसरे को काट रही हैं.
अपने परिवार के बारे में भी बताएँ. ख़ासकर वे पक्ष, जिसने आपके साहित्यकार को छू लिया हो.
मैं तो मूलतः कुमाऊँनी हूँ. हाँ, मेरा जन्म अजमेर में और शुरुआती पढ़ाई भी वहीं हुई. मैंने राजस्थानी संस्कृति को बड़े क़रीब से देखा. उसका मुझपर प्रभाव भी है. पहाड़ों पर तुलनात्मक रूप से मैं काफ़ी कम समय तक रहा. मेरे ननिहाल और ददिहाल दोनों ही तरफ़ किसी-न-किसी रूप में क़िस्सागोई की परंपरा रही. मेरी माँ भी किसी की नकल उतारने में और हँसी-मज़ाक करने में काफ़ी आगे रहती थी. मेरे पिता राय साहब प्रेमवल्लभ जोशी पढ़ने-लिखने के शौक़ीन तो ख़ैर थे ही, संगीत सहित कई विधाओं में उन्हें महारत हासिल थी. जब मैं छोटा था, तभी वे चल बसे. उनके जाने से मेरा परिवार काफ़ी लड़खड़ाया, जिसे सँभलने में बड़ा वक़्त लगा. मेरे एक बड़े भाई भी असमय चल बसे और इस तरह मेरी माँ पर दुहरी विपत्ति आ पड़ी. मुझे अपनी ओर से उन्हें जितना आराम और जैसी सुविधाएँ देनी चाही थी, शायद मैं उन्हें उतना और उस तरह नहीं दे पाया. मुझे अपनी युवावस्था में असफलता के कई कड़वे स्वाद चखने को मिले हैं.
इन सभी का समेकित असर मेरे चेतन-अवचेतन व्यक्तित्व पर है और उसकी छाया निश्चय ही मेरे लेखन पर पड़ी होगी, क्योंकि हमारे लेखन में आख़िरकार हमारे व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति तो होती ही है, चाहे उसका रूप जैसा भी हो. इसलिए कई बार अवसाद और व्यंग्य की एक मिली-जुली शैली मेरी कथा और कथेतर दोनों ही कृतियों में दिखती हैं. ऐसा इसलिए कि उस समय आप यथार्थ के सबसे निकट होते हैं. आप इस संसार के विशुद्ध असली और स्वार्थपरक रंगों को पहचानते हैं. जब मैं लेखन में आया, तब मैंने अपने लेखक पर भी ख़ूब व्यंग्य करना शुरू कर दिया.
(यह बातचीत दिल्ली में १९९९ में उनके घर पर की गई थी)___________________________________________________अर्पण कुमार
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