• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » कुलदीप कुमार की कविताएं

कुलदीप कुमार की कविताएं

वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप कुमार (4 मार्च 1955, नगीना) अंग्रेजी अखबारों में इतिहास, साहित्य, शास्त्रीय संगीत और पेंटिंग पर भी नियमित रूप से लिखते हैं. उनके भीतर कवि भी है जिसे अब जाकर एक संग्रह प्राप्त हुआ है-‘बिन जिया जीवन’. इस संग्रह में कुलदीप कुमार के स्वप्न, उनकी स्मृतियाँ और यातनाएँ दर्ज़ हैं. पाँच दशकों से […]

by arun dev
October 30, 2019
in कविता
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप कुमार (4 मार्च 1955, नगीना) अंग्रेजी अखबारों में इतिहास, साहित्य, शास्त्रीय संगीत और पेंटिंग पर भी नियमित रूप से लिखते हैं. उनके भीतर कवि भी है जिसे अब जाकर एक संग्रह प्राप्त हुआ है-‘बिन जिया जीवन’. इस संग्रह में कुलदीप कुमार के स्वप्न, उनकी स्मृतियाँ और यातनाएँ दर्ज़ हैं. पाँच दशकों से भारतीय समय को जीते हुए एक सचेत, प्रबुद्ध नागरिक की राजनीतिक सांस्कृतिक मन्तव्य को भी ये कविताएं सृजित करती हैं.
कवि इतिहास का अध्येता  रहा है और एक इतिहासकार में अतीत को लेकर जिस तटस्थता की अनिवार्यता होनी चाहिए वह ‘महाभारत व्यथा’ के स्त्री पात्रों को लेकर लिखी कविताओं मे दिखती है, कई जगह तो निर्मम होने के जोखिम के साथ. यह एक ‘स्त्री पाठ’ भी है. इन कविताओं को पढ़ते हुए बरबस भीष्म की याद आती है शर की शय्या पर लेटे हुए. ये शर कवि के हैं और प्रश्नों की शक्ल में बेधक भी. 
दो लंबी कविताएं मत्स्यगंधा और द्रौपदी आपके लिए.
कुलदीप कुमार की कविताएं                               
(पेंटिग : राजा रवि वर्मा )

 मत्स्यगंधा  

हस्तिनापुर आज भी
मछली की तेज़ गंध में डूबा हुआ है
लोग कहते हैं कि चाँदनी रात हो या अंधेरी 
अक्सर मत्स्यगंधा की आत्मा यहाँ डोलती है
और पूरे नगर पर तीखी बास की एक मोटी चादर 
पड़ जाती है 
लोक में प्रचलित हुआ कि सत्यवती वन में 
अम्बिका और अम्बालिका के साथ 
मर गयी 
पर मैं जीवित रही 
क्योंकि मैं 
हस्तिनापुर की राजमाता 
हस्तिनापुर का ध्वंस देखने के लिए 
तड़प रही थी 
अब मेरी आत्मा तृप्त है 
कौन है इस ध्वंस का उत्तरदायी?
द्रौपदी की दुर्योधन पर फ़ब्ती? 
कौरव राजसभा में द्रौपदी का चीरहरण?
युधिष्ठिर की जुए की लत?
दुर्योधन की ईर्ष्या?
मर्यादा का क्षरण? 
नहीं
बहुत पहले ही 
मर्यादा टूट चुकी थी और 
सत्ता पर सवार हो चुके थे  
निरंकुश वासना, अतृप्त लालसा, निर्वसन लोभ 
ध्वंस के बीज तो तभी पड़ गए थे 
जब 
ऋषि पराशर ने मुझ नाव चलाने वाली पर 
नदी के बीचों-बीच 
बलात्कार किया था 
अनाघ्रात पुष्प थी मैं
नवागत यौवन के झूले में झूलती हुई 
इतनी भोली कि यह भी पता नहीं चला 
मेरी देह के साथ क्या घटित हो रहा है 
चीरहरण की सभी चर्चा करते हैं
मेरे कौमार्यहरण की कोई भी नहीं !
राजा शान्तनु की दुर्दमनीय कामेच्छा 
मेरे मल्लाह पिता का अपार लालच
भावी सम्राट का नाना बनकर 
ऐश्वर्य भोगने की उसकी निर्लज्ज लालसा  
देवव्रत का 
कभी विवाह न करने और सिंहासन को त्यागने की 
भीषण प्रतिज्ञा लेकर 
भीष्म के रूप में लोकोत्तर पुरुष बनना 
और फिर 
परिणाम की सोचे बिना 
उस पर हठपूर्वक जमे रहना 

लोक में 
बस इसी की चर्चा है 
क्या कभी किसी ने सोचा 
कि 
उस बूढ़े राजा से मेरे विवाह के लिए 
मेरी सहमति आवश्यक नहीं थी क्या?
किसी भी स्त्री की सहमति क्या 
कभी आवश्यक समझी गयी है?
देवव्रत ने विवाह न करने का हठ 
नहीं छोड़ा 
लेकिन बलपूर्वक अनेक विवाह कराए 
विचित्रवीर्य के लिए काशिनरेश की तीन कन्याओं का 
अपहरण किया 
अम्बा का जीवन नष्ट किया 
और अम्बिका और अम्बालिका को ज़बरदस्ती 
विचित्रवीर्य के साथ विवाह के बंधन में बांधा 
अगर यह न हुआ होता 
और अम्बा ने फिर से जन्म लेकर 
भीष्म और उसके कुल के नाश की प्रतिज्ञा न की होती 
तो क्या यह महायुद्ध होता?
और मैं?
क्या हर सास की तरह 
मैंने भी प्रतिहिंसा में 
अपनी बहुओं के साथ वही नहीं किया 
जो मेरे साथ हुआ था?
नियोग के बहाने अपने पहले पुत्र कृष्ण द्वैपायन से 
क्या मैंने अम्बिका और अम्बालिका पर 
बलात्कार नहीं करवाया?
इस अंधे, विवेकहीन और रुग्ण कृत्य के फलस्वरूप 
यदि 
दृष्टिहीन धृतराष्ट्र और रोगी पाण्डु पैदा न होते 
तो और क्या पैदा होता?
अंधे धृतराष्ट्र के लिए भीष्म गांधारी और 
रोगी पाण्डु के लिए 
पृथा एवं माद्री लाए  
कैसा लगा होगा गांधारी को 
विचित्रवीर्य के अंधे पुत्र से सौ-सौ पुत्र पैदा करते हुए? 
क्या अपनी आँखों पर पट्टी 
उसने इसलिए नहीं बांधी थी 
ताकि वह पूरे संसार को दिखा सके 
वह अदृश्य पट्टी 
जो हम सबकी आँखों पर बंधी थी?
और;
क्या चार पुरूषों के साथ सहवास करके 
कर्ण, युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन को जन्म देने वाली कुंती ने 
सास वाला बदला लेने के लिए ही 
द्रौपदी को 
पाँचों पांडवों की पत्नी नहीं बनाया?
क्या माद्री को उसने इसीलिए वह मंत्र नहीं दिया 
ताकि वही सती-सावित्री क्यों बनी रहे?
वरना नियोग के द्वारा तो 
केवल एक पुत्र की प्राप्ति ही अभीष्ट होती है  
न किसी ने मेरी सहमति ली थी,
न अम्बालिका और अम्बिका की 
न पृथा और माद्री की 
और न ही द्रौपदी की 
और यह स्वयंवर का ढकोसला!
स्वयंवर क्या वास्तव में स्वयंवर है?
क्या द्रौपदी ने कामना की थी कि वह 
उसी से विवाह करेगी 
जो घूमती हुई मछली की आँख 
बाण से बींधेगा?
नहीं 
यह शर्त उसके पिता ने निर्धारित की थी 
फिर स्वयंवर में 
द्रौपदी का ‘स्वयं’ कहाँ था?
क्या महाभारत युद्ध के मूल में 
बलात्कार नहीं है? 
क्या देवव्रत ने अपनी प्रतिज्ञा की 
मूल भावना के साथ बलात्कार नहीं किया था?
तब तो मेरे पिता की ज़िद भी शेष नहीं रही थी 
अगर वह विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद विवाह कर लेता 
तो अनेक अन्य 
बलात्कार होने से बच जाते 
और तब संभवतः 
यह महाविनाश भी न होता 
और वह भी 
हस्तिनापुर के राज्य का एकमात्र 
वास्तविक उत्तराधिकारी होने के बावजूद 
दुर्योधन के सिंहासन का पाया बनने की 
ज़िल्लत ढोने से बच जाता 
मैं मत्स्यगंधा सत्यवती 
भुजा उठाकर कहती हूँ 
जहाँ जबरदस्ती की जाएगी 
जहाँ बलात्कार होगा 
उस राज्य का नाश अवश्यंभावी है



(पेंटिग : Giampaolo Tomassetti)




द्रौपदी 

अंतिम यात्रा है 
हिमालय की पीठ पर चलते-चलते 
न जाने कितनी चोटियाँ नीचे रह गयीं 
चलना दुशवार हो गया है 
घिसटने के अलावा कोई 
चारा भी तो नहीं 
यूँ भी जीवन भर 
घिसटती ही तो रही हूँ 
यदि कभी चली भी हूँ तो 
दूसरों ही के पैरों पर 
सबसे आगे मेरा ज्येष्ठ पति 
सारी विपत्तियों की जड़ 
निर्लज्ज युधिष्ठिर 
चला जा रहा है 
अपने कुत्ते को साथ लिए 
बिना किसी की ओर देखे 
पहले ही कब इसने किसी और की चिंता की
जो अब करेगा?
कभी समझ नहीं पायी 
ऐसे आत्मकेंद्रित, निकम्मे और ढुलमुल स्वभाव के आदमी को 
लोग धर्मराज क्यों कहते हैं 
मैंने तो इसे कभी कोई धर्म का काम करते नहीं देखा 
हाँ, धर्म की जुमलेबाज़ी 
इससे चाहे जितनी करवा लो 
अगर जुआ खेलना 
और अपनी सारी सम्पत्ति, भाइयों और पत्नी को 
दाँव पर लगाकर हार जाना   
धर्म का काम है 
तब यह ज़रूर 
धर्मराज कहलाने का अधिकारी है
एक यही काम तो इसने अपने बलबूते पर किया 
वरना तो सारे काम भीम और अर्जुन के ही हिस्से में आते थे 
और यह बड़े भाई के अधिकार से 
उनका फल भोगता था 
मुझे भी तो सबसे पहले इसी ने भोगा 
मुझे स्वयंवर में जीतने वाले अर्जुन की बारी 
तो भीम के भी बाद आयी 
यह जीवन भर धर्म की व्याख्या करता रहा 
उस पर चला एक दिन भी नहीं 
और मैं?
पूरा जीवन मेरा 
अंगारों पर ही गुज़रा 
गुज़रता भी क्यों नहीं 
मेरा तो जन्म ही 
यज्ञकुंड की अग्नि के गर्भ से हुआ था
और तभी से मेरी अग्निपरीक्षा शुरू हो गयी थी  
हर क्षण यही सोचती रही हूँ 
मैं पैदा ही क्यों हुई?
क्या सार रहा मेरे इस जीवन का
क्या मिला मुझे?
पाँच-पाँच पुरूषों की कामाग्नि का संताप, दुस्सह अपमान 
अर्जुन जैसे प्रेमी-पति की उपेक्षा
स्वयंवर में विजयी होने के बाद 
कैसी प्रेमसिक्त दृष्टि से देखा था 
अर्जुन ने मुझे 
वह सुदर्शन चेहरा मुझसे मिलने की आस में 
कैसा दिपदिपा रहा था 
उसकी आँखों में 
प्यार का महासागर था
और मेरी सास कुंती ने 
कितनी चालाक निष्ठुरता के साथ 
मुझे पाँचों भाइयों की सामूहिक पत्नी बना डाला
कुलवधू की ऐसी परिभाषा 
न कभी देखी गयी, न सुनी गयी  
उस क्षण से अर्जुन के चेहरे की कांति जो लुप्त हुई 
तो फिर कभी नहीं लौटी 
उसकी आँखें हमेशा शून्य में किसी को  
ढूँढती रहती थीं 
शायद घूमती हुई मछली की आँख को 
जिसके भेदन के बाद उसने 
मुझे
प्राप्त किया था 
बस वही तो एक क्षण था 
जब मैं 
उसकी थी— 
केवल उसकी 
टूटे हुए हृदय के साथ 
उसने सुभद्रा और उलूपी के साथ विवाह किया  
जो प्रेम उसे मुझसे नहीं मिला 
शायद उसी की तलाश में 
लेकिन यहाँ भी वह निराश ही हुआ 
उसके मुख पर कभी वह उल्लास और आनंद दिखा ही नहीं 
जो स्वयंवर के समय दिखा था 
महाभारत के युद्ध का 
सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर प्रेम में 
निराश 
विफल 
विकल 
जिसके हृदय में इतने बाण धँसे 
कि वह उसका तूणीर ही बन गया
अंतिम समय में 
लग रहा है 
जीवन कभी शुरू ही नहीं हुआ 
कभी साँस ली ही नहीं,
सूर्योदय और सूर्यास्त का अनुभव ही नहीं किया 
चाँदनी की रहस्यमय शीतल हथेली ने  
मुझे कभी स्पर्श ही नहीं किया 
मुझे आज तक समझ में नहीं आया 
कि स्थिर स्वभाव वाली गरिमामयी कुंती 
ने मेरे साथ ऐसा हृदयहीन व्यवहार क्यों किया 
क्या वही मेरे जीवन के नरक से भी बदतर बनने की 
एकमात्र ज़िम्मेदार नहीं है?
न उसने मुझे पाँचों भाइयों के साथ बांधा होता 
और न यह क्लीव युधिष्ठिर मेरा सर्वसत्तावान 
पति बनकर 
मुझे जुए में दाँव पर लगा पाता 
और न कर्ण, दुर्योधन और दु:शासन की हिम्मत होती 
कि मुझे भरी राजसभा में निर्वसन करने की कोशिश कर सकें
जहाँ भीष्म और विदुर जैसे ढोंगी नीतिज्ञ बैठे थे 
केवल एक विकर्ण था 
जिसने मेरे पक्ष की बात की थी 
दुर्योधन का भाई, गांधारी का पुत्र 
विकर्ण 
उसने मनुष्यता में मेरे विश्वास को 
नष्ट होने से बचाया था 
कुंती कभी अच्छी सास तो बन ही नहीं सकी 
क्या वह अच्छी माँ बन पायी?
नहीं
कर्ण के साथ उसने हमेशा अन्याय किया 
वरना ऐसा उदार, ऐसा दानी, ऐसा वीर 
क्या कभी ऐसा दुष्टता का बर्ताव कर सकता था 
जैसा उसने मेरे साथ किया 
कुरुओं की राजसभा में 
कुंती ने उसे स्वीकार किया 
केवल अपने स्वार्थ के लिए 
ममता के कारण नहीं 
फिर भी उसने उस निष्ठुर माँ को 
पूरी तरह निराश नहीं किया 
और कहा कि वह केवल अर्जुन के साथ ही युद्ध करेगा 
उसने तो अर्जुन के साथ भी ऐसा अन्याय किया 
कि संभवत: कभी किसी माँ ने नहीं किया होगा 
स्वयंवर में मुझे प्राप्त किया अर्जुन ने 
और पाँचों भाइयों से बाँध दिया मुझे कुंती ने 
क्या उसे अर्जुन के मुख पर छायी वेदना नज़र नहीं आयी?
स्वयंवर में अर्जुन की जीत के बाद 
मुझे कभी उस पर प्यार नहीं आया 
हमेशा मन में तिक्तता 
ही बनी रही 
क्या वह कुंती से नहीं कह सकता था 
कि वह मुझे भिक्षा में नहीं 
स्वयंवर में जीत कर लाया है 
और मुझ पर केवल उसी का अधिकार है 
क्या वह मुझे इस भीषण अपमान और जीवन भर के दुःख से 
नहीं बचा सकता था?
क्या माँ की मतिहीन आज्ञा का पालन करना 
मेरे पूरे जीवन से अधिक महत्वपूर्ण था? 
किससे था मुझे सच्चा प्रेम?
और, किसे था मुझसे सच्चा प्रेम?  
शायद कृष्ण से 
शायद कृष्ण को 
सखा-सखी का 
शुद्ध वासनारहित प्रेम 
अधिकांश मनुष्य 
ऐसे प्रेम को असंभव समझते हैं 
मानते हैं कि 
स्त्री-पुरुष के बीच कामरहित प्रेम 
हो ही नहीं सकता 
लेकिन इससे बड़ा झूठ कोई नहीं है 
मेरा सखा कृष्ण 
जाने कैसे मेरी बात 
बिना कहे ही समझ जाता था 
घंटों-घंटों मुझसे बातें करता था 
दुनिया-जहान की बातें 
अपनी और राधा की बातें 
ब्रज की बातें 
रुक्मिणी और सत्यभामा के झगड़े 
सब मुझे ही तो बताकर जाता था 
कृष्णा का कृष्ण 
जिसने मेरी लज्जा को 
अपनी लज्जा समझा 
दुर्योधन को मैंने 
केवल उसी के तेज के सामने सहमते देखा 
कितनी कोशिश की उसे बंदी बनाने की 
लेकिन वह तो
कारागृह में जन्मा था 
उसे कौन बंदी बना सकता था!
आगे अब कोई राह नहीं है 
कभी थी भी नहीं 
जिसने चाहा उसी ने किसी भी राह पर धकेल दिया 
अब हिमालय मुझे अपनी गोद में ले ले 
तो मेरी यात्रा पूरी हो 
अग्निकुंड से 
हिमशिखर तक की 
अर्थहीन यात्रा…. 
kuldeep.kumar55@gmail.com
_______________________

बिन जिया जीवन 
कुलदीप कुमार
2019
वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 140 मूल्य 199 रु
ShareTweetSend
Previous Post

सांड की आँख : संदीप नाईक

Next Post

तुम बाक़ी जानवरों के खिलौने क्यों नहीं बनाते : इवॉन्न वेरा : अनुवाद – नरेश गोस्वामी

Related Posts

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन
समीक्षा

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी
समीक्षा

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण
संस्मरण

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक