आशुतोष भारद्वाज
झूठा सच (१९५८) के पहले खंड के अंत में हिंदू स्त्रियाँ एक सरकारी क़ाफ़िले में भारत में प्रवेश करती हैं. भारत ने हाल ही अपनी नियति से साक्षात्कार किया है. इन स्त्रियों को उनकी मातृभूमि में जिसका नाम अब पाकिस्तान हो गया है मुस्लिम युवकों ने बेतहाशा लूटा है. इन हिंदू स्त्रियों ने रास्ते में तमाम मुस्लिम स्त्रियों को हिंदू युवकों द्वारा लूटे जाते भी देखा है. अमृतसर पहुँचने पर उनके साथ चल रही भारतीय अधिकारी गहरी साँस ले कहती है:
“लो बहनो, पहुँच गए… उतरो! तुम्हारा वतन तो छूटा पर अपने देश में, अपने लोगों में पहुँच गयीं.”
अधिकारी के शब्द शरणार्थी स्त्रियों को रत्ती भर सांत्वना नहीं देते. नायिका तारा वहीं खड़ी रहती है: “वतन और देश! वतन! देश! तारा के मस्तिष्क में गूंज रहा था.”
एक अजनबी आकाश उसके ऊपर मँडरा रहा है, नीचे धरती की गंध एकदम बेगानी है.
राष्ट्रवाद का जो स्वप्न भारतीय उपन्यास ने बंदे मातरम के रूप में आठ दशक पहले आनंदमठ (१८८२) में रचा था, जिस स्वप्न ने राष्ट्रभक्तों की अनेक पीढ़ियों को संचालित किया था, वह यशपाल के पन्नों में स्वाहा हो गया है. आनंदमठ की बेड़ियों में जकड़ी भारत माता काग़ज़ पर मुक्त हो चुकी है, देश को हासिल किया जा चुका है लेकिन राष्ट्र खो गया है. इस विभीषिका में स्त्री भी खो चुकी है जिसे उस अमूर्त माँ भारती का दैहिक रूप होना था.
स्वप्न की तरह राष्ट्र का बिखरना भी स्त्री के ज़रिए अभिव्यक्त होता है. शरणार्थियों की गाड़ी में ठूँसी हुई एक टूटी हुई स्त्री जो पूछ रही है — क्या राष्ट्रवाद का प्रत्यय, जैसा अनेक भारतीय राष्ट्रवादी इसे समझते थे, अति-पौरुषेय, स्त्री-विरोधी है? एक ऐसा आदर्श जिसे स्त्री को कुचल कर ही हासिल किया जा सकता है?
बँटवारे के दौरान हुई हिंसा के लिए साम्प्रदायिकता को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है. झूठा सच की स्त्रियाँ पूछना चाहती हैं: क्या इस पाश्विक हिंसा के लिए राष्ट्रवाद ज़िम्मेदार है? आख़िर जिन्होंने हमें जानवर की तरह बरता, वे बड़े गर्व से ख़ुद को ‘राष्ट्रवादी’ कहा करते थे?
राष्ट्रीयता के निर्माण में उपन्यास के योगदान का एक गज़ब उदाहरण यह है कि भारत का राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान उपन्यासकारों ने ही रचा है. मातृभूमि को देवी तुल्य वाल्मीकि रामायण और अथर्ववेद सरीखे प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है, लेकिन इसकी बतौर एक राष्ट्रवादी आदर्श स्थापना बंदे मातरम के रूप में उन्नीसवीं सदी के एक उपन्यास में हुई. अगर उपन्यास ने राष्ट्र के एक स्वरूप को प्रस्तावित किया तो उसे खुद ही प्रश्नांकित भी किया, उसका विकल्प भी दिया. तत्कालीन उपन्यास स्त्री किरदार को इस आदर्श को अपनाने के लिए आह्वान करते थे, तो यही उपन्यास इस आदर्श को चुनौती भी दे रहे थे. इनकी नायिकाएँ पुरुष का प्रतिकार करती थीं, इन दोनों प्रत्ययों को संशय-समस्याग्रस्त बना, इन्हें कहीं अधिक समरूप और सहिष्णु बनाने के लिए जोर देती थीं. हालाँकि इन स्वतंत्र दिखते स्त्री किरदारों का उपन्यास में चित्रण समस्याहीन नहीं था, बड़ी जटिलताएँ लिए था. लेकिन इस पर थोड़ी देर में आएंगे.
जैसा पहले कहा स्त्री भारतीय रचनात्मक कल्पना की एक स्थायी निवासिनी रही है, लेकिन उपन्यास एक नयी स्त्री को जन्म दे रहा था.
जिस भारतीय लेखक के लिए मिथक और फंतासी न सिर्फ़ साहित्य की विशिष्ट विधायें थीं जिनका अपना अर्थ व यथार्थ था, बल्कि वे विधाएँ सत्य को परखने और हासिल करने का ज्ञानमीमांसीय उपकरण भी थीं, उपन्यास के उद्भव के बाद उस लेखक ने सहसा ख़ुद को यथार्थवाद के एक ऐसे स्वरूप को अपनाते पाया जिसका उससे शायद पहले कभी वास्ता ना पड़ा था. यथार्थवादी आख्यान भारतीय रचना परंपरा में चली आ रही विधाओं, शैलियों और कथाओं का लगभग विलोम बन उभर रहा था. भारतीय उपन्यासकार सिर्फ एक विधा नहीं बल्कि एक जीवन-दर्शन से संवाद कर रहा था, एक ऐसा संवाद जो तमाम समस्याओं में लिपटा हुआ था. उपन्यास एक ऐसा भूगोल रच रहा था जिसके पन्नों में यथार्थवाद के रचनात्मक आग्रह तले, यथार्थवाद जो साहित्य की एक विधा थी और एक विशिष्ट दर्शन भी, एक ऐसी स्त्री का जन्म हुआ जो उपन्यासकार को असहज और आख्यान को संशयग्रस्त करती थी.
‘राष्ट्रवादी’ साहित्य के बड़े ऊँचे शिखर पर बैठा हुआ आनंदमठ उन आरम्भिक उपन्यासों में है जहाँ स्त्री को केंद्र में रख मिथक और यथार्थ, अमूर्त और स्थूल के बीच यह असहज और हिचकिचाता संवाद दर्ज हुआ है. कोई इसे विडम्बना मान सकता है या रचना प्रक्रिया की सहज माया पर अचम्भित हो सकता है कि जो उपन्यास बंदे मातरम जैसा लोमहर्षक मंत्र देता है, बेड़ियों में बंधी भारत माता को मुक्त कराने का आह्वान देता है, उस उपन्यास में एक भी स्त्री किरदार नहीं है जिसे सामाजिक बंधनों से मुक्त कराने की ज़रूरत हो. इस उपन्यास में कल्याणी और शांति सरीखी एकाध स्त्रियाँ हैं, लेकिन वे लगभग महत्वहीन हैं. आख्यान से उन्हें निकाल दें तो इसके प्रस्तावित आदर्श पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा.
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(अवनीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा बनाया गया भारतमाता का चित्र) |
इस उपन्यास में स्त्री की अनुपस्थिति की क्या वजह है? एक ऐसी स्त्री जिसे माँ भारती की मूर्ति के समक्ष रखा जा सके, जैसा अन्य उपन्यासों मसलन घरे बाइरे (१९१६) में दिखाई देता है जिसमें एक स्त्री से आह्वान किया जाता है कि वह घर से बाहर निकल राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई करे. आनंदमठ के सन्यासियों की सेना में सिर्फ़ पुरुष हैं. शांति अपने पति सन्यासी जीवनानंद के साथ रहना चाहती है लेकिन उपन्यासकार शांति को सिर्फ़ एक ही विकल्प दे पाता है — पुरुष के भेष में चोरी-छुपे सन्यासी सेना में भर्ती हो जाओ. यह विशुद्ध पुरुष आख्यान है जिसमें स्त्री एक अमूर्त आदर्श, एक अनुपस्थिति बतौर ही जगह पा सकती है.
एक साहित्यिक कृति जितना अपने कहे द्वारा ख़ुद को व्यक्त करती है, उतना ही अपने भीतर समायी अनुपस्थिति से भी. क्या बंकिम जो कहना नहीं चाह रहे थे वह उनके रचनाकार का अतिक्रमण कर गया और उनके पाठ में उतर आया? क्या भारत माता का आदर्श जो स्त्री पर असम्भव अपेक्षाएँ लाद देता था इस क़दर अमूर्त था कि इसकी वेदी पर किसी स्त्री को बिठाना सम्भव न था? क्या इस तरह का राष्ट्रवाद और इस तरह की स्त्री सिर्फ़ अमूर्तन में ही सम्भव थी?
चूंकि कोई स्त्री किरदार ऐसे सवाल उठा सकती थी जो उपन्यास के आदर्श को खंडित कर सकते थे, इसलिए शायद उपन्यासकार के लिए यह सम्भव नहीं था कि वह किसी स्त्री से अपने पन्नों में संवाद कर पाता. क्या यह एक पुरुष उपन्यासकार द्वारा अपनायी गयी युक्ति थी जिसके ज़रिए उसकी कथा में हस्तक्षेप करती एक ‘बाह्य’ उर्फ़ ‘दूसरी’ सत्ता को अपने आख्यान से बाहर रखा जा सकता था?
क्या बंकिम इस अनुपस्थिति से अनजान रहे होंगे?
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(बंकिम ) |
तीन दशक बाद एक रचनाकार बंकिम को औपन्यासिक जवाब देता है जब उसकी स्त्री किरदार माँ भारती के आदर्श को ठुकरा देती है. लेकिन घरे बाइरे राष्ट्रवाद को बिमला के ज़रिए संशयग्रस्त ज़रूर करता है, इस प्रक्रिया में यह उपन्यास खुद ही उलझ जाता है.
बिमला को सम्मोहित करता संदीप उसका स्वदेशी आंदोलन से परिचय कराता है, उसमें भारत माता को देखता है, उसे “क्वीन बी” उर्फ़ रानी मधुमक्खी कहता है. अब तक घरेलू जीवन जीती आयी बिमला मानने लगती है: “मैं अब राजा के घर की औरत न रही थी, बंगाल की स्त्री की एकमात्र प्रतिनिधि थी. और वह (संदीप) बंगाल का पथ-प्रदर्शक था.”
पूरे उपन्यास में अपने पति निखिल और संदीप के बीच डोलती रहने के बाद बिमला को रबिन्द्रनाथ टैगोर अंत में वापस घर तो ले आते हैं लेकिन आख्यान की गाँठें सुलझने के बजाय अधिक जटिल हो जाती हैं.
क्या उसकी वापसी अंतिम और निरापद है? क्या यह वाक़ई उग्र राष्ट्रवाद पर वैचारिक विजय का प्रतीक है जिसका प्रवक्ता संदीप है? शायद नहीं. बिमला की वापसी दो दरवाज़ों से होती है — स्वदेशी आंदोलन और संदीप. लेकिन उपन्यासकार टैगोर के स्वदेशी आंदोलन पर दृष्टिकोण को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि बिमला का इस आंदोलन की राजनीति से मोहभंग होना ही था, युवा क्रांतिकारियों के प्रति उसका आकर्षण अस्थायी ही रहना था. अगर बिमला आंदोलन में बनी रहती या इसकी एक प्रमुख नेता बन जाती तो यह उपन्यास राष्ट्रवादी राजनीति की इस क़दर आलोचना शायद नहीं कर पाता. क्या उपन्यासकार ने बिमला को घर से बाहर अपने अस्तित्व को राजनीति के भँवर में तलाशने के लिए नहीं बल्कि इस राजनीति को कहीं अधिक शक्ति से ठुकरा देने के लिए भेजा था?
बिमला की दूसरी वापसी प्रेम के द्वार से दर्ज होती है जब उसे बोध होता है कि संदीप प्रेमी नहीं, फ़रेबी और फन्देबाज़ है. चूँकि टैगोर संदीप को किसी बेहतर रोशनी में चित्रित कर ही नहीं सकते थे, क्या यह वापसी भी पूर्वनिर्धारित थी?
ऐसे आख्यान की कल्पना कीजिए जिसमें संदीप अवगुणों का भंडार नहीं है और इसलिए भले ही बिमला स्वदेशी राजनीति से विमुख हो जाती है, वह संदीप की प्रेमिका या घनघोर प्रशंसक बनी रहती है. ऐसा आख्यान असंभाव्य नहीं, और यह उपन्यास के लिए अनेक रास्ते भी खोल सकता है.
लेकिन टैगोर के लिए संदीप को प्रेम और स्वदेशी आंदोलन दोनों ही मोर्चों पर लुढ़कते हुए दिखाना शायद ज़रूरी था क्योंकि तभी वे उपन्यास में उस राजनीति का प्रतिकार कर पाते जिसके विरोध में वे अपने व्यक्तिगत जीवन में पहले ही एक ठोस वैचारिक मत ले चुके थे. स्वदेशी आंदोलन में संदीप जैसे किरदार भी रहे होंगे, लेकिन इसका संचालन अनेक श्रेष्ठ नेता भी कर रहे थे जो इस राजनैतिक विचार को कहीं अधिक निष्ठा से धारण करते थे. संदीप और निखिल के बीच के फ़र्क़ को गहरा करने के लिए टैगोर एक दुर्बल और दाग़दार इंसान को स्वदेशी आंदोलन का प्रतिनिधि बना देते हैं. क्या यह उपन्यासकार की एक गहन रचनात्मक भूल थी जिसकी वजह यह थी कि टैगोर दो विकल्पों के मध्य फ़ंसी बिमला को चुनाव करने में सहूलियत देना चाहते थे? उपन्यासकार अपने राजनैतिक विचार के लिए स्वतंत्र है लेकिन एक उपन्यास अपने रचयिता का प्रवक्ता नहीं होता, और अगर यह होने की आकांक्षा रखता है जैसा घरे बाइरे में है तो मानव जीवन की बारीकियाँ और विडम्बनायें जो कथा को समृद्ध बनाती हैं पिछले दरवाज़े से बाहर हकाल दी जाती हैं.
इस तरह से बिमला की वापसी अंतिम प्रतीत नहीं होती, उसके दरवाज़े बाह्य दुनिया के लिए हमेशा को बंद नहीं हुए हैं. उसने राजनीति को चख लिया है, संदीप के साथ एक ‘वर्जित’ सम्बंध में भी रह आयी है. इन अनुभवों ने उसके लिए एक नयी सृष्टि का द्वार खोल दिया है. संदीप का अस्वीकार उसके जीवन में एक अस्थायी चरण भी हो सकता है, इसलिए सम्भव है कि अगर उसकी कथा का विस्तार हो तो वह ख़ुद को फिर से प्रयोग करती पाएगी.
लेकिन एक कहीं बड़ा प्रश्न उपन्यास के सामने खड़ा है: उग्र राष्ट्रवाद को एक स्त्री किरदार के ज़रिए ठुकराना चाहते टैगोर बिमला को उपन्यास में कितनी स्वतंत्रता और कौन से विकल्प दे पाते हैं? पूरे उपन्यास के दौरान टैगोर बिमला को एक स्वतंत्र और आधुनिक स्त्री बतौर चित्रित करते हैं. वह स्वेच्छा से अपने घर की सीमाएँ लांघती है, फिर ख़ुद ही वापसी का क्षण चुनती है. लेकिन जैसा ऊपर कहा उसका निर्णय उसकी स्वतंत्र इच्छा से कम रचनाकार के हस्तक्षेप द्वारा अधिक निर्धारित होता दिखाई देता है.
आधुनिकता कोई जड़ या एकायामी विचार नहीं है, भक्त-भाव से पालन किया जाने वाला आदर्श भी नहीं. आधुनिकता के साथ अपने संवाद के दौरान अनेक समाजों ने अपने रास्ते और समाधान चुने हैं, लेकिन इसके बावजूद यह कहा जा सकता है कि प्रश्नाकुलता और तर्कबुद्धि आधुनिकता की मूल अपेक्षाएँ हैं. हालाँकि यह भी है कि एक ईमानदार प्रश्नाकुलता सबसे पहले प्रश्न को ही प्रश्नांकित करेगी, प्रश्नकर्ता को कटघरे में खड़ा करेगी. इस मसले पर आगे चर्चा होगी.
अगर आधुनिक जीवन कठिन विकल्पों के बीच फँसे इंसान से प्रश्नाकुल चुनाव की अपेक्षा रखता है, तो बिमला को दिए गए विकल्प बड़े सरल हैं, संदीप और निखिल काले और सफ़ेद के सपाट युग्म हैं. अगर इन दोनों के मध्य चुनाव कि योग्यता पैमाना है तो उसकी आधुनिकता अधूरी और अप्रामाणिक रही आती है.
लेकिन इस विषय पर बिमला की आलोचना नहीं हो सकती, क्योंकि आधुनिकता कोई पवित्र आदर्श नहीं है. एक उपन्यास इस आदर्श की भक्ति के लिए बाध्य नहीं है. उपन्यास का जन्म भले ही आधुनिक जीवन की कोख से हुआ हो लेकिन इसने यूरोप, जिसे इसकी मातृभूमि माना जाता है, से बहुत दूर जाकर अपने अनेक घर बनाए हैं, अनेक आधुनिकताएँ, उत्तर-आधुनिकताएं और पूर्व-आधुनिकताएं रची हैं. बिमला के लिए प्रश्न उसकी आधुनिकता के स्वरूप का उतना नहीं है बल्कि यह कि किस भूमि पर वह अपने जीवन का चुनाव करती है, और इसका उपन्यास द्वारा प्रस्तावित राजनैतिक वक्तव्य पर क्या प्रभाव पड़ता है. क्या यह कह सकते हैं कि अगर बिमला का चुनाव प्रामाणिक नहीं है, तो उसका माँ भारती के राजनैतिक आदर्श का अस्वीकार वेध्य बना रहेगा, और जिस राष्ट्रवाद का प्रतिकार उपन्यास बिमला के ज़रिए करना चाह रहा है उसमें वांछित धार नहीं आ पाएगी?
उपन्यास ऐसे अनेक प्रश्नों को जन्म देता है.
संदीप और निखिल के इतने एकतरफा चित्रण की वजह क्या यह है कि वे राजनैतिक विचारधारा के वाहक हैं? अगर किरदार राजनैतिक विचारधारा के रूपक बनते प्रतीत होते हैं तो आख्यान पर क्या प्रभाव पड़ता है? क्या किसी राजनैतिक विचार को खंडित कर एक दूसरे विचार को प्रस्तावित करना चाहता उपन्यास किरदारों के विकल्प सीमित कर देने की सम्भावना साथ लिए चलता है? टैगोर उपन्यास के ज़रिए आधुनिकता को परखना और पुनर्परिभाषित करना चाहते थे. लेकिन अगर उपन्यास अपनी राजनीति पहले ही निर्धारित कर लेगा, अपनी कथा की कुंडली पहले ही तय कर देगा, अपने किरदारों को वह स्पेस कैसे दे पाएगा जहाँ वे किसी विषय पर एक निर्भीक और स्वतंत्र हस्तक्षेप कर सकते हैं? क्या इसलिए टैगोर ही नहीं अनेक बड़े उपन्यासकारों का साहित्य की इस आधुनिक विधा और इसके ज़रिए आधुनिकता के साथ संवाद अक्सर संशय और समस्याग्रस्त दिखाई देता है?
एक राजनैतिक उपन्यास बड़ी नुकीली धार पर चलता है. इसके लिए क्रूर आत्मचिंतन अनिवार्य है कि वह एक कलाकृति बनी रहे, किसी राजनैतिक पैम्फ़्लेट में तब्दील न हो जाए. राजनैतिक वक्तव्य अक्सर एकरंगी और इकहरा हो जाता है जिसकी संगति उपन्यास के बहुस्वरीय स्वरूप के साथ नहीं होती. राजनीति की उपन्यास पर विजय का एक हालिया उदाहरण अरुंधती राय का द मिनिस्ट्री अव अट्मोस्ट हैप्पीनेस है. एक सच्चे राजनैतिक कार्यकर्ता की तरह उपन्यासकार अरुंधती एकदम सपाट, संशयहीन नैतिक उपदेश देने में यक़ीन रखती हैं. इस उपन्यास में किसी बारीक या जटिल विश्लेषण की कोई जगह नहीं, देश की समूची राजनीति को घनघोर घृणा से बरता गया है. एक “तोतला-कवि प्रधान मंत्री”, एक “ख़रगोश प्रधान मंत्री”, “गुजरात का लल्ला”, एक मिस्टर अग्रवाल जो कभी “राजस्व विभाग” में थे, बाद में एक “मुटल्ले गांधीवादी” के “प्रधान सिपहसालार” बन गए. यह विशेषण (भारतीय पाठक को इन्हें एक ख़ास चेहरा देने के लिए कोई संकेत नहीं चाहिए) बग़ैर किसी संदर्भ के भर दिए प्रतीत होते हैं, किसी रचनात्मक घर्षण की उपज नहीं लगते. राजनैतिक सामग्री ठूँस देने की उत्कंठा इतनी अधिक है कि जुलाई २०१६ की ऊना ‘मॉब लिंचिंग’ भी उपन्यास में जगह पा जाती है (यह घटना एकदम आख़िरी मिनट पर जोड़ी गयी होगी क्योंकि उपन्यास २०१७ के पूर्वार्द्ध में प्रकाशित हुआ था, प्रेस में छपने बहुत पहले ही चला गया होगा), और आख़िरी पन्नों में अचानक दंडकारण्य की एक महिला माओवादी प्रकट हो जाती है. मसलन पूरे देश के मानवाधिकार हनन का मानचित्र पूरा करे बग़ैर उपन्यास को तसल्ली नहीं मिलेगी.
क्या कोई राजनैतिक उपन्यास अनिवार्यतः लुढ़क जाता है? एकदम नहीं. झूठा सच, द अनबियरेबिल लायटनेस अव बीइंग, द बुक अव लाफ़्टर एंड फ़र्गेटिंग इत्यादि उपन्यास कोरे समाजशास्त्रीय पाठ में निगमित नहीं होते. वे अपने राजनैतिक परिवेश से परे निकल जाना चाहते हैं, निकल भी जाते हैं.
लेकिन उससे पहले प्रश्नाकुलता का ईमानदारी से पालन करते हुए प्रश्न को ही प्रश्न किया जाए: क्या किसी उपन्यास के किरदार अपने रचयिता की विचारधारा से पूरी तरह स्वतंत्र हो सकते हैं? एक महान उपन्यासकार अपने उपन्यास को अपनी मान्यताओं का घोषणापत्र न बनाने के लिए, किरदारों पर अपनी छाया न्यून कर देने के लिए एक गहन आंतरिक संघर्ष से गुज़रता है, लेकिन क्या कोई कृति कभी उन अंतर्दृष्टियों, घनघोर वैयक्तिक अंतर्दृष्टियों और विचारों से मुक्त हो सकती है जो सिर्फ़ वह रचनाकार ही उसे दे सकता है, कोई अन्य नहीं?
वापस टैगोर और उनके एक अन्य राजनैतिक उपन्यास पर लौटते हैं जो घरे बाइरे की तरह राष्ट्रवाद का प्रतिकार स्त्री के ज़रिए करना चाहता है.
आनंदमठ और घरे बाइरे के मध्य स्थित है गोरा (१९०५), राष्ट्रवाद और आधुनिकता पर ब्रह्म समाज और हिंदू पुनरुत्थानवादियों के बीच चल रहे विमर्श की कथा. ऊपरी तौर यह भले ही नायक-प्रधान उपन्यास है लेकिन इस विमर्श की सबसे सशक्त और समर्थ आलोचना तीन स्त्रियों के ज़रिए होती है — सुचरिता, ललिता और आनंदमयी. पहली दो ब्रह्म समाज परिवार में हैं, आनंदमयी हिंदू गृहणी हैं, लेकिन तीनों ही अपने सम्प्रदाय की संकीर्णता से परे निकलती हैं, गोरा और विनय को परिवर्तन के लिए प्रेरित करती हैं. दो उदाहरण लें.
ललिता से विवाह करने के लिए विनय ब्रह्म समाज में दीक्षा लेने को तैयार हो जाता है लेकिन ललिता इसका विरोध करती है:
“ऐसा कभी नहीं हो सकता कि मनुष्य का जो भी धर्म-विश्वास या समाज हो उसे बिलकुल छोड़कर ही मनुष्यों का परस्पर योग हो सकेगा. ऐसा हो तो हिंदू और ख्रिस्तान में दोस्ती हो नहीं सकती. तब तो बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी करके एक-एक सम्प्रदाय को एक-एक बाड़े में बंद कर देना ही उचित है.” 1
ललिता विनय से कहती है:
“आप अपने को छोटा करके और हेठे करके मुझे ग्रहण करने आएँगे, यह अपमान मैं नहीं सह सकूँगी. आप जहाँ हैं, वहीं अविचलित रहें; यही मैं चाहती हूँ.”2
गोरा के भीतर हुआ परिवर्तन अधिक उल्लेखनीय है. कट्टर हिंदू गोरा जाति व्यवस्था का समर्थक है, मानता है कि राष्ट्र का भविष्य हिंदू के पुनरुत्थान में ही निहित है. उसके भीतर बसी आदर्श हिंदू स्त्री की छवि राष्ट्रीयता पर उसके विचार का ही विस्तार है. विनय और गोरा के बीच एक संवाद इस छवि को स्पष्ट करता है.
“देखो गोरा… मुझे लगता है हमारे स्वदेश प्रेम में एक बहुत बड़ा अधूरापन है. हम लोग भारतवर्ष को आधा ही करके देखते हैं… हम भारतवर्ष को केवल पुरुषों का देश मानकर देखते हैं, स्त्रियों को बिलकुल देखते ही नहीं.”
गोरा —
“तो तुम शायद अंग्रेज़ों की तरह घर में और बाहर, जल-थल और आकाश में, आहार-विहार और कर्म में, सब जगह स्त्रियों को देखना चाहते हो? उसका नतीजा यही होगा कि पुरुषों से स्त्रियों को अधिक माना होगा— उससे भी देखने में सामंजस्य नहीं रहेगा.”
गोरा—
“मैंने जब अपनी माँ को देखा है, माँ को जाना है, तब अपने देश की सभी स्त्रियों को उसी एक रूप में देख और जान लिया है.” 3
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“समाज की स्वाभाविक अवस्था में स्त्री रात की तरह ओझल ही रहती है — उसका सारा काज गूढ़ और निभृत है… जहाँ समाज की व्यवस्था स्वाभाविक नहीं है, वहाँ रात को ज़बरदस्ती दिन बनाया जाता है… उसका नतीजा क्या होता है. यही कि रात का जो स्वाभाविक अलक्षित काम है, वह नष्ट हो जाता है…नारी अव्यक्त है; इस अव्यक्त शक्ति को अगर केवल व्यक्त करने की चेष्टा की जाएगी तो समाज का सारा मूल-धन ख़र्च करके उसे तेज़ी से दिवालियापन की ओर ले जाना ही होगा.” 4
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(रवीन्द्रनाथ टैगोर) |
पितृसत्ता का इस क़दर पक्षधर गोरा सुचरिता के सम्पर्क में आकर अपने विचार की कमज़ोरी और जड़ता पहचानने लगता है. जिस पुरुष ने घर की दीवार से परे कभी स्त्री की भूमिका को नहीं लक्ष्य किया था, वह “सुचरिता के ज़रिए सत्य की प्राप्ति करता है”. जिसने आजीवन ब्रह्मचारी रह राष्ट्र के लिए अपना जीवन समर्पित करने का प्रण लिया था वह सुचरिता से विवाह करने का निश्चय करता है.
सुचरिता के रूप में भारत की नारी-प्रकृति ही उसके सामने प्रकट हो रही थी…उसे जान पड़ने लगा, इस लक्ष्मी की ओर हमने तक ही नहीं, इससे बड़ी हमारी दुर्गति और क्या हो सकती है! …अपने ही विचारों पर गोरा स्वयं ही चकित हो गया. जब तक भारतवर्ष की नारी उसकी अनुभव गोचर नहीं हुई थी, तब तक उसकी भारतवर्ष की उपलब्धि कितनी अधूरी थी, यह वह इससे पहले नहीं जानता था. गोरा के लिए नारी जब तक अत्यंत छायामय थी, तब तक देश के सम्बंध में उसका कर्तव्य-बोध कितना अधूरा था! गोरा क्षण-भर में ही समझ गया कि नारी को हम जितना ही दूर करके, जितना ही क्षुद्र बनाकर रखते हैं, उतना ही हमारा पौरुष भी जर्जर होता जाता है.5
महत्वपूर्ण यह है कि गोरा के भीतर यह परिवर्तन स्त्री की किसी कथित संवेदनात्मक अपील की वजह से घटित नहीं होता. सुचरिता और आनंदमयी गोरा को तर्क और बुद्धि से परिवर्तित करती हैं. वे भौतिक और आध्यात्मिक जगत के बीच की नक़ली फाँक को बख़ूबी पहचानती हैं, एक फाँक जो स्त्री के प्रति भेदभाव करने में मदद करती है. उन्नीसवीं सदी के अंत में, वह काल जिसमें उपन्यास घटित होता है, राष्ट्रीय आंदोलन ने भौतिक और आध्यात्मिक जगत के बीच एक गहरी लकीर खींच दी थी. भौतिक यानी बाह्य संसार पुरुष के लिए आरक्षित हो गया था, आध्यात्मिक जगत (घर) स्त्री को सौंप दिया गया था. उच्च और मध्यवर्गीय स्त्रियाँ अगर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करती थीं तो उनके व्यवहार के दायरे और नियम तय कर दिए जाते थे.6
यह विभाजन इस दोषयुक्त अवधारणा से निकलता है कि पुरुष तार्किकता के झंडाबरदार हैं, स्त्री को संवेदना और आवेग से फुसलाया जा सकता है. गोरा इस द्वैध को उलट कर रख देता है. (हालाँकि यह सर्वथा ग़लत अवधारणा इस सरल तथ्य से ध्वस्त की जा सकती है कि हिंसक और दंगालु भीड़ के लगभग सभी नेता और भागीदार पुरुष होते हैं जो खोज-खोज कर निरीह और निर्दोष इंसानों को मारते हैं.). गोरा आवेगों से संचालित होता दिखाई देता है जबकि सुचरिता और आनंदमयी तर्कनिष्ठ नज़र आती हैं, ब्रह्म समाज और हिंदू परिवारों के अंतर्विरोधों को रेखांकित करती हैं. यह उपन्यास अतिपौरुषेय राष्ट्रीयता का शायद सबसे ज़बरदस्त प्रतिकार है जो राष्ट्रीय आंदोलन के आरम्भिक दशकों में उपज रही थी, भारतीय चेतना को एक नया आयाम दे रही थी. ग़ौरतलब है कि टैगोर उग्र राष्ट्रवाद का प्रतीक पुरुष को बनाते हैं, उसके प्रतिकार के लिए स्त्री को चुनते हैं जो भारतीयता का कहीं संश्लिष्ट और समन्वयकारी स्वरूप प्रस्तावित करती है.
लेकिन इसके बावजूद टैगोर कहीं चूक जाते हैं. सुचरिता का चित्रण समस्यामुक्त नहीं है. सुचरिता के भीतर तो गोरा की वजह से कोई खास परिवर्तन नहीं आता, लेकिन जैसे ही गोरा सुचरिता की वजह से अपना रास्ता बदलता है वह आख्यान में नायक के हृदय परिवर्तन का महज एक माध्यम बनती प्रतीत होती है. दोनों के बीच का संवाद और कारोबार लगभग एकतरफ़ा सा प्रतीत होता है.
अगर किसी उपन्यास की प्रमुख किरदार नायक की यात्रा को सुगम और सरल बनाने का एक साधन बनती प्रतीत होती है तो इसका उस कथा पर क्या प्रभाव पड़ता है? इस प्रश्न की पड़ताल से पहले इन तीनों उपन्यासों के भीतर से उठती और इनकी कथा को बाधित करती हिचकियों को परखते हैं. आनंदमठ स्त्री को जगह देने में नाकाम है, घरे बाइरे जगह तो देता है लेकिन जिन विकल्पों को यह बिमला के समक्ष रखता है वे बड़े ही सीमित हैं, सुचरिता के पास स्वतंत्र चुनाव करने के लिए काफ़ी स्पेस है लेकिन उसकी स्वतंत्रता नायक गोरा को चुनाव करने में मदद करने के लिए प्रयुक्त होती दिखाई देती है.
आख्यान के इन अंतर्विरोधों का उपन्यास द्वारा सम्बोधित राष्ट्रवाद पर क्या असर पड़ता है? तीनों उपन्यास राष्ट्रवाद का एक ख़ास मॉडल प्रस्तावित करते हैं, लेकिन इन तीनों में यह ख़ुद ही संशयग्रस्त हो जाता है. यह अकारण नहीं है. चूँकि शब्द एक स्वायत्त सत्ता है, इसलिए यह सम्भव है कि किसी विषय पर एक वक्तव्य बन जाने की आकांक्षा रखती कोई कृति अपने रचयिता की अनदेखी कर किसी दूसरी दिशा में चली जाए. यह भी कहा जा सकता है कि अगर किरदारों को किसी राजनैतिक विचार का रूपक बनाया जाता है या वे उपन्यासकार की विचारधारा के प्रवक्ता बनते हैं, तब वे जटिलताएँ जो आख्यान को समृद्ध बनाती हैं एक सरल और वेध्य समाधान की तरफ़ पहुँचती दिखाई देती हैं, और जिस ज़मीन पर ये किरदार अपने विकल्पों का चुनाव करते हैं वह आंतरिक तनाव की वजह से ढह जाती है.
दूसरा प्रश्न आधुनिकता का है. जब सुचरिता गोरा के परिवर्तन का माध्यम बनती नज़र आती है, क्या सुचरिता की आधुनिकता, जैसा बिमला के साथ किन्हीं दूसरी परिस्थितियों में घटित हुआ था, उस दीवार से आ टकराती है जिसे उपन्यास अनदेखा करता है या उससे जूझने में असमर्थ है?
गोरा आधुनिक चेतना को अपनी रूह की भट्टी में गढ़ देना चाहता है, एक ऐसी आधुनिकता जो भारतीय उपन्यास और भारत के अनुकूल हो प्रस्तावित करना चाहता है. क्या गोरा की आधुनिकता एक ऐसी जगह पहुँचती है जो स्त्री को स्वतंत्र चुनाव की, पुरुष के समक्ष अस्तित्वगत प्रश्न खड़े करने की जगह तो देती है, उसे अपने आदर्श पुनर्परिभाषित करने को बाध्य भी करती है, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में वह पुरुष के जीवन में महज़ एक लाइटहाउस, एक प्रेरणा बन जाने की सम्भावना से भी बंधी नज़र आती है? वह एक ऐसा किरदार बनती जाती है जिसकी सार्थकता नायक के हृदय परिवर्तन में निहित है.
पुरुष की प्रेरणा — आख़िर इसी विशेषण में सिमटने से ही तो शायद स्त्री बचना चाहती है. वह नहीं भूली है कि पिछली सदी की स्त्रियों को पुरुष की प्रेरणा होने की सांत्वना देकर उनके विकल्प सीमित कर दिए जाते थे.
गोरा अपवाद नहीं है. अनेक बड़े उपन्यास स्त्री को इसी आइने से देखते हैं. यह प्रवृत्ति उपन्यास द्वारा प्रस्तावित आधुनिकता को संकटग्रस्त करती है, स्त्री की स्वतंत्रता को बाधित कर उसे अनुपस्थिति के दायरे में बांधता चलती है.
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सन्दर्भ :
1 रविंद्रनाथ टैगोर, गोरा, अनुवाद अज्ञेय, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, २०१५, पृष्ठ ३१४।
2 वही, पृष्ठ ३१५.
3 वही, पृष्ठ ९३-९४.
4 वही, पृष्ठ ९४-९५.
5 वही, पृष्ठ २८२-८३.
6 देखें पार्था चटर्जी, द नैशनलिस्ट रेज़लूशन अव द विमनस क्वेश्चन.