ईश के बारे में
II Definitions II
D I. By that which is self-caused, I mean that of which the essence involves existence, or that of which the nature is only conceivable as existent.
परिभाषा १:<!–[if supportFields]> XE \”परिभाषा १\\:\” <![endif]–><!–[if supportFields]><![endif]–> वह जो स्व-कृत (स्वयंभू) है, उससे मेरा मतलब वह है जिसका सार अस्तित्व से समावेशित है, और वह जिसकी प्रकृति सत् से बोधगम्य है.
दूसरे शब्दों में सार का अर्थ किसी भी वस्तु के अस्तित्व का निर्धारण करने के लिए पर्याप्त विचार से लेना चाहिए. हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि वस्तु के सार में वस्तु के विधायी तत्व के सभी गुण होने चाहिए.इन्हीं गुणों के समुच्चयों को स्पिनोज़ा के सार के संदर्भ में समझ सकते हैं.
स्पिनोज़ा के ‘अस्तित्व’ को व्यवहारसत् (
empirical reality) शब्दसे भी समझा जाता है.स्पिनोजा के विपरीत बौद्ध आचार्य नागार्जुन ने अपने ग्रन्थ ‘मूलमाध्यमिक कारिका’ का आरम्भ अजातिवाद के उद्घोष से किया है – कोई भी पदार्थ कभी, कहीं और कथमपि उत्पन्न नहीं हो सकता; कोई पदार्थ न अपने आप उत्पन्न हो सकता है, न दूसरे के कारण, न अपने और दूसरे के कारण और न बिना कारण उत्पन्न हो सकता है.
न स्वतो नापि परतो न द्वभ्यां नाप्यहेतुत:.
हमें ध्यान रखना चाहिए कि इस तरह अलग परिभाषाएँ एवं स्वयंसिद्ध, नितांत भिन्न दार्शनिक प्रणाली बनाते हैं. जिस तरह शून्यवाद और शैव चिंतन अपनी परिभाषाओं एवं स्वयंसिद्धों से अलग तरह के प्रस्तावनाओं को प्रतिपादित करता है.
D II. A thing is called finite after its kind, when it can be limited by another thing of the same nature; for instance, a body is called finite because we always conceive another greater body. So, also, a thought is limited by another thought, but a body is not limited by thought, nor a thought by body.
{अनुवादक की टिप्पणी – इस परिभाषा में ही पहली बार स्पिनोज़ा व्यवहार रूप में विचार (thought) और देह (body) में स्पष्ट भेद करते हैं. इस प्रत्यय को हम आगे के सिद्धांतों में देखेंगे.}
D III. By substance, I mean that which is in itself, and is conceived through itself: in other words, that of which a conception can be formed independently of any other conception.
D IV. By attribute, I mean that which the intellect perceives as constituting the essence of substance.
परिभाषा ४:<!–[if supportFields]> XE \”परिभाषा ४\\:\” <![endif]–><!–[if supportFields]><![endif]–> गुण से मेरा मतलब, उससे है जिससे मति सत्त्व का सार-निर्माण अवधारित करती है.
आचार्य नागार्जुन अपने ग्रन्थ मूलमाध्यमिककारिका में यह तर्क देते हैं कि सभी धर्म स्वभावशून्य हैं. इसे इस अर्थ में लिया जा सकता है कि किसी भी सार का गुण निर्धारण करते समय उसके लक्षण किसी अन्य मानदण्डों पर निर्धारित होंगे. उदाहरण के तौर पर आम का रस मीठा कहा जाता है. यहाँ रस का मीठा होना अन्य मीठे पदार्थों के सदृश होने से ही समझा जा सकता है.
D V. By mode, I mean the modifications[“Affectiones”] of substance, or that which exists in, and is conceived through, something other than itself.
परिभाषा ५:<!–[if supportFields]> XE \”परिभाषा ५\\:\” <![endif]–><!–[if supportFields]><![endif]–> प्रणाली से मेरा तात्पर्य सत्त्व केउपांतर, या वो जिससे सत्त्व स्व से इतर सारगर्भित या अवधारित होता है.
modifications / Affectiones/ Affectio (in Latin) = व्युत्पत्ति/ उपातंरण
स्पिनोजा अपने इस ग्रंथ में उपांतर (
Affectiones/ Affectio) और प्रभाव (Affectus) की विशद चर्चा करते हैं जो कई बार अनुवाद की गलतियों का शिकार हो जाती है.स्पिनोजा विचार और प्रभाव में गहरा भेद करते हैं, जिसके लिए हमें यहाँ सावधानी से प्रणाली की परिभाषा में उपांतर का अर्थ समझना होगा. विचार से स्पिनोजा का तात्पर्य ऐसा चिन्तन है जिसमें किसी चीज का प्रतिनिधित्व या निरूपण किया जा रहा हो. जैसे त्रिभुज का विचार, कुरसी का विचार, घर का विचार. हम अपनी भाषा से उस विचार को प्रतिनिधि के रूप में प्रकट कर सकते हैं और विचार विनिमय कर सकते हैं. प्रभावजन्य विचार या स्पिनोजा के शब्दों में ‘प्रभाव’ वैसे चिन्तन को कहते हैं जहाँ किसी चीज का बाह्य रूप में प्रतिनिधित्व नहीं हो सकता. जैसे आशा, प्रेम, घृणा – ये सभी चिन्तन किसी प्रभाव से उत्पन्न होते हैं पर बाह्य रूप में निरूपित नहीं किए जा सकते.
उपांतर एक तरह का विचार है, प्रभावजन्य विचार या ‘प्रभाव’ नहीं. उपांतर एक पिण्ड की वह अवस्था है जो किसी अन्य पिण्ड का कर्म का अधिकरण है, सरल शब्दों में किसी दूसरे पदार्थ के क्रिया की होने की जगह. उदाहरण के तौर पर जब सूरज की रौशनी हम पर पड़ती है तो हमारे शरीर पर क्या उपांतर आते हैं?इस तरह स्पिनोजा दो पिण्डों के मेल-जोल से प्रभावित पिण्ड के उपांतर को प्रणाली कहते हैं.
इस तरह हम उपांतर को निरूपित कर सकते हैं. उदाहरण के तौर लोहे की छड़ गरम कर देने पर विभिन्न आकार में ढ़ाली जा सकती है. खुरपी, हल, हथौड़ा – सभी लोहे के अस्तित्व की विभिन्न प्रणाली है. सोने की अँगूठी, सोने का हार, सोने का कर्णफूल – सभी सोने के अस्तित्व की विभिन्न प्रणाली है जिसे हम नामरूप की उपाधियों से समझते हैं.
D VI. By God, I mean a being absolutely infinite—that is, a substance consisting in infinite attributes, of which each expresses eternal and infinite essentiality.
Explanation—I say absolutely infinite, not infinite after its kind: for, of a thing infinite only after its kind, infinite attributes may be denied; but that which is absolutely infinite, contains in its essence whatever expresses reality, and involves no negation.
God = ईश
D VII. That thing is called free, which exists solely by the necessity of its own nature, and of which the action is determined by itself alone. On the other hand, that thing is necessary, or rather constrained, which is determined by something external to itself to a fixed and definite method of existence or action.
अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
D VIII. By eternity, I mean existence itself, in so far as it is conceived necessarily to follow solely from the definition of that which is eternal.
Explanation—Existence of this kind is conceived as an eternal truth, like the essence of a thing, and, therefore, cannot be explained by means of continuance or time, though continuance may be conceived without a beginning or end.
स्वयं सिद्ध
I. Everything which exists, exists either in itself or in something else.
स्वयंसिद्ध १: वह जो अस्तित्व में हैं या तो स्वयं में हैं या अन्य में है.
{अनुवादक की टिप्पणी – जैसा कि हम देख चुके है, एक सत्त्वस्वयं में हैं, और एक प्रणाली अन्य में है.}
II. That which cannot be conceived through anything else must be conceived through itself.
स्वयंसिद्ध २: वह जो किसी दूसरे से माध्यम से अवधारणा में नहीं लाया जा सकता, स्वयं से अवधारित है.
III. From a given definite cause an effect necessarily follows; and, on the other hand, if no definite cause be granted, it is impossible that an effect can follow.
स्वयंसिद्ध ३:एक दिए गए निर्धारित कारण से कार्य अनिवार्यत: अनुगमन करता है, और ठीक इसके विपरीत, अगर कोई निर्धारित कारण न हो तो कोई कार्य होना असम्भव है.
IV. The knowledge of an effect depends on and involves the knowledge of a cause.
स्वयंसिद्ध ४: किसी कार्यका ज्ञान उसके कारण पर और उस कारण के ज्ञानपर निर्भर करता है.
V. Things which have nothing in common cannot be understood, the one by means of the other; the conception of one does not involve the conception of the other.
स्वयंसिद्ध ५: अगर दो चीज़ों के बीच कुछ भी उभयनिष्ठ (सामान्य)न हो तो उन्हें एक दूसरे के माध्यम से नहीं समझा जा सकता– मतलब एक की अवधारणा दूसरे की अवधारणा से मुक्त होती है.
VI. A true idea must correspond with its ideate or object.
स्वयंसिद्ध ६:एक सत्य विचार अपने प्रयोजन या विषय वस्तु से सहमति में होना चाहिए.
VII. If a thing can be conceived as non-existing, its essence does not involve existence.
स्वयंसिद्ध७:अगर किसी चीज़ की अवधारणाउसके न होने से है तो उसका सार अस्तित्व (सत्ता) से नहीं है.
{अनुवादक की टिप्पणी – चूँकि स्पिनोजा सत्य विचार को बाह्य वस्तु के निरूपण से लेते हैं इसलिए यह कहा जा सकता है कि वे महायान बौद्धों की तरह आकाशकुसुम, शशविषाण, वन्ध्यापुत्र को असत् ही मानेंगे. देश काल में स्थित सफेद झूठ (तथ्यों के विपरीत भाषण) तो असत् है ही. }
प्रस्ताव
Prop. I. Substance is by nature prior to its modifications.
प्रस्ताव १. सत्त्व अपने प्रकृतिनुसार अपने अवस्थाओं और उपान्तरों (प्रणाली) से पहले है.
Prop. II.Two substances, whose attributes are different, have nothing in common.
प्रस्ताव 2 : दो सत्त्व जिनके गुण भिन्न हो,उनके बीच कुछ भी उभयनिष्ठ (सामान्य) नहीं होता.
Prop. III.Things which have nothing in common cannot be one the cause of the other.
प्रस्ताव 3. अगर दो चीज़ों के बीच कुछ भी उभयनिष्ठ (सामान्य) न हो, तो वो एक दूसरे का कारण नहीं हो सकती.
Prop. IV.Two or more distinct things are distinguished one from the other, either by the difference of the attributes of the substances, or by the difference of their modifications.
प्रस्ताव ४. दो या अधिक चीजें एक दूसरे से अलग या तो सत्त्व के गुण–धर्मों के अंतर के कारण या फिर अपने उपातंरों (प्रणाली) में भेद के कारण पहचानी जाती हैं.
Proof.—Everything which exists, exists either in itself or in something else (Ax. i.),—that is (by Deff. iii. and v.), nothing is granted in addition to the understanding, except substance and its modifications. Nothing is, therefore, given besides the understanding, by which several things may be distinguished one from the other, except the substances, or, in other words (see Ax. iv.), their attributes and modifications. Q.E.D.
प्रमाण– जो भी अस्तित्व में है, वह या तो स्वयं से है या अन्य से (स्वयंसिद्ध १), जिसका अर्थ (परिभाषा ३ और ५ से) यह है कि हमारे बोध के लिए सत्त्व और उनकी अवस्थाओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है. हमारे बोध के अलावा कुछ भी नहीं जिससे बहुत सी चीजें एक दूसरे अलग पहचानी जाए, सिवा सत्त्व या दूससे शब्दों में (स्वयंसिद्ध ४) उसके गुण और उपांतरों के.
{
अनुवादककी टिप्पणी:‘भेद’ की अवधारणा भारतीय दर्शन में सर्वाधिक चर्चित रही है. द्वैत, अद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, काश्मीर शिवाद्वय और बौद्धों में इस पर गहरा विचार हुआ है.दार्शनिक चर्चा में भेद को तीन अर्थों में लिया जाता है – १. अन्योन्याभाव २. वैधर्म्य ३. वस्तु का स्वरूप. शिवाद्वयवादी दार्शनिक अन्योन्याभाव (स्तम्भ में कुम्भ का अभाव, कुम्भ में स्तम्भ का अभाव), वैधर्म्य (गुण–धर्मों की विषमता) और वस्तु के स्वरूप – तीनों को ही भेद के लिए अपर्याप्त मानते हैं. क्षेमराज के शिष्य महेश्वरानन्द अपने ग्रंथ ‘महार्थमंजरी परिमल’ में यह घोषित करते हैं कि स्तम्भ से कुम्भ भिन्न है और कुम्भ से स्तम्भ भिन्न है, इत्यादि रूप ही भेद–व्यवहार है और इस भेद की सिद्धि प्रमाता में विश्रान्त होने पर शान्त होती है.
Prop. V. There cannot exist in the universe two or more substances having the same nature or attribute.
प्रस्ताव ५. प्रकृति में दो या दो से ज्यादा सत्त्व एक ही गुण या प्रकृति के नहीं हो सकते.
Proof.—If several distinct substances be granted, they must be distinguished one from the other, either by the difference of their attributes, or by the difference of their modifications (Prop. iv.). If only by the difference of their attributes, it will be granted that there cannot be more than one with an identical attribute. If by the difference of their modifications—as substance is naturally prior to its modifications (Prop. i.),—it follows that setting the modifications aside, and considering substance in itself, that is truly, (Deff. iii. and vi.), there cannot be conceived one substance different from another,—that is (by Prop. iv.), there cannot be granted several substances, but one substance only. Q.E.D.
{
अनुवादककी टिप्पणी: यहाँ स्पिनोजा अपना ‘अद्वैतवाद’ प्रतिपादित करते हैं. हम आगे देखेंगे कि स्पिनोजा किस तरह बाह्य वस्तु की सत्ता को सत् मान कर और चेतना को भी सत् मान कर अपना सिद्धांत स्थापित करते हैं. यहाँ यह उद्धृत करना उपयोगी है कि अद्धैत वेदांत में बाह्य वस्तु की सत्ता को प्रातिभासिक माना गया है और वहाँ अद्वैत का अर्थ जीव और ब्रह्म की एकता से है, न कि वस्तु और चेतना की एकता से, जो इस दर्शन में सत्त्व की प्रणाली से परिभाषित है. }प्रचण्ड प्रवीर : बारुक स्पिनोज़ा के ‘नीतिशास्त्र’ को कैसे पढ़ें?
प्रत्यूष पुष्कर : स्पिनोज़ा की दार्शनिक अवधारणाएँ
prachand@gmail.com