मलखान सिंह, ओमप्रकाश वाल्मीकि और जय प्रकाश लीलवान समकालीन हिंदी दलित कविता के महत्वपूर्ण कवि हैं.
जय प्रकाश लीलवान के ‘अब हमें ही चलना है’ (2002), ‘नए क्षितिजों की ओर’(2009), ‘समय की आदमखोर धुन’ (2009), ‘ओ भारत माता! हमारा इंतजार करना’ (2013), ‘लबालब प्यास’ (2017), ‘कविता के कारखाने में’(2017), ‘धरती के गीतों का गणित’ (2017), ‘गरिमा के गीतों का गणित’ (2017), ‘मेरे देश के गुलामों के गीत’ तथा ‘हमारी सहस्राब्दी के समयों की आदमखोर धुन’ आदि कविता संग्रह प्रकाशित हैं.
26 अगस्त, 2017 को वह हमसे हमेशा के लिए विदा हो गए पर सदा अपनी कृतियों में मौजूद रहेंगे. उनके महत्व और योगदान को रेखांकित करता आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी का यह आलेख .
दलित कविता बरास्ते जय प्रकाश लीलवान
बजरंग बिहारी तिवारी
ज़िन्दगी / जय प्रकाश लीलवान
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बंद कमरों की
सीलन के भीतर
क्रोध के कोरस का नाम
ज़िन्दगी नहीं होता.
घर से दफ्तर
और दफ्तर से घर के
बीच का सफर ही
ज़िन्दगी नहीं होता.
बाज़ार की मृत – मखमल को ओढ़कर
देवताओं को दिए गए
अर्ध्यों की मुर्खता या ढोंग
का दुहराव भी ज़िन्दगी नहीं होता.
ज़िन्दगी तो उस कोयल का मीठा स्वर होता है
जो संगठन के बगीचे में
संघर्ष के आकाश तले
सभ्य क्रांति की रचना के लिए
निरंतर कूकती है.
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सौन्दर्यबोध / जय प्रकाश लीलवान
आदमी पीटते हुए
पुलिस के डंडे की चमक
और हमारे बुजुर्गों के
मेहनत में लगे हाथों की चिकनाई में
फर्क तो है
पेट भराई के रंगीन पाखंडों और
लोहे को
आरण में लाल करने के रंग
अलग तो हैं
देशी अंग्रेजी के ठाट बाट और
जनवरी के ठंड में न्यार काटती
दलित औरत का काम
एक तो नहीं है
बूंगों से बड़े झेद और
चिलम से तंग दिल
व इन सबको झूठ समझकर
पसीना निचुड़ते पहरों में
पल गुजारने वाली
माओं की आहों के बीच
फासला तो है
पंचायत के सरदारों की
धौंस के फायर से भिड़ने के
वक्त आने की
इंतजार मेंखड़े
हमारे सबसे काबिल कवि की बात
समनार्थी तो नहीं है
फिर
सुंदर क्या है’
सच कैसा होता है
सच कैसा होता है
इसे
हमने तय करना है.
(क)
समकालीन दलित कविता परिदृश्य में जय प्रकाश लीलवान अत्यंत समादृत नाम है. हिंदी दलित कविता के दो प्रमुख हस्ताक्षरों- मलखान सिंह और ओमप्रकाश वाल्मीकि की काव्यधारा को अगर संयुक्त कर दिया जाए तो लीलवान की कविता का वृत्त बनता दिखाई देगा. उनकी कविता में मलखान सिंह का आक्रोश, आर्थिक प्रश्नों पर तवज्जो, विचारधारात्मक निर्मितियों का संज्ञान शामिल है तो ओमप्रकाश वाल्मीकि की शिल्प-सजगता, धर्मशास्त्रों पर प्रहार, और तीव्र बदलाव की आकुलता का समावेश है. लेकिन, लीलवान की काव्य-संवेदना का अपना वैशिष्ट्य है. वे समय के साथ उभरे नए सवालों से टकराते हैं और दासता की पुरानी संरचना के साथ गुलाम बनाने के नए सांचों की पहचान कराकर उसके प्रति क्षोभ पैदा करने का जतन करते हैं. दलित साहित्यान्दोलन की विसंगतियों पर भी लीलवान ने बराबर निगाह रखी है. जब और जहाँ उन्हें उचित लगा, उन्होंने अपनी स्पष्ट राय दी है. उनकी पैनी दृष्टि राजनीति पर भी हमेशा रहती आई है. दलित जनता की तरफ से उन्होंने राजनीतिक दलों पर, उनके वास्तविक और दिखावटी इरादों पर तथा राजसत्ता पर हमेशा निर्भीक और यथावसर तल्ख़ टिप्पणियाँ की हैं.
मानव-मुक्ति लीलवान की कविता का केंद्रीय लक्ष्य है. अस्मिता के सवालों को पूरी संजीदगी से उठाते हुए भी वे अस्मितावाद की संकीर्णताओं से दूरी बनाए रखते हैं. उनकी कविताएं मात्र अनुभवों की पुनर्प्रस्तुति नहीं हैं. वे अनुभव को इतिहास, विचारधारा और आकांक्षा के परिप्रेक्ष्य में रखकर अपने सृजन का रसायन तैयार करते हैं. उनकी कविताएं अक्सर इसी कारण भाव सघनता, तर्कशीलता और अर्थ-घनत्व का विरल उदाहरण बनती हैं. उत्पीड़ित समुदाय से ईमानदार वैचारिक जुड़ाव के चलते उनकी कविताएं सहज ही रोषपूरित होती हैं. यह रोष कई बार उफनते गुस्से में अभिव्यक्ति पाता है. ऊष्मा का आधिक्य और तज्जन्य ताप का प्रवाह कविता के शिल्प पर गहरा असर डाले, यह स्वाभाविक है. ‘गरिमा के गीतों का गणित’ नामक संग्रह की कविताएं इस असर की गवाह हैं. प्रतिरोध के नियमन, आक्रोश के प्रबंधन और कविता के शिल्प में इन सबके प्रकटन को लीलवान के सुबुद्ध पाठक प्रेम और धीरज से स्वीकारेंगे, ऐसी उम्मीद की जा सकती है. एक सीमा के बाद शिल्पगत नवाचार जोखिम भरा मामला बन जाता है. ऐसे में समीक्षक को कवि के विवेक पर भरोसा करना चाहिए.
(ख)
किसी भी साहित्यान्दोलन को चुनौतियों की पहचान करते रहना चाहिए. हाशिए की अस्मिताओं के लिए तो यह बहुत जरूरी कार्यभार है. जब प्रतिपक्ष सन्नद्ध हो और गतिशील सृजनधर्मी आंदोलन को ठप्प करने के साधनों की खोज में लगा हो तो चुनौतियों को चिन्हित करना बहुत नाजुक मसला बन जाता है. दलित साहित्य को उचित ही आन्दोलनधर्मी लेखन के रूप में देखा जाता है. तब, यह और भी आवश्यक हो जाता है कि उसकी आन्दोलनधर्मिता की परख होती रहे. आन्दोलनधर्मिता के तीन स्तर नजर आते हैं. पहला, दलित साहित्य का अपना आन्दोलनधर्मी स्वभाव; दूसरा, व्यापक सामाजिक मुक्ति आन्दोलनों से जुड़ाव; और तीसरा, दलित रचनाकारों की तमाम आन्दोलनों में प्रत्यक्ष और सक्रिय भागीदारी.
पिछले कुछ वर्षों में दलित उत्पीड़न की घटनाओं में बहुत तेजी आई है. इसी अनुपात में प्रतिरोधी आन्दोलन भी तेजी से उभरे हैं. हैदराबाद और गुजरात की परिघटनाएं इसकी ताजातरीन मिसालें हैं. देखना यह चाहिए इन नए आन्दोलन रूपों से साहित्यान्दोलन ने किस तरह का रिश्ता बनाया है. क्या उसका प्रतिसाद तदनुरूप तीक्ष्ण, संवेदी, अद्यतन और समावेशी दिखता है? इस प्रश्न का तुरंत कोई जवाब देना जोखिम भरा होगा. साहित्य के अपने स्वभाव के चलते और इस संबंध में किसी सर्वेक्षणात्मक अध्ययन की अनुपलब्धता के कारण. इस संदर्भ में यह बात गौरतलब है कि नई पीढ़ी के दलित रचनाकारों ने अपने समाज के राजनेताओं के प्रति मुखर आलोचनात्मक रवैया प्रदर्शित करना शुरू किया है. पहले इस मामले में उनका रूख प्रकट रूप से उदासीनता का था. यह विस्मृत करना उनके लिए संभव नहीं कि गुजरात के उना में दलितों की जो पिटाई हुई और तदुपरांत पूरे दलित समुदाय का जो अपमान हुआ उसमें किन लोगों का निकट और दूर का सहयोग था. आंबेडकरवादी चिंतक और साहित्यकार तुलसीराम ने अपने कई लेखों में गुजरात 2002 हादसे के बाद के आम चुनाव में हिन्दुत्ववादियों को समर्थन और सहयोग करने वाले (कथित दलित) राजनीतिक दल और उसके नेतृत्व को तल्ख़ शब्दों में सावधान किया था. उनकी चेतावनी को अनसुना करने का परिणाम सामने है.
नए दलित रचनाकारों का बढ़ता असंतोष किसी सार्थक पहल और परिणाम में घटित होगा. इस उम्मीद को इतिहास का समर्थन प्राप्त है. बाबासाहेब के परिनिर्वाण के बाद बनी रिपब्लिकन पार्टी की गतिविधियों और उसके कतिपय नेताओं की सत्ताकांक्षा ने जिस असंतोष को जन्म दिया था उसी का नतीजा दलित पैंथर (1973) का निर्माण था. दलित पैंथर बड़े सर्जनात्मक अर्थों में सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन था जिसका नेतृत्व युवतर पीढ़ी के एक्टिविस्ट रचनाकार कर रहे थे. समकालीन मोहभंग को निश्चय ही कार्यकर्ता-रचनाकारों की आज की पीढ़ी मूल्यवान दिशा और आकार देगी. पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी में कई उल्लेखनीय अंतर रेखांकित किए जा सकते हैं. सर्वाधिक उल्लेखनीय और ऐतिहासिक भिन्नता यह कि दलित आन्दोलन के इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में दलित स्त्री एक्टिविस्ट-रचनाकार अगली पंक्ति में हैं.
दलित साहित्यान्दोलन के समक्ष बाहरी चुनौतियाँ तो हैं ही, आंतरिक प्रश्न भी मौजूद हैं. तमाम दलित जाति-समुदायों के शिक्षित युवा सामने आ रहे हैं. ये अपने कुनबों के प्रथम शिक्षित लोग हैं. इनके अनुभव कम विस्फोटक, कम व्यथापूरित, कम अर्थवान नहीं हैं. इन्हें अनुकूल माहौल और उत्प्रेरक परिवेश उपलब्ध कराना समय की मांग है. वर्गीय दृष्टि से ये संभावनाशील रचनाकार सबसे निचले पायदान पर हैं. यह जिम्मेदारी नए मध्यवर्ग पर आयद होती है कि वह अपने वर्गीय हितों के अनपहचाने, अलक्षित दबावों को पहचाने और उनसे हर मुमकिन निजात पाने की कोशिश करे. ऐसा न हो कि दलित साहित्य में अभिनव स्वरों के आगमन पर वर्गीय स्वार्थ प्रतिकूल असर डालने में सफल हों.
बदलते समय के साथ साहित्य की अंतर्वस्तु में परिवर्तन आना स्वाभाविक है. दोहराव से बचने की आवश्यकता तब महसूस होती है जब आप नए पाठक वर्ग से रूबरू होते हैं. दलित साहित्य के पाठकों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है और उसका दायरा भी विस्तृत हुआ है. पाठकों की नई जमात ओमप्रकाश वाल्मीकि या मलखान सिंह के रचनाजगत से अवगत है. आज की रचनाशीलता में इन सर्जकों की अनुगूंज मौजूद हो मगर उनकी यथारूप आवृत्ति से बचा जाए. मराठी के दलित विचारक रावसाहब कसबे जोर देकर कहते हैं कि स्फुट विचार न तो टिकाऊ होते हैं और न सत्ता संरचना में तोड़-फोड़ कर पाते हैं. जरूरत प्रणालीबद्ध चिंतन और लेखन की है. रचनाकार यदि एक सिस्टम से मुखातिब है तो उसे बिखरी भावनाओं, छिटके पड़े विचारों और परस्पर विच्छिन्न अंतर्दृष्टियों को एक प्रणाली में ढालकर देखना तथा अपने लेखन में पिरोना होगा. परिप्रेक्ष्य पाकर ही कोई रचनात्मक कौंध व्यवस्था परिवर्तन के संगठित अभियान में अपनी भूमिका निभा सकती है.
एक चुनौती भाषा प्रयोग की है. भाषा प्रयोग का आशय शब्द-शक्तियों के विनियोजन से है. दलित साहित्य में अभिधामूलक रचनाओं की बहुलता है. यहाँ इसे सपाटबयानी के समतुल्य समझा जाए. सपाटबयानी के महत्त्व पर पर्याप्त विमर्श प्रगतिवाद के प्रारंभिक दौर में हो चुका है. यह शैली अनुभवकेंद्रित लेखन के माकूल पड़ती है. दलित लेखकों ने सहज प्रज्ञा से अभिधा की ताकत पहचान कर अपने लिए इसे चुना. अब ऐसी रचनाओं की प्रचुरता हो चली है. नया समय और नया पाठक-वर्ग व्यंजना-व्यंग्य प्रधान रचनाओं की मांग कर रहा है. सावधान सर्जक उसका संज्ञान भी ले रहा है. ‘गरिमा के गीतों का गणित’ में एक कविता है- ‘खंजरों की खरोंच’. कविता उन खरोंचों की तरफ ध्यान खींचती है जो ब्राह्मण-राज के वैचारिक ढांचों ने अधीनस्थ समुदाय के मर्म पर लगाए हैं. इन
“वैचारिक ढाँचों के खंजरों की
खरोंचों ने
मेरे देश!
तुम्हें अपने ही दिल की
चींटियों का
गीत महसूस करने से
तेरी सारी इन्द्रियों और अंगों को
सुन्न कर रखा है.”
संवेदन-जगत में लगी खरोंच से उपजी पीड़ा और सवालों का समाधान जिस माध्यम से खोजा जाएगा उसे अपनी प्रकृति में व्यंजनाप्रधान होना है. जाति-वर्ग-जेंडर की संश्लिष्ट त्रयी ही भारतीय वर्चस्व की निर्माता और नियामक है. इस वर्चस्व को भेदने में अब तक चूक होती रही है. मुक्ति-आंदोलनों ने कभी वर्ग संघर्ष को ही सब कुछ मान लिया, कभी वर्ण-जाति को तो कभी जेंडर तक सिमटे रहे. इससे उनकी शक्ति विभाजित रही और वर्चस्व की त्रयी मजबूत होती गई. इस संश्लिष्टता की मीमांसा और व्यवच्छेदन गझिन व्यंजक भाषा में ही किया जा सकता है. दलित स्त्रियों के रचना परिदृश्य में आने से भाषा व्यवहार में युगांतर आना तय-सा लग रहा है. सपाट आक्रामकता मारक व्यंजकता में तब्दील हो रही है.
हिंसा कायरता से, आत्मिक खोखलेपन से, बुजदिली से उपजती है. इस रिश्ते को न समझने से हिंसा करने वाला शक्तिशाली मान लिया जाता है. जातिवादी हिंसा इससे भिन्न नहीं है. जिस ब्राह्मणवाद को शक्तिसंपन्न समझ लिया गया है वह समझ सांस्कृतिक सम्मोहन का परिणाम है. ब्राह्मणवादियों ने जो गाँठ रची है उसकी जड़ें उसके विरोधियों तक में पसरी हुई हैं. ब्राह्मणी शक्ति का गुणगान बहुत हो चुका. दलित विमर्श ने प्रकारांतर से इस गुणगान में खूब योगदान किया है. अब समय है कि सम्मोहन से मुक्त हुआ जाए. हिंसक सवर्ण सत्ता को अनावृत किया जाए. ऐसी कृतियाँ रची जाएं जो हिंसा बरपाने वालों की अनदेखी अनजानी असलियत उघाड़ सकें. दहाड़ती जातिवादी क्रूरता में छिपी थरथराती भयाक्रांत मानसिकता अपने समूचे लाव-लश्कर के साथ एकबारगी प्रकाशवृत्त में आकर सार्वजनिक हो उठे.
‘हमारी क्यारियों के
‘ये जाति प्रथा के होंठ
“ओ वर्ण व्यवस्था!
(ग)
दलित कविता सिर्फ कथ्य नहीं है. वह कथ्य एक फॉर्म में प्रस्तुत होता है. फॉर्म का महत्त्व इसीलिए कथ्य जितना मानना चाहिए. ऊपर से भले ही लगता हो कि फॉर्म का चयन रचनाकार की मर्जी का मामला है लेकिन इसमें कई कारकों की निर्णायक भूमिका होती है. काव्य-वस्तु काव्य-रूप के निर्धारण में अहम भूमिका निभाती है; साथ ही कवि की गति, अभीष्ट पाठक-वर्ग की स्थिति और समय की मांग भी द्वंद्वात्मक भूमिकाओं में होते हैं. जन से जीवंत जुड़ाव कवि को यादृच्छिक शिल्प अपनाने से सावधान करता चलता है.
‘क्रमिक परिवर्तन’ का तर्क तकनीकी रूप से सही माना जा सकता है किंतु बहुधा इस तर्क का इस्तेमाल यथास्थिति को सह्य बनाने के लिए किया जाता है. जाति-वर्ण से मिले विशेषाधिकारों का लाभ उठाते हुए ‘उदार’ लोग समझाते मिल जाते हैं कि दीर्घ काल से चले आते संस्कार धीरे-धीरे बदलते हैं. प्रकारांतर से यह जातिवादी हिंसा को अप्रत्यक्ष वैधता देने का प्रयास होता है. दलित कवि इस प्रविधि से अवगत हैं. वे स्थगन के किसी अगर-मगर में उलझे बगैर तत्काल उत्पीड़न का खात्मा चाहते हैं. ‘अब और नहीं’ लिखने वाले ओमप्रकाश वाल्मीकि हों या ‘ज्वालामुखी के मुहाने पर’ के कवि मलखान सिंह, सभी दमन की तुरंत समाप्ति का स्वर बुलंद कर रहे हैं. जय प्रकाश लीलवान के प्रस्तुत संग्रह में ऐसी कविताएं पर्याप्त संख्या में हैं जो ‘अभी और इसी समय’ जातिवादी ढांचे का उन्मूलन चाहती हैं. अपनी पहली कविता ‘बर्दाश्त नहीं’ में वे कहते हैं-
‘हमारी क्यारियों के
फूल रौंदती रही
इन ऋतुओं के आगमन की
रुकावटें बर्दाश्त नहीं.”
‘बुनावट’ कविता में वे विकराल गैर बराबरियों और दमन के बीजों से टकराने का संकल्प व्यक्त करते हैं तो ‘ताना बाना’ में जाति प्रथा के बेशर्म और बेरहम ताने-बाने से दलितों की मुक्ति का बेसब्र गीत छेड़ते हैं. ‘बस’ शीर्षक कविता में वे खुद को ‘धरती के बदन पर दमन झेलती जनता के/ जख्मों से रिसता हुआ राज़’ बताते हैं. ‘ढाँचों के होंठ’ की पहचान कराते हुए वे कहते हैं कि
‘ये जाति प्रथा के होंठ
गालियाँ बकने और
गंदगी मलने के लिए ही
खुले रहते हैं.’
यह भी कि ‘सही किस्म के संगीत की तलाश/ इस ढाँचे से नहीं मिलेगी.’ ‘उदासीनता’ में जख्मी काया के प्रति उदासीनता को अस्वीकार्य बताते हुए वे उस ‘चाहत’ का इजहार करते हैं जब ढाँचों की बदबू का सामना उसके अंत की चाहत से लबालब भरकर किया जाएगा. ‘आज भी’ कविता में वे धर्मतंत्र, धनतंत्र, शासनतंत्र और जनतंत्र में व्याप्त क्रूरता का पर्दाफाश करते हैं. ‘इस देश के शासक’ कविता का लक्ष्य अपमानजनक चिंतन का खंडन करना है. ‘आज तक भी’ कविता में लीलवान संस्कृति के शिकारी कुत्तों के रंग-बिरंगे झुंड की शिनाख्त करवाते हैं. ‘साजिशों के पते’ में उनका कहना है-
“ओ वर्ण व्यवस्था!
तेरी साजिशों के सारे पते
हमारे देश की
दर्दनाक चीखों के
लिफाफों पर
साफ़ साफ़ लिखे हैं.”
‘दमन की गूँज’ में जातिप्रथा का मर्मभेदन है तो ‘पाठ्यक्रम’ में “विकराल गैर बराबरियों के व्यभिचारी/ पाठ्क्रमों से निकले प्रश्नों को/ देश से खदेड़कर ही” सुकून महसूस करने की बात कही गई है. ‘कोई भी समय’ में लीलवान कहते हैं कि ‘हमारे लिए कोई भी समय कभी शांत बैठने का नहीं रहा है.’ ‘जिस दिन’ में उनका निष्कर्ष है कि उत्पीड़ित जिस दिन दमन का सामना करने को उठ खड़े होंगे, जुल्म का नामोंनिशान मिट जाएगा. ‘आतंकवाद’ कविता में वे पुराण परंपरा से निकले आतंक की चर्चा करते हैं. कवि देश कि सुबकियों की मद्धिम आवाज ‘कानाफूसी’ कविता में सुनता है. ‘मौलिक इलाज’ की खोज में निकला कवि अपने गीतों की गूँज से सारी बीमारियों का इलाज करना चाहता है. ‘अस्तित्व का संगीत’ लीलवान की प्रेम कविता है. वर्णवादी ढाँचे के प्रति वे जितने असहिष्णु, मुखर और आक्रोशित हैं प्रेम के सिलसिले में वे उतने ही कोमल, मृदुभाषी और संवेदनशील. प्रेम की उनकी समझ पूर्णता की ओर ले जाती है. यह प्रेम कतई अशरीरी नहीं है. उनकी प्रेम कविताएं प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल की भाव-भूमि का स्मरण कराती हैं. जीवनोत्सव के कवि के रूप में जय प्रकाश लीलवान अपनी एक रचना में बताते हैं-
अंतहीन और अद्भुत
गीत गाने वाला
एक दलित राजकुमार हूँ.”
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