• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मुसाफिर बैठा की कविताएँ

मुसाफिर बैठा की कविताएँ

मुसाफिर बैठा :  05 जून, 1968 , सीतामढ़ी.                    पटना विश्वविद्यालय से हिन्दी दलित आत्मकथा विषय में पी-एच. डी. अभियांत्रकी की तकनीकी शिक्षा भी अनुवाद, पत्रकारिता  में स्नातकोत्तर डिप्लोमा आदि अनेक पत्र – पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियां, लेख    बीमार मानस का गेह कविता – संग्रह प्रकाशित अंडरस्टैंडिंग बिहार (डॉ. ए. के. विस्वास) का हिन्दी अनुवाद दलित […]

by arun dev
May 18, 2011
in कविता
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें
मुसाफिर बैठा :  05 जून, 1968 , सीतामढ़ी.                   
पटना विश्वविद्यालय से हिन्दी दलित आत्मकथा विषय में पी-एच. डी.
अभियांत्रकी की तकनीकी शिक्षा भी
अनुवाद, पत्रकारिता  में स्नातकोत्तर डिप्लोमा आदि
अनेक पत्र – पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियां, लेख   
बीमार मानस का गेह कविता – संग्रह प्रकाशित
अंडरस्टैंडिंग बिहार (डॉ. ए. के. विस्वास) का हिन्दी अनुवाद
दलित साहित्य और हिन्दी दलित आत्मकथाएं  एवं
बाल काव्य-संग्रह मेरे साथी ऐसे हैं प्रकाशनाधीन
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का नवोदित साहित्यकार पुरस्कार–1998-99
फिलहाल प्रकाशन शाखा (बिहार विधान परिषद) में
ईमेल – musafirpatna@gmail.com


मुसाफिर की कविताएँ आपको वहां ले जाती हैं जहां से  अक्सर हम खबरें पढ़ने के आदी हैं. भारतीय समाज का यह वह प्रसंग है जो साहित्य और कलाओं में अभी अलक्षित है. यहाँ धूसर रंग है और फीकी रातें हैं. यहाँ बचपन का पैबंद लगा स्वेटर जीवन भर बुना जाता है. ये कविताएँ इस जीवन संदर्भ में कुछ इस तरह उलझती हैं कि काव्यत्व का एक अछूता उर्वर प्रक्षेत्र सामने आ जाता है, अपनी बोली बानी से समृद्ध.
व्यवस्था की विद्रूपता और साधरण के सौंदर्य के कवि हैं मुसाफिर.




बिटिया की जन्मकथा

जबकि
जिस साल मेरी नई नई नौकरी लगी थी
उसी साल नौकरी बाद
आई थी मेरे घरपहली मनचाही संतान भी
यानी दो दो खुशिया अमूमन इकट्ठे ही मेरे हाथ लगी थीं
तिस पर भी
इस कन्या जन्म पर
कम दुखीमन नहीं था मैं
उसके इस दुनिया में कदम रखने के दिन
अपनी सरकारी नौकरी पर था मैं
घर से कोसों दूर
इस खुश आमद से बिलकुल बेगाना
मुझे इत्तिला करने की घरवालों ने
जरूरत भी महसूस न की थी
और पूरे माह भर बाद
घर जा पाया था मैं
घर पहुचने से ठीक पहले
बाट में ही
अपने को मेरा हमदर्द मान
एक पुत्रधनी सज्जन ने मुझे बताया था
कि महाजन का आना हुआ है तेरे घर
उसके स्वर में
सहानुभूति और चेताने के  द्वैत संकेत
सहज साफ अंकित थे
इधर मैं बाप बनने का संवाद मात्र पाकर
पुलकित हुआ जा रहा था
मैं तो बाल नामकरण पर
एक किताब भी खरीद लाया था
कि मेरे मन की मुराद पूरी हुई थी
चाहता था
कि यह अपूर्व हर्ष
उस खबरची मित्र से भी हमराज करूँ
पर चाहकर भी बांट नहीं पा रहा था
बेशक इसमें वह मेरा छद्म टटोलता
घर पहुचकर पत्नी से जाना
कि कैसी ललक होती है प्रसूतिका की
अपने साझे प्यार की सौगात को
उसके जनक के संग इकट्ठे ही
निहारने सहेजने की
कि दूसरा जन्म ही होता है औरत का
प्रसूति से उबरकर
और इस बेहद असहज अमोल पलों में
जातक के सहसर्जक को
खुद के पास ही पाने की
हर औरत की उत्कट चाह होती है
कि मेरा इन नाजुक पलों में
उसके पास न रहना….
कितना कुछ बीता था उसपर
जबकि
ऐन दूसरे प्रसव के दिनों
एकबार फिर जीवनसंगिनी से दूर रहकर
बदहवास लिख रहा हू मैं
यह अनगढ़ संगदिल कविता  . 
पचीस साल पुराने स्वेटर के बारे में
अभी हाल फिल्हाल तक गाहे-ब-गाहे
बतौर इनर मैं जिस स्वेटर का इस्तेमाल कर लेता था
वह तकरीबन पचीस साल पुराना है
जबकि यह अपनी पैदाईश के वक्त
मेरा बैगी और स्कूल ड्रेस का
इकलौता नेवी ब्लू स्वेटर
हुआ करता था
पचीस साल का समयमान तो
एक मानव पीढ़ी के बराबर होता है
सो इस स्वेटर के साथ
किसिम-किसिम की यादें लगी हैं
अब तो इस गरम कपड़े के आधी उम्र से
बेसी का हो गया है मेरा स्कूली बेटा भी
जबकि कमोवेश उसी उम्र में
दसवीं कक्षा में पढ़ता था मैं तब
इस स्वेटर में लगी दो थिगलियां
इसके जन्मकाल में ही
सिर मुड़ाते ओले पड़ने की
जीवंत कथा कहती चलती हैं
सन 1983 के लम्बे शीतलहरी भरे दिन के
कई-कई घटनापूर्ण दिवस इसके जीवन में लगे हैं
एक दिन स्कूल में
संगी संहाती संग लटपट औ  धमाचैकड़ी बीच
पूरे कपड़े मेरे धूलधूसरित और
कीच सने हो गए थे
शाम को ही मैले कुचैले इस स्वेटर को
साफ कर सूखने को रख छोड़ा था मां ने
पर हवा में ज्यादा नमी और धूप की कमी के कारण
अगले दिन अहले सुबह स्कूल जाने तक
पर्याप्त कच्चा रह गया था वह
मां ने सुखाने की गरज से
स्वेटर को चूल्हे की भरसक आग दिखाई थी सतर्क
पर उसकी लपलपाती सुर्ख जीभ
एक सूराख बना गई थी अच्छी खासी
उस जले स्वेटर को ही पहन
कोई सप्ताह भर मुझे जाना पड़ा था स्कूल
जब तक कि गांव के ही दहाउर कुशवाहा की
नई नवेली पतोहू ने
बेमेल रंग वाले उधर के पुराने ऊन से ही
टांक नहीं दिया उसको
गांव के ऊसर अक्षर स्त्री इतिहास में
यह पहली बहुरिया थी
जो मैट्रिक पास थी और
गांव में स्वेटर का पहला कांटा
शायद मेरे उस पुराने स्वेटर के ही
हिस्से आया था
इस कनिया का हमारे गांव में
आना न हुआ होता तो
कांटा-कुरूस भी न जाने कब
यहां की अपढ़ कमपढ़ बेटी-चाटी देखती
वैसे यह काम भी
काफी मनुहार मनौवल के बाद
उस सद्यःप्रणीता के कॉलेजिए दूल्हे की
सहमति मिलने के बाद ही हो पाया था
कि एक बात भी उससे पूछे बिना
करने से डरती थी यह टटका दुलहन
पर यह काम इसलिए भी कुछ सुभीते से
सध् गया था कि वह गिरहस्त था हमारा
मेरी असमय विधवा हुई मां
उस गांव के कई अन्य घरों की तरह
उस घर के भी कपड़े धोने का
पुश्तैनी धन्धा किया करती थी
स्वेटर में बाद में
किसी घरैया चूहे की
अमीर गरीब सबको समान स्वाद चखाते
दांतों की कवायद की
भेंट भी चढ़ना पड़ा
और दूसरी पैबंद लग गई
यह समय था सन उन्नीस सौ पचासी का
जब इंजीनियरी की तकनीकी तालिम हासिल करने
तेलशोधक नगरी बरौनी पहुंच गया था मैं
यह दूसरी चिप्पी बुनाई शिल्प की
अचरजकारी हुनर रखने वाले
पुरुष सहपाठी सीताराम पासवान द्वारा
पॉलिटेकनिक छात्रावास में ही लगाई गई
स्वेटर की एक कहानी
फ्लैशबैक में भी कह दूं
धन धान्य संकुल एक गांव में
स्कूल मास्टर हुआ करते थे
मेरे बड़े भइया
उनके स्कूल की चार चैदहवीं लगी
चारू बालाओं ने इस स्वेटर के
खंडों संभागों को
पृथक पृथक काढ़कर एक बनाया था
और स्वेटर को अंतिम रूप देने से पहले
इसकी फिटनेस की परख के ख्याल से
मुझे घर से वहीं स्कूल बुलवा लिया था भैया ने
उन कन्याओं की सलाह पर
मुझे स्वेटर शिल्पकारों के हवाले किया गया
चार हमउम्र लड़कियों से घिरा मैं
सामने उन सबके उलटे सीधे निर्देशों के बीच
स्वेटर पहन आजमा रहा था
और शर्म के अटके कणों वाला
अपना चेहरा लिए
झेंप भरी निगाहों से कुड़ियों की तरह
उन शोख बालाओं को असहाय-सा देख रहा था
आगे पीछे दायें बाये मुझे हिला डुला और
स्वेटर को इधर उधर खींच तान
कुछ ट्रायल की आवश्यकता वश
और अधिक यौवनप्रसूत शरारत चुहल बतौर
वे बनुकर हाथ कई कोणों से
निरख परख रहे थे
और मन में मनों उथल पुथल हिलोर लिए
बुत बन वहां खड़ा था मैं
अजब इम्तिहान
इस बीच एक ने ऐसे झकझोरा मुझे
कि लड़खड़ाकर दूसरी की बाहों में आ गया
गिर भी गया होता बेशक जमीं पर
अगर मुझे थाम न लिया गया होता
स्वेटर के सामने वाले हिस्से की
नयनाभिराम डिजाइन को बड़े मनोयोग से
तैयार करने में
उस समय तक सीखी गुनी
अपनी सारी कारीगरी उलीच देनेवाली
तबकी उसी अल्हड़ अनगढ़ शिल्पी ने
अभी-अभी इस अकुंठ स्मृति संचित
स्वेटर में तीसरी पैबंद भी जड़ दी है
इसी हुनरमंद शिल्पी ने
मेरे घर को भी गढ़ा संवारा है घरनी बन
मेरी संतानों की जननी वह.
नींद के बाहर
वह अब भी
मेरे सपनों में फिर फिर आती है
और प्रथम  प्यार के बीते दिनों की
मीठी याद के ताजा झोंकों से
सपनों में ही भिंगोकर कुरेद कर नींद
मन भर सोने भी नहीं देती
जबकि उसे देखे भी अब
महीनों साल तक हो आते हैं
फिर भी वह रच बस गई लगती है
मेरे अन्तरतम में ऐसे
कि सपने में भी स्थगित नहीं होती
वो
उसकी बातें
कबकी थमकी बीती अभिसारी मुलाकातें
यद्यपि कि दसेक साल गुजर गए हैं
परबंधन में बंधे हुए भी मुझको
दो बच्चों के सर्जन सुख प्यार ने भी
कम नहीं बांध लिया है मुझको
उगते उमगते युवा दिनों का
अवकाश भी नहीं अब
वयःसंधि बेला की वह
अल्हड़ बेफिक्री भी अब कहां नसीब
जिम्मेदारियों के बहुविध संजाल से
नथ बिंध गया हूं इस कदर कि
मन के सपने भी कभी ही देखता हूँ
बाबजूद विविध्रवर्णी दुश्चिन्ताओं के
इन क्षुद्र स्वप्न लम्हों में भी
उसकी ढीठ हिस्सेदारी का सबब
मैं बूझ नहीं पाता
अभी अभी ही
अबकी उचटी नींद में वह
आयी थी मेरे पास लेकर कुछ सौगात
जबकि मैं पत्नी बच्चों के बीच
किसी आत्मीय वार्तालाप में था मगन खूब
कि सबको कुछ-कुछ बांट गई वह पहले
फिर किंचित इत्मीनान से अंत को आई मेरे पास
बचाकर मेरी खातिर
बहुत ही बेसी सौगात
किया था आंखों ही आंखों उसने
मुझसे स्वीकार का बेकस इसरार
और फौरन मेरे दोनों बाजू 
खुद ही बेसाख्ता बढ़ चले थे आगे
उसके दिए को अंटाने के लिए
जबकि खूब साफ देख लिया था सबने
मेरे हक में उसका धृष्ट भेदक आचार
और ऐन मौके पर
नींद उचट गई थी मेरी
सोचता हूं अब
कि वह और का होकर भी
क्या दे सकेगी और ले सकूंगा मैं
यही बेसी सौगात
नींद के बाहर भी.
   
       
बुद्ध फिर मुस्कुराए
अपने जीवनकाल में किसी सामाजिक प्रसंग पर
कभी मुस्कुराए भी थे बुद्ध
यह आमद प्रश्न इतिहास सच के करीब कम
कल्पना सृजित ज्यादा है
यदि कभी मुस्कुराए भी होंगे बुद्ध
तो इस बात पर भी जरूर
कि धन वैभव राग विलास जैसा भंगुर सुख भी
हमारी जरा मृत्यु की अनिवार गति को
नहीं सकता लांघ
और इसी निकष पर पहुंच
इस महामानव ने किया होगा
इतिहास प्रसिद्ध महाभिनिष्क्रमण
बुद्ध फिर मुस्कुराए-
अव्वल तो यह कथन ही मिथ्या लगता है
बुद्ध की हेठी करता दिखता है यह
अबके समय में
मनुष्य जन्म की बारंबारता को
इंगित करता है यह कथन
जबकि एक ही नश्वर जीवन के
यकीनी थे बुद्ध
अहिंसक अईश्वरीय जीवन के
पुरजोर हिमायती थे वे
अगर होते तो
अपने विचारों के प्रति
जग के नकार भाव पर ही
सबसे पहले मुस्कुराते बुद्ध
पोखरन के परमाणु विस्फोट पर
बुद्ध के मुस्कुराने का
बिम्ब गढ़नेवालों की सयानी राजबुद्धि पर भी
कम नहीं मुस्कुराते बुद्ध
बामियान की बुद्धमूर्ति श्रृंखला को
हत आहत करनेवाली शासकबुद्धि की
शुतुरमुर्ग भयातुरता पर भी जरूर
मुस्कुराए बिना नहीं रह पाते बुद्ध
और तो और
होते अगर अभी बुद्ध
तो देखने वाली बात यह होती
कि अपने नाम पर पलने वाले
तमाम अबौद्ध विचार धर्म को देख ही कदाचित
सबसे अधिक मुस्कुरा रहे होते बुद्ध.
  

खल साहित्यिकों का छलवृत्तांत
अपने गिरोह के मुट्ठी भर खल साहित्यिकों के साथ
मिल बैठ कर खड़ा किया उन्होंने
किसी कद्दावर कवि के नाम पर एक ‘सम्मान’
और वे सम्मान-पुरस्कर्ता बन कर तन गए
इस तिकड़म में महज कुछ सौ रुपयों में
अपने लिए पूर्व में खरीदे गए
दिवंगत साहित्यकारों के नाम के
कुछ क्षुद्र सम्मानों का नजीर उनके काम आया
अपने नवसृजित सम्मान के कुछ शुरुआती अंकों को
उन्होंने उन पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों पर वारा
जो उनकी घासलेटी रचनाओं को
घास तक नहीं डालते थे
फिर तो उनकी और उनकी थैली के चट्टों-बट्टों की
कूड़ा-रचनाएं भी हाथों हाथ ली जाने लगीं यकायक
अपनी जुगाड़ी कल के बल सरकारी नौकरी हथियाए
इस गिरोह के सिरमौर कवि ने लगे हाथ एक सम्मान
अपने कार्यालय बॉंस पर भी चस्पां करवा डाला
ताकि फूल फूल कर बॉंस और अधिक फलदायी बन सके
अब यकीनन इस फिराक में था यह दूरंदेशी कवि
कि अपने कुल-खानदान के चंद और नक्कारों को भी
बरास्ते बॉंस-कृपा वहीं कहीं अटका-लटका सके वह
महज अपने कवि-कल व छल-बल के बलबूते ही
कविता के प्रदेश में गुंडई कर्म की
बखूबी शिनाख्त करने में लगा यह कवि
और उसके कुनबे के इतर जन भी
दरअसल स्वयं क्या साहित्य में
एक और गुंडा-प्रदेश नहीं रच रहे थे !
         

प्रेम की पेंगें बढ़ाती युवती
उस दुकान पर वह
आती जाती है रोज ब रोज कई कई बार
तकरीबन पचीस घरों को लांघ 
टंग गया कहीं है उसका मन
जबकि रास्ते में तीन एक दुकानों को
छोड़ आती है वह
अपने घर के पास ही
अपने मनप्रीत के घर की
गली से गुजरते वक्त
उसके लब गुनगुनाने लगते हैं यकायक
कोई गीत-फिल्मी या कि लोक
जो उसके आसपास आ
मंडराने की पक्की सूचना होती है
और मिलने का न्योता भी
लड़के के लिए
इंतजार आकुल लड़का निकल आता है
फौरन घर से बाहर और
सड़क की राह दौड़ जाती है
उसकी नई उगी निगाहें बरबस
और लख लेती हैं अपने अभीष्ट को
दुकान से लौटती लड़की का अल्हड़ दुपट्टा
बार बार सरकता संभलता है
जैसे किसी की खातिर
नजदीक होती जाती है
लड़के से लड़की
और गली मानुस-सून पाने पर
दोनों की कुछ मूक कुछ मुखसुख कुछ देहछू बातें
हो जाती हैं चट चुटकी में
किसी के द्वारा यह गुरु चोरी
देखे पकड़े जाने के भय बीच
और लड़की के लौटते डग बढ़ जाते हैं झट
बेमन ही अपने घर की ओर
देखें
दो युवा दिलों की
जगभीत बीच जारी यह नेहबंध
क्या महज कच्ची कसती देह का
अंखुआता आकर्षण है
या आगे बढ़ सच्ची लगी की ओर
पेंगें बढ़ते जाने का विहंसता दर्पण है.

ShareTweetSend
Previous Post

निज घर : गोरख पाण्डेय की डायरी

Next Post

कामरेड विनोद मिश्र: गोपाल प्रधान

Related Posts

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन
समीक्षा

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी
समीक्षा

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण
संस्मरण

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक