दलित रचनात्मकता |
लंबी कविता का क्या आशय है? इस अभिधान के भीतर आने वाली कविताओं की लंबाई कैसे मापी जाए? शब्द-संख्या से, पृष्ठ संख्या से या अंतर्वस्तु की गुरुता अथवा विन्यास से? ज़ाहिर है कि इस प्रश्न का वस्तुनिष्ठ उत्तर दे सकना संभव नहीं. प्रायः सामान्य आकार के न्यूनतम 5-7 पृष्ठों में पूरी होने वाली काव्य-रचना लंबी कविता मानी जाती है.
दलित कविता परंपरा पर नज़र डालें तो पाएंगे कि यहाँ कवियों ने लंबी कविताओं की रचना में अपेक्षाकृत कम रुचि ली है. क्या इसका कोई संबंध संत साहित्य से बनता है? विचारणीय है कि संतों ने प्रबंध काव्य नहीं लिखे जबकि उनके समकालीन सूफी और सगुण भक्त कवियों ने प्रबंध काव्यों का खूब प्रणयन किया. यह अब तक अनुत्तरित प्रश्न है. कामचलाऊ जवाब देना हो तो कहा जा सकता है कि संतों की रुचि कथा-काव्य में न होकर भाव-काव्य और विचार-काव्य में थी.
कथा या आख्यान प्रबंध-काव्य-रचना की ओर ले जाते हैं जबकि भाव/विचार-काव्य मुक्तक में सहज अभिव्यक्त होते हैं. संतों की सृजनात्मकता यदि राजाओं, राजपुत्रों, देवों की गाथा में रमती तो उन्होंने भी सर्गबद्ध काव्य लिखा होता. वे यदि इतिहास में अपने ‘नायक’ खोजते या बनाते तो अवश्य ही प्रबंध लिखने की आवश्यकता का अनुभव करते. आधुनिक दलित कवियों ने जब इधर रुख़ किया तो उन्होंने महाकाव्य और खंडकाव्य लिखे. बिहारीलाल हरित, रामदास निमेष, लक्ष्मीनारायण सुधाकर जैसे कवियों ने डॉ. भीमराव आंबेडकर पर प्रबंधकाव्य लिखे हैं.
इसी धारा में कुछ कवियों ने गौतम बुद्ध को नायक बनाकर प्रबंध काव्यों की रचना की है. कतिपय अन्य परवर्ती कवियों ने नए नायकों, नायिकाओं के चरित-आख्यान रचे हैं. इन प्रबंध काव्यों से इतर इस निबंध में विवेचना हेतु पाँच प्रमुख लंबी कविताओं का चयन किया गया है. यह दलित कविता का अनदेखा या अल्पचर्चित पहलू है. अनुभवजन्य, भावप्रवण कविताओं से भिन्न ये लंबी कविताएँ दलित कवियों के प्रणाली-सापेक्ष चिंतन को सामने लाती हैं.
जंगल का प्रजातंत्र देवेन्द्र कुमार बंगाली |
आख्यानमुक्त लंबी कविता का सिलसिला देवेन्द्र कुमार बंगाली (1933-1991) से शुरू होता है. उन्होंने यथासंभव दलित कविता के सरोकार तय किए और लंबी कविता की विधान रचा. 1985 के आसपास लिखी उनकी रचना ‘जंगल का प्रजातंत्र’ से हिंदी दलित लेखन में लंबी कविताओं का सिलसिला आरंभ होता है. यह कविता कुल सात पृष्ठों, 20 अंतरों/अनुच्छेदों और 183 पंक्तियों में पूरी हुई है. राजनीतिक प्रजातंत्र से सामाजिक जनतंत्र की दूरी का अहसास कराती यह कविता सुनिश्चित करती है कि भविष्य के दलित कवि अगर लंबी कविता की रचना करना चाहते हैं तो उन्हें अनिवार्य रूप से लोकतंत्र की मीमांसा का काम करना होगा. ‘सोशल डेमोक्रेसी’ के बिना ‘पॉलिटिकल डेमोक्रेसी’ का कोई अर्थ नहीं; डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रतिपादित यह समझ तब तक प्रचलन में नहीं थी.
‘जंगल का प्रजातंत्र’ में यह समझ विन्यस्त है. कविता का आरंभ जंगल की नयनाभिराम दृश्यावली से होता है. शोख अंदाज़ वाली शाह-बुलबुल कचनार की सुर्ख चटक डाली पर बैठी हुई है. सुनहरे फूलों से लदे अमलतास के नीचे लजीले मोर नाच-नाच कर मोरनियों को रिझा रहे हैं. तरह-तरह के पंछी (सुग्गा, मैना, दहियल, धनेस) टेसू, सेमल आदि की फुनगियों पर बैठे चहचहा रहे हैं. जंगल के दिल में ठक-ठक करता कठफोड़वा कुछ तलाश रहा है. दीवाना फाख्ता अपनी प्रेयसी का पीछा करने में व्यस्त है. इसके बाद जंगल का दृश्य बदलता है. कवि इस बदलाव को जंगल की छत्र-छाया में फलने-फूलने वाला दिमागी फितूर कहता है. बदलाव यह कि
“जिस डाल पर शाखा-मृग को
होना चाहिए था उससे लिपटकर फनियर-साँप झूल रहा था”.
जंगल (के प्रजातंत्र) के प्रति आस्था रखने वाले कस्तूरी-मृग, अरना-भैंसें, नीलगायों के जोड़े शायद अपनी सद्भावना में मारे जा रहे थे. गर्म खून पीकर शेर दहाड़ रहा था. ललचाई आँखों से ऊँचे पेड़ों पर लगे मधु-छत्तों को देख भालू जनहित में बहिर्गमन कर रहा था. यह सत्र का शून्य काल था. आपात-काल होता तो भालू
“सीधे पेड़ पर चढ़ जाता
या माँद में घुस जाता
और मुख्यधारा से जुड़े होने की शेखी बघारता
काश कि चुनौती बनता!”
गुप्त मंत्रणाओं से परिचालित तंत्र में झूठे मुठभेड़ों में मारी जाती हिरणियों और कबंध बनने को अभिशप्त गोहों को देखकर भी मीठा दूध देने वाली चंवरी गायें और मीठी बोली बोलने वाली मैना आपसी सलाह-मशविरे के बाद सहमत होती हैं कि रत्नजड़ित सोने के पिंजड़े, चाँदी के खूँटे या लोहे के सीकड़ से “हर हालत में अच्छा है जंगल का रूखा-सूखा”. कवि का पक्ष है कि हत्याएं हर हाल में घिनौनी और दुर्भाग्यपूर्ण हरकत हैं चाहे वे अदने हिरण-शावक की हों या फ़ौलादी पंजे वाले सिंह की. “इस पर खुलकर बहस होनी चाहिए/इसके विरुद्ध निंदा का प्रस्ताव आना चाहिए”. जंगल की सम्प्रभुता, एकता, अखंडता के तर्क से पसरा सन्नाटा ठीक नहीं है. चिम्पांजी चाहे तो नदी में घुसकर मगरमच्छों के दाँत तोड़ सकता है लेकिन वह गोरिल्लाओं का ख़याल कर मात्र अभुआकर रह जाता है. केवल अपनी उपस्थिति का अहसास दिलाकर वह संतुष्ट हो जा रहा है. भन्नाया कवि बोल पड़ता है- “बेवक्त की शहादत आत्महत्या से बदतर है”. यह भी कि-
“जंगल एक अजीब चिड़ियाघर है
तड़पा-तड़पा कर मारना
और बराबर संचार माध्यमों में बने रहना
लकड़बग्घे की दिनचर्या का अंग था
भले ही वह शक्ल-सूरत में बदरंग था”
देवेन्द्र कुमार बंगाली से पहले यह लकड़बग्घा चंद्रकांत देवताले की कविता में हँसता हुआ दिखा था. 1980 में प्रकाशित उनके संग्रह ‘लकड़बग्घा हँस रहा है’ की शीर्षक कविता एक दलित हत्याकांड पर आधारित है. चार दलितों की हत्या से दलित बस्ती भयभीत है, थरथरा रही है. विलाप की इस रात में लकड़बग्घा हँस रहा है. क्षतिपूर्ति के हिस्से के रूप में घोषणा कर दी गई है कि चारों परिवारों को एक महीने का राशन मुफ़्त में दिया जाएगा. इस ऐलान से देश सामान्य हो चला है और हॉकी मैच की चर्चा में व्यस्त हो गया है. उसे तो जैसे नॉर्मल होने का कोई बहाना चाहिए था. हत्यारे भले ही अभी मुअत्तल कर दिए गए हों; वे न्याय की सुरंग से सुरक्षित बाहर निकलेंगे और हत्या के किसी नए मुक़ाम पर जाएंगे. बिलखते परिवारों को राहत मुहैया कराने और अपराधियों को संरक्षण देने वाली सत्ता (या उसके नियंता-नियामक लकड़बग्घे) को कवि पहचानता है और उन्हें करुणाशील, तीमारदार मानने से इनकार करता है-
और मैं…
फिर से खड़ा हूँ
इस अंधेरी रात की नब्ज़ को थामें हुए
कह रहा हूँ
ये तीमारदार नहीं
हत्यारे हैं
और वह आवाज़
खाने की मेज़ पर
बच्चों की नहीं
लकड़बग्घे की हंसी है
सुनो…
सुनने और देखने का विवेक पैदा करती यह कविता लोकतंत्र की वस्तुस्थिति पर संवेदनशील कवि का हलफ़नामा है. ‘जंगल का प्रजातंत्र’ में देवेन्द्र कुमार बंगाली बेमौसम आए पतझड़ का अर्थ समझाते हुए कहते हैं कि कुत्ते शिकारियों के साथ है और वे अपने गूंगे दोस्तों को पकड़वाने में सहायक बन रहे हैं. जिसे समग्र क्रांति का गीत कहा जा रहा है वह असल में एक जानवर (पण्डा) की सीटी है. उसने यह सीटी अपने थूथन को जीभ से चाट कर साफ़ कर लेने के बाद बजाई है.
जंगल के इस प्रजातंत्र में सबको बोलने, माँगपत्र जारी करने की पूरी आज़ादी है “पर उनकी बातों को सुनने देखने समझने/ और उस पर अमल करने की कोई मजबूरी नहीं” है. यह सिलसिला चलता रहा तो “एक दिन अपने को शेर की मौसी बताकर/ बिल्ली गद्दी का हक़दार बन जाएगी”. और तब
अशोक के धर्म-स्तंभ तो बनने से रहे
हो सकता है देवालयों के ये द्वारपाल
राज-दुर्गों के प्रहरी कल को राज्यपाल बनाकर
कहीं और भेज दिए जाएं.
बयान बाहर डॉ. सुखबीर सिंह |
‘जंगल का प्रजातंत्र’ के बाद उल्लेखनीय लंबी कविता है ‘बयान बाहर’. डॉ. सुखबीर सिंह (1943-1994) रचित यह कविता कुल अठारह पृष्ठों, चौबीस अंतरों और चार सौ छब्बीस पंक्तियों में है. ‘बयान बाहर’ शीर्षक से डॉ. सुखबीर सिंह का काव्यसंग्रह सन् 1985 में प्रकाशित हुआ था. संग्रह की भूमिका में बताया गया है कि ये कविताएं पिछले डेढ़ दशक के दौरान लिखी गई हैं. अपने काव्य-सरोकारों को स्पष्ट करते हुए सुखबीर जी ने भूमिका में लिखा है कि जो समस्याएँ पराधीन भारत में थीं वे स्वतंत्र भारत में बनी हुई हैं. इन समस्याओं को ही कविता का विषय बनाना चाहिए. “कविता कोई हथियार नहीं होती. जो कविता को हथियार समझकर इसका इस्तेमाल करते हैं या करने की डींग हाँकते हैं वे या तो स्वयं भ्रम में हैं या दूसरों को भ्रम में रखते हैं.” कविता को हथियार की तरह बरतने के बजाए ऐसे रचनाकारों को “वास्तविक हथियार उठाने की हिम्मत दिखानी चाहिए और फिर उसका परिणाम भी भुगतने को तैयार रहना चाहिए.” कविता परिवर्तन का माध्यम तब बनेगी जब वह परिवर्तनकारी राजनीति की सहयोगी बनकर आएगी. व्यंग्य की धार वाली कविताएं ही व्यापक एवं स्थायी प्रभाव वाली हो सकती हैं. “ग्रामीण जीवन, दलित वर्ग का जीवन तथा नारी जीवन की वर्तमान त्रासदी को कविता के केंद्र में लाना आज पहले से भी अधिक आवश्यक है. यही सामाजिक प्रतिबद्धता की माँग है.” ‘बयान बाहर’ कविता में डॉ. सुखबीर सिंह की तीनों सामाजिक प्रतिबद्धताएं एक साथ दिखाई देती हैं.
अन्यत्र (‘दलित साहित्य : एक अंतर्यात्रा’ में शामिल निबंध ‘आँचलिकता और दलित साहित्य’) चर्चा कर चुका हूँ कि दलित साहित्यकार नॉस्टेलज़िक नहीं होते, उन्हें गाँव नहीं पुकारता, अतीतराग नहीं घेरता. ‘बयान बाहर’ कविता इस कथन के सपाटपन पर रोशनी डालती है. ‘छूटा हुआ गाँव’ एक दलित रचनाकार के लिए ख़ासा जटिल मुद्दा है. यद्यपि, पहली नज़र में यही लगेगा कि वे गाँव-राग से, जीवन के उस हिस्से से सर्वथा बाहर आ चुके हैं. ‘बयान बाहर’ का कवि गाँव के लिए एक रूपक तय करता है- ‘गिद्ध’. गिद्धरूपी गाँव कवि के कंधे पर बैठा है. उसके नुकीले पंजे कंधे में धँसते हैं. गिद्ध पीछे की ओर उड़ा ले जाता है. पीछे जाने में समय बाधा है. गिद्ध अपने चोंच प्रहार से समय की परतों को फाड़ देता है. रूपक अचानक बदलता है. गाँव अब कीकर का पेड़ हो गया है. कीकर जो दूर से देखने पर सुंदर है. हरा-भरा, कत्थई. पीले बासंती फूलों में मुस्कराता. पेड़ के पास जाइए, फूल हथेली पर रखिए तो भुरभुरा जाएंगे. ये गंधहीन-मूल्यहीन बेजान फूल रेशा-रेशा होकर बिखर जाएंगे. फूल के नीचे छिपे कांटे हथेली में चुभेंगे, रक्तरंजित करेंगे, खून का स्वाद चखेंगे. कवि पुनः रूपक में परिवर्तन करता है. अब यह पेड़ एक चोंचदार खूँटा है जो बलात् गड़ गया है या गाड़ दिया गया है
“इंसानी जिस्म के ठीक बीचोंबीच की सुरंग में
लिटाकर धरती के उस टुकड़े पर
जो नहर के किनारे आज भी ठीक उसी शान से
खड़ा मुस्करा रहा है”.
सुखबीर इस खूँटे पर काल का कोई असर नहीं देखते. जैसे खूँटा पिछली गुलाम सदी में था वैसे ही आज भी है. यह ‘जाति-धर्म’ का कालजीवी खूँटा है जिसे “गाँव के सभी लोंगों ने ताउम्र सहा है.”
बचपन में इस खूँटानुमा पेड़ की हक़ीकत मालूम न थी. तब पेड़ में खूँटा छिपा हुआ था. पेड़ में कांटे और खूँटे नहीं, फल दिखते थे. आम-जामुन-अमरूद-नींबू-महुआ सभी को मिल जाते थे. पेड़ क्रीडा-स्थल था. यहाँ से कूदकर नहर में डुबकी लगाई जाती थी.
कविता सामान्य अनुभव से स्वानुभव में बदलती है. थोड़ी सांकेतिक, थोड़ी मुखर. यातनापूरित अनुभव, नासूर जैसा. लैंगिक हिंसा का शिकार बालक. अननुभूत रहा आया तथ्य समय, साहस और वैचारिक संवेदना की त्रयी से अनुभूत सत्य में परिवर्तित होता है. अकथनीय को शब्द मिलते हैं-
पानी की छपाछप में
कभी भी नहीं लगा
कि शरीर पर से अकसर
कपड़े उतरते नहीं
उतार लिए जाते हैं
और सौंप दिए जाते हैं
एक ठंडी हवस के नाम
या फिर फोड़ दिया जाता है
जिस्म को लिटा
परंपरा के नाम पर
किसी के जड़ संस्कारों की
सड़ी-गली दुर्गंधमयी कीच का घड़ा
आदमी छोटा है या बड़ा
इसका फैसला सिर्फ कपड़े ही करते हैं
कपड़े !
शरीर पर रहते हुए
रहने के ढंग से
या फिर शरीर से उतरने-उतारने के तरीके से.
यह गाँव प्रातिनिधिक इकाई है. देश के यथार्थ का प्रतिदर्श. हर गाँव की एक ही कहानी है. सड़ांध से भरी, कांटेदार कीकरों से आच्छादित. ऐसा गाँव मानचित्र पर कैसा दिखेगा-
कि जैसे एक बच्चा मूत दे रेत पर
तो सिर्फ एक बिंदु बनकर रह जाता है
वैसे ही इस देश के नक़्शे पर
किसी बदबूदार इतिहास के नाम पर
बेक़सूर मरते हुए आदमी की सांस गिनो तो
पूरा देश एक जंगली और वहशी
गाँव में ढल जाता है.
भला ऐसे गाँव से संबंध क्योंकर रखा जाए! फिर भी संबंध रहता है. गिद्ध बना गाँव कवि के भीतर और बाहर उड़ता रहता है. पिंड नहीं छोड़ता. कवि उसे मजबूरी में ढोए जा रहा है. दोनों के बीच दूरी ऐसी जैसी पहाड़ और नदी के बहते पानी के मध्य होती है. काँटों भरे कीकर के रूप में दिमाग में जड़ीभूत गाँव न तो विस्मृत होता है और न वापस लौटने देता है. चौबीसों घंटे की बेचैनी कवि को संत्रस्त रखती है. संत्रास देने वाले इस गाँव के प्रति कवि कृतज्ञ है. यह कृतज्ञता बग़ावत भाव से उपजी है. कवि ने बग़ावत का पहला सबक गाँव से सीखा. सबक के सारे अक्षर कवि को याद हैं. यह सबक सताता है तो उकसाता भी है. दोनों मिलकर कवि को मुर्दों के बीच सोने नहीं देते; मुर्दा नहीं होने देते.
बग़ावत का सबक गाँव के बगावती इतिहास से मिला. अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ गाँव ने हथियार उठाया था. वे हथियार बावड़ी में आज भी दबे पड़े हैं. उसके बाद हुकूमत का जो दमनचक्र चला उसकी गवाही देती है बरगद के नीचे अंधे कुएँ में रहने वाली चुड़ैल की सतत रुलाई. बग़ावत के हालात आज भी हैं. ज़ुल्म रुके नहीं हैं. कठिनाई यह कि आज दुश्मन की पहचान मुश्किल हो गई है. “आज अपने सगे कहे जाने वालों के बीच ही/ दुश्मन उग आए हैं”. रंग वही, भाषा वही, वेश वही, देश वही. उन्हें पहचानें तो कैसे! परम पवित्र संतों से दिखते हैं. इनकी निगाह में नफ़रत की आग नहीं, ‘प्यार का सागर उमड़ता है.’ ये पंजों से नहीं, ठंडी छुरी से गर्दन रेतते हैं. एकदम से नहीं मारते, मज़ा लेकर किस्तों में जिस्म उधेड़ते हैं, चबाते हैं.
स्मृतियाँ सुखद हैं, सुंदर हैं तभी कोई नॉस्टैल्जिक होता है. कवि नयनाभिराम दृश्यों की सूची प्रस्तुत करता है. नीले-नीले फूलों और हरी फलियों, पत्तियों से लदा मटर का खेत, सरसों की बासंती लहरदार चादर, गन्ने के खेत से आती रसभीनी महक, आम का बौराया बगीचा, कोयल की लयबद्ध मधुर आवाज़, हलवाहे की टिटकार, बैलों की बजती घंटियां…
पर मुझे
इन सबसे क्या?
मेरा बचपन तो नहाता रहा
जोहड़ के काई जमे बदबूदार पानी में
गाय, बैल, भैंस और सूअरों के साथ.
जो मनोहारी है वह इस बालक से दूर है. दर्शक बनकर उनका लुत्फ़ उठाया जा सकता है. उनमें शामिल नहीं हुआ जा सकता. उन दृश्यों का हिस्सा नहीं बना जा सकता. जो हासिल है वह असल में थोपा हुआ है. उससे घिन होती है, वितृष्णा उपजती है. ऐसी स्मृतियाँ राग विराग का ध्रुवांत बनाती हैं. एक दूर है, दूसरा करीब. एक में प्रेक्षक की हैसियत है, दूसरे में भोक्ता की. धूसर और ध्रुवांत भाव की यादें अतीत को जटिल बनाती हैं. उसे भूल नहीं सकते, उसमें रम नहीं सकते. समय का अंतराल कितना भी बड़ा होता जाए; उससे पीछा नहीं छुड़ा सकते. कवि आखिरकार सुखद-दुखद यादों का कोलाज रचने का निश्चय करता है. कंट्रास्ट का एक बिंदु बनता है और वह लकीर में ढलकर लंबा होता जाता है. संख्या की दृष्टि से सुखद दृश्य भारी पड़ते हैं लेकिन असर के लिहाज़ से भारी हैं कसकती-चुभती-बेचैन करती यादें. ‘सौदामिनी स्फुरण चंचलमेव सौख्यम्’ (भवभूति) सुख की अवधि घन-विद्युत् की चमक भर हुआ करती है. उस क्षणांश में दुःख का अपार विस्तार झलक जाया करता है. अलसी, अमलतास, गुलमोहर, सेमल, पलाश के भांति-भांति के फूल इंद्रधनुष रचते हैं. तरह-तरह के बालसुलभ खेल स्निग्ध अनुभव जोड़ते जाते हैं. फिर अनुभव की दिशा बदलती है तो इंद्रधनुष के रंग उड़ जाते हैं, स्निग्धता सूखकर नागफनी का काँटा बन जाती है-
खुल जाती हैं आँखें एक भयावह काँटेदार जंगल में
जहाँ दिखाई पड़ता है
खेतों में खड़ी फसलों की जड़ों में
मिटता हुआ खेतिहर मजूर का वज़ूद
पिघलता हुआ पसीना-दर-पसीना
आँख का आँसू सूखता हुआ पलकों के बीच
या फिर गर्दन कटी लाश का
लाल-लाल तरल खून
जिसके बीचों-बीच बिछा है किसी
बीच राह पकड़ी या
घर से उठाकर लाई गई
औरत की देह के
इतिहास और भूगोल नापने का करीना.
गाँव की संस्कृति से जुड़े लोग जानते हैं कि यहाँ किसी को मारा जा सकता है लेकिन उसे निश्चिह्न, निःशेष नहीं किया जा सकता. मरकर भी वह कहीं किसी जगह, किसी नए-पुराने पेड़, कुआँ, जोहड़, पोखर पर जगह बना लेगा/गी. उसका होना लोगों को भासित होगा, सुनाई देगा, कभी-कभार दिखाई देगा-
“यहाँ स्याह कद्दावर पेड़ों के तनों पर
दिन-दहाड़े
सिर नीचे पाँव ऊपर कर उतरते हैं भूत
रात के अँधेरे में सिर खोले
बीच राह दगड़े में
गलियों में, खेतों में
बिलखती है डायन”.
सुखबीर स्त्रियों की चीख से बावस्ता हैं. वे जानते हैं कि स्त्रियाँ संरचनात्मक हिंसा की सर्वाधिक शिकार हैं. एक स्त्री को बलात् घर से, राह से, कार्यस्थल से उठा लिया जाता है तो दूसरी स्त्री को बाध्यकारी स्थितियों में डालकर, शिकंजे में फँसाकर मजबूर कर दिया जाता है-
किसी साहूकार-ज़मींदार की औलाद के खातिर
बर्फ़ बन
ठंडक पहुँचाने को
प्यास बुझाने को
या फिर
किसी की कोठी, कोठरी-कुठला
बूंगा-बिटोड़ा या बिस्तर गरमाने को
विचित्र है यह गाँव जहाँ इकाई की सुख-सुविधा के लिए दहाई-सैकड़ा सभी को न्योछावर कर दिया जाता है. दहशत में डालकर सम्मान करना सिखाया जाता है. लाठी और शास्त्र के ज़ोर से जहाँ सब कुछ हड़प लिया जाता है. यही सच है जिसे सनातन कहते हैं. इसी धर्म-पथ पर चलते हुए “कुछ लोग रहते हैं पक्के आरामदेह मकानों में/ और बाकी मिट्टी के घरौंदों में साँस लेते हैं, उबलते हैं/ पलते हैं.” धर्म की यह लीक मौत के बाद भी उन्हें अलग-अलग दिशाओं में ले जाती है, अलग-अलग रखती है. यह अनुकूलन सर्वग्रासी, सार्वकालिक होता है. व्यवस्था के इस संजाल से कोई बाहर नहीं आ पाता. लेकिन, ‘बयान बाहर’ के काव्य-नायक के साथ अघटित, अप्रत्याशित घटित हुआ-
वह एक पीली-सी सुबह थी
सर्द पड़ गए दिन की
जब अचानक खून में
न जाने कहाँ से एक तेंदुआ उछलने लगा
नहीं सही गई
अपनी आँखों के सामने
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के नारे की
असलियत की आँच
और अरने भैंसों की गरदन मरोड़ने को
दिल रह-रहकर मचलने लगा.
खून में तेंदुए का उछलना एक घटना-विशेष का संकेतक है. भारतीय इतिहास की इस परिघटना को पचास वर्ष बीत चुके हैं. यह तेंदुआ और कोई नहीं, पैंथर है, 1972-73 में उभरा दलित पैंथर. महाराष्ट्र के दलित युवा जो कवि और आंदोलनकारी दोनों भूमिकाओं में थे, इतिहास की इस करवट को अंजाम दे रहे थे. मानसिक अनुकूलन को फोड़कर उन्होंने सनातनी अन्याय के विरुद्ध ज़ोरदार आवाज़ उठाई. दलित पैंथर का असर अखिल भारतीय रहा. देर-सबेर यही असर ‘बयान बाहर’ के नैरेटर तक पहुँचा और उसने सर्द पड़ गए दिन की पीली-सी सुबह की जकड़न से खुद को मुक्त कर लिया. इस काव्यांश में आया ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ भी ख़ास अर्थ रखता है. दलित पैंथर के घोषणा-पत्र में दुनिया भर के अन्याय के विरुद्ध मोर्चा खोला गया है. दलित पैंथर का एक प्रेरणास्रोत संयुक्त राज्य अमेरिका में बना ‘ब्लैक पैंथर’ नामक संगठन है. ब्लैक और दलित दोनों पैंथर संगठनों में साम्यवादी विचारधारा के युवक सक्रिय थे. इस विचारधारा के आधार पर कई देशों में क्रांतियाँ घटित हो चुकी थीं और कई में घटित होने की प्रक्रिया में थीं. यह विचारदृष्टि दुनिया को समझने के साथ दुनिया को बदलने के लिए लेखन की माँग करती थी. घोर विषमता वाला ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ इसे स्वीकार न था.
काव्य-नायक के खून में तेंदुआ उछला तो प्रदत्त व नियत राह छोड़ने की हिम्मत पैदा हुई. यह इतना आसान निर्णय न था. एक युगांतर घटित हो रहा था. उसकी कीमत चुकानी पड़ रही थी-
आग को चिमटे की नोक पर नहीं
अपनी हथेली पर सुलगता पाया.
एक ‘सही दिशा की खोज’ में निकले नायक के रास्ते से गाँव को हटना ही पड़ा. धन-धरती और रिश्तों को ग़ैर बराबरी से बाँटने वाली संस्कृति को कवि ने ‘कुत्ता संस्कृति’ कहा है-
“यहाँ पर साँस लेती है वह कुत्ता संस्कृति
जो आदमी आदमी से काटती है बाँटती है
…भौंकती है अपनी ही नस्ल पर”.
प्रतिबद्ध काव्य-नायक इस संस्कृति का शिकार बनने या अलमबरदार बनने से इनकार करता है. उसे स्वचयनित मार्ग ‘पक्की सड़क’ पर चलना है. यह सड़क उसे रेल की पटरी तक ले जाएगी. रूढ़ियों के दायरे में कोल्हू के बैल की तरह घूमती बंधक जिंदगी से, गाँव से उसे इसी तरह छुटकारा मिलेगा. हिंसक झुंड हमला करेंगे ही. उनसे निपटने के लिए (पुरखों के) अनुभवी हाथों ने ‘मजबूत इरादों वाली लाठी’ सहेजकर रखी हुई है.
हमारे गाँव में मलखान सिंह |
मलखान सिंह (1948-2019) की कविता ‘हमारे गाँव में’ अपने आकार और कथ्य दोनों को देखते हुए लंबी कविता की श्रेणी में रखी जा सकती है. कुल 5 पृष्ठों, 9 अंतरों और 121 पंक्तियों में पूरी हुई यह कविता अद्भुत प्रवाह लिए हुए है. प्रवाहपूर्ण होने का एक कारण यह है कि मलखान सिंह ने इसे अब्दुल बिस्मिल्लाह की इसी नाम से प्रकाशित कविता के प्रत्युत्तर के रूप में लिखा था. गाँव को लेकर दो दृष्टियों की टकराहट मलखान सिंह की कविता में दिखाई देती है. एक ग़ैरदलित कवि के लिए गाँव की बसावट का विवरण देते हुए ‘हरिजन टोला’ का उल्लेख सामान्य सूचना भर है लेकिन दलित कवि के सारे प्रश्न यहीं से पैदा होते हैं. गाँव की ज़िंदगी में दलित-ग़ैरदलित का जो अंतर है उसे मलखान सिंह ने ‘हरि’ और ‘जन’ के कंट्रास्ट में प्रस्तुत किया है.
जवाबी कार्रवाई के तौर पर लिखित यह कविता ‘अपने गाँव की हकीकत’ बताती है. एक ग़ैरदलित कवि की निगाह से पेश गाँव में ‘हरिजन’ होते हैं लेकिन एक दलित कवि के गाँव में यह पदबंध टूट जाता है. यहाँ ‘हरि’ अलग रहते हैं और ‘जन’ अलग. यह अलगाव इतना विकट है कि हरि जन के साथ उठने-बैठने, खाने-पीने और यहाँ तक कि परछाई से भी परहेज़ करते हैं. गाँव की बहुकथित आत्मीय सामूहिकता, सामुदायिकता यहाँ नहीं दिखती. मजबूरी या भूल से यदि कोई जन किसी हरि-कुएँ की जगत पर पाँव रख दे “तो कुएँ का पानी/ मूत में बदल जाता है.” हरि और जन के कामों का दुर्लंघ्य बँटवारा है. जन के जिम्मे जूता बनाने, कपड़ा बुनने और मैला उठाने का काम है तो हरि के पास जूता पहनने, शास्त्र बाँचने और दुर्गंध पोंकने का काम. हरि की हवेली, हरि के खेत और हरि का बगीचा जन के हाथों सेवा पाकर चमकते-दमकते रहते हैं. हवेली धन-धान्य से भरी रहती है. जन को मिलता क्या है- फूस की झोपड़ी, नंगा पाँव, खाली पेट. जन अपनी विनम्रता से जाने जाते हैं और हरि उद्दण्डता से. जिसने अभी ठीक से अपना नाड़ा खोलना नहीं जाना है, हरि का वह ‘लौंडा’ किसी बुजुर्ग जन का सरेआम अपमान कर सकता है और जन को यह अपमान घूँट जाना पड़ता है. अपमान की प्रतिक्रिया में उपजी प्रतिहिंसा कोई जन ही झेलता है-
“लेकिन अफ़सोस! यह गुस्सा
साँपिन बन अपनों को ही खाता है.”
सवाल है कि तब इस निचोड़ते रहते गाँव से जन दूर क्यों नहीं हो जाता? काश कि इसका कोई आसान–सा जवाब होता! जैसे पृथ्वी की धुरी की कल्पना है कुछ वैसे मलखान सिंह उस खूँटे की कल्पना करते हैं जिससे जन बँधा है. इस खूँटे का “एक पाँव/ शैतान की आँत में/ दूसरा पाँव/ धरती की काँख में धँसा है.” यह व्यवस्था एक जंगल है और खूँटा वनराज. खेत, खलिहान, बाज़ार से लेकर पंचायत, संसद और न्यायालय सर्वत्र इसी खूँटे की सत्ता है.
“गाँव के दगड़े में
वह खूँटा ही धँसा है”.
इस खूँटे को सींचने या कि सेवा करने में लगा जन रोज़-ब-रोज़ निचुड़ता जाता है. निचुड़ते हुए जन ने जो खामोशी बनाए रखी है उसी से गाँव ‘आदर्श’ कहा जाता रहा है. ‘हमारे गाँव में’ कविता इस आदर्श छवि से मुख़ातिब है. आदर्श को प्रश्नांकित करना उसका उद्देश्य है.
क्या यह खूँटा अविचल-अडिग है? कवि इसका सीधा जवाब न देकर प्रकारांतर से अपना मंतव्य देता है. अगर यह खूँटा शाश्वत-स्थाई होता तो इसे अपनी उत्तरजीविता के लिए निरंतर प्रयासरत न रहना होता.. अपने समापन भाग में कविता बताती है कि इस इस खूँटे को स्व-रक्षार्थ निरंतर सन्नद्ध रहना होता है. उसने यद्यपि अनेकानेक उपायों से जनचित्त का अनुकूलन कर रखा है, उस पर सम्मोहन का मजबूत आवरण डाल रखा है फिर भी वह आश्वस्त नहीं होता. आवरण के दरकने का डर उसे सताता रहता है. अपनी स्थिति को निरापद बनाने के लिए वह हिंसा का सहारा लेता है. हिंसा इस तरीके से की जाती है कि पीड़ित का ध्यान स्रोत की तरफ जाता ही नहीं. वैयक्तिक, सामूहिक, आर्थिक, राजनीतिक सभी तरह की हिंसा जारी रहती है. यह हिंसा धर्म के सहारे की जाती है. धर्म एक आजमाया हुआ अचूक नुस्खा है. यही सम्मोहन का, चित्त-विक्षेप का हेतु है.
लोग मासूम हैं और वे इस ढपोरशंखी खूँटे के झाँसे में आ जाते हैं. इसकी कथनी-करनी में कोई सामंजस्य नहीं. यह विश्वशांति का नारा देगा लेकिन ख़ुद दुनिया भर में हथियारों का कारोबार करेगा. यह मोहब्बत का पैरोकार बनेगा और नफ़रत की खेती करेगा. स्वयं को स्वतंत्रता का सबसे बड़ा हिमायती बताएगा किंतु “आज़ादी तक जाने वाले/ हर रास्ते पर/ बबूल वन बोता” रहेगा. इसकी असलियत समझना ही इसके आतंक से मुक्त होना है. डरे हुए लोग खूँटे का बाल बाँका नहीं कर सकते. कविता इसी डर के खात्मे की भूमिका बनाती है. निर्भय जन-समूह के निर्माण से काम्य समाज की बुनियाद पुख्ता होगी.
समय की आदमखोर धुन जय प्रकाश लीलवान |
अब तक विवेचित तीनों लंबी कविताओं में वर्तमान दुरावस्था को अतीत में जाकर देखा गया था. यह सर्वथा उचित था. समाज व्यवस्था पर धर्म की जकड़बंदी को अतीत में गए बगैर नहीं समझा जा सकता था. देश के स्वतंत्र होने और संवैधानिक व्यवस्था के लागू होने से दलितों की स्थिति में परिवर्तन आया. सामाजिक न्याय की दिशा में यह देश थोड़ा आगे बढ़ा. अगर यही प्रक्रिया ईमानदारी से चलती रहती तो समाज बेहतर गंतव्य की ओर सहजता से जाता. ऐसा नहीं होने दिया गया. शुरुआती प्रगति को स्वतंत्र भारत में आए पाँच दशक नहीं बीतने पाए कि मुकम्मल बाड़ेबंदी होने लगी. सामाजिक न्याय की प्रक्रिया को रोका ही नहीं गया अपितु प्रगतिचक्र को उलटा घुमाए जाने की परियोजनाएं बनने और लागू होने लगीं. ऐसे में उस कवि की ज़रूरत महसूस की जाने लगी जो मात्र अतीत में सारी समस्याओं के स्रोत न तलाशे बल्कि दमनकारी वर्तमान और दुर्दांत भविष्य का खाका खींच सके.
जय प्रकाश लीलवान (1965-2017) ने अपने ढंग से इसी अपेक्षा की पूर्ति की. उनकी कविता ‘समय की आदमखोर धुन’ (2009) एक विज़नरी कवि का सटीक पूर्वानुमान है. कुल 50 पृष्ठों, 85 अंतरों और 1400 पंक्तियों में रची गई यह कविता हर तरह से बेजोड़ ठहरती है. हमारे काव्यालोचक अगर दलित कविता को हिंदी की कविता स्वीकार करते होते तो आज लीलवान की यह कविता मुख्य विमर्श के केंद्र में होती. यह कविता लीलवान के सर्जना-लोक में सन् 2000 के बाद से ही उमड़ने-घुमड़ने लगी थी. 2005 तक आते-आते वे खूंखार समय की आहट साफ-साफ सुनने लगे थे.
‘दलित अस्मिता’ पत्रिका में मैंने इस संग्रह पर अपना लेख 2012 में में प्रकाशित कराया था. यह लेख मेरी किताब ‘दलित साहित्य : एक अंतर्यात्रा’ (नवारुण प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, प्र.सं. 2015, द्वि. सं. 2023) में शामिल है. इस समय तक लीलवान का ‘डिस्टोपिया’ साकार नहीं हुआ था. तब कविता के ध्वन्यर्थ समझ में नहीं आ रहे थे. लोकतंत्र की ऐसी दुर्दशा होगी, सोचना कठिन था. लेख छपने के बाद जय प्रकाश लीलवान से परिचय हुआ. अगले पाँच वर्षों तक उनसे संवाद रहा. केवल 52 वर्ष की आयु में 26 अगस्त, 2017 में रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मौत हुई. रहस्य से आज तक पर्दा नहीं हटा है. उनकी कविताएं गवाही देती हैं कि कितना बड़ा जोख़िम उठाकर किन ताकतों से वे जूझ रहे थे. समय की आदमखोर धुन सुन पाना असल में आदमखोर समय की निगाह में आ जाना था.
कविता का आरंभ इस सूचना के साथ होता है कि हमारे मनोजगत पर उनका नियंत्रण हो चुका है. शैतान समय है यह जहाँ मुट्ठी-भर लोग अन्य सभी पर कब्ज़ा किए हुए हैं. यह ‘तकनीक सज्जित निरंकुश वर्चस्व’ है. इसकी छत्रछाया में बर्बरता के नए रूप उभरे हैं जिन्हें ‘उत्तेजक मगर अर्थहीन बहसों’ से ढाँप दिया जा रहा है. भेड़िए चारों ओर छाए हुए हैं. हमें भरोसा दिलाया गया है कि इनकी दाढ़ में ही हमारी सुरक्षा है. देवेन्द्र कुमार बंगाली की कविता ‘जंगल का प्रजातंत्र’ में आया लकड़बग्घा प्रशिक्षित नहीं था जबकि लीलवान जिन भेड़ियों से मुख़ातिब हैं वे ‘पूँजीवादी पाशविकता की पाठशाला’ से पढ़कर आए हुए है. यही कारण है कि तकनीक इन भेड़ियों की
“रखैल है/ और विज्ञान के उपकरण/ इस रखैल के/ अलंकार-शृंगार बना दिए गए हैं.”
‘लोकतंत्र’ से ‘लोक’ को विलगाकर भेड़ बनाया जा रहा है. ‘तंत्र’ भेड़ियों के हवाले है. यह ‘भेड़ियातंत्र’ है. लोकतंत्र के मान-मूल्य भेड़ियों के आनंदवन में पेशी लगाने के लिए वध-स्थलों पर बुलाए गए हैं. न्यायतंत्र, जो कभी इन मान-मूल्यों की रक्षा में तत्पर दिखता था, अब आनंदवन का मुखापेक्षी है. इसके मुखिया न्यायाधीश गण आनंदवन में आयोजित उत्तेजक नृत्य का लुत्फ़ उठाने के लिए लालायित हैं-
समता, स्वतंत्रता, न्याय
और बंधुत्व जैसे विचारों को
अब बाज़ार में बुला लिए गए
भेड़ियों के
आनंद-वन में बने वध-स्थलों में
अपनी पेशी लगाने
बुला भेजा है
और न्यायाधीश
अब नंगई के इस उत्तेजक नाच के
मनोरंजन का
लुत्फ़ लूटने को
सरेआम
लार टपका रहे हैं..
विदीर्ण न्यायतंत्र के मलबे से डिस्टोपिया आकार ग्रहण करता है. जहाँ से नाइंसाफ़ी के शिकार साधनहीन लोगों को न्याय मिलना था वहाँ उनके प्रति बेरुख़ी है. जो साधनसंपन्न हैं, सत्ताधारी हैं, उनकी तत्काल सुनवाई होती है. मँहगी न्यायव्यवस्था में न्याय भी पण्यवस्तु है. जनतंत्र को पूँजीतंत्र ने उदरस्थ-सा कर लिया है. इस तंत्र में मूल ग़ायब है या उसे ग़ायब किया जा रहा है. मूल की प्रतिकृति से काम चलाया जा रहा है.
“मूल की मौत के लिए
मूल की छवियों का
छौंक लगाया जा रहा है”.
दृश्य-चित्र छवियों में बदले जा रहे हैं. सूचनाओं ने विचार की गर्दन मरोड़ रखी है. नए बाज़ार की सर्वत्र प्रभुता है. कल वाले बाज़ार में जो ग्राहक-मनुष्य थे, वे आज उप-भोक्ता (कंज़्यूमर) हैं. ‘कंज़्यूम’ करते-करते वे स्वयं ‘कमोडिटी’ (माल, उत्पाद) बन जा रहे हैं. राष्ट्र की संप्रभुता पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ध्वज फ़हर रहा है. तब-
इस समयहीन वर्तमान में
एक स्वस्थ
और सुथरे भविष्य की खोज
सबसे बीहड़ काम हो गया है..
बीहड़पन घनीभूत होता जाता है. वर्तमान का सत्त्व और समय की अर्थवत्ता निचुड़ती जाती है. विज्ञान दबंगों का दास है. एकाधिकारवादी सत्ता अपनी सहूलियत से स्वाद और सौंदर्यबोध तय करती है. इसी तरह वह बहस के विषय और उसकी परिधि का निर्धारण करती है. इससे मुक़ाबला करना है तो बाग़ी आलोचना को खड़ा करने की चुनौती स्वीकार करनी होगी. शक्ति संरचनाओं का रैडिकल विश्लेषण करना होगा. ऐसा न हुआ तो नागरिक अधिकार अपदस्थ रहेंगे. सांस्कृतिक उत्पादन के स्रोतों पर वर्चस्ववादी नियंत्रण बना रहेगा.
हमारा बोध, विचार, भावनाएं सब संचार व्यवस्था से निर्देशित हो रहे हैं. यह संचार प्रणाली उनके हाथ में है. ऐसे में हमारी चेतना के एकांतिक स्थल तक उनकी गिरफ़्त में हैं. यह देश के विरुद्ध राज्य का षड्यंत्र है. धर्मतंत्र के भेड़िए इसे अंजाम देने में राज्य की सहायता कर रहे हैं. राज्य ने इन्हें खुली छूट दे रखी है. राजनीति के कर्णधार उस पेशेवर टीम से सदस्य हैं जो गणतंत्र के चबूतरे पर धर्मतंत्र के मुज़रे (धर्मसंसद) के आयोजन में आने वाली दिक्कतों को दूर करने में लगी हुई है. शावक-सी नागरिक ज़रूरतें भेड़ियों के बाड़े में खदेड़ दी गई हैं. इसे ही विकास सूचकांक घोषित किया जा रहा है. विभाजन के सिद्धांत गढ़े जा चुके हैं. इन सिद्धांतों को पवित्रता का जम्फर-जामा पहनाने में धनगुरु, धर्मगुरु लगे हुए हैं.
क्या न्याय की कामना का खात्मा किया जा सकता है? शायद नहीं. लीलवान कहते हैं कि यह ख़ात्मा तभी मुमकिन है जब अन्याय का अंत कर दिया जाए. अनाम लोग अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ते हैं. न्याय की रक्षा के लिए अब तक जो संघर्ष हुए हैं, वे अनाम लोगों की स्मृतियों में अंकित है. यह स्मृति-कोश मनुष्यता की सबसे पावन धरोहर है. कवि दलित-दर्द की इन पांडुलिपियों को संजोना चाहता है. वह अनाम लोगों तक पहुँचना चाहता है. उनके घर का पता भी कवि को मालूम है. मुश्किल यह कि एक गुंडा रास्ता रोके खड़ा है. इसे हटाए बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता. यह कोई मामूली गुंडा नहीं. यह तमाम फ़ासीवादी ताकतों का समेकित रूप है. इस गुंडे से मुक़ाबले के लिए कवि समविचारी दोस्तों की शिनाख्त करता है, उन्हें आवाज़ देता है. गुंडे को हटाने और हारने के लिए संयुक्त मोर्चे की दरकार है. लीलवान ताउम्र इस संयुक्त मोर्चे की ज़रूरत महसूस कराने और बनाने में लगे रहे.
संस्कृति के फ़ासिज़्म से निकली धुन ही आदमखोर है. कवि इस आदमखोर का शत्रु है. वह इसके इरादों को जानता है. इसके विचरण की परियोजना से परिचित है-
संस्कृति का फासिज़्म
आज
समाज के गलियारों से
गुज़रकर
राष्ट्रीय राजमार्गों से होता हुआ
ध्वनियों
छवियों में संघनित होकर
नाटकीय
भंगिमाओं के
भड़कीले तिलस्म
और
मॉस हिस्टीरिया के
थियेटर में
तब्दील हो गया है..
‘समय की आदमखोर धुन’ के दस से अधिक अंतरे फ़ासिज़्म पर फोकस करते हैं. यह फ़ासिज़्म पूँजीवाद का लाडला है. उदार जनतंत्र की विफलता सुनिश्चित करके इसे पोसा गया है. अंध-आस्था का प्रसार पूँजीवाद की प्राथमिकता है. अंध-आस्था को सिर्फ़ धार्मिक क्षेत्र में नहीं, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक आदि क्षेत्रों में भी ले जाया गया है. अंध-आस्था का प्रतिफलन अनिवार्यतः दासता में होता है. दास या अंधभक्त ही पूँजीवाद की गाड़ी में जोते जाते हैं. मास मीडिया इनका अनुकूलन करता है. अनुकूलित अंधभक्त फ़ासीवाद के सबसे भरोसेमंद पहरुए होते हैं. स्वयं कुपोषित रहकर ये फ़ासीवाद का पोषण करते हैं. हिंसा और अत्याचार झेलते हुए ये अपने आका के निर्देश पर कहर बरपाते हैं. इन्हें अपनी परम मूढ़ता से कोई शिकायत नहीं होती. आत्मतत्त्व वंचित इस गिरोह को विद्याकेंद्रों के विनाश में व्यस्त रखा जाता हैं. इन्हें स्वयं गूँगे रहना मंज़ूर है लेकिन इनको किसी की आज़ाद आवाज़ नाक़ाबिले बर्दाश्त होती हैं. फ़ासीवाद की फ़ितरत ही ऐसी है कि वह ‘अपने’ या ‘पराए’ किसी को “तर्क करने की इजाज़त/ कभी नहीं दिया करता”. इसका मास मीडिया ‘कुतर्क की सर्वोत्तम शरणस्थली’ हुआ करता है.
फ़ासीवाद संचालित इस राष्ट्रवादी व्यवस्था में लोगों के अधिकार राजकीय कर्तव्य-पथ पर कुचले जाने के लिए डाल दिए गए हैं. बुलडोज़रों की निरंतर आवाजाही के शोर में इनकी कराह दब गई है. समाज के नैतिक तकाज़े धर्म के बूचड़खाने में खड़े कर दिए गए हैं. प्रवचनकर्ता के बाने में धर्मराज्य की नृशंसता के कारिंदे न केवल पारंपरिक धर्म-स्थानों पर काबिज हो गए हैं अपितु उन्होंने नए मठों की शृंखला खड़ी कर दी है. राज्य उनके धर्मसंसद आयोजित करवा रहा है. ये धर्मसंसद धर्म और संसद दोनों की मौत के साक्षी बन रहे हैं. फासीवाद की कारस्तानियों के निरूपण में कवि ने जिस स्थिति की कल्पना की थी उसे बहुत जल्द ही हमने साकार होता देखा है.
ऐसे रक्तपायी फ़ासिस्ट समय में जो व्यक्ति व्यवस्थागत दमन से उपजे शारीरिक-मानसिक आघातों को, “अपने अनुभवों के दर्द रोते/ और रक्त निचुड़ते टुकड़ों को/ एक व्यापक/ सामाजिक आर्तनाद में/ बदल देता है/ तो वह/ क्रांति का कवि/ और कलाकार बन जाता है.
“कलाकार और शब्द-सर्जक होने का दावा उनका भी होता है जो “पतनशील अतीत/ और दमनकारी वर्तमान के/ पैरवीकार” होते हैं. लीलवान उन्हें “फासीवाद के सबसे प्यारे बेटे और बेटियाँ” कहते हैं. ऐसी कला को वे बेहद खूँखार बताते हैं जो “धन और धर्मपतियों की/ हम-बिस्तर/ होती है”. क्रांतिकारी कविता और कला मात्र अंतर्वस्तु से नहीं बनती उसके लिए “क्रांतिकारी अभिव्यक्ति-कौशल/ और नए शिल्प की/ रूपरेखा भी/ अनिवार्य होती है..”
कला और कविता पर विचार के लिए लीलवान ने तीन अंतरे रखे हैं. इसके बाद ‘शहरनामा’ शुरू होता है. इस पर करीब 12 अंतरे हैं. शहर को लेकर दलित विमर्श में जो अत्यधिक आकर्षण रहा आया है, यह हिस्सा मानो उसी का प्रत्याख्यान रचने के लिए है. ‘बेगमपुरा सहरु को नाँव’ (संत रैदास) से लेकर डॉ. आंबेडकर के शहरीकरण की वकालत तक शहर के प्रति रुझान की रचना हुई है. लीलवान कहना चाहते हैं कि दलितों के लिए गाँव की जकड़बंदी के विरुद्ध जो मुक्त, मोहक और आदर्श जगह थी वह भी छीन ली गई है. यह एक योजना के तहत कुछ ताकतों के गठजोड़ से हुआ है. बदल दिए गए महानगर अब पूँजीवादी पतन और वैश्विक दमन के दमकते विराट ओलंपिक के विशाल स्टेडियम हैं. यहाँ की चकाचौंध में अमानवीयता पनपती है, अजनबीयत गहराती है. यह “शहर- आदमी के पदार्थीकरण की/ स्थितियों का जंक्शन है..” यहाँ के घिसे-पिटे और हाशिए पर पड़े जीवन को देखकर लगता है कि यह “शहर दरअसल/ त्रासदियों के फूलों का/ एक निरंतर/ निखरता हुआ बाग़ है”.
यहाँ के घर क्षतिग्रस्त संबंधों वाले अजीब से जेलखाने हैं जहाँ “बाहर की ओर हलचल/ मगर एक अंतर्भूत उदासी/ हमेशा चुभती है/ अस्तित्व के/ सबसे अंदरूनी कोनों में”. इस शहर से मजदूर, मजबूर, ग़रीब, लाचार, बीमार लगातार खदेड़े जा रहे हैं. एक भविष्यदर्शी कवि ने ‘आदमखोर धुन’ सुनते हुए जिस सामूहिक निर्वासन का दृश्य रचा था वह एक दशक बीतते-बीतते भयानक रूप से साकार हुआ. रूटीन निष्कासन के अतिरिक्त कम से कम तीन ऐसी बड़ी परिघटनाएं हुईं जिन्होंने शहर कमाने-खाने आए लोगों को सामूहिक पलायन के लिए बाध्य किया. आतंकवाद मिटाने, कालाधन बाहर लाने व जाने कितने तर्क देकर नवंबर 2016 में नोटबंदी की गई. एक देश – एक टैक्स तथा कर-सरलीकरण के तर्क से जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) थोपी गई. और, कोरोना संक्रमण रोकने के नाम पर मार्च 2020 में तालाबंदी कर दी गई. इन तीनों जनद्रोही निर्णयों ने निर्वासन-पलायन के एक से बढ़कर एक भयावह मंज़र उपस्थित किए. ‘समय की आदमखोर धुन’ में दर्ज़ है.
हिंदी दलित साहित्य में फ़ासीवाद कभी केंद्रीय सरोकारों में शामिल नहीं रहा. जय प्रकाश लीलवान ने इसे मुद्दा बनाया. संदर्भित कविता का आदमखोर यह फ़ासीवाद ही है. यह भारत के सांस्कृतिक वर्चस्ववाद (जिसे हम मनुवाद, ब्राह्मणवाद, जातिवाद आदि नामों से पुकारते हैं) की विकसित अवस्था है. इसकी गिरफ़्त में वर्णाश्रमी समाज ही नहीं, समूचा देश है. यह वैश्विक संकट है. भारत के हिंदुत्ववाद को इसने अपने में समायोजित कर लिया है या कहें कि हिंदुत्ववाद ने इसे अपने संरक्षक के रूप में चुना है और इसे देश में पैठने की ज़मीन मुहैया कराई है. बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घराने इस फ़ासीवाद के वित्त-पोषक या फाइनेंसर हैं और अपार ताकत वाली मल्टीनेशनल कंपनियाँ विभिन्न देशों में इसके अनुकूल माहौल बनाती हैं, सरकारें उठाती-गिराती हैं. भारत का लोक कल्याणकारी शासन इसके निशाने पर है. इसने संवैधानिक प्रणाली को निष्क्रिय करके छिन्न-भिन्न करना तेज कर दिया है. दलितों की समाजार्थिक स्थिति में सकारात्मक परिवर्तन या ऊर्ध्वाधर गतिशीलता इसी प्रणाली में संभव हुई थी. अगर दलित विमर्श इस ख़तरे का संज्ञान नहीं लेता तो उसका सारा किया-धरा बेमानी है, बेअसर है. लीलवान समझते हैं और अहसास कराते हैं कि इस विकट चुनौती का सामना एक बड़े मोर्चे के बलबूते ही हो सकता है. वे इसीलिए संयुक्त मोर्चा बनाना चाहते हैं. इस मोर्चे का पहला और मज़बूत साझीदार साम्यवाद ही हो सकता है. ‘समय की आदमखोर धुन’ एक आह्वान है. यह दलितों के स्वाभाविक सहयोगी ‘कॉमरेड’ को संबोधित है.
हिंदुत्ववादी फ़ासीवाद का मुक़ाबला करने हेतु साम्यवादियों का आह्वान करके जय प्रकाश लीलवान एक ज़ोखिम भरे क्षेत्र में प्रवेश करते हैं. ज़ोखिम भीतर-बाहर दोनों तरफ़ है. अस्मितावादी राजनीतिक दल साम्यवादियों के प्रति शुरू से बैरभाव रखते आए हैं. उसी के मुताबिक़ अस्मितावादी साहित्यकार और लेखक संगठन प्रथम प्रहार साम्यवाद पर ही करते हैं. ऐसे विषैले माहौल में साहस भरा क़दम उठाते हुए लीलवान आंबेडकरवादी समाजवाद की प्रस्तावना करते हैं. विषमतावादी ताकतों से जूझने के लिए उन्हें गठबंधन की आवश्यकता का अनुभव होता है और वे अस्मितावादियों के उपहास, तिरस्कार की परवाह न करके कॉमरेडों से संवाद करते हैं. संग्रह की भूमिका में उन्होंने नोट किया है- “मैं इस सत्य को स्वीकार करता हूँ कि मेरी कविताएँ आंबेडकरवादी काव्य-परंपरा की रूप-शैली व स्वरूप में कहीं भी फिट नहीं बैठती हैं.” यह अनायास नहीं है कि साहित्यिक विमर्श में लीलवान की रचनात्मकता की, उनके नवोन्मेष की, उनके काव्यगत प्रस्थानों की जितनी चर्चा अपेक्षित थी, नहीं हुई.
इधर दलित-बहुजन की चिंता करने वाली राजनीतिक पार्टियां हिंदुत्ववादी राजनीति की घोषित-अघोषित सहयोगी बनती गईं. उन्हें तदनुरूप संरक्षण भी मिलता गया. प्रवर्तन निदेशालय और केंद्रीय जाँच ब्यूरो उन्हें बख्शता रहा. डॉ. आंबेडकर ने हिंदू राष्ट्र के ख़तरे के प्रति आगाह किया था. उनकी चेतावनी को बड़ी आसानी से भुला दिया गया. इसका दुष्परिणाम सामने आया. हिंदुत्ववाद सत्तासीन हुआ. एक-एक कर सारी संवैधानिक व्यवस्थाएँ और संस्थाएँ निष्प्राण की जाती रहीं. यह दुरावस्था देखने के लिए लीलवान जीवित न थे. उनकी आशंकाएँ बेशक जीवित थीं. उन्होंने देखा कि दलित अस्मितावादी साहित्यकारों और राजनेताओं ने जनतंत्र की इस दुर्दशा पर ‘उफ़’ तक न किया! पूर्व संदर्भित ‘भूमिका’ में लीलवान ने अपने रचनाकर्म की प्राथमिकता स्पष्ट करते हुए लिखा था- “हिंदी के समकालीन हिंदूवाद की विद्रूपता को उघाड़ते हुए इसके साम्राज्यवाद का पटाक्षेप करने की प्रक्रिया को तीव्रतर करना है.”
हिंदी साहित्य में साम्यवादी विचार जिसे प्रगतिवाद कहा गया; छायावाद के साथ ही 1918 में आया. प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ इसका दूसरा दौर 1936 में आरंभ होता है. 1947 अर्थात् आज़ादी प्राप्ति के पहले तक प्रगतिवादी ढर्रे की रचनाएं करना जान ज़ोखिम में डालना था. आज़ाद भारत में ख़तरा कुछ कम तो हुआ लेकिन ख़तम नहीं हुआ. यह आज तक बना हुआ है. आज़ादी मिलने के अगले ही साल ‘हंस’ पत्रिका के जुलाई 1948 अंक में नागार्जुन ने साम्यवादियों के प्रति भारत पकिस्तान दोनों का रवैया जगजाहिर करते हुए ‘सच न बोलना’ कविता में दर्ज़ किया था-
रोज़ी रोटी हक़ की बातें जो भी मुँह पर लाएगा,
कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा!
नेहरू चाहे जिन्ना, उसका माफ़ करेंगे कभी नहीं,
जेलों में ही जगह मिलेगी, जाएगा वह जहाँ कहीं!
आरंभिक प्रगतिवादी कविता की प्रतिबद्धताओं में है दलितों पर होने वाले अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष. इन प्रगतिवादी कवियों में दलित पृष्ठभूमि से शायद ही कोई मिले. ये कवि इसीलिए उदारचित्त होकर न्याय की लड़ाई में उतरने का संकल्प व्यक्त करते हैं. गयाप्रसाद शुक्ल सनेही ने इलाहाबाद से छपने वाली ‘मर्यादा’ पत्रिका के जून 1918 अंक में लिखा- “न होने देंगे अत्याचार. लड़ जाएंगे न्याय पक्ष पर करके हृदय उदार..” ‘मनोरमा’ पत्रिका के अक्टूबर, 1925 अंक में प्रकाशित ‘विजय गीत’ में दुर्गादत्त त्रिपाठी की कामना इस तरह प्रकट हुई-
विजय ध्वजा फहरा दे विजये….
इस अछूत हिंसक समाज पर अस्पृश्यों की जय हो विजये.
अनाचारियों पर दलितों का आधिपत्य हो जाये विजये ..
इसी तरह ‘सुकवि’ के दिसंबर 1928 अंक में दीनानाथ ‘अंशक’ ने ‘निश्चय’ शीर्षक कविता में दलित बंधुओं के साथ होने का निश्चय व्यक्त किया था-
दलित बन्धुओं को अपनाकर उन्नति पथ पर लायेंगे.
निर्मल साम्य समीरण द्वारा प्रेम सुरभि सरसायेंगे.
1918 से लेकर 1940 तक साम्यवादी काव्यधारा में ‘दलित’ शब्द की बारंबारता देखकर कहा जा सकता है कि तीन दशक बाद महाराष्ट्र में उभरे और पूरे भारत में साहित्यिक आंदोलन की शक्ल अख्तियार करने वाले ‘दलित पैंथर’ की ज़मीन तैयार करने में इसकी भी भूमिका थी. जय प्रकाश लीलवान को यह इतिहास निश्चय ही ज्ञात रहा होगा. फ़ासीवादी हिंदुत्ववाद से संघर्ष में इसीलिए उन्होंने साम्यवादियों को वफ़ादार सहयोगी के रूप में देखा था-
यातनादायी निरंतरताओं की
समाप्ति का घोषणापत्र
कब कार्यरूप लेगा
मेरे कॉमरेडों, इसका मुझे
अत्यधिक इंतज़ार है
मैं तो
यही मानता हूँ
कि हमारी कल्पना, सोच
और आपस की
वफ़ादारी में पगे रिश्तों की
मिठास से बने
अटूट गठबंधन ही हमें
आज के
संकटों से
स्वतंत्रता की ओर ले जाएंगे..
‘आदमखोर धुन’ के क़रीब 35 अंतरों में साम्यवाद से आत्मीयतापूर्ण संवाद है. संवाद के बीच कहीं लीलवान चुटकी लेते हैं, कहीं उनका लहज़ा तंज़िया भी होता है लेकिन वे कहीं भी सांस्कृतिक अस्मितावादियों द्वारा व्यवहृत ‘विशेषणों’, संबोधनों का इस्तेमाल नहीं करते. संवाद के लिए अपेक्षित भरोसा बनाए रखकर ही वे ‘कॉमरेड’ से प्रश्न करते हैं, घेरते हैं, प्रेरित करते हैं और पक्षधरता का स्मरण कराते हैं. फ़ासीवादी हिंदुत्व की मज़बूत घेरेबंदी का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं कि ‘जीनियस’ वे हैं जो अंधेरों में रोशनी के पथ का निर्माण करते हैं, जो घेरेबंदी का अतिक्रमण कर पाते हैं. शत्रुओं के प्रचारतंत्र को ध्वस्त करने के लिए एका बनाने की ज़रूरत है. मीडिया साहूकारों का सेवक है. लोगों के सोचने-समझने की क्षमता पंगु की जा चुकी है. प्रधानमंत्री पूँजीपतियों का पहरेदार है. जिसे वंचितों, उपेक्षितों की सेवा में खड़ा रहना था वह प्रवासी पूँजीपतियों की ख़ातिरदारी में ‘पलक-पांवड़ों के साथ तैनात’ है. ऐसे में पस्तहिम्मत “दलितों को/ कौन खड़ा करेगा कॉमरेड/ कि जिनके दम पर/ यह देश/ अब तक और आज तक खड़ा है”.
जिस विज्ञान को समस्त मानवता के कल्याण में लगना था उस पर धन्नासेठों ने कब्ज़ा कर लिया. सारा तकनीकी विकास और प्रौद्योगिकी उनकी मुट्ठी में जाकर मात्र धनार्जन का जरिया बन गई. धर्मपतियों से मिलकर इन धनकुबेरों ने राज्य पर नियंत्रण कर लिया. ऐसे दमघोंटू माहौल में कवि अकुला रहा है. उसका साँस लेना दूभर हो गया है. वह खुद को बचाने के लिए कहीं जाने में असमर्थ-सा है. पतनशीलता का पाठ उसकी जिंदगी पर लाद दिया गया है. जिन्हें इस समाज की रहनुमाई करनी थी वे
“आजकल अमीरों के आयोजन में
बची रह गई
जूठन खाने के लिए
सरेआम आने-जाने लग गए हैं”.
पतन का यह सूचकांक अभूतपूर्व है. जिन रहनुमाओं से बग़ावत की उम्मीद थी, जिनके ‘अलग और अद्वितीय होने’ की अपेक्षा थी वे सब ‘पालतू जानवर’ जैसे हो गए हैं.
जिनके होने की खबर
केवल उनके
रोने से ही पता चलती है
ऐसे में
इन डूबते मस्तूलों को
तुम्हारे सिवाय
और कौन सँभालने आएगा – कॉमरेड..
खुली अर्थव्यवस्था का भूचाल झेलता देश मानवाधिकारों की चिंता करना भूल चुका है. ये अधिकार अब धन-धर्मपतियों के चंगुल में फँसे चूहे हैं. राष्ट्रीय चैनल अब देश की “धरती पर/ दासता का जल छिड़कने के लिए/ …खुल्ले छोड़ दिए गए हैं”. श्रमिकों, भूमिहीनों की बात करने वाला कोई भी चैनल नहीं है. ऐसे चैनलों का अस्तित्व ही संभव नहीं होने दिया जाता. भीमकाय कॉर्पोरेट पत्रिकाओं, अखबारों और टीवी चैनलों का मालिक बन बैठा है. ऐसे में अविराम घोटाले होते जाएंगे और खबरिया चैनल चूं तक न करेंगे. इन चैनलों के प्रस्तोता/एंकर या तो हिंदुत्व के स्वयंसेवक हैं, या पहले से सेवारत एंकरों ने अपने को स्वयंसेवकों का सेवक बना लिया है. ये स्वयंसेवक ही प्रवचनकर्ता, धर्मगुरु की भूमिका में उतारे गए हैं. जनता का बहुलांश या तो टीवी स्क्रीन के सामने होता है या सत्संगों, धर्मसभाओं में. नफ़रत की नदी दोनों जगह प्रवाहित रहती है. घृणा से सराबोर रोज़गाररहित युवाओं को लिंचिंग पर भेजा जाता है और विसंवादियों की आवाज़ दबाने के लिए क्रीतदासों की फौज़ सोशल मीडिया पर तैनात रहती है. नतीज़तन, विधान भवनों से लेकर विश्वविद्यालयों तक सन्नाटा सुनिश्चित किया जाता है. लीलवान को इस स्थिति का अंदाज़ा न होता तो वे ऐसी चेतावनी भरी कविता न लिखते! क्या अब भी कोई निर्णायक क़दम नहीं उठाया जाएगा? कविता का समापन अंश है-
अब तो कॉमरेड
हमें
अपने पूरे लाव-लश्कर को
लाकर और लेकर
दुनिया बदलने
और दुनिया बनाने के
मोर्चों की ओर
कूच कर लेना चाहिए
बिना और वक़्त बर्बाद किए..
वक़्त को तो बर्बाद होना था. हाशिए पर धकेल दिए गए, बड़े पैमाने पर मुकदमों में फँसाए गए, जेलों में ठूँसे गए कॉमरेड ख़ुद को नहीं संभाल पा रहे थे, ऐसे में वे लीलवान की चेतावनी पर कितने लामबंद होते! फिर भी उनसे जो बन पड़ा, किया. राजनीति के क्षेत्र के प्रयासों की चर्चा का यहाँ अवसर नहीं लेकिन साहित्यिक-वैचारिक मोर्चे पर उन्होंने साझा मंच बनाया और 2015 से सीमित संसाधनों और असीमित सद्भावनाओं के साथ सक्रिय हुए. इस साझे मंच में कई तरह के प्रगतिशील और आंबेडकरवादी संगठन व व्यक्ति शामिल रहे. लेखकों-बुद्धिजीवियों (प्रो. कलबुर्गी, गौरीलंकेश आदि) की हत्या का प्रतिरोध, सीएए/एनआरसी, भीमा-कोरेगाँव केस, किसान आंदोलन आदि सभी लोकतांत्रिक अभियानों में इनकी सार्थक मौजूदगी व सक्रियता देखी गई. साझे मोर्चे की आवश्यकता का अनुभव कराते हुए लीलवान ने ‘आदमखोर धुन’ कविता के आरंभ में लिखा था कि जिनसे निज़ात पाना है उनके पास अकूत संसाधन, अपरिमित सांस्कृतिक पूँजी और अकल्पनीय ताकत है. उनसे मुठभेड़ और मुक़ाबला तभी सफल हो सकेगा-
जब कारगर
और वफ़ादार गठबंधनों का गठन हो
और उनमें
आपसी रिश्तों की मिठास
समझ, दृढ़ता और साहस हो
जहाँ आदमी के
लालच की अपेक्षा
समाज के सपनों, वायदों, लक्ष्यों को
सर्वोच्च महत्त्व दिया जाएगा
जब विराट सपने की शक्ति साथ होगी
वफ़ादार संगठन और साथी होंगे
तो संशय, हताशा, असमंजस के
बादल छंट जाएँगे
क्रांति हमारे क़दम चूमेगी..
राहुल जी … जय प्रकाश लीलवान |
सन् 2009 में आशा-निराशा के जिस असंतुलन को कवि अनुभव कर रहा था वह 2013 तक आते-आते और बिगड़ता है. निराशा के बढ़ते दबाव के बीच कवि को लगने लगता है कि अगर संयुक्त मोर्चे का विस्तार न होगा तो दमनकारी शक्ति लोकतंत्र को दबोच लेगी. आगमजानी कवि की गहराती आशंका सूचित कर रही है कि दु:स्वप्न सच होने वाले हैं. इस डिस्टोपिया में मीडिया की स्वतंत्रता पूरी तरह अपहृत कर ली जाएगी, संवैधानिक संस्थाएँ खोखली कर दी जाएंगी, न्यायतंत्र की स्वायत्तता का अर्थ क्षरित हो जाएगा. सार्वजनिक उपक्रम, सरकारी निगम, राष्ट्रीय परिसंपत्तियाँ बेची जाएंगी, नीलाम की जाएंगी और बँटी हुई प्रतिरोधी आवाज़ें बेअसर होंगी. ऐसे में जनता पर कुशासन का बुलडोज़र चलेगा और उसकी चीख सुनने वाला कोई न होगा.
यह दु:समय साकार हो इससे पहले कवि अपनी आकुलता को शब्द दे देना चाहता है. 2013 में जय प्रकाश लीलवान का नया काव्य-संग्रह प्रकाशित होता है- ‘ओ भारत-माँ! हमारा इंतज़ार करना’. लीक छोड़कर चलने वाले कवि लीलवान की विलक्षणता पहले से अधिक साहसिकता के साथ प्रकट होती है. ‘भारत-माँ’ दलित कविता के लिए अल्पपरिचित, किंचित अवहेलित शब्द या संबोधन है. लीलवान इसे अपने संग्रह का केंद्रीय संबोधन बनाते है. संग्रह के शीर्षक वाली कविता में उनका संबोधन है-
ओ भारत-माँ!
मालूम है मुझे
कि आप इस नृशंसता को
कैसे झेल रही हैं
बस थोड़ा और
हमारा इंतज़ार करना
ताकि हम आपको
इन नृशंस राष्ट्र-भक्षियों के
ख़ूनी जबड़ों से
आज़ाद करवा सकें..
कवि मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सारी संपत्ति, सारी सत्ता के केंद्रीकरण को राष्ट्रीय क्षति के रूप में देखता है. यही जनता पर होने वाली हिंसा का स्रोत है. ‘राष्ट्र से अरदास’ शीर्षक कविता में वह समाधान की दिशा सुझाते हुए कहता है- “मेरे राष्ट्र के/ ग़रीब लोगो!/ विभाजन की/ बेड़ियों को तोड़कर/ तुम्हारा एक हो जाना/ हवाओं में/ सुगंध भर देगा/ पृथ्वी का पूरा अंधकार/ हवा हो जाएगा/ निर्मल चाँदनी से/ नहा उठेगी धरती”. इस जनता को जोड़ने की अगुआई कौन करेगा? पिछले संग्रह में लीलवान इस जिम्मेदारी के निर्वहन के लिए कॉमरेडों का आह्वान कर चुके थे.
इस संग्रह में वे नया नाम जोड़ते हैं. यह नाम है राहुल गाँधी. अप्रत्याशित. अश्रुतपूर्व. यह कवि की असाधारण पहल है. घनघोर ज़ोखिम भरा क़दम है. जिस विमर्श में महात्मा गाँधी को बेरहमी से ख़ारिज कर दिया गया हो, जिसमें वैज्ञानिक भारत बनाने का सपना देखने वाले जवाहरलाल नेहरू तिरस्कृत हों वहाँ राहुल गाँधी का समादर अकल्पनीय-सा है. गंभीर संकट से घिरने जा रहे देश के एक जननायक के रूप में राहुल को देखते हुए आगमजानी कवि लीलवान ने कविता लिखी, ‘राहुल जी’. यह अब तक की उनकी काव्ययात्रा की सबसे लंबी कविता थी. 53 पृष्ठों, 82 अंतरों और 1410 पंक्तियों में विन्यस्त यह कविता अपने प्रकाशन 2013 के एक वर्ष बाद ‘बनने’ जा रहे भारत की दशा उकेरती है और उसमें राहुल की भूमिका तय करती है. लगता है जय प्रकाश लीलवान कोई पटकथा लिख रहे हों और किरदारों को परखकर उनके रोल निर्धारित कर रहे हों.
जब उक्त काव्य-संग्रह छपा तब यह अस्मितावादी विमर्शकारों को बहुत नाग़वार गुज़रा. प्रगतिवादी आलोचकों को यह कवि का विचलन लगा. दलित साहित्य के समीक्षकों ने इसको अनदेखा किया. मेरी तरह के उनके मित्र-अध्येताओं ने संग्रह का संज्ञान तक न लिया. सामान्य पाठकों तक इसकी ख़बर पहुँचने न दी गई. ऐसा मानना निराधार होगा कि लीलवान को इस प्रतिक्रिया का अंदाज़ न रहा होगा. इसके बावज़ूद उन्होंने अपनी समझ को परिवेश के दबाव के हवाले नहीं किया. इस मोर्चे पर अकेले डटे रहने का निश्चय किया. इस कवि के अप्रतिम साहस व अमूल्य दृढ़ता का हम आज अनुमान लगा सकते हैं. असीमित धन, सत्ता और संसाधन वाली ताकत के सम्मुख कवि अकेला डटा रहा. कोई समर्थ शोधार्थी या शोध-संस्थान ही पता लगा सकता है कि राहुल गाँधी को पप्पू (=मूर्ख) साबित करने में संघ सरकार और संगठन ने कितने धनबल, मानव-संसाधन और सोशल-नेटवर्किंग का निवेश किया. कविता लिखे जाने से पहले यह निवेश शुरू हो चुका था जो बाद के दिनों में बढ़ता ही गया. जिस समय लीलवान ने कविता लिखी, देश इस अकूत निवेश के असर में आ चुका था.
देशवासियों ने राहुल को बावा (=नासमझ, अपरिपक्व) मान लिया था. ‘धरा न काहू धीर, सबके मन मनसिज हरे.’ स्वयं राहुल गाँधी के दल वाले इस कुत्सित अभियान का ढंग से प्रतिवाद नहीं कर पा रहे थे. उनके सीमित प्रतिकार में तब उदासीनता झलकती थी. इस विराट ताकत के समक्ष एक कवि अपनी कविता के साथ अविचलित खड़ा रहा. संत तुकाराम ने कहा है- “आम्हां घरीं धन शब्दाचीं च रत्ने. शब्दाचीं च शस्त्रे यत्न करूं..” ‘–हमारे घर में शब्द ही संपत्ति है. हमारा रत्न धन सब कुछ वही है. हम इन शब्दों से यत्नपूर्वक शस्त्र भी तैयार कर सकते हैं और उनका समय पर उपयोग कर सकते हैं.’ जय प्रकाश लीलवान की किसी से व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी. न झज्जर जिले के निलौठी गाँव में, न कुनबे में, और न दफ़्तर में उनका किसी से झगड़ा चल रहा था. वे अपनी कार से अकेले गाँव जा रहे थे. नहीं पहुँच पाए. पुलिस को उनकी लाश मिली. सड़क के किनारे खड़ी कार का एक्सीडेंट नहीं हुआ था. लाश पर बिलखते परिवार वालों ने हत्या की आशंका व्यक्त की थी. पुलिस ने अपनी जाँच में अंततः क्या हासिल किया, यह मालूम नहीं है. एक विज़नरी कवि असमय छीन लिया गया.
‘राहुल जी…’ लीक से हटकर लिखी गई कविता है; लीक जो स्वयं लीलवान ने बनाई थी. मेरी जानकारी में उनकी किसी अन्य कविता का शीर्षक व्यक्तिवाचक संबोधन से नहीं है. ‘राहुल जी’ लिखकर वे तीन डॉट (…) लगाते हैं. यह अनायास नहीं है. भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है? समय कौन-सी करवट लेगा? राष्ट्र का ‘भाग्य’ और राष्ट्र के भाग्यविधाताओं की नियति में क्या बदा है? इन सब प्रश्नों को लेकर जो संशय गहराया है उन सबका संकेत इन ‘डॉट्स’ में है. शीर्षक तो रचना पूर्ण होने के बाद तय होता है. इन ‘डॉट्स’ के जरिए कवि ने बताना चाहा है कि तिरपन पृष्ठ लिखने के बाद अभी और भी कहना शेष है. तसव्वुर कीजिए कि 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला होता और संयोग से राहुल गाँधी प्रधानमंत्री बनते तो यही कविता ‘प्रशस्तिकाव्य’ की श्रेणी में रखी जाती. मैंने इसीलिए शुरू में कहा कि लीलवान ने बहुत जोख़िम उठाकर यह कविता लिखी है. देश के आगत को लेकर उनका अपना आकलन था. उनकी रचनात्मकता को इसी आकलन के अनुरूप आकार मिला.
लीलवान की पसंद का शब्द ‘देश’ है लेकिन प्रस्तुत संग्रह और इस कविता में वे ‘राष्ट्र’ शब्द का व्यवहार करते हैं. वे देख रहे हैं कि देश की सारी राजनीति ‘राष्ट्र’ के इर्द-गिर्द सिमट आई है. जनता को आकर्षित करने और भरमाने का काम इसी के बलबूते हो रहा है. राष्ट्र के बाद राजनीतिक विमर्श के केंद्र में ‘भारतमाता’ पदबंध है. दलित कविता में ये दोनों अत्यल्प प्रयुक्त शब्द हैं. ये जहाँ कहीं आए हैं वहाँ तीखे आलोचनात्मक तेवर से बिंधकर. लीलवान बहुत सकारात्मक अर्थ में इनका प्रयोग करते हैं. ‘राहुल जी…’ कविता के शुरू में वे काव्य-नायक को संबोधित करते हुए कहते हैं कि
“हम
अपने राष्ट्र को
इस तरह
विलाप करते हुए
और कितना
देख सकते हैं?”
विलाप से मुक्ति दिलाने का बीड़ा तो उठाना ही पड़ेगा. इसके लिए “अहिंसा में पगे/ सख्त़/ प्रतिरोध की/ यात्रा का यात्री” बनना पड़ेगा.
यह कविता पढ़ते हुए सातवीं शताब्दी के महाकवि और अप्रतिम गद्यकार बाणभट्ट की कथाकृति ‘कादंबरी’ की ओर, विशेषकर उसके एक प्रसंग ‘शुकनासोपदेश’ की ओर ध्यान जाता है. शासन की बागडोर सौंपने से पहले उस युवक को आने वाली दुर्गम स्थितियों का भान कराया जाता था. राजसत्ता का मद किस तरह सिर पर सवार होता है, शासक से क्या-क्या अकरणीय करवा ले जाता है; इन सबका विस्तृत विवेचन किया जाता था. उत्तराधिकारी को समुचित सीख दी जाती थी. ‘शुकनासोपदेश’ की तरह लीलवान रचित यह कविता भी अपने काव्यनायक को आने वाली भीषण स्थितियों के लिए तैयार करने का उपक्रम करती है. लीलवान ने इस नायक को भावी शासक के रूप में न देखकर मुक्ति संघर्ष के एक नेतृत्वकर्ता के तौर पर देखा है.
भारत राष्ट्र को दो पिशाचों ने अपनी गिरफ़्त में ले रखा है. इनके नाम हैं पूँजीवाद और वर्णवाद. पूँजीवाद को लीलवान ज़्यादा बड़ी समस्या मानते प्रतीत होते हैं. कभी सामंतवाद से पोषित वर्णवाद मुख्य समस्या थी. आज “पूँजीवाद/ हमारे युग का/ सबसे खूँखार पिशाच है/ जिसके ढाँचे के/ किसी भी अंग में/ जुल्म के अंधेरों के सिवाय/ और कुछ भी/ पिरोया नहीं जा सकता”. अगर हमें सुंदर निर्माण की ज़मीन तैयार करनी है तो ‘पूँजीवाद की रीढ़ तोड़ने का पवित्र काम’ प्रारंभ करना ही पड़ेगा.
किसी भी मनुष्य के लिए ‘ख़ुशबुओं से रिक्त/ ख़ाली मौसमों के/ नरक में जीना’ स्वीकार नहीं होता. इन दिनों जिसे ‘नफ़रत के बाज़ार में मोहब्बत की दुकान खोलना’ कहा जा रहा है, वह यही ख़ुशबू के मौसम की चाहत है. पूँजीवाद और वर्णवाद ने मिलकर इस जगह को ‘राख के रेगिस्तान’ में बदल दिया है. कोढ़ में ख़ाज की तरह यहाँ ‘प्रवीणताओं के प्रवचन’ हो रहे हैं. यह ‘क्रूरता की पराकाष्ठा’ है. ‘अमीरों के कंठ से/ विषमताओं के/ आतंक की/ आँधी’ राष्ट्र को जुल्म के घोर अँधेरों से घेरती जा रही है.
‘अतिरिक्त’ के अधिग्रहण की चेष्टा हिंसा के दायरे में आती है. जहाँ अतिरिक्त का जितना बड़ा अंबार लगता है वहाँ हिंसा की उतनी गहरी खाई बनती जाती है. अतिरिक्त की सुरक्षा के बंदोबस्त करने होते हैं. धर्म और राजनीति को इस काम में लगाया जाता है. धर्म वंचितों का ध्यान भटका देता है. वंचित जन अतिरिक्त के अंबार के परिप्रेक्ष्य में अपनी अकिंचनता या बदहाली पर विचार करने के बजाए पूर्वजन्म के अपकर्म और अगले जन्म हेतु सुकर्म की चिंता में डूबने-उतराने लगते हैं. इन दिनों इस धर्मसत्ता ने ‘हिंदू राष्ट्र’ की स्थापना का एक नया कार्यभार लिया हुआ है. विषैले प्रवचनकर्ताओं, धर्मसंसद आयोजनकर्ताओं का पूरा हुजूम धर्मप्राण जनता को आत्मघाती बनाने पर तुला हुआ है. राजसत्ता इसमें सहभागी बनी हुई है. यह समझ प्रगतिवाद के शुरुआती दौर में आ गई थी कि धर्मसत्ता ही हत्यारी पूँजी और हिंसक राजनीति का संरक्षण करती है. रामेश्वर ‘करुण’ ने अपने दूसरे संग्रह ‘तमसा’ (1944) में लिखा था-
जिसकी छाया के नीचे रक्षित है सत्ता सारी,
जिससे निर्भयता पाकर पलती पूँजी हत्यारी.
नित बैर विरोध बढ़ाकर जो बीज विषैले बोता,
जिसके बंधन में बँधकर कल्याण न कुछ भी होता..
पूँजीवाद की रक्षा में सन्नद्ध धर्म और राजनीति दोनों का प्राथमिक माध्यम भाषा है. मोहक शब्दों से लैस, आश्वासनों से भरी भाषा के प्रयोक्ता हिंसा को ढँकने की कोशिश में निरर्थक शब्दों की संख्या बढ़ाते जाते हैं. समरसता, विकास, अच्छे-दिन, संस्कृति, सनातन… अर्थ-गौरव च्युत कर दिए गए शब्दों के नमूने के रूप में देखे जा सकते हैं. खबरिया चैनलों पर एंकर के भेस में बैठे स्वयंसेवकों ने, उनके द्वारा संचालित डिबेट ने ऐसे शब्दों की संख्या बढ़ाने में सर्वाधिक योगदान दिया है. अर्थहीन कर दिए गए शब्दों का ढेर कालांतर में सड़ांध मारने लगता है. रचनाकारों के लिए यह सबसे कोफ़्त भरा समय होता है. इस सड़ांध से उन्हें ही दो-चार होना पड़ता है. जनता का पेट काटकर तोंदिल हुए वर्ग की सेवा करती राजनीति की कारस्तानियों को वही बेपर्दा करता है-
पूँजीवाद के पथ में
पलक पाँवड़ों के साथ
राजनीति का बिछ जाना
एक राज्य के
क्रूरतम हो जाने का
प्रमाण होता है..
क्रूरता के इस खेल को जो समझता है उसे लीलवान जनता का रहबर और स्वतंत्रता का शिल्पकार कहते हैं. देश को उजाड़ से बचाने की ज़रूरत सबसे पहले और सबसे ज़्यादा यह रहबर ही महसूस करता है. सबसे ज़्यादा घेराबंदी इसी की होती है. सबसे ज़्यादा उपेक्षा इसी की होती है. उपेक्षा करने में वह जनता भी शामिल रहती है जिसके लिए उस शिल्पकार ने अपना जीवन दाँव पर लगाया है.
‘हिंडनबर्ग रिपोर्ट’ आने से पहले राहुल राष्ट्रीय परिसंपत्तियों की चोरी, उन्हें चार हाथों में सुपुर्द कर देने का मुद्दा लगातार उठाते आ रहे थे. उक्त रिपोर्ट आने के बाद संसद में उन्होंने अवैध पूँजी की शरण में आई राजनीति को दर्शाती जो तस्वीर दिखाई उसके बाद उनका लोकसभा से निष्कासन सुनिश्चित किया गया. आनन-फानन में उनका आवास छीन लिया गया और नए आवास (कारागार) में भेजने का फ़ैसला सुना दिया गया. राष्ट्रीय संपदा और संसाधन जनता की परिसंपत्ति होते हैं. इनकी लूट रोकने की आवाज़ उठाने वाले को अगर जेल भेजने की तैयारी हो तो जनता को ही आगे आना चाहिए.
लीलवान कहते हैं कि बहुधा ऐसा नहीं होता. सम्मोहित जनता अपनी कंगाली के कारणों को समझ नहीं पाती. जो उसकी तरफ़ से जूझ रहे हैं उनके प्रति उदासीन बनी रहती है. लेकिन, जनता देर-सबेर अवश्य समझती है. उसकी उदासीनता टूटती है. तब वह अपने शुभेच्छुओं के साथ खड़ी होती है. अपने काव्य-नायक को संबोधित करते हुए लीलवान कहते हैं कि यदि आप पूँजीवाद की घपलेबाजी और अमीरों के आतंक का मुक़ाबला पूरी सत्यता और दृढ़ता से करेंगे तो “इसका सामना करने वाली/ पूरी की पूरी फौज़/ आपके/ इस महान युद्ध में/ पूरी कटिबद्धता के साथ/ खड़ी हुई दिखाई देगी..”
जय प्रकाश लीलवान आने वाले समय को लेकर बेहद आशंकित हैं. बढ़ी हुई बेरोज़गारी परिवारों को तोड़ती है, उनमें झगड़े बढ़ाती है. भूख और कुपोषण के शिकार लोग भाँति-भाँति की बीमारियों से ग्रस्त होते हैं. अकाल मौतें रोज़मर्रा की बात हो जाती है. रुग्ण और मरणासन्न जनता से धन उगाहते वैश्वीकृत राष्ट्र के नैतिकतामुक्त, अंतःकरणरहित अमीरों की अय्याशियाँ बढ़ती जाती हैं. “अमीरों की/ रातों का अनुपात/ जितना रंगीन होता है/ ग़रीबों के/ दिनों का अनुपात/ उतना ही/ मातम भरा होता है..” ग़रीबी की रेखा के नीचे धकेल दी गई जनता का ग्राफ़ जब “85 करोड़ के आंकड़े को/ पार कर चुका” हो और ‘अश्लील अर्थशास्त्री’ अमीरों की ‘घृणित कारगुजारियों’ पर पर्दा डाल रहे हों तो कवि का आक्रोश ‘अवैध अमीरी की/ अंतड़ियाँ उधेड़ने के/ सम्मानित फ़ैसले को’ प्रमुख सरोकार बनाने का आह्वान करता है. हिंसा का चरम प्रतिहिंसा की ओर ले जाता है.
लीलवान कांग्रेस पार्टी में भर गई उदासी को हटाने, जनता की पीड़ा से जोड़ने और प्राथमिकताओं को दुरुस्त करने, पुनर्नियोजित करने की ज़रूरत पर बल देते हैं. वे जानते हैं कि यह बहुत कठिन काम है क्योंकि “कांग्रेस के चारों ओर/ जड़ताओं की यथास्थिति को/ सलाम ठोंकने वाले/ चापलूस/ चाकरों का चक्रव्यूह” बन गया है. वे राहुल गाँधी से अपनी टीम बनाने को कहते हैं. कारण स्पष्ट है-
“क़ातिल हो चुके
वक़्त की धुनाई
पद और स्वार्थ के लिए
बिक जाने वाले
हाथों से नहीं हो सकती”.
तब ऐसी टीम बनाई जाए जो ‘राष्ट्र की सिसकियाँ’ सुन सके, भरोसेमंद हो, जिसके सदस्य ग़रीबों के आँगन तक पहुँच सकें और छप्परों में पसरे अँधेरे को रोशनी से भर सकें.
राहुल जिस तरह सोचते समझते हैं और उसे क्रियात्मक रूप देने का हौसला रखते हैं वही बात अगर “कांग्रेस के संगठन के/ गीत की गति में ढल जाए/ तो हमारे युग के दौरान/ एक मुलायम और सघन/ परिवर्तन की पटकथा/ लिख दी जाएगी..” कॉर्पोरेट की लूट और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अमीरपरस्त, विभाजनकारी राजनीति पर राहुल ढुलमुल रवैये से मुक्त हैं. उनकी यही ख़ासियत संघ को बेहद खटकती है और इसी वज़ह से वे कवि के प्रिय हैं. राहुल ने जैसे कवि-आलोचक विजयदेवनारायण साही के उस पर्यवेक्षण और निष्कर्ष को हृदयंगम किया है जिसे उन्होंने गाँधी हत्या के तत्काल बाद 3 फरवरी, 1948 को अपनी डायरी में अंकित किया था. इस समय साही काशी विद्यापीठ, बनारस में कार्यरत थे- “यूनिवर्सिटी यूनियन में गांधीजी की मृत्यु पर शोक मनाने के नाम पर रोज शाम को रामधुन होती है. सुनते हैं तेरह दिन तक यही सब होगा। समझ में नहीं आता इन नौजवानों को क्या हो गया है! क्या इन शोक-सभाओं में आँसू बहा-बहाकर वे भूल जाना चाहते हैं कि फ़ासिस्ट सांप्रदायिकता का एक भयंकर देशव्यापी षड्यंत्र अपना जाल फैला रहा है?
गाँधीजी की हत्या तो उस विकराल षड्यंत्र का एक अंग भर है. समस्त प्रगतिशील शक्तियों के लिए यह एक खुली चुनौती है. मुझको तो दीख रहा है कि देश डाँवाडोल है. आज हमें आगे बढ़कर हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से टक्कर लेनी चाहिए.
आज अगर यूनिवर्सिटी यूनियन मेरे हाथों में होती तो मैं प्रतिगामी धाराओं के विरुद्ध एक जबरदस्त आंदोलन खड़ा करता. सरकार तो संघ को दबाने के लिए कानूनी उपाय करेगी ही परंतु असल में तो हमें प्रचार और कार्य के द्वारा जनता के हृदय से इसकी जड़ें उखाड़ फेंकनी हैं. और, इसके लिए यही समय सबसे उपयुक्त है.”
उसी वर्ष 9 अक्टूबर की प्रविष्टि में वे कहते हैं “ख़बर आई है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य कांग्रेस में घुसेंगे.” इस ख़बर के विश्लेषण के बाद उनका मंतव्य है- “इस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो कांग्रेस को निगल जाएगा और पूँजीपतियों का फ़ासिज़्म सांप्रदायिकता के साथ उग्र रूप धारण करेगा.”
लीलवान को भरोसा है कि ‘इस अंधेरी सदी के बीमार अंगों का इलाज’ काव्यनायक के चिंतन द्वारा किया जा सकेगा. वे राहुल में ‘अद्वितीय जुनून’, ‘दृढ़ इच्छा-शक्ति’ और ‘दृष्टि की स्पष्टता’ की प्रचुरता देखते हैं. ‘राष्ट्र की राजनीति को/ अत्यंत गंभीरता से लेने’ की अपील करते हुए लीलवान टीम के चुनाव में राहुल जी को विशेष सतर्कता बरतने की सलाह देते हैं-
अगर ज़रूरत है
तो बस यह
कि आपके पास
एक ईमानदार
और वफ़ादार
नेतृत्व का बेड़ा हो
जो भावुक संवेदनाओं के
समुद्र-सा भरा हो
और जो
अपने राष्ट्र के
सबसे दीन-हीन
लोगों के सपनों को
साकार करने वाले
संघर्ष को
परिभाषित करने की
इच्छा-शक्ति से
ओतप्रोत हो..
विवेच्य कविता में लीलवान दलित राजनीति करने वाले किसी दल का नाम नहीं लेते. उनसे वे 2009 में ही उम्मीद छोड़ चुके थे. ‘समय की आदमखोर धुन’ में वे ऐसे कथित बहुजन रहनुमाओं की निर्भ्रांत भर्त्सना की गई है. जिन दो ताकतों ने राष्ट्र के जन-गण-मन को दबोच रखा है वे हैं- हिंदुत्व का ध्वजवाहक संघ और लीलाधारी पूँजी के बाज़ीगर कॉर्पोरेट. राहुल इनसे लड़ रहे हैं तो वही कवि के नायक हो सकते हैं. कभी पूँजीवाद देश-दुनिया में उदार माहौल चाहता था. तब गाँधी और गाँधीवाद की उसे परवाह थी.
आज का कॉर्पोरेट इस विचारदृष्टि से पल्ला झाड़ चुका है. वह संघ के कंधे पर बंदूक रखकर आए दिन इस विचारदृष्टि पर गोली चलाता है. कभी गाँधी के पुतले को गोली मारी जाती है और कभी हत्यारे की जय-जयकार होती है. संयोग से ये दोनों काम करके चर्चा में आने वाली हिंदुत्व की स्वयंसेविकाएं हैं. अलीगढ़ की पूजा शकुन पांडेय ने फरवरी 2019 में गाँधी के पुतले पर तीन गोलियाँ दागी थीं और भोपाल की प्रज्ञासिंह ठाकुर ने नवंबर 2019 में गोडसे को देशभक्त घोषित कर सुर्खियाँ बटोरी थीं. पहले से चला आ रहा गाँधी/गाँधीवाद की हत्या का यह सिलसिला इन दो वाक़यों के बाद और घनीभूत हुआ.
आज यह ‘न्यू नॉर्मल’ का हिस्सा है. यह दुर्योग से कुछ अधिक है कि सामाजिक सद्भाव को नष्ट करने की चेष्टा करने वाली तब अनाम स्वयंसेविकाओं को जय प्रकाश लीलवान ने 2013 में ‘अमीरी की चुड़ैल’ कहा था.
विदीर्ण होते राष्ट्र और टूटती-बिखरती एकता को जोड़े जाने की ज़रूरत है. इसके लिए देश के विभिन्न भागों और जनता के विभिन्न समूहों तक पहुँचना होगा. जय प्रकाश लीलवान प्रस्तुत कविता में यात्रा पर ख़ास ज़ोर देते हैं. वे अपने काव्य-नायक को जोड़ने वाली यात्रा की दुश्वारियाँ बताते हैं और इनके मद्देनज़र समुचित तैयारी की सलाह देते हैं. यात्रा के संदर्भ पूरी कविता में मिलते हैं. प्रारंभिक अंश में कहा गया है यदि रोते राष्ट्र के प्रति अपना फ़र्ज़ अदा करना है तो सख़्त प्रतिरोध वाली यात्रा का यात्री होना पड़ेगा. सख़्त होने के साथ यह यात्रा अहिंसा में पगी होनी चाहिए. यात्रा के दूसरे संदर्भ में कांग्रेस के कंठ से निसृत ‘गरिमा के गीत’ को सारे देश में, समस्त ‘नस-नाड़ियों’ में बिना देर किए गुंजायमान करने की ज़रूरत बताई गई है. तीसरे संदर्भ में यात्रा की कठिनाई का उल्लेख है. अगर ‘सलोनी स्वतंत्रता’ तक पहुँचना है तो दुर्गम पहाड़ की चोटी तक चढ़ने का माद्दा हासिल करना होगा. चौथे संदर्भ में यात्रा “अपने राष्ट्र का एक गरिमामय/ मानवीय नक्शा तराशने” और दिल-दिमाग को रोशनी से लबालब भर देने के लिए की जानी चाहिए. पाँचवें संदर्भ में राहुल जी से ‘राष्ट्र के सलोने संग्राम के/ सिद्धांतों की आहट बनने’ ‘अमीरों द्वारा सताए गए/ समय के चेहरे को चूमने’ और रोज़-ब-रोज़ दुर्घटनाग्रस्त होते राष्ट्र को स्वस्थ बनाने के लिए यात्रा करने को कहा गया है.
ऐसी यात्रा में कवि भी साथ होगा-
“और हम आपके
दमदार क़दमों की क़सम होंगे
कि आप
बीहड़ मंजिलों पर चलकर
मक़सदों के मुहानों तक
अवश्य पहुँच सकेंगे..”
छठे संदर्भ में कवि का लहज़ा थोड़ा व्यंग्यात्मक और ललकार भरा हो जाता है. सुविधाएँ भोगते हुए कोई राष्ट्र निर्माण की यात्रा पर ईमानदारी से कैसे निकल सकता है.
इस चुनौती भरे संबोधन के बाद सातवें और अंतिम यात्रा-संदर्भ में काव्य-नायक के प्रति यक़ीन व्यक्त किया गया है. कवि उसके हृदय की भट्ठी में चमकते कोयलों की महक से अपने अक्षरों की गर्मी ढूँढता है. सूखी धरती में हरापन लाने वाले नायक ने ज़िंदगियों के धरातल को रौनक के लहलहाते पौधों से भर दिया है. विश्वास से भरा कवि कह उठता है-
इस पूरी पृथ्वी पर
सबसे भरोसे का अक्षांश
आपके
आह्वान की प्रतिबद्धता के
देशांतर पर खड़े हो सकने वाले
हाथों द्वारा ही लिखा जा सकता है
कविता और राजनीति में पारस्परिकता होनी चाहिए. दोनों एक-दूसरे की ख़बर रखें और विपथन का संज्ञान लेते चलें. तभी वे अपनी भूमिका का उचित निर्वाह कर सकेंगे. जब राष्ट्र गहरे संकट में हो तब यह पारस्परिकता और सांद्र हो जानी चाहिए. लीलवान के शब्दों में वर्तमान की बात करें तो निपट असुरक्षा के झुरमुट में रोते देशवासियों की ख़बर राजनीति को और ‘राष्ट्र की कविता’ को होनी ही चाहिए. जनपक्षधर कविता को जनपक्षधर राजनीति के विवेकशील सहयोगी की भूमिका में रहना स्वाभाविक है. निर्माण और विनाश की शक्तियों के बीच द्वंद्व चला आ रहा है; चलता रहेगा. यह द्वंद्व जितना ‘गहरा-तीख़ा-सहज’ होगा, कविता और राजनीति उतनी गंभीर-सार्थक-शुभ होगी.
यात्रा के इतने संदर्भों से जैसे कवि संतुष्ट न हुआ हो. उसे लगा हो कि राष्ट्र निर्माण वाली यात्रा का प्रतिलोम रचना आवश्यक है. जिसने राष्ट्र को मरोड़कर रख दिया, जो राष्ट्र की एक-एक बूँद सोखे जा रहा है वह निर्माण की यात्रा को निरापद कैसे जाने देगा! ‘ओ भारत-माँ ! हमारा इंतज़ार करना’ संग्रह में जहाँ लीलवान की 1410 पंक्तियों वाली सबसे लंबी कविता ‘राहुल जी’ पूरी होती है उसके ठीक अगले पृष्ठ पर उनकी सबसे छोटी कविता प्रकाशित है.
कुल चार पंक्तियों की इस कविता का शीर्षक है ‘भयावह क़दम’. निर्माण के अनगिनत क़दम होंगे लेकिन विध्वंस के लिए चार क़दम चलना भी ज़रूरी नहीं. बिना चले निर्माण-पथ को मटियामेट किया जा सकता है-
वे क़दम
बड़े भयावह होते हैं
जो बिना चले ही
रास्तों को रौंद देते हैं.
लंबी कविताओं का विवेचन यहीं रोकता हूँ. दलित कविता के पाँच दशकों से 5 कविताओं का चयन और विश्लेषण बहुत-कुछ सांप्रतिक उद्देश्य की पूर्ति कर रहा है. लंबी कविताएं और भी हैं. उनकी विवेचना फिर कभी करना चाहूँगा. जिन कविताओं की चर्चा हो सकी उन सबकी केंद्रीय चिंता में साझापन है. सभी कविताएँ जनतंत्र की, वास्तविक जनतंत्र की चिंता करती हैं.
देवेन्द्र कुमार बंगाली (जंगल का प्रजातंत्र) और डॉ. सुखबीर सिंह (बयान बाहर) वर्तमान से अतीत की ओर जाते हैं. स्मृतियों को खँगालते हैं. मलखान सिंह (हमारे गाँव में) वर्तमान में ही बने रहते हैं यद्यपि उनका चुनौती भरा स्वर अतीत की पीठिका पर टिका है. अपनी अन्विति में अतीत और वर्तमान के अनुभव कविता को आक्रोश से भरते हैं.
जय प्रकाश लीलवान (समय की आदमखोर धुन तथा राहुल जी’) भविष्य की चिंता को प्रमुखता देते हैं और अपने समय से आगे की कविताएँ रचते हैं.
काव्यत्व के लिहाज से सभी कविताएँ बेहतरीन हैं. आख्यानमूलक न होते हुए भी ये आख्यान-सी रोचकता लिए हुए हैं. अनूठे बिंबों वाली ये बिंबधर्मी कविताएँ हैं. बिंब निर्माण में बंगाली और लीलवान चकित करते हैं. नवोन्मेषी रूपक रचने में लीलवान का कोई सानी नहीं. इन रूपकों से कवि की महाप्राणता प्रकट होती है.
इन चारों कवियों की पाँचों लंबी कविताएँ दलित कविता को, हिंदी कविता और भारतीय साहित्य को समृद्ध करती हैं.
(यह लेख प्रो. पी. रवि के कारण लिखा जा सका और उन्हीं को समर्पित है.)
सन्दर्भ
आधार काव्य-संग्रह
(विवेचना क्रम से)
‘आधुनिक हिंदी कविता के पहले दलित कवि देवेन्द्र कुमार बंगाली’ (प्र.सं. 2017), संपादक- देवेन्द्र आर्य, ऑथर्स प्राईड पब्लिशर प्रा. लि., मयूर विहार, नई दिल्ली.
‘बयान बाहर से पुनर्संभवा तक: डॉ. सुखबीर सिंह की अनंतर काव्य-यात्रा’ (प्र.सं. 2021), संपादक- डॉ. मंजु मुकुल, शिवालिक प्रकाशन, दिल्ली, वाराणसी.
‘सुनो ब्राह्मण’ (प्र.सं. 1996, द्वि.सं. 1997), मलखान सिंह, बोधिसत्त्व प्रकाशन, रामपुर, उ.प्र.
‘समय की आदमखोर धुन’ (प्र.सं. 2009), जय प्रकाश लीलवान, भारतीय दलित अध्ययन संस्थान, नई दिल्ली.
‘ओ भारत-माँ! हमारा इंतज़ार करना’ (प्र.सं. 2013), जय प्रकाश लीलवान, अनामिका पब्लिशर्स, दरियागंज, नई दिल्ली.}
सहायक ग्रंथ
(अकारादि क्रम से)
‘दलित साहित्य: एक अंतर्यात्रा’ (प्र.सं. 2015, द्वि.सं. 2023), बजरंग बिहारी तिवारी, नवारुण, गाज़ियाबाद.
‘नवें दशक की हिन्दी दलित कविता’ (प्र.सं. 1996), रजत रानी ‘मीनू’, दलित साहित्य प्रकाशन संस्था, आर.के. पुरम, दिल्ली.
‘निबंधों की दुनिया: विजयदेवनारायण साही’ (प्र.सं. 2007), संपादक- हरिमोहन शर्मा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली.
‘प्रगतिवाद एवं समानांतर साहित्य’ (प्र.सं. 1978, द्वितीय संशोधित संस्करण 2000), रेखा अवस्थी, स्वराज प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली.
‘हिंदी काव्य में मार्क्सवादी चेतना’ (प्र.सं. 1974), जनेश्वर वर्मा, ग्रंथम, रामबाग, कानपुर.
बजरंग बिहारी तिवारी जाति और जनतंत्र : दलित उत्पीड़न पर केंद्रित (2015), दलित साहित्य: एक अंतर्यात्रा (2015), भारतीय दलित साहित्य: आंदोलन और चिंतन (2015) बांग्ला दलित साहित्य: सम्यक अनुशीलन (2016), केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य (2020), भक्ति कविता, किसानी और किसान आंदोलन (पुस्तिका, 2021) आदि पुस्तकें प्रकाशित. भारतीय साहित्य: एक परिचय (2005), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री से जुड़ी कहानियां (2012), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएं (2013), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी आलोचना (2015) आदि का संपादन bajrangbihari@gmail.com |
शानदार आलेख
लंबी कविताओं पर चर्चा के बहाने बजरंग जी ने दलित कविता के ऐसे हस्ताक्षरों पर अधिक बातचीत के दरवाज़े खोले हैं, जिनके सरोकारों पर अधिक गुफ्तगू जरूरी है
जयप्रकाश लीलवान जी की ‘ राहुल गांधी पर केंद्रित कविता दूरंदेशी का अदभुत नमुना है
बजरंग बिहारी का बहुत लंबा लेख पढ़कर एक बार फिर यह लगा कि देखिए यह शख्स समतामूलक समाज का निर्माण करने वाले साहित्य को लेकर कितने बड़े अभियान में लगा है। कैसे वह हमारे समय की केंद्रीय अंतर्वस्तु का अभिज्ञान कर रहा है और कैसे उसे गहरे और आलोड़नकारी विश्लेषण के साथ पेश कर रहा है। अभिजन साहित्य के प्रतिमानों के समानांतर कैसे वह जनोन्मुख साहित्यिकता के प्रतिमान गढ़ रहा है। हिंदी साहित्य के पूरे इतिहास में यह प्रतिश्रुति अपूर्व आदर्श है। वर्णवाद को विवर्ण और विद्रूप बनाने का कार्यभार उठाने वाली कविताओं का चयन करके बजरंग बिहारी ने विषमता के विरुद्ध छेड़ी अपनी लड़ाई को और अग्रसारित किया है जहाँ कविताएँ घोषणा पत्रों में बदलती हैँ और काव्यावेग परिवर्तन के बड़े मानवीय उद्वेलन में। हिंदी में वर्णाश्रम धर्म को ढहाने में जिन्होंने अपना जीवन सौंप रखा है बजरंग बिहारी उनमें अग्रगण्य हैं। मैंने हाल में उनकी परिकल्पना से प्रकाशित हिंसा की जाति किताब पढ़ी जो दलितों पर अत्याचार, उनके उत्पीड़न और उनके बीच होती प्रतिरोधी गोलबंदी का विकल करने वाला वृत्तांत और रिपोर्ताज है।
बजरंग जी का आलेख एक बैठक में पढ गया। चार कवियों की पांच कविताओं की यह व्याख्या अपील करती है। कोई मंजा हुआ आलोचक ही इतनी संतुलित, सधी और पठनीय व्याख्या संभव कर सकता है। जयप्रकाश लीलवान से मेरी भी एक मुलाकात और कटु संवाद है। मुझे वह बहुत ही आत्ममुग्ध, बडबोला और दलित विरोधी लगे थे। लगे हाथों उन्होंने यह भी बताया था कि उन्हें नोबेल प्राइज मिलने जा रहा है। जबकि मैंने उन्हें जब पढा था तो वे महत्वपूर्ण नहीं लगे थे। बजरंग जी को मैं धन्यवाद देता हूं कि उन्होंने जयप्रकाश लीलवान की कविताओं का अर्थ इतना विस्तार से प्रकट करते हुए उन्हें अपने समय से कनेक्ट किया है और उन्हें अति महत्वपूर्ण कवि साबित कर दिया है। बजरंग जी इस तथ्य को रेखांकित करने में भी सफल हुए हैं कि फासिजम पर करारी चोट हिंदी के दलित कवि भी पूरी प्रखरता से कर रहे हैं। एक आलोचक इसी खोज के लिए जाना जाता है। राहुल गांधी पर लिखी कविता सौ फीसदी सच हो रही है। यह होती है एक कवि की दूरदृष्टि। फिर आलोचक की व्याख्या उसको सम्पूर्णता प्रदान करने का काम करती है। लेकिन सबसे अच्छा विश्लेषण बजरंग जी ने मलखान सिंह की कविता का किया है। यह अकारण नहीं है कि मलखान सिंह की कविता भी असाधारण है। बहुत-बहुत बधाई बजरंग जी।
दलित कविताओं और दलित आन्दोलनों पर बजरंग बिहारी तिवारी जी का काम असाधारण है. उनका सही और समुचित मूल्यांकन उनके बाद की पीढ़ी करेगी.
बजरंग जी दलित साहित्य और चिंतन को कितनी गहराई से आँकते हैं, इसका प्रमाण दलित साहित्य पर लिखी गई उनकी कई किताबें और साक्षात्कार हैं। पाँच लंबी कविताओं पर लिखा गया यह विनिबंध उसी की निरंतरता है। ये लंबी कविताएं हमें दलित काव्य-यात्रा के प्रति आश्वस्त करतीं हैं। इन कविताओं से गुजरते हुए बजरंग जी ने दिखलाया है कि दलित कविता किस तरह विस्तार की ओर अग्रसर है। गाँव के ‘स्टीरियो टाइप’ छवि को तोड़ना हो या समाजवादियों के प्रति आशान्वित होना हो , फासिज्म के नये चेहरे को उद्घाटित करना हो या फिर धुप्प अंधेरे में अंधेर से लड़ते हुए राहुल के प्रति उम्मीद हो… ये सारी अवधारणाएं दलित साहित्य के लिए नया है। यह रूढ़ दलित चिंतकों को विचलन लग सकता है, लेकिन आलोचक बजरंग समय की नजाकत को देखते हुए इसे शुभ-संकेत मानते हैं। यह सुदीर्घ आलेख दलित लंबी कविताओं की संभावनाशीलता को विलक्षण ढंग से प्रकाश में लाती है। बहुत- बहुत साधुवाद।
·
प्रतिष्ठित आलोचक डॉ० बजरंग बिहारी तिवारी जी काफी समय से दलित विमर्श में गम्भीर हस्तक्षेप करते रहे हैं. राजेन्द्र यादव जी ‘हंस’ में उनके लेख ससम्मान छापते रहे हैं. उन्होंने चलताऊ टिप्पणियाँ नहीं, बहुत सार्थक व महत्वपूर्ण लेखन किया है. उन्हें हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं!
बजरंग जी दलित साहित्य को मार्क्सवादी दृष्टि से देखते है।
बजरंग बिहारी तिवारी अपने समय के सवालों से जुड़े रचनात्मक प्रसंग सुदूर अतीत, मध्यकाल और आधुनिक साहित्य तक से खंगाल कर पेश करते हैं, किस रचना में भविष्य की आहट सुनायी देती है, इसे भी उनकी ज्ञानदृष्टि पहचान लेती है, यह लंबा लेख इस बात की ही पुष्टि करता है। वे दलित साहित्य में उन स्वरों को सामने लाते हैं जो दलित शोषित जन की मुक्ति के साझा संघर्ष के पक्ष में खड़े होते हैं। हिंदी में ऐसी अभूतपूर्व ज्ञानसंपदा विरल ही देखने को मिलती है जो उन्होंने अर्जित की है। मेरी शुभकामनाएं और हार्दिक साधुवाद।