आलोचना की २१ वीं सदी की जो पहचान हिंदी में निर्मित हुई है, उसमें शामिल युवा आलोचकों में बजरंग बिहारी तिवारी का नाम प्रमुखता से उभर कर सामने आया है. भक्ति साहित्य के वह गंभीर अध्येता तो हैं हीं भारतीय भाषाओँ में दलित साहित्य की जिस तरह से उन्होंने पड़ताल की है वह भी स्थायी महत्व का है.
‘संत’ और ‘सीकरी’ के रिश्ते बहुत पुराने हैं. कवियों ने तरह-तरह से शासन की सत्ता को अनुशासित किया है. बजरंग बिहारी तिवारी का यह लेख इसी आधारभूमि पर है.
साहित्य का स्व-भाव और राजसत्ता
बजरंग बिहारी तिवारी
भारतीय मानस धर्मप्राण है इसलिए भारतीय साहित्य अपने स्वभाव में अध्यात्मवादी, रहस्यवादी है; यह धारणा औपनिवेशिक दौर में बनी. राजनीति में साहित्य की दिलचस्पी आधुनिक काल में शुरू होती है; इस बेबुनियाद मान्यता की निर्मिति भी अंगरेजी शासन की देन है. वास्तविकता यह है कि भारतीय साहित्यकारों ने प्राचीनकाल से ही राजसत्ता में गहरी रूचि ली और और उसे अपनी सर्जना का विषय बनाया.
‘मुद्राराक्षस’ जैसा शुद्ध राजनीतिक नाटक साहित्य में मजबूत राजनीतिक विचार-परंपरा के बगैर नहीं लिखा जा सकता था. विशाखदत्त रचित पांचवीं शताब्दी के इस नाटक में न कोई योद्धा नायक है और न ही श्रृंगार भाव पैदा करने वाली नायिका. है तो गंभीर राजनय. जिन साहित्य-रसिकों और आलोचकों को लगता है कि साहित्य विवेचन में राजनीति, अर्थनीति आदि विषयों से जुड़े मुद्दों को लाकर साहित्य की स्वायत्तता बिगाड़ दी जाती है और उसे अन्य ज्ञानानुशासनों का उपनिवेश बना दिया जाता है उन्हें नवीं शताब्दी के राजशेखर को पढ़ना चाहिए. ‘काव्यमीमांसा’ में राजशेखर ने लिखा है कि परंपरया चार मुख्य विद्याएँ हैं- त्रयी, वार्ता, आन्वीक्षकी और दण्डनीति. इन्हें क्रमशः धार्मिक वांगमय, कृषि एवं वाणिज्य, तर्कशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र कह सकते हैं. साहित्य पांचवीं विद्या है और वह शेष सभी विद्याओं का ‘निस्यंद’ –टिकने का स्थान है. नाटककार तथा काव्यशास्त्री होने के साथ राजशेखर खुद भूगोलवेत्ता थे और उन्होंने इस विषय पर ‘भुवनकोश’ नामक ग्रंथ भी लिखा था. वे कन्नौज के राजा महेन्द्रपाल के गुरु थे.
प्राचीनकाल से कवियों का एक ठिकाना राजसभा भी रही है. राजसभा में जाने का अर्थ यह नहीं था कि कवि राजा का चरित लिखेगा, उसकी प्रशस्ति करेगा और उसके अपकर्मों का औचित्य जुटाएगा. जो ऐसा करते थे उनके लिए एक भिन्न कोटि बनाई गई. इन्हें चारण, भाट, विरुदावलीगायक, चाटुकार आदि कहा गया. भाटों का लिखा हुआ उत्तम कोटि के साहित्य में कभी नहीं गिना गया. काव्य विवेचन के प्रसंग में काव्यशास्त्रियों ने विरुदगायकों की रचनाओं को उद्धृत करने से परहेज किया. इस मत पर भी पुराने कवियों में आम सहमति-सी रही कि वे आश्रयदाता राजाओं पर नहीं लिखेंगे.
सातवीं शताब्दी के गद्यकार बाणभट्ट ने ‘हर्षचरित’ लिखकर यह लकीर तोड़ी. लेकिन, उल्लेखनीय यह है कि बाण ने इस किताब के शुरू के तीन अध्यायों में आत्मचरित लिखा. समूची किताब में उन्होंने कहीं भी कवि को राजा से कमतर नहीं रखा. सम्राट हर्ष से पहली ही मुलाकात में उन्होंने उन्हें जिस तरह कड़ा प्रत्युत्तर दिया वह भारतीय साहित्य के इतिहास का बड़ा गर्वोन्नत प्रसंग है. इस मुलाक़ात में हर्ष ने बाण पर यह प्रतिकूल टिप्पणी की- ‘महानयो भुजंग:’ –यह बड़ा भारी भुजंग (लंपट/गुंडा) है. बाण ने तत्काल प्रश्नवाचक उत्तर दिया- ‘का मे भुजंगता’? – मुझमें कौन-सा भुजंगपना है?
‘कादम्बरी’ में बाण ने लिखा कि राजदरबार और वेश्यालय इस अर्थ में समान होते हैं कि वहाँ लोगों के चेहरे देखकर उनके बारे में कुछ भी अनुमान नहीं किया जा सकता. ‘शुकनासोपदेश’ में राजमद की जैसी मीमांसा की गई है वह चकित कर देने वाली है. यह प्रसंग समूचे वांगमय में असाधारण महत्त्व का है. कवि और राजा की बराबरी के संबंध में बाण के परवर्ती राजशेखर का कहना था कि जितनी जरूरत कवि को राजा की होती है उतनी ही जरूरत राजा को कवि की. दोनों अन्योन्याश्रित होते हैं- ‘ख्याता नराधिपतयः कविसंश्रयेण राजाश्रयेण च गताः कवयः प्रसिद्धिं.’ काव्यादर्शकार दंडी तो राजा की गरज को पहले रखते हैं! यशाकांक्षी राजा कवि का मुखापेक्षी होता है- ‘आदिराजयशोबिम्बमादर्शं प्राप्य वाङ्मयम्. तेषामसंनिधानेऽपि न स्वयं पश्य नश्यति.’
राजसत्ता और राजा से निकटता लेखनी को प्रभावित न करे, कविगण इस संदर्भ में बहुत सजग रहे हैं. कर्तव्यविरत और राजमद में डूबे नरेशों को फटकारने में भी वे नहीं चूके हैं. चंदबरदाई ने पृथ्वीराज से कहा था- ‘गोरी रत्तउ तुव धरा, तूं गोरी अनुरत्त.’- मोहम्मद गोरी तुम्हारी धरती पर नज़र गड़ाए हुए है और तू अपनी गोरी (संयोगिता) में अनुरक्त है! नरपति नाल्ह ने राजा बीसलदेव के बड़बोलेपन, अस्थिरचित्त को बखूबी उभारा. नवबधू राजमहिषी राजमती के जरिए कवि ने राजमहल में व्याप्त घुटन को वाणी दी.
जनता के पक्ष में खड़े होकर राजसत्ता की जैसी परख तुलसीदास ने की है वैसी शायद ही किसी दूसरे कवि ने की हो. वे देवेन्द्र और नरेन्द्र दोनों को एक ही कोटि में रखते हैं और बिना लाग-लपेट के उनकी जनविरोधी प्रकृति का खुलासा करते हैं. खल वंदना के प्रसंग में इन्द्र के बारे में उन्होंने लिखा- ‘बहुरि सक्र सम बिनवहुं तेहीं. संतत सुरानीक हित जेहीं.’ लोग हमेशा नशे में रहें या युद्ध का माहौल बना रहे- इन्द्र का हित इसी से सधता है.
इन्द्र को बेशर्म बताते हुए उन्होंने एक जगह कहा कि उसकी दशा उस कुत्ते की भांति है जो मृगराज को अपनी तरफ आते देख इस आशंका से सूखी हड्डी लेकर भागता है कि कहीं वह छीन न ले जाए. अन्यत्र उन्होंने कहा कि ऊंचे रहने वालों की करतूत उतनी ही नीची होती है. वे दूसरों को सुखी नहीं देख सकते. चित्रकूट प्रकरण में इन्द्र को कपट और कुचाल का सीमांत बताते उन्होंने कहा कि वह इतना मलिन मति है कि मरणासन्न लोगों को मारकर मंगलकामना करता है- ‘मघवा महा मलीन, मुए मारि मंगल चहत.’ रामकथा कह चुकने के बाद तुलसी ने कहा कि रावण जब था, तब था. आज का रावण तो मंहगाई और दरिद्रता है. रामवत वही है दरिद्रता के खिलाफ खड़ा हो. राम ने ऐसा ही किया था- उन्होंने मणि-माणिक्य अर्थात विलासिता की चीजें मंहगी कर दी थीं और पशुओं का चारा, पानी तथा अनाज सस्ता कर दिया था- ‘मनि मानिक मंहगे किये संहगे तृन जल नाज.’
स्वघोषित रामभक्तों के बारे में तुलसी विशेष रूप से सावधान करते हैं- ‘बंचक भगत कहाय राम के. किंकर कंचन कोह काम के.’ –(खुद को) रामभक्त कहने वाले ठग हैं. वे (असल में) दौलत, हिंसा और कामवासना के दास हैं. जब राजा धनाड्यों के पक्ष में काम करता है तब जनता दुखी होती है. जिस राज्य की जनता दुखी है वहाँ का राजा राजपद लायक नहीं रह जाता. ऐसा राजा नरक भेजे जाने के योग्य होता है- ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी. सो नृप अवसि नरक अधिकारी.’ अब, राजा अपने आप तो नरक जाना नहीं चाहेगा. यह जिम्मेदारी दुखी लोगों की है कि वे ऐसे राजा को नरक का रास्ता दिखाएं. क्या तुलसी विप्लव का संकेत कर रहे हैं? शायद हाँ, क्योंकि उनके पूर्ववर्ती ऐसी राह बना चुके थे.
डेढ़ हज़ार साल पहले तमिल महाकाव्य ‘सिलप्पदिकारम’ आया. इसके रचनाकार इलंगो अडिहल स्वयं राजघराने के थे, वीतरागी राजकुमार. महाकाव्य की कहानी चेर, चोल और पांड्य राज्यों को समेटती है. चोलवासी दम्पत्ति कोवलन और कण्णही आजीविका की तलाश में पांड्य राजधानी मदुरै गए. वहाँ कोवलन पत्नी कण्णही का पायल बेचने शाही स्वर्णकार की दुकान पहुँचा. परदेसी देखकर सुनार ने कोवलन पर रानी का पायल चुराने का आरोप लगाया और उसे सिपाहियों को सौंप दिया. आनन-फानन में सिपाहियों ने कोवलन को सूली पर लटका दिया. अन्यायी राज्य में राजा से न्याय माँगने कण्णही राजमहल गई. उसके संताप ने राजा-रानी दोनों की जान ले ली. मदुरै में आग लग गई. अन्याय की कीमत इस तरह चुकता हुई.
करीब दो हज़ार वर्ष पूर्व लिखित संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिक’ भी प्रजापीड़क राजा की परिणति प्रस्तुत करता है. उज्जयिनी का राजा पालक अपने नाम के ठीक उल्टा है. शासन में राजा के साले स्थानक या शकार का बोलबाला है. शकार घोर मूर्ख है मगर अपने ‘पांडित्य’ का प्रदर्शन करता रहता है. दुर्योधन को कुन्तीपुत्र बताने वाला शकार खुद को ‘राष्ट्रीय साला’ कहता है क्योंकि राष्ट्र तो उसके जीजाजी का है! राज्य की न्याय-व्यवस्था ऐसी जैसे वह हिंसा का समुद्र हो- ‘नीतिक्षुण्णतटं च राजकरणं हिंस्रैः समुद्रायते.’ ‘न्याय’ उस राजकरण (कचहरी) से मिलता है जिसका रिश्ता नीति (नियम-कानून) से टूट गया है.
अपने प्रेम-प्रस्ताव को अस्वीकारने वाली वसंतसेना की हत्या खुद शकार करता है और आरोप चारुदत्त पर लगा देता है. न्यायाधीश यथार्थ जानते हैं मगर राजा का कोपभाजन नहीं बनना चाहते. चारुदत्त को फाँसी की सजा सुना दी जाती है. इधर त्रस्त प्रजा के बीच से क्षुब्द्ध हुंकार उठती है. नेतृत्व गोप-कुल का एक युवा आर्यक संभालता है. आर्यक को इसलिए कैद कर लिया गया था कि वह निर्भय होकर उज्जयिनी में रहता है. निडर और प्रसन्नचित्त व्यक्तियों से दमनकारी राजसत्ता हमेशा डरती रही है. दर्दुरक, शर्विलक जैसे हिम्मती युवक आर्यक के सहायक हैं. राज्य में क्रांति होती है. यज्ञमंडप में राजा ठीक उस वक्त मारा जाता है जब चारुदत्त को फाँसी देने चौराहे पर ले जाया जा रहा है. नाटककार शूद्रक प्रजापीड़क राजा का वध आवश्यक ठहराते हैं.
छठी शताब्दी के गद्यकार दंडी के ‘दशकुमारचरित’ का कथानक कुछ-कुछ ‘मृच्छकटिक’ जैसा है. मालवनरेश मानसार से पराजित मगध का राजा राजहंस अपने मंत्रियों-परिजनों के साथ विंध्य के जंगल में शरण पाता है. यहाँ उसका पुत्र राजवाहन अपने समवयस्क अन्य नौ कुमारों के संग गुरु वामदेव से शिक्षा लेता है. फिर सभी कुमार अलग-अलग दिशाओं में दिग्विजय हेतु निकलते हैं. वहाँ से लौटकर सभी कुमार राजवाहन को अपनी आपबीती सुनाते हैं. इस क्रम में युगीन यथार्थ प्रगट होता है. समाज में फैली अनीति, अनाचार और अव्यवस्था का दंडी ने खुलकर वर्णन किया है. जनसामान्य को अपने सरोकार के केंद्र में न रखने के कारण ‘दशकुमारचरित’ में व्यक्त यथार्थ परिवर्तन की किसी दिशा का संकेत नहीं कर पाता. समाज के अधःपतन को दर्शाना ही दशकुमारचरितकार का उद्देश्य प्रतीत होता है.
कालिदास की छवि यों तो सत्ता विरोधी कवि की नहीं है मगर अवसर आने पर उन्होंने जनकल्याण की दृष्टि से अपना मत प्रस्तुत किया है और सत्ता का प्रतिपक्ष रचा है. ‘रघुवंश’ में कर-संग्रह के मुद्दे पर राजा का आदर्श बताते हुए लिखा गया है कि प्रजा की भलाई के लिए ही राजा दिलीप उनसे शुल्क लेता था- ‘प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत’. ‘शाकुंतल’ के पांचवें अंक में राजा दुष्यंत से कण्व के शिष्य शांर्गरव का कहना है- ‘मूर्च्छन्त्यमी विकाराः प्रायेणैश्वर्यमत्तानाम्.’ –ऐश्वर्य का उन्माद ऐसे विकार प्रायः उत्पन्न कर ही देता है. शांर्गरव को दुष्यंत की जनाकीर्ण राजधानी जलती हुई प्रतीत होती है. न पहचानने वाले राजा (दुष्यंत) को धिक्कारती हुई शकुंतला कहती है कि तुम घासफूस से ढंके कुएं की तरह अपनी वास्तविकता छिपाए हुए हो. यही तुम्हारा धर्म है. भरी राजसभा में शांर्गरव सत्ता के विद्रूप को अनावृत्त करता हुआ कहता है कि जिस (शकुंतला) ने जीवन में छल-कपट सीखा ही नहीं उसकी बात अप्रामाणिक है और जिन्होंने विद्या के रूप में दूसरे को ठगने का अभ्यास किया वे लोग आज आप्त वक्ता हैं.
साहित्य में जनता की चित्तवृत्ति का प्रतिबिंबन होता है. इसके साथ साहित्य चित्तवृत्ति के निर्माण का दायित्व भी संभालता है. मध्यकालीन साहित्य में सत्ता के विरुद्ध उठे स्वरों की बहुलता मात्र जनता की चित्तवृत्ति का रूपायन नहीं है अपितु उस चित्तवृत्ति को बनाया भी गया है और उन चित्तवृत्तियों के आधार पर समुदायों (सम्प्रदायों, पंथों) का निर्माण हुआ है. जिन्हें ‘संत’ कहा जाता है वे वस्तुतः अपने समय के सार्वजनिक बुद्धिजीवी थे. संत रविदास, कबीरदास, दादू, सूर, जायसी और तुलसी आदि कवियों को (आवयविक) बुद्धिजीवी मानने के बाद ही उनकी भूमिका को ठीक से समझा जा सकता है.
आम जनता में आधुनिक बुद्धिजीवियों से कहीं ज्यादा पहुँच और प्रतिष्ठा इन बुद्धिजीवियों की थी. इस बात को संभवतः सबसे पहले गांधीजी ने समझा था. उन्होंने लिखा था कि जनता पर प्रभाव के मामले में कबीर नानक आदि के सामने राममोहन और तिलक ‘कुछ भी नहीं हैं’. असम के संत शंकरदेव ने अकेले ‘जो कर दिखाया वह अंगरेजी जानने वालों की सारी फौज भी नहीं कर सकती.’ तमाम दबावों, प्रलोभनों और बाध्यकारी परिस्थितियों की लंबी अवधि के बावजूद अगर भारत में धर्मतंत्रीय राज्य स्थापित नहीं हो सका तो इसका मुख्य कारण इन संतों या सार्वजनिक बुद्धिजीवियों की वाणी और जनता पर उसका प्रभाव मानना चाहिए. संत रविदास ने जिस राज्य या शासनतंत्र की परिकल्पना प्रस्तुत की उसे ही बाद में धर्म/पंथ निरपेक्ष राज्य (सेकुलर स्टेट) कहा गया- “ऐसा चाहूं राज मैं, मिले सबन को अन्न. छोट बड़ो सब सम बसैं, रैदास रहै प्रसन्न..” छोटे-बड़े के बीच समता स्थापित करने वाले राज्य की कामना करना, राज्य से अन्न की उपलब्धता सुनिश्चित करवाने की मांग करना खतरे से खाली नहीं हैं. निःशंक-निर्भय हुए बगैर ऐसी बात नहीं की जा सकती.
कबीर की साखी है- “सतगंठी कौपीन दै, साधु न मानै संक. राम अमलि लाता रहै, गनै इंद्र को रंक..” साधु अर्थात बुद्धिजीवी वही है जो (इंद्र) राजा की परवाह किए बिना अपनी राह पर चले. सत्ता-संपत्ति की कामना बुद्धिजीवी की निडरता समाप्त कर देती है. निःशंक रहना है तो सात गाँठों वाली लंगोटी का जीवन अपनाने के लिए तैयार रहना होगा. सिकंदर लोदी ने कबीर को यातनाएं दीं, मारना चाहा मगर वे अपने सच से डिगे नहीं और डंके की चोट पर ‘अनभै साँचा’ कहते रहे. इंद्र की सत्ता को धूल-धूसरित करते हुए सूरदास ने बालक कृष्ण से कहलवाया- “कहा इंद्र बपुरो किहिं लायक. गिरि देवता सबहिं के नायक.” –बेचारा इंद्र किस लायक है? सबके नायक (तो) गोवर्धनपर्वत देव हैं. ब्रजवासियों पर कुपित जिस इंद्र ने कहा था- “मेरे मारत कौन राखिहैं. अहिरनि के मन इहै काखिहैं..” –देखता हूँ कि मेरे मारने, सबक सिखाने पर इन चीखते-कराहते अहीरों की कौन रक्षा करता है? उस सत्तांध इंद्र की यह परिणति सूर ने दर्शाई- “सुरगन सहित इंद्र ब्रज आवत. धवल बरन ऐरावत देख्यो उतरि गगन तें धरनि धँसावति.”
तत्कालीन साहित्य में देवसत्ता तथा राजसत्ता पर इस बहुकोणीय आक्रमण के निहितार्थों और परिणामों पर विचार करना आवश्यक है. सामान्य जनता को भयमुक्त करने-रखने का श्रेय उस समय के सार्वजनिक बुद्धिजीवियों को जाता है. तुलसीदास ने संत (या बुद्धिजीवी) के लक्षण बताते हुए कहा कि उसका चित्त समतावादी होता है, वह किसी का शत्रु-मित्र नहीं होता, हित-अनहित (स्वार्थ) के वशीभूत होकर कुछ नहीं कहता, वह उस फूल की तरह होता है जो अपने संपर्क में आने वाले और तोड़ने वाले दोनों का कल्याण करता है, उन्हें सुगंध प्रदान करता है- “बंदहुँ संत समान चित, हित अनहित नहिं कोइ. अंजलि गत सुभ सुमन जिमि, सम सुगंध कर दोइ..” स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और स्वतंत्र भारत के भारतीय बुद्धिजीवियों की पर्याप्त ऊर्जा साम्प्रदायिकता की समस्या को समझने और उसे सुलझाने में लगी है.
पूर्वऔपनिवेशिक युग के बुद्धिजीवियों ने यह दायित्व अच्छे से निभाया था. संत रविदास, कबीर से लेकर परवर्ती संत रज्जब अली (1567-1689), महामति प्राणनाथ (1618-1694) तक सभी संतों ने हिंदुओं और मुसलमानों को उनके अतिवादों के बारे में लगातार सावधान किया. ‘निरपषि मधि’ (निर्पख मध्यम मार्ग) का अनुगमन साम्प्रदायिक/मजहबी टकराओं के शमन का समयसिद्ध फार्मूला है. धार्मिक संकीर्णता से उबरने के लिए रज्जब का यह प्रस्ताव कितना बढ़िया है- “रज्जब बसुधा बेद सब, कुलि आलम सु कुरान. पंडित काजी वै बड़े, दुनिया दफ्तर जान.” अगर पंडित और काजी समूची वसुधा को वेद और समूची दुनिया को कुरान मानकर पढ़ें तो धार्मिक संघर्ष का अंत हो जाए! महामति ने जोर देकर कहा कि जो कुछ कुरान में है वही वेद में. सब एक साहब के बंदे हैं, आपस में लड़ते हुए उन्होंने यह भेद-भाव पैदा किया है- “जो कछु कह्या कतेब में, सोई कह्या बेद. दोऊ बन्दे इक साहब के, पर लड़त पाए भेद..
भक्ति आंदोलन की विफलता या संत मत के अवसान की चर्चा में अक्सर परवर्ती संतों की उपस्थिति का, उनकी सक्रियता का, उनके प्रभाव-क्षेत्र का और उनकी बानियों का संज्ञान नहीं लिया जाता. रज्जब, सुन्दरदास, और महामति जैसे संतों का संदर्भ ‘अवसान’ के मुद्दे पर पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस कराता है. जिस युग में कवियों का एक बड़ा वर्ग शाहेवक्त की सराहना में संलग्न था- “सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी. नृपहिं सराहत सब नर नारी.” (तुलसीदास)
उस दौर में संत कवियों ने सत्ता-प्रतिष्ठानों की परवाह किए बिना निर्भीकता से अपनी बात रखी. उन्होंने यथावसर सत्ता केन्द्रों से संवाद करने की पहल भी की थी. श्रीमद्भागवत और कुरान को समान आदर देने वाले महामति ने शाहेवक्त औरंगजेब से संवाद कायम करने की विफल कोशिश की थी. वे राजा छत्रसाल के प्रशंसक थे. उन्होंने अपने बारह शिष्यों को जिनमें हिंदू और मुसलमान दोनों थे, बादशाह औरंगजेब से सलाह-मशविरा करने और मार्गदर्शन हेतु भेजा था. धर्माधिकारियों और दरबारियों ने यह मुलाकात मुमकिन न होने दी.
जनता के पक्ष से साहित्य ने प्रायः सभी युगों में सकारात्मक भूमिका का निर्वाह किया है. काव्यप्रयोजनों को गिनाते हुए मम्मट ने जब ‘शिवेतरक्षतये’ को एक प्रयोजन माना तो उसका आशय स्पष्ट था- जो कल्याणेतर है, अकल्याणकारी है उसकी क्षति के लिए भी साहित्य रचा जाता है. अगर राजकार्य में, राजनीति में रचनाकार की रुचि और गति नहीं होगी तो वह कल्याणकारी-अकल्याणकारी नीतियों की पहचान ही नहीं कर सकता. अगर रचनाकार जन सामान्य की जिंदगी से अपरिचित है तो वह सत्ता-प्रतिष्ठान के अशिवत्व को समझ ही नहीं सकता. अर्थ और यश की चाहत से लिखने वाले ‘शिवेतरक्षतये’ के प्रयोजन से नहीं लिखेंगे. अर्थ और यश की कामना रचनाकार को ‘सुरक्षित दायरे’ में परिसीमित कर देती है. ऐसा रचनाकार बहुधा चाटुकार बन जाता है. सत्रहवीं सदी के संस्कृत कवि नीलकंठ दीक्षित ने खासे रोचक तरीके से चाटुकार कवियों का चित्र खींचा है-
कातर्यं दुर्विनीतत्वं कार्पण्यमविवेकिताम्l
सर्वं मार्जन्ति कवयः शालीनां मुष्टिकिंकराःll
न कारणमपेक्षन्ते कवयः स्तोतुमुद्यताःl
किंचिदस्तुवतां तेषां जिह्वा फुरफुरायते ll
मुट्ठी भर धन के गुलाम बन कर कवि लोग आश्रयदाता की कायरता, ढिठाई, कंजूसी, मूर्खता इन सबकी सफाई कर देते हैं- अर्थात केवल उसकी प्रशंसा ही करते हैं. स्तुति करने को उद्यत कवियों को स्तुति के कारण की आवश्यकता नहीं होती. कुछ देर बिना स्तुति किए रह जाएं तो किसी की स्तुति के लिए इनकी जीभ खुजाने लगती है.
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बजरंग बिहारी तिवारी
(1 मार्च 1972, नियावां, जिला गोंडा)
वर्ष 2004 से दिल्ली से प्रकाशित हिंदी मासिक ‘कथादेश’ में दलित प्रश्न शीर्षक स्तंभ लेखन.
पुस्तकें-
जाति और जनतंत्र : दलित उत्पीड़न पर केंद्रित (2015)
दलित साहित्य : एक अंतर्यात्रा (2015)
भारतीय दलित साहित्य : आंदोलन और चिंतन(2015)
बांग्ला दलित साहित्य : सम्यक अनुशीलन(2016)
संपादित पुस्तकें-
(सह-संपादन)
भारतीय साहित्य : एक परिचय (2005),
यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री से जुड़ी कहानियां(2012),
यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएं (2013)
यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी आलोचना (2015).
दिल्ली के देशबंधु महाविद्यालय में अध्यापन.
संपर्क: फ्लैट नं. 204, दूसरी मंजिल, मकान नं. टी-134/1, बेगमपुर, नई दिल्ली- 110017.
ईमेल- bajrangbihari@gmail.com