ईरान में किताबों पर सेंसरशिप
1979 की क्रांति ईरान के सांस्कृतिक इतिहास में एक युगांतकारी घटना है- अमेरिकापरस्त शाह के खिलाफ लम्बे संघर्ष में प्रगतिशील , धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी संगठनों के साथ साथ कट्टर धार्मिक शक्तियाँ भी शामिल थीं लेकिन देखते देखते इन पुरातनपंथी कट्टर धार्मिक शक्तियों के हाथ में देश की सत्ता केंद्रित हो गयी. इसका पहला शिकार सांस्कृतिक खुलापन हुआ और इस्लामी नैतिकता के नाम पर सबकुछ एक बने बनाये पुरातनपंथी ढर्रे पर चलाने का दमनकारी और क्रूर तंत्र विकसित कर लिया गया जिसमें आधुनिकता और वैकल्पिकता की कोई जगह नहीं थी.
यहाँ हम ईरान में प्रकाशित साहित्य की सख्त सेंसर व्यवस्था और अलग अलग स्तरों पर उसकी धज्जियाँ उड़ाने की जोखिमभरी कोशिशों के कुछ ज्वलंत उदाहरणों की चर्चा करते हैं.
1979 से 1986 तक प्रकाशकों के ऊपर यह दायित्व था कि वे सेल्फ सेंसरशिप के अनुसार काम करें जिससे देश के कानून और नैतिकता की हर तरह से रक्षा की जाए.
1995 में एक फारसी पत्रिका ने एक किताब के बारे में लिखा जिसे प्रकाशक ने संस्कृति और इस्लामिक निर्देश मंत्रालय की इजाजत के बाद छापा था- पत्रिका के अनुसार इसमें हत्या और हिंसा के विवरणों के साथ-साथ अश्लील सेक्स संबंधों की चर्चा थी. कुछ धार्मिक नेताओं ने इसे इस्लाम विरोधी बताया जिसका नतीजा यह हुआ कि महीने भर के अंदर इसे बेचने वाली किताब की दुकान जला दी गई और इसके लिए किसी को दोषी नहीं पाया गया.
इस घटना पर व्यापक चर्चा के बाद मंत्रालय ने 1997 में किताबें प्रकाशित करने के लिए उद्देश्य और दिशानिर्देश जारी किए जिसमें मुख्य तौर पर निरीश्वरवाद,नैतिक भ्रष्टाचार,गैर कानूनी प्रवृत्तियों,इस्लामी गणराज्य के खिलाफ बगावत,विभिन्न समुदायों के बीच वैमनस्य,देशप्रेम को कमजोर करने वाली गतिविधियों के निषेध की बात कही गई. पोर्नोग्राफिक तस्वीरें और चित्रण, कम्युनिज्म या राजशाही का समर्थन और इस्राइल तथा अमेरिका के उपनिवेशवाद का समर्थन पूरी तरह से वर्जित कर दिया गया. इन दिशानिर्देशों के बाद भी कानूनी स्थिति स्पष्ट और परिभाषित नहीं है. यही कारण है कि व्यक्तिगत दुराग्रहों का जबरदस्त बोलबाला है.
2016 में प्रकाशित अपनी पीएचडी थीसिस में सीमा शरीफी ने बड़े विस्तार से ईरान में इस्लामी क्रांति के बाद लागू सेंसरशिप के बारे में लिखा है. उनके अनुसार अहमदीनेजाद का 2005 से 2013 तक का आठ वर्ष का राष्ट्रपति शासन बहुत सख्ती से सेंसरशिप लागू करने वाला शासन था पर उसमें भी व्यतिगत दुराग्रह का बोलबाला था- सैकड़ों किताबों की इजाजत दे देने के कुछ समय बाद न सिर्फ़ बाजार और पुस्तकालयों से जब्त कर लिया गया बल्कि इसके प्रकाशन से जुड़े सभी लोगों को सजा भी दी गई. वे अपनी थीसिस में ईरानी लेखक अहमद रजब जादेह को जगह-जगह उद्धृत करती हैं जिन्होंने 1996 में कथेतर साहित्य की 1400 ऐसी किताबों का अध्ययन किया जिनपर सेंसर की कैंची चली.अपने अध्ययन के आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि सेंसर की दृष्टि में निषिद्ध शब्दों में तीन चौथाई प्रेम, स्त्री के सौंदर्य, स्त्री शरीर के वर्णन और जुआ से संबंधित हैं और उनका फरमान होता है कि ये शब्द या तो हटा दिए जाएँ या बदल दिए जाएँ.
\”कॉमरेड\” को बदलकर \”दोस्त\” किया जाए क्योंकि \”कॉमरेड\” शब्द का प्रयोग मार्क्सवादी करते हैं, एक किताब के संदर्भ में सेंसर ने हुक्म दिया. रजब जादेह अपने व्यापक अध्ययन के आधार पर कहते हैं कि इसी तरह \”शराब घर\” को \”कैफे\”, \”प्रेम में होने\” को \”आनंद में होना\”, \”प्रेमी\” को \”दोस्त\”, \”प्रेम करने\” को \”दोस्ती करना\”, \”डांस के साथी\” को \”बातचीत का साथी\”, \”सुअर के मांस\” को \”गाय का मांस\”, \”शराब\” को \”सॉफ्ट ड्रिंक\”
लिखने की हिदायत ईरानी सेंसर दिया करता है.
\”उसने अपने पैसों को लेकर चूम लिया\”.
2003 में अजर नफीसी ने विश्वविद्यालय में अपने अंग्रेजी अध्यापन के अनुभव के आधार पर आत्मकथात्मक किताब \”रीडिंग लोलिता इन तेहरान\”लिखी. उन्होंने अध्यापन के दौरान ईरानी सेंसर द्वारा खड़ी की गई पाबंदियों की दीवार के बीच \”द ग्रेट गेट्सबी\” (एफ स्कॉट फिट्जेराल्ड) और \”डेजी मिलर\”(हेनरी जेम्स) जैसे उपन्यासों को पढ़ाने में दिक्कत महसूस की और उसके बारे में विस्तार से लिखा.
\”आप गेट्सबी इसलिए नहीं पढ़ते कि आपको जानकारी हो कि परगमन (एडल्ट्री) अच्छा है या बुरा बल्कि इसलिए पढ़ते हैं कि जीवन में परगमन, वैवाहिक वफादारी(फाइडेलिटी) और शादी कितनी उलझे हुए और नाजुक मुद्दे हैं इसका महत्व मालूम हो. कोई महान उपन्यास जीवन की संश्लिष्टता के संदर्भ में पाठकों की चेतना को और संवेदनशीलता को ज्यादा निखारता है…इतना ही नहीं यह आपको हमेशा खुद को सही मानने वाली खुशफहमी के नैतिक जाल में फँसने से रोकता है जहाँ सब कुछ या तो सही होता है या फिर गलत.\”,
अजर नफीसी कहती हैं.
\”हम ईरानियों की किस्मत गेट्सबी की किस्मत से कितनी मिलती जुलती है. वह अपने सपने बार बात अतीत में लौट कर पूरा करना चाहता था और ऐसा करते हुए अंत में उसको यह पता चला कि अतीत की तो मृत्यु हो चुकी है, वर्तमान बस एक छलावा है और भविष्य का दूर दूर तक कोई नामो निशान नहीं नजर आता. क्या यह ईरानी क्रांति के साथ पूरी तरह से मिलता जुलता नहीं है? यह क्रांति हमारे सामूहिक अतीत के नाम पर संपन्न की गई और एक सपने के नाम पर हमारे जीवन को नेस्तनाबूद कर डाला गया.\”
\”जब अध्यापकों के ऊपर यह तोप तनी रहे कि हेमिंग्वे की कहानी से शराब शब्द हटाकर विद्यार्थियों को पढ़ाया जाए तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे अपने काम पर पूरा ध्यान केंद्रित कर पाएँगे? .. हम ऐसी संस्कृति में रह रहे थे जिसमें किसी साहित्यिक कृति की गुणवत्ता और श्रेष्ठता कोई मायने नहीं रखती थी बल्कि हुकूमत की विचारधारा का आँख मूँद कर पिछलग्गू या अनुयायी होना सबसे बड़ी योग्यता मानी जाती रही.\”
अविवेकपूर्ण प्रतिबंधों के चलते अजर नफीसी ने विश्वविद्यालय से इस्तीफ़ा देकर एक भूमिगत पुस्तक समूह बनाया जिसमें दुनिया भर के साहित्यिक क्लासिक के बारे में चर्चा की जाती थी. उन्हें ब्लादिमीर नोबोकोव का उपन्यास \”लोलिता \” ऐसे में बेहद प्रासंगिक लगा – इसमें 12 साल की लड़की लोलिता जिस तरीके से उम्र दराज हुंबर्ट की फैंटेसी का शिकार बनती है… नफीसी को यह लगा कि ईरान में हर इंसान हुकूमत की फैंटेसी का वैसा ही शिकार है. यहाँ का शासन हर किसी को वही भूमिका निभाने देना चाहता है जो उसे प्रिय हो और किसी तरह का वैकल्पिक विमर्श उसे स्वीकार नहीं है.
\”ऐसे माहौल में कोई कैसे पढ़ा सकता है जब यूनिवर्सिटी का पूरा जोर अध्यापन की गुणवत्ता पर नहीं हो बल्कि किसी होंठों के रंग पर रहे या सिर्फ केशों की एक पतली लट के हिजाब से बाहर निकल जाने पर हो…और यह गुनाह बन जाए.\”
\”जब कमरे में लड़कियाँ इकट्ठा होतीं तो हमें महसूस होता कि हम एक बार फिर से जिंदा हो गईं, साँस लेने वाले इंसानों में तब्दील हो गईं. हुकूमत चाहे जितनी भी दमनकारी हो, कितना भी हमारे ऊपर अंकुश लगाने की कोशिश करे या डराने धमकाने की कोशिश करे- लोलिता की तरह हम अपने बाहर निकलने का रास्ता निकाल ही लेंगे और अपनी आजादी के चाहे छोटे-छोटे संसार हों उसका निर्माण कर ही लेंगे.यह कितना आह्लादकारी है कि जब आपसे सभी सम्भावनाएँ छीन ली जाएँ तो छोटी से छोटी खिड़की भी आपको महान आजादी जैसी लगती है. उस कमरे में जब हम एक साथ होते थे तो हमें लगता था कि हम दुनिया के तमाम बंधनों और पाबंदियों से मुक्त हो गए हैं.\”
ईरान में जन्मी और पली बढ़ी कवि रोबाब मोहेब ईरान में लिखने पढ़ने पर पाबंदी और सेंसर के शिकंजे से तंग आकर 1992 में स्वीडन जाकर बस गईं. ईरान में रहते हुए वे न सिर्फ देश की हुकूमत की लिखने पढ़ने पर शिकंजा कसने से परेशान थीं बल्कि अपने कट्टरपंथी पिता से भी जिन्हें उनका कविताएँ लिखना बिल्कुल नापसंद था. बहुत सारी ऐसी युवा ईरानी कवि हैं जिन्होंने इस तरह की मुश्किलें झेली हैं और इससे बचने के लिए वे अपनी पहचान छुपा कर छद्म नाम से कविताएँ लिखती रहीं. 1997 में उन्होंने फारसी कविताओं के एक संकलन की पांडुलिपि प्रकाशन के लिए ईरान में संस्कृति और इस्लामी निर्देश मंत्रालय को जमा की लेकिन 2005 तक उन्हें उसका कोई जवाब नहीं मिला. बाद में उन्हें पता चला कि किताब को प्रकाशित करने की इजाजत दे दी गई है.महत्वपूर्ण बात यह है कि जब किताब छप कर उनके हाथ में आई तो उन्होंने देखा कि संकलन से उनकी कुछ कविताएँ हटा दी गई है, कई कविताओं में उनके लिखे शब्द बदलकर कुछ और कर दिए गए हैं, कई पंक्तियाँ और हिस्से मनमाने ढंग से आगे पीछे कर दिए गए हैं. इसे देख कर उन्हें लगा कि कविताओं की आत्मा और लयात्मकता नष्ट हो गई. वे कहती हैं कि छपी हुई कविताओं को देखकर उन्हें ताज्जुब हुआ कि वैसी कई पंक्तियाँ जो विचारोत्तेजक थीं और यथास्थिति को अस्वीकार करने का आह्वान करती थीं उन्हें ज्यों का त्यों छोड़ दिया गया था लेकिन कई ऐसी पंक्तियाँ और शब्द जिनमें कोई खास आग या धार नहीं थी उन्हें बदल दिया गया या पूरी तरह से हटा दिया गया था. इसे देखकर उन्हें लगता है कि सेंसर की पूरी प्रक्रिया दिशाहीन और बगैर किसी मकसद के लागू की जाती है.
रोबाब मोहेब कहती हैं.
अपनी बात के समर्थन में उनका मानना है कि इस तरह की दिशाहीन सेंसरशिप का समकालीन फारसी कविता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है क्योंकि कवि सच में जो कहना चाहता है उसे सेंसर के डर से सच्चे और स्पष्ट तौर पर लिख नहीं सकता. हर समय कवि यह कोशिश करता है कि उसका असली मकसद एक धुंधलके में ढँका रहे जिसका नतीजा यह होता है कि कविता निरंतर यथार्थ से दूर होती चली जाती है.
\”इस तरह की पाबंदियों से सभी तरह का प्यार सिर्फ अलंकारिक और प्रतीकात्मक होकर रह गया है और कविता में सभी शब्द ऐसे रूपक के तौर पर सजाए जाने लगे हैं जैसे इनका इस दुनिया की वास्तविकता से कुछ लेना-देना ही नहीं.\”,
उनकी स्पष्ट मान्यता है.
ईरान में रहते हुए आजादेह ने अनेक प्रकाशनों और पत्रिकाओं में कॉपी एडिटर का काम किया. उसके बाद वहाँ अभिव्यक्ति की आजादी के दमन से तंग आकर 2010 में ब्रिटेन चली गईं और वहाँ अपने स्वतंत्र प्रकाशन का काम शुरू किया.
अपने नाम के बारे में वे बताती हैं कि ईरान में जब शाह के तख्तापलट के बाद 1979 की क्रांति हुई तो बहुत सारे लोगों ने अपने बच्चों के नाम आजादेह रखा- आज एक पूरी पीढ़ी है इस नाम की. हमारे माँ पिता ने यह उम्मीद की थी कि इस नाम के साथ उनके जीवन में भी आजादी और बेहतरी आएगी.
जिस तरह का काम वे ईरान रहते हुए करने के बारे में वे सोच भी नहीं सकती थीं वैसा काम वे अब कर पा रही हैं, उस को याद करते हुए वे कहती हैं कि अपने नाम आज़ाद का अर्थ मुझे अब मालूम हो रहा है.
वे बताती हैं कि अपने प्रकाशन से जो साहित्य वे छापती हैं उनमें से आधा ऐसा होता है जो ईरान में रहने वाले लेखक चोरी छुपे उन्हें उपलब्ध कराते हैं. बाकी किताबें उन लेखकों की होती हैं जो ईरान से निर्वासित होकर दूसरे देशों में रह रहे हैं और अपनी किताबें ईरान में सेंसरशिप के कारण नहीं प्रकाशित करवा सकते. वे सिर्फ फारसी की किताबें छापती हैं क्योंकि उनका लक्ष्य भी ईरानी पाठकों तक पहुँचना होता है. वे प्रिंट और डिजिटल दोनों तरह की किताबें छापती हैं. अपनी किताबों के ई बुक संस्करण वे ईरान के अंदर बिना किसी कीमत के पाठकों को उपलब्ध कराती हैं.
\”मैं अपने निर्वासन में ब्रिटेन में रह रही हूँ और ईरान नहीं जा सकती. पर बाहर रहते हुए भी मैं अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार के अनेक प्रोजेक्ट में शामिल हूँ …उनके नाम का खुलासा करना सुरक्षा की दृष्टि से सही नहीं क्योंकि ईरान सरकार की स्वीकृति उनके साथ नहीं है.\”,
आज़ादेह कहती हैं.
अपने काम के लिए मुझे ईरान के साथ अपने भावनात्मक रिश्ते के टूट जाने की कीमत चुकानी पड़ी और मैं अब अपने घर कभी नहीं लौट सकती. लेकिन मैं एक आजाद देश में रह रही हूँ और यहाँ मेरी जान को कोई खतरा नहीं … लेकिन जीवन का कोई कदम ऐसा नहीं होता जिसमें खतरा बिल्कुल न हो. जब छह साल पहले हमने नोगाम शुरू किया था तब हमने सब कुछ दॉंव पर लगा दिया था.
जब हम किसी पांडुलिपि को प्रकाशन के लिए चुनते हैं तो इसके लेखक को यह विकल्प देते हैं कि वह चाहे तो सुरक्षा की दृष्टि से छद्म नाम से अपनी किताब छपवाए. लेकिन अब तक जो 41 किताबें हमने छापी हैं उनमें से दो या तीन ऐसे लेखक हैं जिन्होंने हमारा दिया यह विकल्प स्वीकार किया, बाकी ने अपने असली नाम से ही किताब छपवाई. कोई जरूरी नहीं कि किताब का विषय बहुत भड़काऊ और विवादास्पद हो लेकिन सतर्क तो रहना ही चाहिए. और इन लेखकों ने मुझसे कहा कि यह हमारा काम है, हमारा लिखा हुआ है और अपने नाम से इसे छपवाना चाहता हूँ. उन्होंने नोगाम के साथ कदम से कदम मिलाकर काम किया और ऐसा करते हुए उन्होंने अभूतपूर्व साहस और गर्व का प्रदर्शन किया. लेकिन एक प्रकाशक के तौर पर मुझे हमेशा अपने लेखकों की चिंता रहती है, उनकी सुरक्षा पर किसी तरह की आँच नहीं आनी चाहिए. अक्सर मैं सुनती हूँ कि कभी किसी ब्लॉगर को पकड़ लिया, कभी किसी ट्वीट के कारण किसी को पकड़ लिया तो ऐसी खबर सुनकर मैं काँप काँप जाती हूँ. पहली बात जो मेरे मन में आती है कि कहीं इनमें से कोई हमारा लेखक तो नहीं.
हमारे जो लेखक ईरान में रहते हैं उन्हें किताब के लिए पैसे देने में हमें बहुत दिक्कत आती है. पश्चिमी दुनिया का कोई बैंक ऐसा नहीं है जिसके पास मैं जाऊँ और गुजारिश करूँ कि वह ईरान में बैठे हुए लेखक को यह राशि पहुँचा दे- आर्थिक नाकेबंदी के चलते. इसलिए हमें बहुत लंबा और मुश्किल पर कानूनी रास्ता अपनाना पड़ता है. हमें अपने सभी लेखकों को इस बात के लिए आगाह करते रहना होता है कि प्रकाशक और लेखक के बीच के करार के बारे में किसी को पता न चले.
हम अपने लेखकों से कहते हैं कि किताब का प्रिंट मत निकालिए… और यदि निकाल लिया तो अपने डेस्क पर मत छोड़िए. यहाँ तक कि अपनी हार्ड ड्राइव में भी मत रखिए…. नहीं तो हुकूमत को पता चलने के बाद आप बहुत मुश्किल में पड़ सकते हैं. हमें भी इस कारण सामग्री कई कई जगह रखनी होती है और हमारा काम सामान्य प्रकाशक की तुलना में बहुत बढ़ जाता है. पर कितनी भी सावधानी बरत लें,खतरा तो सिर पर मँडराता ही रहता है- खास तौर पर उनके साथ जो अब भी ईरान में रह रहे हैं.\”
\”इस सम्मान का बड़ा हिस्सा उन लेखकों को जाता है जिन्होंने हमारे ऊपर अटूट भरोसा किया. वे हमें जानते तक नहीं थे, मैंने उनमें से किसी के साथ शुरू के तीन या चार सालों तक कोई बातचीत नहीं की. इनमें से किसी को यह नहीं मालूम था कि वह जिस प्रकाशक को अपनी किताब छपवाने को दे रहे हैं वे कौन लोग हैं? बस, उन्होंने हमारा भरोसा किया और अपनी पांडुलिपियाँ हमें उपलब्ध कराईं और हमने उनकी किताबें छापीं. और ऐसा करते हुए उन लेखकों ने बड़ा जोखिम उठाया. हमने जिन लेखकों की किताबें छापीं, उनमें से कई शुरू में बौद्धिक जगत में बिल्कुल अनजान थे लेकिन आज की तारीख में उन किताबों की वजह से अपनी संस्कृति के बीच वे लोकप्रिय नाम हैं.\”
\”ऐसा काम करते हुए स्टीरियो टाइप होने का बड़ा खतरा पेश आता है. जब मैं लोगों से बात करती हूँ तो बहुत सारे लोग ऐसे मिलते हैं जिनकी किताबों के विषय और सामग्री को लेकर एक पूर्वधारणा होती है और वे मानते हैं कि ईरान पर ऐसी किताबें बिक सकती हैं. उदाहरण के लिए, वे किसी ऐसी कहानी के बारे में कहेंगे कि एक औरत घर से बाहर निकली, उसने अपना हिजाब सिर पर से हटाया और अब वह एक \’आजाद\’ औरत बन गई. पर मैं इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखती. किताबों के चयन में मेरा विशेष आग्रह उनके बिकने की संभावना नहीं होती बल्कि श्रेष्ठ साहित्य होने को लेकर रहती है. मेरे लिए किताब के लेखकों की कलात्मकता और बुद्धिमत्ता ज्यादा महत्व रखती है…जिस क्षेत्र विशेष की बात वे करते हैं उसकी सांस्कृतिक समझ का भी मेरा आग्रह रहता है.\”
\”युलिसिस\” के फारसी अनुवाद के बारे में
सेंसरशिप को जब एक तंत्र के रूप में व्यवस्थित ढंग से स्थापित कर दिया जाता है तो इसका मतलब यह होता है कि फारसी साहित्य के जितने बहु आयामी और विविध विमर्श थे उन सबको दरकिनार कर सत्ता पर काबिज़ प्रभावशाली वर्ग का इकहरा विमर्श बहाल कर दिया जाए. इसका सीधा असर यह होगा कि ईरान में और ईरान के बाहर दुनिया भर में फारसी साहित्य की गलत ढ़ंग की प्रतिनिधि छवि स्थापित हो जाएगी और ईरानी जीवन और यहाँ के लोगों के सामाजिक अनुभवों के बारे में असत्य और तथ्यहीन विवरणों का प्रचार प्रसार होगा.और पिछले दशकों में हमने यह देखा भी है कि सरकारी सेंसरशिप ने बड़ी संख्या में फारसी लेखकों की रचनाशीलता का गला घोंट दिया है.
युलिसिस में वह सब कुछ है जो उसके फारसी अनुवाद को सेंसरशिप की परिधि में अनायास ले आएगा- सेक्स, राजनीति, धर्म, शराब पीना पिलाना, पुरुष स्त्री संबंध और समलैंगिक किरदार. यदि ईरान में इस किताब के फारसी अनुवाद की सेंसर से स्वीकृति लेनी है तो इसके अनुवादक को बहुत सारे शब्दों और वाक्यों के वास्तविक अर्थ छुपाने होंगे, एक नहीं कई किरदारों के ऊपर अस्पष्टता का आवरण चढ़ाना होगा और अनेक खंड ऐसे होंगे जिन्हें फारसी अनुवाद की किताब से निकालना होगा. और ऐसा करते ही हम फारसी के पाठकों के हाथ में त्रुटिपूर्ण और अधूरी कृति सौंपने को बाध्य होंगे.
मैं जेम्स जॉयस की इस किताब का संपूर्ण और सेंसर रहित अनुवाद प्रस्तुत कर रही हूँ. ईरान में इसके प्रकाशन की इजाजत नहीं दी गई, यही कारण है कि यह किताब पहले ब्रिटेन में प्रकाशित की गई और वहाँ से कानून की आँखों में धूल झोंक कर यह ईरान में गैरकानूनी ढंग से वितरित की जा रही है.
शुरुआत में विदेशों में रहने वाले ईरानियों ने इसे ईरान के अंदर अपने मित्रों और परिजनों तक पहुँचाया. इसके बाद किताबों के भूमिगत बाजार में वितरण करने वाले विक्रेता इसे फिर से छाप रहे हैं और लोगों तक पहुँचा रहे हैं. जल्दी ही हम इसका ई बुक संस्करण लोगों को मुफ़्त में ऑनलाइन डाउनलोड करने के लिए उपलब्ध करा देंगे- लेकिन यह सब करने के लिए अनुवादक को भारी कीमत अदा करनी होती है. मैं ईरान सरकार की साइबर आर्मी के तरह-तरह के दबाव और हमले झेल रही हूँ जिनकी हर संभव कोशिश है कि मेरे काम के ऑनलाइन प्रकाशन को वे संभव न होने दें- ईरान के अंदर और उसके बाहर भी.
ईरानी उपन्यासों को जिस दूसरे स्तर पर संघर्ष करना पड़ता है वह है वैश्विक उपनिवेशवाद के नियंत्रण के खिलाफ. बहुत सारे ईरानी एक्टिविस्ट और लेखकों के मन में अंदेशा रहता है कि उनके दमन विरोधी संघर्षों का वैश्विक उपनिवेशवाद की शक्तियाँ वरण कर लेती हैं और कई बार तो उन्हें पश्चिमी शक्तियाँ ईरान में सीधे हस्तक्षेप के लिए एक हथियार के रूप में भी इस्तेमाल करती हैं. इसलिए ईरानी जनता की विडंबना है कि एक तरफ तो उसे सरकार की दमनकारी नीतियों से लड़ना होता है, दूसरी तरफ पश्चिमी और औपनिवेशिक व वैश्विक ताकतों के हस्तक्षेप और योजनाबद्ध हिंसा और दबावों से जूझना पड़ता है. जब मैं हस्तक्षेप कह रही हूँ तो मेरा तात्पर्य प्रतिबंधों, सैनिक तख्ता पलट, कब्जा और अलगाववादी गतिविधियों से है. ईरानी जनता के सामने जो सामाजिक और आर्थिक मुद्दे हैं, ये सभी कारक उसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. ईरानी लेखकों के रूप में हमारे सामने हमेशा यह संशय बना रहता है कि अपनी सरकार विरोधी मुहिम के चलते हम कहीं इन उपनिवेशवादी शक्तियों को तो मजबूत नहीं कर रहे.
पश्चिमी औपनिवेशिक विमर्श में ईरानी समाज को बुरी तरह से खंड खंड बिखरा हुआ और सामाजिक तौर पर अराजक साबित करने की कोशिश की जाती है और दुर्भाग्य से यह विमर्श ईरानियों की नजर में नहीं आने दिया जाता- यह वैश्विक स्तर पर विमर्श को मनमाफ़िक ढ़ंग से नियंत्रित किए रखने की रणनीति का हिस्सा है. बगैर यह जाने समझे कि ऐसा होने के कारण क्या हैं, ईरानी समाज को एक दीन हीन और मोहताज समाज के रूप में चित्रित करने का मकसद ही यह है कि पश्चिमी शक्तियों को यहाँ और ज्यादा सामाजिक और आर्थिक बदहाली पैदा करने का बहाना मिल जाए. यही कारण है कि बार-बार ईरानी समाज में व्याप्त राजनैतिक उथल-पुथल का हवाला देकर सैनिक हस्तक्षेप करने की वकालत की जाती है – पूरी दुनिया में इस तरह के उदाहरण बताते हैं कि अधिपत्य वाले देशों में किस तरह की अकल्पनीय बर्बर हिंसा वहाँ की जनता को झेलनी पड़ती है.
पश्चिमी सामाजिक शक्तियाँ- जिनमें कई बार नेक इरादों वाले संगठन भी होते हैं- हमारे प्रतिरोध आंदोलनों को अंदर घुस कर झटक लेते हैं और जनता के दमन से मुक्ति के इरादों को कुंद कर डालते हैं.अपने सेंसरशिप विरोधी काम को लेकर मेरे अपने तजुर्बे भी ऐसे ही हैं- कि इसका हवाला देकर ईरान को एक विध्वंसकारी समाज बताया गया जहाँ लोगों को अपने विचारों को व्यक्त करने की आजादी नहीं है. और उपनिवेशवादी शक्तियों को सेंसरशिप का विरोध करने के ईरानी जनता के आंदोलन के साथ एकजुटता प्रदर्शित करने के नाम पर हस्तक्षेप करने का बहाना मुहैय्या कराती हैं.
ईरान के सेंसरशिप विरोधी आंदोलन और वैश्विक उपनिवेशवादी विमर्श के बीच ऐसा घालमेल है कि जरा सी असावधानी हुई नहीं कि ईरानी लेखक उनके फंदे में फँसे नहीं- इसलिए ईरानी लेखकों को देश के राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर बात करते हुए अतिशय सावधानी बरतनी पड़ेगी. ईरान की जनता को स्वतंत्र रूप में अपना सेंसरशिप विरोधी संघर्ष चलाना चाहिए, उसे बढ़ाना चाहिए और बहुत सजगता के साथ इसका ध्यान रखना चाहिए कि कहीं वैश्विक शक्तियाँ उन्हें गुमराह कर उनके आंदोलन की कमान उनके हाथ से झटक कर खुद न सँभाल लें.
(अकरम पेंड्राम्निया)
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ईरान सरकार और वैश्विक उपनिवेशवाद- ये दोनों जिस तरह का विमर्श प्रस्तुत करते हैं, वह उन्हें अपने-अपने ढंग से जनता पर नियंत्रण करने के हथियार और बल प्रदान करता है. इसीलिए ईरानी लेखक के लिए जरूरी है कि वह किसी एक की अनदेखी न करे और दोनों मोर्चों पर समान तत्परता के साथ अपनी लड़ाई लड़े.
युलिसिस के बगैर किसी काट छाँट के फारसी अनुवाद का भविष्य एक ऐसा कदम होगा जो ईरानी लेखकों और अनुवादकों के सामने एक नजीर पेश करेगा- सेंसर व्यवस्था का बहिष्कार करके प्रकाशन संभव बनाना और पूरे देश में कानून को धता बताते हुए असेंसरित साहित्य का वितरण. सेंसर विरोधी मुहिम ईरान की जनता के लिए एक नए तरीके के प्रतिरोध का तजुर्बा होगा जिससे उनकी चेतना के नए आयाम खुलेंगे.
दुर्भाग्य से हम जिस समय में जी रहे हैं उस समय बगैर किसी काट छाँट के युलिसिस का संपूर्ण अनुवाद प्रकाशित करना उन सामाजिक शक्तियों के हाथ मजबूत कर सकता है जो वर्तमान उपनिवेशवादी व्यवस्था की और किलाबंदी करना चाहते हैं. यह काम पूरा हो जाएगा तो किताब का फारसी अनुवाद हर तरह के बाजारी तंत्र से मुक्त रखा जाएगा और सभी पाठकों के लिए मुफ्त में उपलब्ध होगा. सबके लिए उपलब्ध होने की यह व्यवस्था आम ईरानियों को शैक्षणिक सार्वभौमिकता प्रदान करने की दिशा में पहला – पर एकमात्र नहीं- कदम होगा.
एक ईरानी लेखक और अनुवादक के रूप में मैं सेंसरशिप के बनाए दो अवरोधों से जूझ रही हूँ- पहला अवरोध साहित्यिक कृतियों को संपूर्ण रूप में लोगों के साथ साझा करने से मुझे रोकता है और दूसरा यह कि उनके खिलाफ किए जाने वाले राजनैतिक षडयंत्रों के ऊपर पर्दा डाला रहता है.