भूमंडलोत्तर कहानियों के चयन और चर्चा के क्रम में इस बार विमल चंद्र पाण्डेय की चर्चित कहानी ‘उत्तर प्रदेश की खिड़की’ पर आलोचक राकेश बिहारी का आलेख- ‘प्रेम, राजनीति और बदलती हुई आर्थिक परिघटनाओं के बीच’ आपके लिए प्रस्तुत है. कहानी की पात्र नीलू कथाकार को पत्र लिखती है. इस पत्र में कुछ नरम –गरम बातें हैं. कहानी के कथ्य ही नहीं शिल्प पर भी इस पात्रा की दृष्टि है. शैली रचनात्मक तो है ही दिलचस्प भी लगेगी.
इससे पहले आप लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने (रवि बुले), शिफ्ट+कंट्रोल+आल्ट=डिलीट (आकांक्षा पारे), नाकोहस (पुरुषोत्तम अग्रवाल),अँगुरी में डसले बिया नगिनिया (अनुज), पानी (मनोज कुमार पांडेय), कायान्तर (जयश्री रॉय) पर राकेश बिहारी के आलोचनात्मक आलेख पढ़ चुके हैं.
प्रेम, राजनीति और बदलती हुई आर्थिक परिघटनाओं के बीच
(संदर्भ: विमल चंद्र पाण्डेय की कहानी ‘उत्तर प्रदेश की खिड़की’)
राकेश बिहारी
आदरणीय विमल जी,
मैं नीलू! आपकी रचना! वह लड़की, जो आपकी कहानी ‘उत्तर प्रदेश की खिड़की’ की नायिका बनते-बनते रह गई, आपको प्रणाम करती हूँ.
आपने मुझे अपनी इतनी महत्वपूर्ण कहानी का किरदार बनाया इससे मैं अभिभूत हूँ, आपकी आभारी भी. सच कहूँ तो बहुत पहले ही यह पत्र आपको लिखना चाहती थी. पर इस कहानी और इसमें उपस्थित अपने किरदार से कुछ इस तरह मोहाविष्ट रही कि तुरंत आपसे मुखातिब होना उचित नहीं लगा. और फिर कुछ वक्त तो यूं ही आदतन अपनी छत से डूबते सूरज को देखने में बीत गया. हाँ, आपने ठीक समझा, मुझे डूबते सूरज को देखना बहुत पसंद है. लेकिन मेरे सर्जक! सूर्यास्त के बाद नए सूरज की प्रतीक्षा में इंतज़ार से भरी मेरी आँखों में भी तो कभी आपने झाँका होता! मेरी आँखों में पलता सूर्योदय का वह सपना आपकी कलम की नीली स्याही से दूर रह गया, यह बात मुझे सच में कचोटती है. आपको नहीं लगता कि आप अपने कथानायक- अनहद, उसकी मन:स्थितियों और उसके व्यवहार में कुछ इस तरह उलझे रहे कि मैं इस कहानी के सैंतीस पृष्ठों में फैले होने के बावजूद अपेक्षित विस्तार नहीं प्राप्त कर सकी? आप ऐसा मत सोचिएगा कि मैंने आपको पत्र क्या लिखा कोई शिकायतनामा ही ले कर बैठ गई, मैं तो आपसे इस कहानी के उन पक्षों पर भी बात करना चाहती हूँ जिनके कारण यह अपने समय की एक जरूरी कहानी बन पाई है, लेकिन क्या करूँ कि आपसे मुखातिब होते ही सबसे पहले अपना ही गम छलका पड़ रहा है.
उस शाम मैं बहुत खुश थी जब आपने मेरे और अनहद के सपनों को एक ही नीलिमा में रंगा पाया था. लेकिन ‘उत्तर प्रदेश’ के अहाते में प्रवेश करते ही जैसे मेरा व्यक्तित्व स्वप्न और संवेदना के उस साझेपन से मुक्त होता चला गया. उस दिन मुझे सच में बहुत दुख हुआ जब अनहद ने मेरे द्वारा उसकी तनख्वाह पूछे जाने का गलत अर्थ निकाला. मेरी चिंता यह नहीं थी कि उसकी आमदनी कम है बल्कि मैं तो इस बात के लिए चिंतित थी कि हम अपने सपनों की तरफ साझे कदमों से क्यों नहीं बढ़ सकते? तभी तो उस दिन उसे दफ्तर से पार्क के शांत माहौल में ले गई ताकि उसे आश्वस्त कर सकूँ कि हम दोनों मिल कर भी अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींच सकते हैं. आप तो मेरी इस सोच को जानते थे न! लेकिन मैं अब तक नहीं समझ पाई कि आप उस दिन पार्क के अहाते में हमारे साथ कदम रखते ही उस कदर रूमानी क्यों हो गए? काश आप यह समझ पाते कि उस दिन मुझे मेरी देह ने नहीं बल्कि साझेपन के उस अहसास ने मुझे उससे घर से बाहर मिलने को विवश किया था, जिसे मैं उसके भीतर भी एक आश्वस्ति की तरह उतार देना चाहती थी. आपने इसे समझने में तनिक देर कर दी. यदि उस दिन आपने थोड़ी सी और संजीदगी दिखाई होती तो उद्भ्रांतकी गिरफ्तारी के बाद अनहद मुझे इस तरह नहीं भूल जाता. ठीक अपनी सगाई के दिन अपनी पसंद के सभी नीले परिधानों को बोरी मे भर कर पंखे से लटकाकर आत्महत्या का भ्रम रच घर छोड कर मैं सिर्फ अनहद की देह हासिल करने के लिए नहीं निकली थी कि दूसरे शहर पहुँच कर मैंने उसके बारे में पलट कर सोचा तक नहीं. आपकी यह कहानी हाथ न लगती तो मुझे यह भी पता नहीं चलता कि उद्भ्रांत नक्सली होने के आरोप में गिरफ्तार हो चुका है और उसे आज़ाद कराना ही अब अनहद की ज़िंदगी का मकसद है. उसे किसी भी तरह मुझे इस स्थिति से अवगत कराना चाहिए था. वह मुझे हर कदम पर अपने साथ पाता. एक उद्भ्रांत ही तो है, जिसे हमारे सपनों के पूरा होने की चिंता थी. काश आप अनहद तक मेरे मन की यह टीस पहुंचा पाते जिसे कभी कनुप्रिया ने कहा था –
“सुनो मेरे प्यार !
प्रगाढ़ केलि-क्षणों में अपनी अंतरंग सखी को
तुमने बाँहों में गूँथा
पर उसे इतिहास में गूँथने से हिचक क्यों गए प्रभु ?”
मैं तो पूर्व योजना के अनुरूप शहर छोड चुकी थी. पर आपको तो मेरे और अनहद के बीच सेतु की तरह रहना चाहिए था न, मेरे सर्जक! यह बात सचमुछ मुझे बहुत तकलीफ देती है कि पत्रिका के स्तंभ में हर महीने पूरी संजीदगी के साथ अनगिनत महिलाओं के प्रश्नों के उत्तर देने वाला अनहद अपनी नीलू का ही मन नहीं समझ सका. अपना सारा दुख, अपनी सारी पीड़ा अनहद के सिर डाल मैं सपने सभी आरोपों से आपको मुक्त कर देना चाहती हूँ पर यह बात चाह कर भी नहीं भूल पाती कि हम दोनों के सर्जक तो आप ही है न!
जबसे यह कहानी पढ़ी थी मन बहुत बेचैन था, आज आपसे यह सब कह कर खुद को बहुत हल्का महसूस कर रही हूँ. अब शायद इस कहानी के दूसरे पक्षों पर भी कुछ कह पाऊँ. जानते हैं, सबसे पहले इस कहानी के शिल्प ने मेरा ध्यान खींचा. महिलाओं की पत्रिका में व्यक्तिगत प्रश्नों के समाधान का स्तम्भ स्थाई होता है. पत्रिका के नाम और रूप भले बदल जाएं लेकिन इस तरह के स्तम्भ उनमें कमोबेश एक-से ही होते हैं. यह स्तम्भ स्त्री और पुरुष दोनों की अलग-अलग जरूरतों को पूरा करता है. घर में सबकी नज़रें छुपा कर अपने पिता और भाई को उन स्तंभों को पढ़ते कई बार देखा है. लेकिन इस स्तम्भ के प्रारूप का इतना रचनात्मक इस्तेमाल भी हो सकता है, वह भी कहानी के शिल्प में, पहले कभी नहीं सोचा था. अनहद के दफ्तर में उसके सहकर्मियों की चुटकी, उनके जरूरी-गैरज़रूरी प्रश्न और उन प्रश्नों के संजीदे उत्तर के बीच अनहद की झुंझलाहट, छटपटाहट और बौखलाहट से मिल कर मानव मन और व्यवहार का एक ऐसा विश्वसनीय रूपक तैयार तैयार होता है जिसमें हम सब अपने-अपने भीतर के सच का कोई न कोई टुकड़ा सहज ही देख सकते हैं.
आपके परिचय से पता चला आप पेशे से पत्रकार रहे हैं. पत्रकारिता का आपका अनुभव पूरी प्रामाणिकता के साथ कहानी में बोलता है. खुली अर्थव्यवस्था की सरकारी प्रस्तावना के बाद शिक्षा और ज्ञान के विभिन्न अनुशासन जिस तरह अलग अलग विभागों के लिए ‘प्रोफेशनल्स’तैयार करने के कारखाने में तब्दील हो गए हैं, उससे पत्रकारिता जगत भी अछूता नहीं है. लेकिन बाहरी चमक-दमक के पीछे की दुनिया का अंधेरा कितना सघन और स्याह हो सकता है, इसे मैंने इस कहानी में पूरी शिद्दत के साथ महसूस किया.
प्रेम, राजनीति और बदलती हुई आर्थिक परिघटनाओं को एक ही धरातल पर जिस समान पक्षधरता के साथ आपने उठाया है, उससे मैं प्रभावित हूँ. मेरे और अनहद के संबंधों के समानान्तर बंद पड़े चीनी मिल और अनहद के पिता तथा उनके सहकर्मियों का संघर्ष जहां पहले निगमीकरण और उसके बाद के कृत्रिम विनिवेश की भयावह और सुनियोजित सरकारी साज़िशों का खुलासा करता हैं, वहीं नीला रंग, हाथी और साइकिल के मुखर प्रतीक प्रत्यक्षतः उत्तर प्रदेश की राजनीति को और सूक्ष्म रूप में पूरे देश में व्याप्त राजनैतिक विकल्पहीनता की स्थिति को सरेआम करते हैं. इस विकल्पहीन राजनैतिक विडम्बना को उद्भ्रांत के ये शब्द कितनी अच्छी तरह विश्लेषित करते हैं न –
“न तो सायकिल और हाथी में कोई फर्क होता है और न ही दुनिया के किसी भी फूल और शरीर के किसी भी अंग में. मुख्य बात तो वह सड़क होती है जिधर से वह सायकिल या हाथी निकलते हैं. सड़क मजेदार हो तो जितना खतरनाक झूमता हुआ हाथी होता है, सायकिल उससे रत्ती भर कम ख़तरनारक नहीं.”
आह! कितना क्रूर लेकिन सच है यह प्रतीक जिसमें हाथी और सायकिल मनुष्य और मनुष्यता को मजेदार सड़क की तरह रौंदते चलें. दलीय पक्षधरता से ऊपर उठकर समय-सत्य को इस निष्पक्षता से रेखांकित किए जाने में भी मैंने आपकी पत्रकारीय तटस्थता को सहज ही महसूस किया. काश! यह तटस्थता टेलीविज़न पर होने वाली परिचर्चाओं के दौरान वहाँ उपस्थित पत्रकारों में भी हम देख पाते.
कहानी में उपस्थित दृश्य और परिस्थितियों के समानान्तर प्रश्न और उत्तर का सिलसिला कहानी को रोचक तो बनाता ही है अपनी प्रसंगानुकूल मौजूदगी के कारण कहानी को संवेदना के उच्चतम धरातल पर अभिव्यंजित भी करता है. मैंने गौर किया है कि इधर कहानियों को उपशीर्षकों में बांट कर लिखने का फैशन-सा बन गया है. कई बार ये उपशीर्षक इतने निरर्थक और पाठ-अवरोधक होते हैं कि पूछिये मत. इसलिए इस कहानी में उपशीर्षकों को देख कर एकबारगी तो मैं डर गई थी, लेकिन ज्यों-ज्यों कहानी में उतरती गई मेरा वह डर हवा होता गया. ‘बचपन सबसे तेज उड़ने वाली चिड़िया का नाम है’, ‘नीला रंग भगवान का रंग होता है’, ‘जब घर की रौनक बढ़ानी हो’, ‘नीला रंग बहुत खतरनाक है’, ‘उत्तर प्रदेश में सवालों के जवाब नहीं दिये जाते’, ‘यूपी में है दम क्योंकि जुर्म यहाँ है कम’और ‘इस कदर कायर हूँ कि उत्तर प्रदेश हूँ’ जैसे उपशीर्षक अपने भीतर निहित मारक ध्वन्यार्थों के कारण कहानी में बहुत कुछ जोड़ते हैं. इस पूरी प्रक्रिया में समकालीन राजनैतिक व्यवस्था कब और कैसे खुद एक जीवंत पात्र की तरह हमारे बीच खड़ी हो जाती है, हमें पता ही नहीं चलता.
कहना न होगा कि व्यवस्था और समकालीनता को एक पात्र की तरह खड़ा कर देना जहां इस कहानी को विशिष्ट बनाता है वहीं चीनी मिल से संबन्धित प्रसंग कुछ तकनीकी त्रुटियों के कारण अपेक्षित प्रभाव नहीं छोडते. आपको याद हो कि कहानी में संदर्भित चीनी मिल जो 90 वर्ष पुराना है और जिसमें अनहद के पिता सुपरवाइज़र की नौकरी करते हैं, को आपने मूलत: नूरी मियां का बताया है जिसे उनके इंतकाल के कुछ दशक बाद तत्कालीन सरकार ने उनके परिवार की रज़ामंदी से अधिगृहित कर लिया था. यहाँ बहुत विनम्रता से कहना चाहती हूँ कि किसी मिल या फैक्ट्री का अधिग्रहण एक जटिल कानूनी प्रक्रिया है. सरकार किसी मिल का अधिग्रहण सामान्यतया दो ही स्थितियों में कर सकती है – मालिक की मृत्यु के पश्चात वारिस के अभाव में या फिर राष्ट्रहित में. और एक बार किसी मिल का अधिग्रहण हो गया फिर उसका मालिक सरकार हो जाती है, कोई व्यक्ति नहीं. गौरतलब है कि कहानी के बाद के दृश्य में किसी अंसारी साहब को मालिक बताते हुये उन पर दस हजार करोड़ के कर्जे की बात भी कही गई है. माफ कीजिएगा, अपेक्षित शोध के अभाव में यह पूरा प्रकरण राजनैतिक प्रतिरोध की चालू समझ के आधार पर गढ़ा गया मालूम होता है.
मेरी यह बात अधूरी होगी यदि उद्भ्रांत के लिए कुछ अलग से न कहूँ. वह है तो अनहद का छोटा भाई और मुझसे उसका कोई सीधा सबंध भी नहीं रहा लेकिन जिस आत्मीय तन्मयता के साथ उसने अनहद को मेरे साथ जीवन साझा करने केलिए प्रेरित किया था उस कारण उससे एक अनकहा-सा लगाव महसूस करती हूँ. किसानों और उनकी जमीन के लिए उसकी आँखों मे पलते सपने आज के समय की बहुत बड़ी जरूरत हैं. पूँजीपतियों के फायदे के लिए संवेदनशील और प्रतिबद्ध सरकारें जाने कब उधर की रुख करेंगी. फिलहाल सरकारी प्रतिबद्धताओं के जिस स्वरूप का उदघाटन यह कहानी करती है वह विकास की विकलांग अवधारणाओं का ही नतीजा है – “हाथी सजधज कर, अपने दांतों को हीरे पन्नों से सजा कर और इन दयालु लोगों का दिया हुआ मोतियों जड़ा जाजिम पहन कर खेतों की ओर निकल गया है. वह जिन-जिन खेतों से होकर गुज़रेगा, उन खेतों की किस्मत बदल जायेगी. वहां खेती जैसा पिछड़ा हुआ काम रोक कर बड़ी-बड़ी इमारतें, चमचमाती सड़कें बनायी जायेंगीं. जिस पर से होकर बड़े-बड़े दयालु लोगों की बड़ी-बड़ी गाड़ियां गुज़रेंगीं.”
अधिग्रहण और विनिवेश की वर्तमान अर्थनीति का एक सिरा ऐसे दृश्यों से भी जुड़ता है. कहने की जरूरत नहीं कि आज हमें एक नहीं कई-कई उद्भ्रांतों की जरूरत है.
कुल मिलाकर भूमंडलीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद देश में हो रहे आर्थिक बदलावों के बीच फैली भयावह राजनैतिक विकल्पहीनता और आम आदमी के सपनों के संघर्ष को जिस अपनेपन के साथ यह कहानी रेखांकित करती है वह इसे इधर की कहानियों में महत्वपूर्ण बनाता है. लेकिन आम आदमी के सपनों का यह संघर्ष किसी कारगर नतीजे पर पहुंचे उसके लिए मुझ जैसी नीलुओं को भी इतिहास में गूँथने की जरूरत है. उम्मीद है आपकी अगली कहानियों में इतिहास में गूँथा जाता अपना वह चेहरा जल्दी ही देख पाउंगी. आपने छोटा मुंह बड़ी बात वाले मेरे इस खत को अपना कीमती वक्त दिया इसके लिए आपका बहुत आभार!
आदर और शुभकामनाओं सहित
आपकी अपनी ही
नीलू
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