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Home » मंगलाचार : ज्योत्स्ना पाण्डेय

मंगलाचार : ज्योत्स्ना पाण्डेय

पेंटिग :  Paresh Maity : MOONLIGHT ज्योत्स्ना अर्से से कविताएँ लिख रही हैं. तमाम पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. वैविध्य पूर्ण काव्य- संसार तो है ही शिल्प पर भी मेहनत दिखती है. ज्योत्स्ना पाण्डेय की कविताएँ                   कुमार गन्धर्व साधना  की चकरी पर  साँसें  कभी चढ़ती, कभी उतरती कि […]

by arun dev
November 24, 2015
in कविता, साहित्य
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पेंटिग :  Paresh Maity : MOONLIGHT




ज्योत्स्ना अर्से से कविताएँ लिख रही हैं. तमाम पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. वैविध्य पूर्ण काव्य- संसार तो है ही शिल्प पर भी मेहनत दिखती है. 






ज्योत्स्ना पाण्डेय की कविताएँ                  




कुमार गन्धर्व

साधना  की चकरी पर 
साँसें 
कभी चढ़ती, कभी उतरती
कि गले से गुजरते हुए 
बहक न जाएँ 
शब्दों के मतलब 
शब्द——
वही जिनसे 
बूँद बूँद रिसता है कबीर 
भिगोता है आत्मा 
बस ! उनकी ही 
जो जानने लगे हैं खुद को 
या कि उसकी 
जिसकी साधना में 
सुध खोया  परमात्मा 
अब तक लटका है 
दीर्घ षडज पर.  

सरल रेखाएँ 

सरल रेखाओं की तरह 
अनंत तक 
साथ चलते हुए, 
सिद्ध किया तुमने कि 
प्रेम है 
एक टीस भरी, सुखद प्रक्रिया…
यदि हो जातीं रेखाएँ वक्र,
तो, किसी बिन्दु पर आकर, मिलतीं 
और आगे निकल जातीं
या ठहर जातीं ,
उसी एक बिन्दु पर ….
फिर सिद्ध किया तुमने कि  
प्रेम है,
सतत्  बहने वाली विलक्षण प्रक्रिया 
जिसमें कोई ठहराव नहीं,
न ही कोई वक्रता—-
बस! हैं तो सीधी और सरल रेखाएँ …..
(उदय प्रकाश जी कि \”सरल रेखाएँ\” पढते हुए) 

चिट्ठी 

नहीं, मोबाइल नहीं था तब 
जो कानों के परदे पर 
लिख देता तुम्हारे शब्द 
नीला आसमान इबारत बन 
होता गया चिट्ठी 
चिट्ठी, जो \’प्यारी गुडिया\’ से शुरू होकर 
\’ढेर सारा प्यार,
तुम्हारा पापा\’ पर खत्म हो जाती 
मैंने कभी नहीं खुरचे 
वे अनमोल शब्द 
जो महारंध्र से रिसकर बहते हैं 
धीरे-धीरे मेरे भीतर 
नसों के नीलेपन में 
आँखों की पुतलियों पर बजतें हैं 
रिकार्ड (विनाएल) पर की गई पेंटिंग की तरह 
तुम्हारी अंतिम पीड़ा के दृश्य-
जब अचानक ही 
मेरे सिर से फिसल कर तुम्हारे हाथ 
लिपट गए थे श्वेत में 
एकांत बच्चा बन 
ढूँढता है तुम्हारा स्पर्श 
खेलता है आँख मिचौnii
कि बंद आँखों के खुलते ही सच हो जाए झूठा 
भिंची आँखें, 
मौन की खिड़की- 
दिखते हैं असंख्य इन्द्रधनुष 
उस नीली लौ के बीच 
जहाँ आत्मा से होकर गुजरता है परमात्मा 
धवल प्रकाश  
खड़े हो तुम 
शांत, सद्यस्नात 
करते हो प्रार्थनाएं 
प्रार्थनाएं, जिससे वृक्ष लिखते थे जंगल 
और आकाश हो जाता मेरी आँख 
जहाँ स्वप्न हो जाते डाकिया 
दे जाते हौसलों की चिट्ठी-
प्यारी गुडिया, ढेर सारा प्यार 
तुम्हारा पापा.

गोबरधनिया 

कि वे आज भी वैसी ही हैं
जैसे पत्थरों पर छैनी से 
किसी ने उन्हें तराशा और वे वहीँ रुक गईं हों
जम गई हों 
अपने ही पत्थर में
दीवार में कटी, दीवार पर चिपकी 
दीवार से झरी,  गोबरधनिया

कि उन्हें तो वैसे ही दीखते रहना चाहिए
जैसे आकाश में ध्रुव
कि इन्हें अटल रहने का अभिशाप है

सिर पर वही  बॉस की टोकरी 

बगल में छोटी-सी बाल्टी
जिसमें कई सदियाँ गिरीं और बन गईं गोबरधनियाँ
जिसमें कई युग ढेर हुए
और उसकी गंध के बीच जब भी रंभाने की आवाज़ उठी
तो ये आवाज़ उनकी ही थी या खूंटे की ?
कौन जाने ?

वे बची हैं आज तक हमारे लिए
उतनी ही जितनी गोबर को जरुरत है पानी की


वाह !
उनकी मौलिकता
विरासत में मिली कामधेनु !
जिसके दूध दुहने और गोबर लीपने में
उन्होंने अपनी संततियों के देखे ख्वाब
और ख्वाबगाह सी उनकी बेचैन देह
ग्रामश्री के खूंटे पर जस की तस ?

तिस पर उन्हें तो जानना ही है
पानी और गोबर का अनुपात
ये गणित उनके राशिफल में सबसे अधिक रहा ताकतवर

और वाह रे ! इनकी राम रटन्त
कि इनके कंठ में कब, किसने भरे सूर, कबीर, तुलसी

वे गाती हैं अपना ही जीवन  
\”अब लौ नसानी, अब न नसइहौं\” 
कि इन्होने अपना ही जीवन रटा
सीखा बार-बार
हम औरतें नहीं
गोबर की गोबरधनियाँ हैं
थापेंगी तो गोबर
पाथेंगी तो गोबर
और चिपक जायेंगी दीवार से 
उपलों की तरह 
ऐसी गोबर गणेश भी नहीं
दर्शन भी जानती हैं ये 
कि सूखने के बाद 
जलने को तैयार उपले 
छोड़ देंगे दीवार का मोह 
    
कच्ची दीवार पर  
उपलों को थापती 
छाप देती हैं अपना भूत, भविष्य और वर्तमान
  
लकीरें बोलती हैं अनबोला  
उनके हाथ, उनका भरोसा 
उनका भरोसा, उनकी रोटी 
और रोटी के साथ पसीने भर नमक
दिन की खट-खट के बाद  
रात की नीरवता में  
तारे राख की तरह उतरते हैं आँख में 
कि जब जलेंगे ये उपले  रात के साथ 
तो बुझेगी भूख –
आँखों में जिजीविषा जल उठती है 
उम्मीद की लौह नदी
बहती है रगों में  
वक्त के चूल्हे में 
उपलों-सी देह लिए 
वे जीती हैं जीवन  
भूख से आग के रिश्ते जैसा   
आग की ये सुरखाब चिड़ियाँ
सूरज तक एक बार उड़ तो जाएँ
जलेंगी
तो इनकी राख से बार-बार पैदा होगी वही चिड़िया

जो एक दिन जानेगी कि
वह उपला नहीं
गोबरधनिया नहीं

क्यों पाथे उपला
क्यों पाथे आकाश ?

कहानियाँ

खौलते कदमों के साथ 
दौड़ती हैं कहानियाँ 
पक्की सड़क पर 
इनकी पीठ पर आदिम छाले हैं 
थोड़ी जिद कि अपना होना 
यहाँ हो जाए दर्ज 
थोड़ी नमी दर्द की
पीठ सहलाती, बढाती हौसला  – कि दौड़ो,
दौड़ो उन किनारों पर
जहाँ मिलता है समंदर से आसमान
उलीचता है बालू 
खोल दो वहीँ पर अपने केश  
कि बरसे उनसे नमी और नमक
थोडा बादल भी झरने दो —-
बालू और बादल पर, 
आसान नहीं पदचिह्न छोड़ना 
निशानों को घुलना रहता है लहरों में 
लहरों का अंतर्मन 
पानी में घुलती नमक की डली —-
नमक है कि भर जाता है छालो में 
रेत को जिद छलक आये रक्त से चिपकने की 
और टीस –
इसका तो अपना ही एक मरुदेश है —- 
कहानियाँ हो जाती हैं नागफनी 
जमा लेती हैं अपने पाँव 
रेत में गहरे तक 
हवा से अपने हिस्से की नमी सोख 
वे एक चेतावनी विहँसती हैं- 
कि \’उखाड़ो मुझे, उजाड़ो मुझे 
खरोंच दूँगी ,
मुझे नकारे जाने के सभी दस्तावेज़\’ —-
कहानियाँ लिखी हुई स्त्री हैं —

कविता  

देह की देहरी पर
जलती है कविता
अँधेरे में दीप-सी 
कि तिरते हैं शब्द
कांपती है चमक
हिलते हैं रक्तकण
बेचैनियों की ध्वनि से लौटते हैं शब्द

कहरवे पर समय के हाथ
लय उठती है, गिरती है
उँगलियों से भाषा पिघलती है

निगलती है रगों से धुआँ

एक गुफा बोलती है चित्रलिपि में 
एक झरना भिगोता है उसके पैर 
झरने की आवाज़ सुनाई देती है
दूर तक
कल-कल-कल

बिम्ब से बाहर आती है कविता
बूंदों  को पीती है 
धीरे-धीरे 
भावों की पृथ्वी पर 
घास रखती है कदम  
हटाती है पत्थर 
जहाँ लेटा था सूरज हाथों पर जलाए  
धूप की लौ 

ठहर जाती हूँ मैं
लौ के ठीक नीचे
जहाँ तरल और मृदु से बन रही है मृदा
बन रहा है दीप
बन रहा है दुःख
बन रहा है सुख 

एक देह से रोने की आवाज़ 
जोर से उठी
हाथ हिले

औरत की पसली से अभी
जन्मी है कविता .  

_____________________________
jyotsnapandey1967@gmail.com
Tags: ज्योत्स्ना पाण्डेय
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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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