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Home » विष्णु खरे : भीषम साहनी हाज़िर हो

विष्णु खरे : भीषम साहनी हाज़िर हो

भीष्म साहनी की जन्मशतवार्षिकी पर यह मुनासिब है कि उनकी अदबी, इल्मी, ड्रामाई और फिल्मी दुनियाओं को न सिर्फ फिर से देखा-पढ़ा जाए बल्कि उनके आपसी रिश्तों की बारीकियों को समझ कर उनकी खुसूसियत से रूबरू भी हुआ जाए, जिससे उनकी मुकम्मल शख्सियत सामने आये और उनके असर का ठीक –ठीक पता चल सके. कवि-आलोचक […]

by arun dev
August 16, 2015
in फ़िल्म
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भीष्म साहनी की जन्मशतवार्षिकी पर यह मुनासिब है कि उनकी अदबी, इल्मी, ड्रामाई और फिल्मी दुनियाओं को न सिर्फ फिर से देखा-पढ़ा जाए बल्कि उनके आपसी रिश्तों की बारीकियों को समझ कर उनकी खुसूसियत से रूबरू भी हुआ जाए, जिससे उनकी मुकम्मल शख्सियत सामने आये और उनके असर का ठीक –ठीक पता चल सके.

कवि-आलोचक और फ़िल्म मीमांसक विष्णु खरे का यह आत्मीय आलेख जो ‘भीषम साहनी’ के इसी पूरेपन को दृष्टि में रखकर लिखा गया है, आज खास आपके लिए.
भीषम साहनी हाज़िर हो                                         
विष्णु खरे 

सभी को मालूम है कि उस महानाम के सही हिज्जे ‘भीष्म’ हैं लेकिन जब स्वयं उसका धारक  उसे ‘भीषम’ कहे, लिखे, पुकारे जाने पर क़तई एतराज़ न करे तो कोई क्या कर सकता है! उस पर तुर्रा यह था कि उनके नाती-पोतों की उम्र के छोकरे भी उन्हें ‘भीषम भाई’ कहकर संबोधित करते थे. महाभारत के भीष्म में जितनी अग्नि धधकती रही होगी,  भीष्म साहनी (8 अगस्त 1915 – 11 जुलाई 2003) उतने ही ग़मखोर थे. मार्क्स और साम्यवाद  में उनकी गहरी आस्था थी, पार्टी के कार्ड-होल्डर तो थे ही, लेकिन इसे किसी नुमाइशी कड़े-कलावे की तरह पहनते न थे. उन्हें देखकर ही विश्वास होता था कि एक सच्चा कम्यूनिस्ट एक सुषुप्त ज्वालामुखी होता है.

फ़िलहाल यह जगह उनके निजी या साहित्यिक संस्मरणों की नहीं, हालाँकि मैं उन्हें 1968-69 से जानता था और दिल्ली के ईस्ट पटेल नगर में उनका पैदल-दूरी का पड़ोसी भी था, बल्कि ‘’तमस’’धारावाहिक के रूप में सारे दक्षिण एशिया में उनके लावे के फूट निकलने की तपिश को फिर महसूस करने की है. हमें नहीं मालूम कि 1974 में प्रकाशन और फिर साहित्य अकादेमी पुरस्कार के बाद कितने पाठक किन भाषाओं में भीषम भाई  के मूल उपन्यास को पढ़ चुके हैं और 1987 में ‘’दूरदर्शन’’ पर 6 क़िस्तों, और बहुत बाद में एक दूसरी चैनल पर 8 क़िस्तों, में दिखाए गए इस कुल चार घंटे के सीरियल को कितने लाख या करोड़ दर्शक देख चुके हैं और अब चार डीवीडी-वाले उसके ताज़ा, सर्वसुलभ संस्करण को दुनिया में कहाँ-कहाँ चलाया जा रहा होगा. हम यही कह सकते हैं कि ‘’तमस’’ असाहित्यिक दर्शकों के बीच भी इतना जीवंत और लोकप्रिय साबित हुआ कि एक कालजयी, ’कल्ट स्टैटस’ हासिल कर चुका है. सफल या कला-धारावाहिकों को एक कल्पनाशील निदेशक काट-छाँटकर एक सुसाध्य, भले ही कुछ लम्बी,फ़ीचर-फिल्म का रूप दे सकता है. हम यहाँ ‘’तमस’’ के इस डीवीडी सैट को एक फिल्म मानकर ही चलेगे.

जो कि एक अद्भुत फ़िनॉमेनन है. आप इस पर गोधूलि-वेला तक बहस कर सकते हैं कि जब ‘तमस’ एक ‘बड़ा’ उपन्यास था ही तो गोविन्द निहालाणी ने कौन-सा हाथी के मर्मस्थल पर तीर मार दिया कि उस पर कामयाब सीरियल बना डाला. लेकिन संसार में हर हफ़्ते एक ऐसी फिल्म रिलीज़ होती है जो किसी क्लासिक पर बनी बताई जाती है और घटोत्कच की तरह उसे ही लिए-दिए धराशायी हो जाती है. शायद खुद निहालाणी कभी ऐसा कारनामा अंजाम दे चुके हों. हर विधा के सर्जक के साथ कभी-न-कभी ऐसा हो जाता है. मणि कौल ने मुक्तिबोध की कालजयी रचना ‘अँधेरे में’ पर एक विनाशक फिल्म बनाई, जिसमें प्रोड्यूसर से लेकर भोपाल के अन्य विविध मीडियाकरों तक का योगदान था, लेकिन उन्हींने विनोदकुमार शुक्ल के कठिनतर उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ पर गुणग्राही दर्शकों को सत्यजित राय की टक्कर का सिनेमा दे दिया.

बहरहाल, स्वयं भारत-विभाजन के सपरिवार भुक्तभोगी होने के कारण निहालाणी को, जो तब तक एक सार्थक निदेशक के रूप में स्थापित हो चुके थे, पार्टीशन पर फिल्म बनाने के लिए एक उपयुक्त कृति की तलाश थी लेकिन जब उन्होंने यशपाल का जटिल, सुदीर्घ, लिहाज़ा लगभग अपाठ्य, उपन्यास ‘’झूठा सच’’देखा तो उनके छक्के छूट गए. यह भीषम भाई, हिंदी साहित्य, भारतीय टेली-सिनेमा और स्वयं निहालाणी का सौभाग्य था कि उसके बाद उन्हें ‘तमस’ पढ़ने को मिला. वह उनका ‘यूरेका’ क्षण था. यहाँ यह सूचना अनिवार्य है कि करीब साठ वर्ष पहले अपने ‘’आरज़ू’’ और ‘’रामायण’’ वाले रामानंद सागर, जो शायद तब वामपंथी रुझान के थे, बँटवारे पर एक भावनापूर्ण उपन्यास ‘’और इंसान मर गया’’ लिख चुके थे, जो क्या पता अब उपलब्ध है भी या नहीं, लेकिन खण्डवा के मुझ तत्कालीन 16-वर्षीय मैट्रिक छात्र को बहुत विचलित कर गया था – अब पढूँ तो पता नहीं कैसा लगे.

भीषम भाई ख़ुशक़िस्मत थे कि उनके बड़े भाई का नाम बलराज साहनी था, उनकी तरह वह भी अंग्रेज़ी के अच्छे एम.ए.थे, शुरूआत में गाँधी-नेहरूवादी कांग्रेसी ज़रूर  थे लेकिन बड़े भाई की देखा-सीखी सुविख्यात वामपंथी नाट्यमंडली ‘’इप्टा’’ में काम करते-करते जो कम्यूनिस्ट हुए तो ताज़िंदगी वही रहे. क्या यह मात्र संयोग है कि हिंदी में तक़सीम पर बड़ा काम प्रगतिकामी, प्रबुद्ध प्रतिभाओं ने ही किया है ? बहरहाल, बीच में भीषम भाई कुछ बरस तत्कालीन सोवियत रूस जाकर मूल रूसी में महारत हासिल करने के बाद  वहाँ प्रगतिशील साहित्य के सर्वश्रेष्ठ अनुवाद भी कर आए. इस तरह फ़ौलाद को सान चढ़ी.


एक अद्वितीय मणिकांचनसंयोग में भीषम- ‘तमस’- गोविन्द साथ हुए. यदि सर्वाधिक बेहतरीन हिन्दीभाषी अभिनेताओं को किसी फिल्म में लेने का कीर्तिमान  ‘गिनेस (जिसे जाहिल ‘गिनीज़’ लिखते हैं) बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स’ में दर्ज़ किया जाता हो तो वह ‘तमस’ के खाते में ही जाएगा: ओम पुरी, दीपा साही, अमरीश पुरी, ए.के.हंगल, मनोहर सिंह, सईद जाफ़री, सुरेखा  सीकरी, उत्तरा बावकर, वीरेन्द्र सक्सेना, इफ़्तिख़ार, दीना पाठक, पंकज कपूर, के.के.रैना, बैरी जॉन. दुबारा ऐसी कास्टिंग यूँ भी नामुमकिन है क्योंकि अव्वल तो  यह सब गोविन्द निहालाणी की प्रतिष्ठा और मैत्री के कारण ही ‘तमस’ से जुड़े और दूसरे यह  कि शौक़िया लेकिन उम्दा अदाकार भीषम भाई के साथ-साथ अमरीश पुरी, हंगल, मनोहर सिंह, इफ़्तिख़ार और दीना पाठक अब हमें कभी हासिल हो नहीं सकते. ऐसा भूतो न भविष्यति ‘आँसाँब्ल’ पाने के लिये तो कोई अपना जननपिंड-दान तक कर सकता है.

लेकिन यहाँ एक ग़ुस्ताख़ नाइत्तिफ़ाक़ी लाज़िमी लगती है. भारत के बँटवारे में लाखों हिन्दू-मुसलमान  क़त्ल हुए हैं और वह एक ऐसा नासूर है जो 1947 के बाद भी अलग-अलग भेसों में दोतरफ़ा मल्कुल्मौत बना हुआ है. तक़सीम ने सारी दुनिया के हिन्दू-मुस्लिम डायस्पोरा को भी तक़सीम कर रखा है. भावुक आदर्शवाद से बात बन नहीं पा रही है. पार्टीशन पर जितना और जैसा लिखा जाना चाहिए था, उसका जैसा असर होना चाहिए था, वैसा दोनों तरफ हो नहीं पाया. इसे हम दक्षिण एशिया का ‘होलोकास्ट’ कह सकते हैं हैं लेकिन मूल होलोकास्ट पर यहूदियों और ग़ैर-यहूदियों ने जिस स्तर का और जितना संस्मरण, गल्प,शोध और चिंतन-साहित्य  लिखा है हम उसकी खुरचन तक नहीं दे  पाए हैं. विभाजन-साहित्य का एक साँचा, ढर्रा, ’क्लिशे’ बन गया है (चाहे-अनचाहे ’तमस’ भी उसका शिकार है) जो सर्कस में रस्सी पर साइकिल चलाने का संतुलित तराज़ूई कमाल दिखाने की राहत के साथ तम्बू के पीछे अगली नुमाइश के लिए दौड़ जाता है.

हमारे हर ऐसे इंडो-पाक अफ़साने, नावेल या फ़िल्म में तक़रीबन यही होता है. यह नहीं कि उनका कुछ असर नहीं होता होगा, उन्होंने शायद कुछ आशंकित हिंसा को रोका भी  हो, लेकिन सिर्फ हिन्दुस्तान को लें तो क्या ‘तमस’ के बाद बाबरी मस्जिद, मेरठ, गुजरात नहीं हुए और आगे नहीं होंगे ? गुजरात के सूबेदार  तो अब तख़्त-ए-सल्तनत-ए-देहली पर अक्सरीयत से जलवाफ़रोश हैं. दूसरी तरफ़ 26/11,तालिबान, बोको हराम, दवला-ए-इस्लाम दैश के बाद कौन-सी वबा नाजिल होगी ? हम दयनीय, जाहिल, कायर और चालाक़ गर्व के साथ कहते हैं कि प्रेमचंद से लेकर भीष्म साहनी सब हर दिन अधिक प्रासंगिक होते जाते हैं, लेकिन ऐसी  प्रासंगिकता के  बासी   अचार से गँधाती रोटी कब तक खाएँ  जो अपने ही  भयावह जन्मदाता  कारणों को हमेशा के लिए अप्रासंगिक न बना सके ? ‘’प्रासंगिकता’’ की विडंबना पर विश्व-साहित्यालोचन में कोई विचार नहीं हुआ दीखता है. भारत  में हालात बदलने के लिए राजनीति को जो नरसिंह या छिन्नमस्ता का अवतार लेना पड़ेगा, क्या उसके लिए हमारे सारे सर्जक-बुद्धिजीवी  तैयार हैं?

भीषम साहनी इस विडंबना से आगाह थे और इसीलिए कम-से-कम वह अपनी प्रतिबद्धता पर अडिग रहे. उनके चैक पार्श्वभूमि वाले नाटक ‘’हानुश’’ में यह देखा जा सकता है. विचित्र किन्तु  सुखद संयोग है कि हिंदी के दो परस्पर छोटे-बड़े लेखक-अभिनेता किशोर साहू और भीषम भाई  की जन्मशतियाँ इसी वर्ष दो महीनों के भीतर पड़ रही हैं.  ’तमस’ से दो वर्ष पहले भीषम भाई में एक जिद्दी, धुनी मृदुभाषी सक्रियतावादी तथा अभिनेता को पहचानते हुए सईद मिर्ज़ा ने अपनी फीचर-फिल्म ‘’मोहन जोशी हाज़िर हो’’ में उन्हें बुज़ुर्ग समनाम नायक की भूमिका  दी थी जो उनका सिनेमाई अरंगेत्रं था.उसमें वह ‘सारांश’के अनुपम खेर की तरह सराहे गए.’तमस’ के बाद 1993 में विश्वविख्यात इतालवी निदेशक बेर्नार्दो बेर्तोलुच्ची की फिल्म ‘दि लिटिल बुद्ध’ में उन्होंने असित नामक पात्र का बहुत छोटा रोल किया. उन्हें फिल्मों में आख़िरी बार ‘मिस्टर एंड मिसेज़ अय्यर’में रूढ़िवादी मुस्लिम बुज़ुर्ग इक़बाल अहमद खान के कामयाब किरदार में 2002 में  देखा गया.

सत्तावन बरस पहले जब वह मुम्बई ‘इप्टा’ में थे तब तैंतीस बरस के हो चुके थे और बलराज साहनी का ख़ूबरू छोटा भाई होने के बावजूद उन्हें अगर मिलते भी तो दूसरी कतार के रोल ही मिलते. ख़ुद बलराज को फ़िल्मी जंगल में दिलीप-राज-देव जैसे धाकड़ आदमखोरों के बीच अस्तित्व के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा था. भीषम भाई एक्टर बनने के पीछे भागे नहीं, लेकिन भले ही अपने अंतिम वर्षों में, उन्होंने   बड़े भाई बलराज की ग़ैर-मौजूदगी में सिनेमा के इजलास में भी एक कौतुक की तरह अपनी ‘’देर आयद दुरुस्त आयद’’ हाज़िरी दर्ज कर दी. अदबी दुनिया में तो वह कभी के ‘’छोटे मियाँ सुब्हानअल्लाह’’ हो चुके थे. भारतीय समाज पर घिरा हुआ तमस जल्दी छँटने वाला नहीं, ’तमस’ का महत्व जल्दी घटने वाला नहीं.
____________________

(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल ) 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060
Tags: भीषम साहनी
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