ll ईश के बारे में ll
(चौथा हिस्सा)
PROP. XXVIII. Every individual thing, or everything which is finite and has a conditioned existence, cannot exist or be conditioned to act, unless it be conditioned for existence and action by a cause other than itself, which also is finite, and has a conditioned existence; and likewise this cause cannot in its turn exist, or be conditioned to act, unless it be conditioned for existence and action by another cause, which also is finite, and has a conditioned existence, and so on to infinity.
प्रस्तावना २८- प्रत्येक चीज़, और वो सभी चीज़े जो परिमित हैं, सीमित हैं, जिनका अनुकूलित अस्तित्व है, वो कार्य करने या सत्ता में होने के लिए बाध्य नहीं की जा सकती, जबतक कि वह अनुकूलन किसी ऐसे कारण से ना हुआ हो, जो उनसे इतर हो, और ठीक उसी तरह से वह कारण भी तबतक अस्तित्व में नहीं हो सकता या कार्य नहीं कर सकता, जबतक कि वह स्वयं से इतर किसी कारण से अनुकूलित नहीं किया गया हो, वह कारण जो फिर से परिमित होगा, जिसका अपना एक अनुकूलित अस्तित्व होगा, आदि, आदि.
Proof. — Whatsoever is conditioned to exist and act, has been thus conditioned by God (by Prop. xxvi. and Prop. xxiv., Coroll.).
But that which is finite, and has a conditioned existence, cannot be produced by the absolute nature of any attribute of God; for whatsoever follows from the absolute nature of any attribute of God is infinite and eternal (by Prop. xxi.).
प्रमाण.- वह सबकुछ जो अस्तित्व में होने के लिए या कार्य करने के लिए अनुकूलित है, इसीलिए ईश के द्वारा अनुकूलित की गयी हैं (प्रस्तावना २६ और प्रस्तावना २४, उपप्रमेय से).
लेकिन वह जो परिमित है, और जिसका अनुकूलित अस्तित्व है, वह ईश के किसी गुणधर्म की नितांत प्रकृति द्वारा निर्मित नहीं हो सकता, क्यूंकि वह जो ईश के किसी गुणधर्म की नितांत प्रकृति से अवधारित है वह अपरिमित और शाश्वत है (प्रस्तावना २१से).
It must, therefore, follow from some attribute of God, in so far as the said attribute is considered as in some way modified; for substance and modes make up the sum total of existence (by Ax. i. and Def. iii., v.), while modes are merely modifications of the attributes of God. But from God, or from any of his attributes, in so far as the latter is modified by a modification infinite and eternal, a conditioned thing cannot follow. Wherefore it must follow from, or be conditioned for, existence and action by God or one of his attributes, in so far as the latter are modified by some modification which is finite, and has a conditioned existence. This is our first point. Again, this cause or this modification (for the reason by which we established the first part of this proof) must in its turn be conditioned by another cause, which also is finite, and has a conditioned existence, and, again, this last by another (for the same reason); and so on (for the same reason) to infinity. Q.E.D.
इसीलिए, अनिवार्यत:, यह ईश का ही कोई गुणधर्म होगा जो अबतक कही गयी बातों के अनुसार उपांतरित हो सकता है, कि सत्त्व और उसकी प्रणालियाँ मिलकर अस्तित्व का संगठन करती हैं (स्वयंसिद्ध १और परिभाषा ३ और ५ से), जहाँ प्रणालियाँ केवल ईश के गुणधर्मों का उपांतरण मात्र हैं. लेकिन ईश से या ईश के किसी गुणधर्म से, गुणधर्म जो कि किसी उपांतरण द्वारा उपांतरित है, जो अनंत और शाश्वत है, से किसी अनुकूलित चीज़ का अनुसरण असंभव है. इसीलिए वह अनुसरित या अनुकूलित की जा सकती है, अगर ईश के गुणधर्म, किसी ऐसे उपांतरण से उपान्तरित हो जो सीमित हो और जिसका अस्तित्व अनुकूलित हो. यह हमारी पहली बात है. फिर, यह कारण या यह उपांतरण (जिस तर्क से हमने इस प्रमाण का पहला हिस्सा यहाँ निर्धारित किया है) अपने में भी किसी दूसरे कारण से अनुकूलित होना होगा, जो फिर से सीमित होगा, या जिसका अनुकूलित अस्तित्व होगा, और वह कारण या वह उपांतरण फिर किसी दूसरे से अनंत तक दुहराता हुआ होगा.
Note. — As certain things must be produced immediately by God, namely those things which necessarily follow from his absolute nature, through the means of these primary attributes, which, nevertheless, can neither exist nor be conceived without God, it follows:— 1. That God is absolutely the proximate cause of those things immediately produced by him. I say absolutely, not after his kind, as is usually stated. For the effects of God cannot either exist or be conceived without a cause (Prop. xv. and Prop. xxiv. Coroll.). 2. That God cannot properly be styled the remote cause of individual things, except for the sake of distinguishing these from what he immediately produces, or rather from what follows from his absolute nature. For, by a remote cause, we understand a cause which is in no way conjoined to the effect. But all things which are, are in God, and so depend on God, that without him they can neither be nor be conceived.
नोट-कुछ चीज़ों का निर्माण सीधा ईश के द्वारा ही हुआ होगा, वो चीज़ें जो ईश के नितांत प्रकृति से अवधारित है, उसके प्राथमिक गुणधर्मों के माध्यम से, जो, किसी भी तरीके से, बिना ईश के ना तो सत्ता या अस्तित्व में हो सकती है, ना ही अवधारित ही की जा सकती है. इसके अनुसार,
१. ईश उन सभी चीज़ों का समीपस्थ कारण है जो उसके द्वारा निर्मित हैं. ईश के प्रभाव चूँकि बिना किसी कारण के ना तो अवधारित है ना ही प्रभाव में है, इसीलिए मैं मैं उपरोक्त बात से पूर्णतया सहमत होऊंगा (प्रस्तावना १५और प्रस्तावना २४ उप प्रमेय से)
२. ईशको प्रत्येक चीज़ का दूरस्थ कारण कह देना यथोचित नहीं होगा, तबतक जबतक कि उन्हें उन चीज़ों से पृथक ना किया जा रहा हो जो ईश ने तत्काल निर्मित की हो, या जो उसके नितांत प्रकृति से अवधारित हो. दूरस्थ कारण से हमारा मतलब उस कारण से है जो प्रभाव से किसी भी रूप में जुड़ा हुआ नहीं है. लेकिन जो भी चीज़े हैं, वो ईश में है, और ईश पर आश्रित हैं, और बिना उसके ना तो हो सकती हैं, ना ही अवधारित ही की जा सकती है.
PROP. XXIX. Nothing in the universe is contingent, but all things are conditioned to exist and operate in a particular manner by the necessity of the divine nature.
प्रस्तावना २९. ब्रह्माण्ड में कुछ भी आकस्मिक नहीं है, जबकि सभी चीज़ों को अस्तित्व में होने के लिए अनुकूलित किया गया है, दैवीय प्रकृति की अनिवार्यतों से एक विशेष रूप में संचालित होने के लिए.
अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
contingent = आकस्मिक/ अनिश्चित/ दैववश
Proof. — Whatsoever is, is in God (Prop. xv.). But God cannot be called a thing contingent. For (by Prop. xi.) he exists necessarily, and not contingently. Further, the modes of the divine nature follow therefrom necessarily, and not contingently (Prop. xvi.); and they thus follow, whether we consider the divine nature absolutely, or whether we consider it as in any way conditioned to act (Prop. xxvii.). Further, God is not only the cause of these modes, in so far as they simply exist (by Prop. xxiv, Coroll.), but also in so far as they are considered as conditioned for operating in a particular manner (Prop. xxvi.).
प्रमाण. – वह सब कुछ जो है, ईश में है (प्रस्तावना १५). लेकिन ईश को आकस्मिक नहीं कहा जा सकता. क्योंकि (प्रस्तावना ११ से) वह अनिवार्यत: अस्तित्व में है, ना कि आकस्मिक. आगे, दैवीय प्रकृति की प्रणालियाँ अनिवार्यत: हैं, आकस्मिक रूप से नहीं (प्रस्तावना १६); और वो उसी रूप में अनुगमन भी करती है अब चाहे हम इसे नितांत दैवीय प्रकृति माने, या यह माने कि वह ऐसे कार्य करने को बाध्य या अनुकूलित है (प्रस्तावना २७), और ईश इन प्रणालियों का कारण केवल इसीलिए नहीं है ताकि वो केवल अस्तित्व में हो सके, लेकिन इसलिए भी ताकि वो एक अनुकूलित निश्चित रूप में कार्य भी कर सके (प्रस्तावना २६)
If they be not conditioned by God (Prop. xxvi.), it is impossible, and not contingent, that they should condition themselves; contrariwise, if they be conditioned by God, it is impossible, and not contingent, that they should render themselves unconditioned. Wherefore all things are conditioned by the necessity of the divine nature, not only to exist, but also to exist and operate in a particular manner, and there is nothing that is contingent. Q.E.D.
अगर वो ईश के द्वारा अनुकूलित नहीं की गयी हो तो (प्रस्तावना २६), यह असंभव है और आकस्मिक नहीं है कि वो स्वयं को अनुकूलित कर सके, इसके ठीक विपरीत, अगर वो ईश के द्वारा अनुकूलित की गयी हो तो यह असंभव है और आकस्मिक नहीं कि वह स्वयं को इस अनुकूलन या बाध्यता से मुक्त कर सके. जिस कारण से, सभी चीज़े दैवीय प्रकृति की आवश्यकताओं के द्वारा अनुकूलित की है, इसीलिए नहीं ताकि वो केवल अस्तित्व में हो सके, बल्कि इसीलिए भी ताकि वो अस्तित्व में होने के साथ-साथ कार्य भी कर सके, और कुछ भी ऐसा नहीं हो जो आकस्मिक हो.
Note. — Before going any further, I wish here to explain, what we should understand by nature viewed as active (natura naturans), and nature viewed as passive (natura naturata). I say to explain, or rather call attention to it, for I think that, from what has been said, it is sufficiently clear, that by nature viewed as active we should understand that which is in itself, and is conceived through itself, or those attributes of substance, which express eternal and infinite essence, in other words (Prop. xiv., Coroll. i., and Prop. xvii., Coroll. ii) God, in so far as he is considered as a free cause.
नोट. – आगे कहीं भी जाने से पहले, मैं यह व्याख्या करना चाहता हूँ कि हमें ईश के सक्रिय रूप में देखे जाने से (नेचुरा नेचुरंस) और ईश के निष्क्रिय रूप में देखे जाने से क्या समझना चाहिए. मैं इस तरफ ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा कि, जो कहा गया है, उससे यह बात स्पष्ट है कि, ईश को सक्रिय रूप से देखे जाने से हमें यह समझना चाहिए कि वह जो स्वयं में है, स्वयं से अवधारित है, या सत्त्व के वो गुणधर्म जो, अपरिमितता और शाश्वतत्व को अभिव्यक्त करते हैं, दूसरे शब्दों में (प्रस्तावना १५, उप प्रमेय १, और प्रस्तावना १७, उपप्रमेय २ से) जिसे ईश कहते है, तबतक जबतक कि वह एक स्वतंत्र कारण के रूप में देखा जाए.
By nature viewed as passive I understand all that which follows from the necessity of the nature of God, or of any of the attributes of God, that is, all the modes of the attributes of God, in so far as they are considered as things which are in God, and which without God cannot exist or be conceived.
प्रकृति को निष्क्रिय रूप में देखने से मैं समझता हूँ कि वह जो ईश की प्रकृति की अनिवार्यताओं से अनुगमित है, या ईश के किसी गुणधर्म के,मतलब, ईश की गुणधर्मों की सभी प्रणालियों में, विद्यमान वो सभी चीज़े जो ईश में है, और जो बिना ईश के ना तो अस्तित्व में हो सकती है, ना अवधारित ही की जा सकती है.
{अनुवादक की टिप्पणी: हम यहाँ फिर याद दिलाना चाहेंगे कि काश्मीर शिवाद्वय और बौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति ‘कारणकार्यवाद’ को जड़ वस्तुओं के अनुमान के संदर्भ में ही लेते हैं. हालांकि स्पिनोजा यहाँ जड़ और चेतन का भेद नहीं कर रहे है, लेकिन यहाँ तर्कों का साम्य सांख्य दर्शन जैसा बन रहा है, जिसमें जड़ चीजों को, यहाँ तक कि मन, बुद्धि और अहंकार को भी प्रकृति से उत्पन्न माना जाता है. वहाँ प्रकृति एक भिन्न तत्त्व इसलिए है कि उसकी उत्पत्ति नहीं मानी जाती. स्पिनोज़ा अपने ईश द्वारा सृष्टि के विचार में योगजनित सृष्टि को नकारने का प्रयास कर रहे हैं. परन्तु हम इस विचार करेंगे कि क्या यह उनके तर्कों से भी निगमित हो रहा है? शिवाद्वयवाद में और अन्य तांत्रिक शाखाओं में योगसृष्टि योगी द्वारा की गयी सृष्टि जिसमें बिना बीज के फूल पैदा कर देना, शून्य से कुछ उत्पन्न करने देना जैसे सिद्धियाँ वर्णित हैं. स्वामी विवेकानंद ऐसी योगसृष्टि के बारे में तर्क देते हैं कि यह सृष्टि भी किसी नियम से ही हुयी होगी, जिसे लौकिक रूप में सुलभ तरीके से नहीं जाना जाता. अगर यह सृष्टि किसी एक मनुष्य के द्वारा सम्भव है, तो दूसरे मनुष्य के द्वारा किसी न किसी विधि से उत्पन्न किया जा सकता ही होगा, अतैव योगसृष्टि को चमत्कार समझ करउससे बहुत प्रभावित होने की आवश्यकता नहीं है.
यह विचारणीय है कि क्या स्पिनोज़ा के सिंद्धातों से योगसृष्टि का आधार ईश की सक्रिय प्रकृति से लिया जा सकता है? या स्पिनोज़ा इस अवधारणा का पुरजोर खण्डन करते? }
PROP. XXX. Intellect, in function (actu) finite, or in function infinite, must comprehend the attributes of God and the modifications of God, and nothing else.
प्रस्तावना ३०. मति, सीमित या असीमित रूप से कार्यरत, ईश के गुणधर्मों या उपान्तरणों में अभिसारित है, और किसी के नहीं.
Proof. — A true idea must agree with its object (Ax. vi.); in other words (obviously), that which is contained in the intellect in representation must necessarily be granted in nature. But in nature (by Prop. xiv., Coroll. i.) there is no substance save God, nor any modifications save those (Prop. xv.) which are in God, and cannot without God either be or be conceived. Therefore the intellect, in function finite, or in function infinite, must comprehend the attributes of God and the modifications of God, and nothing else. Q.E.D.
प्रमाण. – एक सत्य विचार हमेशा अपने प्रयोजन/विषय वस्तु से सहमति में होता है (स्वयंसिद्ध ६), दूसरे शब्दों में (स्पष्टत:), वह जो मति में ग्राह्य है, उसका प्रकृति में आवश्यक रूप से प्रतिनिधित्व है. लेकिन प्रकृति में (प्रस्तावना १५, उपप्रमेय १ से) ईश के अलावा कोई सत्त्व, या ईश में अन्तर्निहित उपान्तरणों के अलावा कोई उपांतरण नहीं है, और बिना ईश के अवधारित भी नहीं की जा सकती. इसीलिए मति, सीमित या सीमित रूप से कार्यरत, ईश के गुणधर्मों और उपान्तरणों को अभिसारित करती है, किसी और के नहीं.
PROP. XXXI. The intellect in function, whether finite or infinite, as will, desire, love, &c., should be referred to passive nature and not to active nature.
प्रस्तावना ३१.सक्रिय मति, सीमित या असीमित, जैसे संकल्प, इच्छा, प्रेम, आदि, को निष्क्रिय प्रकृति से सन्दर्भित किया जाना चाहिये, सक्रिय से नहीं.
Proof. — By the intellect we do not (obviously) mean absolute thought, but only a certain mode of thinking, differing from other modes, such as love, desire, &c., and therefore (Def. v.) requiring to be conceived through absolute thought. It must (by Prop. xv. and Def. vi.), through some attribute of God which expresses the eternal and infinite essence of thought, be so conceived, that without such attribute it could neither be nor be conceived. It must therefore be referred to nature passive rather than to nature active, as must also the other modes of thinking. Q.E.D.
प्रमाण. – मति (बुद्धि) से हमारा अर्थ केवल विचार मात्र से नहीं है, जबकि सोचने की एक प्रणाली से है, दूसरी प्रणालियों से इतर, जैसे प्रेम, इच्छा, इत्यादिऔर इसीलिए (परिभाषा ५), जिसकी अवधारणा केवल विचार मात्र से हो. इसकी अवधारणा ईश के किसी भी ऐसे गुणधर्म से अवधारित हो सकती है जो विचार की असीमितता और शाश्वतत्व को अभिव्यक्त करते हो, कि बिना ऐसे किसी गुणधर्म के, (प्रस्तावना १५और परिभाषा६ से) विचार ना ही, हो सकता है, ना ही अवधारित ही किया जा सकता है. इसीलिए इसका सन्दर्भ प्रकृति के निष्क्रिय रूप से है ना कि सक्रिय, जैसे कि विचार के अन्य प्रणालियों का भी.
Note. — I do not here, by speaking of intellect in function, admit that there is such a thing as intellect in potentiality: but, wishing to avoid all confusion, I desire to speak only of what is most clearly perceived by us, namely, of the very act of understanding, than which nothing is more clearly perceived. For we cannot perceive anything without adding to our knowledge of the act of understanding.
नोट. – मैं यहाँ, मति (बुद्धि) के कार्य के बारे में बात करते हुए, ऐसा नहीं कह रहा कि, मति संभाव्यता में नहीं है, जबकि, सभी भ्रमों को अलग कर, मैं केवल उसकी बात कर रहा हूँ जो, हमारे द्वारा स्पष्ट रूप से ग्राह्य है, समझने की प्रक्रिया जैसा, जिससे बेहतर कुछ भी संकल्पनीय नहीं है. क्योंकि हम बिना अपने समझने की क्रिया के ज्ञान को बढ़ाये हुएकुछ भी नहीं ग्रहण कर सकते.
PROP. XXXII. Will cannot be called a free cause, but only a necessary cause.
प्रस्तावना ३२.संकल्प को मुक्त कारण नहीं कहा जा सकता, केवल एक आवश्यक कारण कहा जा सकता है.
अंग्रेजी शब्दों के समानार्थक हिन्दी शब्द
Will = इच्छाशक्ति / संकल्प/ निश्चय/ क्रतु
Volition = इच्छाशक्ति
Proof. — Will is only a particular mode of thinking, like intellect; therefore (by Prop. xxviii.) no volition can exist, nor be conditioned to act, unless it be conditioned by some cause other than itself, which cause is conditioned by a third cause, and so on to infinity. But if will be supposed infinite, it must also be conditioned to exist and act by God, not by virtue of his being substance absolutely infinite, but by virtue of his possessing an attribute which expresses the infinite and eternal essence of thought (by Prop. xxiii.). Thus, however it be conceived, whether as finite or infinite, it requires a cause by which it should be conditioned to exist and act. Thus (Def. vii.) it cannot be called a free cause, but only a necessary or constrained cause. Q.E.D.
प्रमाण. –संकल्प केवल एक सोचने की प्रणाली है, जैसे मति, इसीलिए (प्रस्तावना २८ से) , कोई इच्छाशक्ति नहीं हो सकती, ना ही यह कार्य करने के लिए बाध्य किया जा सकती है, तबतक जबतक की यह स्वयं से इतर किसी कारण से अनुकूलित या बाध्य ना किया गया हो, जो कारण फिर किसी तीसरे कारण से.. आदि आदि… लेकिन अगर संकल्प को असीमित मान लिया जाए,तब भी वह अस्तित्व में होने या कार्य करने के लिए ईश के द्वारा ही अनुकूलित होगा, इस गुण से नहीं कि वह सत्त्व नितांत असीमित है, बल्कि इससे कि उसके पास वह गुणधर्म है, जो विचार के असीमित और शाश्वत सार को अभिव्यक्त करता है (प्रस्तावना २३ से). इसीलिए, अब चाहे यह जैसे भी अवधारित किया जाए, सीमित या असीमित, इसे एक कारण चाहिए, जिससे कि वह अस्तित्व में होने या कार्य करने करने लिए अनुकूलित किया जा सके. इसीलिए (परिभाषा ७ से) यह एक मुक्त कारण नहीं हो सकता,यह केवल एक अनिवार्य या परिमित कारण ही हो सकता है.
{अनुवादक की टिप्पणी–‘Will’ का अनुवाद इच्छा (desire) या कामना करने के बजाय संकल्प या क्रतु करना ठीक रहेगा. बृहदारण्यकोपनिषद में क्रतु शब्द का प्रयोग कामना और कर्म के बीच के निश्चय या संकल्प के रूप में प्रयोग हुआ है. यह विचारणीय है कि हिन्दी में इस शब्द का प्रयोग क्या किया गया है?
अथो खल्वाहु: काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति यत्क्रतुर्भवति तत् कर्म कुरुते यत् कर्म कुरुते तदभिसम्पद्यते ..
कोई कोई कहते हैं कि यह पुरुष काममय ही है, वह जैसी कामना वाला होता है, वैसा ही संकल्प करता है, जैसा संकल्पवाला होता है, वैसा ही कर्म करता है और जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है.
– बृहदारण्यकोपनिषद् – अध्याय ४, ब्राह्मण ४, श्लोक ५}
Coroll. I.-Hence it follows, first, that God does not act according to freedom of the will.
उप-प्रमेय. इसीलिए यह प्रमाणित होता है कि ईश इच्छा (संकल्प) की स्वतंत्रता का अनुसरण करते हुए कार्य नहीं करता.
Coroll. II.-It follows, secondly, that will and intellect stand in the same relation to the nature of God as do motion, and rest, and absolutely all natural phenomena, which must be conditioned by God (Prop. xxix.) to exist and act in a particular manner. For will, like the rest, stands in need of a cause, by which it is conditioned to exist and act in a particular manner. And although, when will or intellect be granted, an infinite number of results may follow, yet God cannot on that account be said to act from freedom of the will, any more than the infinite number of results from motion and rest would justify us in saying that motion and rest act by free will. Wherefore will no more appertains to God than does anything else in nature, but stands in the same relation to him as motion, rest, and the like, which we have shown to follow from the necessity of the divine nature, and to be conditioned by it to exist and act in a particular manner.
उप-प्रमेय २ –इससे इस बात का अनुगमन है कि इच्छा(संकल्प) और मति ईश से एक ही सम्बन्ध में आते है, जैसे, गति, विश्राम और बाकी सभी प्राकृतिक घटनाएँ, जो ईश के द्वारा अनुकूलित की गयी हो, अस्तित्व में होने या कार्य करने के लिए (प्रस्तावना २९) इच्छा (संकल्प) के लिए भी बाकी सभी की तरह, एक कारण का होना अनिवार्य है, जिससे वह अस्तित्व में होने या एक विशिष्ट रूप से कार्य करने को अनुकूलित किया गया हो. और, जब भी, मति या इच्छा (इच्छा) दी गयी हो, तो उससे असीमित परिणाम निकल सकते है, निकाले जा सकते है, लेकिन इस बात को मानकर ऐसा नहीं मान लिया जा सकता है कि ईश मुक्त-इच्छा से कार्य कर सकता है. ठीक वैसे ही जैसे गति और विश्राम से अनगिनत परिणाम निकाले जा सकते है, इसका मतलब यह नहीं कि गति और विश्राम मुक्त-इच्छा से कार्य कर रहें है, इसीलिए इच्छा, प्रकृति में उपस्थित सभी चीज़ों की तरह ही ईश से सम्बंधित है, ठीक उसी सम्बन्ध में जिस सम्बन्ध से उससे गति, विश्राम, और बाकी चीज़ें जुड़ी है, जिनके बारे में हम यह प्रदर्शित कर चुके हैं कि वे दैवीय प्रकृति के अनिवार्यताओं/आवश्यकताओं का अनुगमन करती है, और अस्तित्व में होने और एक विशिष्ट तरीके से कार्य करने के लिए अनुकूलित की गयी है.
PROP. XXXIII. Things could not have been brought into being by God in any manner or in any order different from that which has in fact obtained.
प्रस्तावना ३३. चीज़े अस्तित्व में किसी भी और तरीके से नहीं ला जा सकती थी, जिस तरीके (क्रम) से वे अस्तित्व में लायी गयी हैं.
Proof-All things necessarily follow from the nature of God (Prop. xvi.), and by the nature of God are conditioned to exist and act in a particular way (Prop. xxix.). If things, therefore, could have been of a different nature, or have been conditioned to act in a different way, so that the order of nature would have been different, God’s nature would also have been able to be different from what it now is; and therefore (by Prop. xi.) that different nature also would have perforce existed, and consequently there would have been able to be two or more Gods. This (by Prop. xiv., Coroll. i.) is absurd. Therefore things could not have been brought into being by God in any other manner, &c. Q.E.D.
प्रमाण- सभी चीज़े ईश की प्रकृति से अनुसरित हैं, (प्रस्तावना १६), और ईश के द्वारा ही अस्तित्व में होने या एक विशिष्ट रूप से कार्य करने के लिए अनुकूलित की गयी हैं (प्रस्तावना २९). इसीलिए अगर चीज़े किसी दूसरी प्रकृति की होती, या किसी दूसरे रूप में कार्य करने के लिए अनुकूलित की गयी होती, तो उनका क्रम भी अलग होता, और ईश की प्रकृति भी, जो अभी है उससे इतर होती, और इसीलिए (प्रस्तावना ११ से), अलग प्रकृतियाँ होती, और परिणामस्वरूप दो या दो से ज्यादा ईश होते, जो, (प्रस्तावना १४, उपप्रमेय १ से) असंगत होता. इसीलिए चीज़े अस्तित्व में किसी दूसरे या अलग क्रम/तरीके से नहीं लायी जा सकती थी.
Note I.—As I have thus shown, more clearly than the sun at noonday, that there is nothing to justify us in calling things contingent, I wish to explain briefly what meaning we shall attach to the word contingent; but I will first explain the words necessary and impossible.
A thing is called necessary either in respect to its essence or in respect to its cause; for the existence of a thing necessarily follows, either from its essence and definition, or from a given efficient cause. For similar reasons a thing is said to be impossible; namely, inasmuch as its essence or definition involves a contradiction, or because no external cause is granted, which is conditioned to produce such an effect; but a thing can in no respect be called contingent, save in relation to the imperfection of our knowledge.
A thing of which we do not know whether the essence does or does not involve a contradiction, or of which, knowing that it does not involve a contradiction, we are still in doubt concerning the existence, because the order of causes escapes us,such a thing, I say, cannot appear to us either necessary or impossible. Wherefore we call it contingent or possible.
नोट १– जैसा मैंने दिखाया है, दोपहर में सूरज से कहीं अधिक साफ, कि ऐसा कुछ नहीं है जिससे चीजों को आकस्मिक कह कर न्यायसंगत ठहराना, मैं संक्षिप्त रूप में यहाँ आकस्मिक के लिये गये अर्थ की व्याख्या करना चाहूँगा, पर मैं आवश्यक और असम्भव शब्दों की व्याख्या करना चाहूँगा.
कोई वस्तु या तो अपने सार में या अपने कारण में आवश्यक कही जा सकती है, जिससे उस वस्तु के अस्तित्व आवश्यक रूप से होने के लिये या तो उसके सार या परिभाषा से, या फिर किसी दिये गये दक्ष कारण से अनुसरित किया जा सके. इन्हीं तरह के समान कारणों से एक वस्तु असम्भव कही जा सकती है, उदाहरण के तौर पर, जबतक कि उसके सार और परिभाषा में कोई अंतर्विरोध हो, या इसलिये कि ऐसे बाह्य कारण के दिये जाने से जो कि ऐसा कार्य देने के लिये अनुकूलित हो, पर एक वस्तु किसी भी रूप में आकस्मिक नहीं कही जा सकती, हमारी अपूर्ण ज्ञान के सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए.
कोई ऐसी वस्तु जिसके बारे में हमें पता नहीं कि कि उसके सार में अंतर्विरोध है या नहीं, या उसके, यह जानते हुये कि इसमें कोई अंतर्विरोध नहीं है फिर भी हम उसके अस्तित्व के विषय में सशंकित हो, क्योंकि कारणों का क्रम हमसे कहीं छूटा जाता हो, ऐसी वस्तु को, मैं कहता हूँ, हमें आवश्यक या असम्भव जैसी प्रतीत नहीं होगा. यहाँ हम उसे आकस्मिक या सम्भव कहेंगे.
Note II.—It clearly follows from what we have said, that things have been brought into being by God in the highest perfection, inasmuch as they have necessarily followed from a most perfect nature. Nor does this prove any imperfection in God, for it has compelled us to affirm his perfection. From its contrary proposition, we should clearly gather (as I have just shown), that God is not supremely perfect, for if things had been brought into being in any other way, we should have to assign to God a nature different from that, which we are bound to attribute to him from the consideration of an absolutely perfect being.
नोट २– जो हमने कहा है उससे यह स्पष्ट रूप से अनुसरित है कि वस्तुएँ जो ईश के द्वारा सर्वोच्च उत्कृष्टता में अस्तित्व में लायी गयी हैं, इतना कि वे अवश्य रूप से सबसे अधिक उत्कृष्ट प्रकृति से अनुसरित हुये हैं. इससे किसी तरह ईश की किसी अनउत्कृष्टता (अपूर्णता) सिद्ध नहीं होती, क्योंकि यह हमें उनकी उत्कृष्टता को मानने को बाध्य करता है. इसके विरोधी प्रस्ताव से, हमें यह स्पष्टतया समझ सकते हैं (जैसा कि मैंने दिखाया है), कि ईश पूरी तरह से उत्कृष्ट नहीं है, क्योंकि चीजें किसी और तरह से अस्तित्व में लायी गयी हैं, उस स्थिति में हमें ईश को एक भिन्न प्रकृति की अवधारणा देनी पड़ेगी, जो हम उसे सर्वोत्तम उत्कृष्ट होने के कारण कहते हैं.
I do not doubt, that many will scout this idea as absurd, and will refuse to give their minds up to contemplating it, simply because they are accustomed to assign to God a freedom very different from that which we (Def. vii.) have deduced. They assign to him, in short, absolute free will. However, I am also convinced that if such persons reflect on the matter, and duly weigh in their minds our series of propositions, they will reject such freedom as they now attribute to God, not only as nugatory, but also as a great impediment to organized knowledge. There is no need for me to repeat what I have said in the note to Prop. xvii. But, for the sake of my opponents, I will show further, that although it be granted that will pertains to the essence of God, it nevertheless follows from his perfection, that things could not have been by him created other than they are, or in a different order; this is easily proved, if we reflect on what our opponents themselves concede, namely, that it depends solely on the decree and will of God, that each thing is what it is.
मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि बहुत से लोग इस विचार को अनर्थक पायेंगे, और अपने दिमाग को उस ओर सोचने से मना कर देंगे, केवल इसलिये क्योंकि वे ईश को जिस स्वतंत्रता देने के आदी रहें हैं वह हमसे (परिभाषा ७) कहीं अलग है. वे ईश को, संक्षिप्त रूप में, संपूर्ण स्वतंत्रता देते हैं. हालांकि, मैं इस बात से भी सहमत हूँ कि यदि ये व्यक्ति वस्तुस्थिति पर विचारें और हमारी सभी प्रस्तावनाओं पर ध्यान दें, वे ईश को दिये हुये उन सभी स्वतंत्रता को नकार देंगे, केवल निरर्थक कह के ही नहीं, बल्कि हमारे सम्यक ज्ञान के लिये बड़े अवरोध के कारण भी. मैंने जो प्रस्ताव १६ के नोट में कहा है, उसे मुझे फिर से दोहराने की कोई आवश्यकता नहीं है, पर फिर भी मेरे विरोधियों के लिये, मैं आगे दिखाउँगा कि यद्यपि यह माना गया है कि संकल्प (इच्छा) ईश के सार से सम्बन्धित है, यह उस तरह से उसकी उत्कृष्टता से कहीं अनुसरित नहीं होती कि वस्तुएँ जो उसके द्वारा बनायी गयीं हैं, इनके अलावा किसी और तरीके से बनायी जा सकती हैं. यह आसानी से सिद्ध किया जा सकता है, यदि हम यह विचारें कि हमारे विरोधी स्वयं में क्या सोचते हैं, उदाहरण के तौर पर, यह केवल उस पर निर्भर है कि ईश का आदेश और उसका संकल्प यही है कि हर वस्तु वही है जो वह है.
If it were otherwise, God would not be the cause of all things. Further, that all the decrees of God have been ratified from all eternity by God himself. If it were otherwise, God would be convicted of imperfection or change. But in eternity there is no such thing as when, before, or after; hence it follows solely from the perfection of God, that God never can decree, or never could have decreed anything but what is; that God did not exist before his decrees, and would not exist without them. But, it is said, supposing that God had made a different universe, or had ordained other decrees from all eternity concerning nature and her order, we could not therefore conclude any imperfection in God. But persons who say this must admit that God can change his decrees.
यदि यह किसी और तरह से होता तो ईश हर चीजों का कारण नहीं होते. आगे, ईश के सारे आदेश ईश के द्वारा ही शाश्वतत्व के लिये पुष्टिकृत किये गये हैं. यदि ऐसा किसी और तरह से होता तो ईश अनउत्कृष्ट सिद्ध होते या परिवर्तनशील कहे जाते. किन्तु शाश्वतत्व में ऐसा कुछ नहीं है जहाँ पहले या बाद में कहा जा सके, इसलिये केवल ईश्वर की उत्कृष्टता से ही अनुगमित होता है कि ईश ऐसा कुछ आदेश नहीं देते या नहीं दे सकते कि जो कि है कि ईश अपने आदेश पहले उपस्थित नहीं थे और उसके बिना नहीं होंगे. पर, यह कहा गया है कि माना जाये कि ईश ने कोई और ब्रह्माण्ड बनाया, या जहाँ बाकी प्रकृति और उसके क्रम के आदेशों को नियुक्त किया गया है, हम किसी तरह भी ईश में कोई अनउत्कृष्टता नहीं निगमित नही कर सकते. पर जो लोग ऐसा कहते हैं उनको यह मानना पड़ेगा कि ईश अपना आदेश बदलते रहते हैं.
For if God had ordained any decrees concerning nature and her order, different from those which he has ordained—in other words, if he had willed and conceived something different concerning nature—he would perforce have had a different intellect from that which he has, and also a different will. But if it were allowable to assign to God a different intellect and a different will, without any change in his essence or his perfection, what would there be to prevent him changing the decrees which he has made concerning created things, and nevertheless remaining perfect? For his intellect and will concerning things created and their order are the same, in respect to his essence and perfection, however they be conceived.
यदि ईश ने अपने आदेशों के इतर प्रकृति और उसके क्रम सम्बन्धी आदेशों को नियत किया है – दूसरे शब्दों में उन्होंने प्रकृति के सम्बन्ध में कुछ इतर संकल्पित या अवधारित किया है – उस स्थिति में उन्हें एक दूसरी तरह की मति (बुद्धि) और दूसरे तरह के संकल्प भी विवशतापूर्वक बनाने पड़ेंगे. लेकिन अगर ईश में दूसरे तरह के मति और संकल्प (इच्छा) की कल्पना बिना उनके उत्कृष्टता या सार में परिवर्तन की जा सके तो, क्या फिर उन्हें सृष्टि से जुड़े सभी आदेशों को परिवर्तन से कौन रोक सकता है और उसके बाद भी उत्कृष्ट रहा जाये? क्योंकि सृष्ट वस्तुओं और उनके क्रम के सम्बन्ध में उनकी मति और संकल्प (इच्छा) उनके सार और उत्कृष्टता के सम्बन्ध में एक ही हैं, चाहे वो किसी तरह अवधारित किये जायें.
Further, all the philosophers whom I have read admit that God\’s intellect is entirely actual, and not at all potential ; as they also admit that God\’s intellect, and God\’s will, and God\’s essence are identical, it follows that, if God had had a different actual intellect and a different will, his essence would also have been different ; and thus, as I concluded at first, if things had been brought into being by God in a different way from that which has obtained, God\’s intellect and will, that is (as is admitted) his essence would perforce have been different, which is absurd.
आगे, सभी दार्शनिक, जिन्हें मैंने पढ़ा है, ये स्वीकार करते कि ईश की मति (बुद्धि) पूरी तरह वास्तविक है और केवल सम्भाव्य नहीं है, क्योंकि वे यह भी स्वीकार करते हैं कि ईश की मति (बुद्धि) और ईश का संकल्प (इच्छा) और ईश का सार एक ही हैं, इस तरह यह अनुसरित होता है कि यदि ईश के पास यदि किसी और तरह का वास्तविक मति (बुद्धि) या दूसरी तरह का संकल्प (इच्छा) होते तो उनका सार भी अलग होता, और इस तरह से, जैसा मैंने पहले अनुगमित किया था कि यदि वस्तुएँ ईश के द्वारा किसी और तरह लाये गये होते, तो ईश की मति और संकल्प, और (जैसा स्वीकार किया गया है) उनका सार विवशतापूर्वक किसी और तरह का होता, जो कि अनर्थक है.
As these things could not have been brought into being by God in any but the actual way and order which has obtained; and as the truth of this proposition follows from the supreme perfection of God ; we can have no sound reason for persuading ourselves to believe that God did not wish to create all the things which were in his intellect, and to create them in the same perfection as he had understood them.
चूँकि ये वस्तुएँ ईश के द्वारा किसी और तरह अस्तित्व में नहीं लायी जा सकती बल्कि केवल वास्तविक तरीके से और प्राप्त हुए क्रम से, और इस प्रस्तावना का सत्यता से ईश की सर्वोत्तम उत्कृष्टता सिद्ध होती है. हमारे पास अपने को समझाने को इससे अधिक कोई और सुस्पष्ट तर्क नहीं है कि ईश ने सब कुछ उसी तरह से सृष्ट किया है जो उनकी मति में थी और सृष्टि के समय उसी उत्कृष्टता से थे जिस तरह ईश ने समझा था.
But, it will be said, there is in things no perfection nor imperfection; that which is in them, and which causes them to be called perfect or imperfect, good or bad, depends solely on the will of God. If God had so willed, he might have brought it about that what is now perfection should be extreme imperfection, and vice versâ. What is such an assertion, but an open declaration that God, who necessarily understands that which he wishes, might bring it about by his will, that he should understand things differently from the way in which he does understand them? This (as we have just shown) is the height of absurdity. Wherefore, I may turn the argument against its employers, as follows:—All things depend on the power of God. In order that things should be different from what they are, God\’s will would necessarily have to be different. But God\’s will cannot be different (as we have just most clearly demonstrated) from God\’s perfection.
पर, यह कहा जायेगा कि इन वस्तुओं में न उत्कृष्टता है और न ही अनउत्कृष्टता,इस तरह से कि जिनकी वजह से उत्कृष्ट या अनउत्कृष्ट, अच्छा या बुरा कहा जाये, केवल ईश के संकल्प (इच्छा) पर निर्भर करता है. यदि ईश ने इस तरह का संकल्प (इच्छा) किया है, वे उत्कृष्ट को अनउत्कृष्ट के रूप में भी ला सकते थे और इसी तरह से ठीक उल्टा भी. इस तरह का कथ्य कुछ और नहीं बल्कि ईश के बारे में कुछ वक्तव्य है कि ईश जो अपने संकल्प (इच्छा) के बारे में अवश्य ही समझते हैं और अपनी इच्छा से ही उसे ला सकते हैं कि वह वस्तुओं को किसी और तरह से समझें जिस तरह से वे समझते हैं? यह (जैसा कि हमने दिखाया है) अनर्थकता की पराकाष्ठा है. जहाँ मैं इस तर्क को तर्क देने वालों के विरुद्ध मोड़ता हूँ – सारी वस्तुएँ ईश के शक्ति पर निर्भर है. इस तरह वस्तुएँ अपने होने में किसी और तरह से होने के लिये, ईश को किसी और तरह का होना पड़ेगा, और ईश का संकल्प (इच्छा) भी किसी और तरह का होगा. पर ईश की इच्छा (संकल्प) ईश के उत्कृष्टता से अलग नहीं हो सकता (जैसा हमने स्पष्ट रूप से दिखा दिया है).
Therefore neither can things be different. I confess, that the theory which subjects all things to the will of an indifferent deity, and asserts that they are all dependent on his fiat, is less far from the truth than the theory of those, who maintain that God acts in all things with a view of promoting what is good. For these latter persons seem to set up something beyond God, which does not depend on God, but which God in acting looks to as an exemplar, or which he aims at as a definite goal. This is only another name for subjecting God to the dominion of destiny, an utter absurdity in respect to God, whom we have shown to be the first and only free cause of the essence of all things and also of their existence. I need, therefore, spend no time in refuting such wild theories.
अत: वस्तुएँ किसी और तरह से अलग नहीं हो सकती. मैं संस्वीकार करता हूँ कि वह प्रमेय जिसमें सभी वस्तुओं को एक तटस्थ देव की इच्छा (संकल्प) के अंतर्निहित किया जाता है और कहता है कि वे सभी उनके आज्ञा पर निर्भर है, वह उस सत्य से कहीं हम दूर है कि उन लोगों को प्रमेय के जिसमें यह मानते हैं कि ईश सभी वस्तुओं में ‘अच्छा’ को बढ़ावा देते हैं. क्योंकि दूसरे तरह के प्रमेय मानने वाले ईश के सिवा कुछ और भी कल्पना करते हैं जो ईश से अतिरिक्त है, पर जिसमें ईश के कार्यआज्ञा की तरह लगते हैं या फिर जिसमें वह कुछ निश्चित लक्ष्य की ओर लक्षित करते नज़र आते हैं. यह केवल ईश को नियति के अधीन मानने का दूसरा नाम है, जो कि ईश के सम्बन्ध में अनर्थक है, जैसा कि हमने दिखाया है कि वे सभी के सार और अस्तित्व का पहला और स्वतंत्र कारण हैं. इस तरह मैं इस तरह के बेबुनियाद प्रमेयों को गलत सिद्ध करने में और समय व्यतीत नहीं करूँगा.
{अनुवादक की टिप्पणी: हम देख सकते हैं कि स्पिनोज़ा के तत्त्वमीमांसा सम्बन्धित तर्क ‘बाइबिल’ और ‘तोरा’ के पौराणिक कहानियों में वर्णित ईश्वर के चमत्कार की सत्यता का खण्डन करते हैं. पर उनके विचार किसी भी तरह भारतीय दर्शनों में वर्णित (जैसे कि न्याय दर्शन और काश्मीर शिवाद्वय दर्शन) योगज्ञान, योग प्रत्यक्ष या योग सृष्टि का खण्डन नहीं करते. योगसृष्टि योगी के सामर्थ्य से होती है, जिसमें कुछ भी आकस्मिकता नहीं है. हालांकि पौराणिक कहानियों में विवेचित विभिन्न चमत्कारों और वरदानों का स्पिनोज़ा पुरजोर खण्डन करेंगे, ऐसा समझा जा सकता है.
आचार्य उत्पलदेव की ईश्वरप्रत्यभिज्ञा कारिका पर अपनी टीका में आचार्य अभिनवगुप्त ने ईश्वरप्रत्यभिज्ञा विमर्शिनी में इसकी विवेचना की है. देखें – योगी अपनी इच्छा शक्ति से बिना बीज या मिट्टी आदि के घड़ा आदि बनाने में समर्थ है, जो अपना प्रयोज्य कार्य करने में समर्थ हैं-
श्लोक १०, आह्निक ४, क्रियाधिकार, ईश्वरप्रत्यभिज्ञा कारिका }
PROP. XXXIV. God’s power is identical with his essence.
प्रस्तावना ३४:ईश की शक्ति और उसका सार एक ही है.
Proof. — From the sole necessity of the essence of God it follows that God is the cause of himself (Prop. xi.) and of all things (Prop. xvi. and Coroll.). Wherefore the power of God, by which he and all things are and act, is identical with his essence. Q.E.D.
प्रमाण. –ईश के सार से यह अनिवार्यत: अनुसरित है कि वह स्वयं ही अपना कारण है (प्रस्तावना ११) और सभी चीज़ों का भी (प्रस्तावना १६ और उपप्रमेय). इसीलिए ईश की शक्ति, जिसके द्वारा वह और सभी चीज़े कार्यरत है, उसके सार के समान है.
PROP. XXXV. Whatsoever we conceive to be in the power of God, necessarily exists.
प्रस्तावना ३५. वो सब कुछ जो हम ईश की शक्ति के अंतर्गत अवधारित करते है, अनिवार्यत: है.
Proof. — Whatsoever is in God’s power, must (by the last Prop.) be comprehended in his essence in such a manner, that it necessarily follows therefrom, and therefore necessarily exists. Q.E.D.
प्रमाण. – जो कुछ भी ईश की शक्ति में है, वो उसके सार में भी इस तरह से अभिसारित है कि, वहां से यह अनुसरित है कि वो अनिवार्यत: अस्तित्व में हैं.
PROP. XXXVI. There is no cause from whose nature some effect does not follow.
प्रस्तावना ३६.ऐसा कोई भी कारण नहीं है जिससे किसी कार्य का अनुगमन ना हो.
Proof. — Whatsoever exists expresses God’s nature or essence in a given conditioned manner (by Prop. xxv., Coroll.); that is, (by Prop. xxxiv.), whatsoever exists, expresses in a given conditioned manner God’s power, which is the cause of all things, therefore an effect must (by Prop. xvi.) necessarily follow. Q.E.D.
प्रमाण. – जो कुछ भी अस्तित्व में है, वह ईश की प्रकृति या उसके सार को इस रूप में अभिव्यक्त करता है(प्रस्तावना २५, उप प्रमेय), कि, (प्रस्तावना ३४ से) जो कुछ भी अस्तित्व में है, एक अनुकूलित रूप में ईश की शक्ति को अभिप्रेषित करता है, जो सभी चीज़ों का कारण है, इसीलिए उससे एक प्रभाव का अनुगमन निश्चित है.
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Appendix (परिशिष्ट)
In the foregoing I have explained the nature and properties of God. I have shown that he necessarily exists, that he is one: that he is, and acts solely by the necessity of his own nature; that he is the free cause of all things, and how he is so; that all things are in God, and so depend on him, that without him they could neither exist nor be conceived; lastly, that all things are predetermined by God, not through his free will or absolute fiat, but from the very nature of God or infinite power. I have further, where occasion afforded, taken care to remove the prejudices, which might impede the comprehension of my demonstrations. Yet there still remain misconceptions not a few, which might and may prove very grave hindrances to the understanding of the concatenation of things, as I have explained it above. I have therefore thought it worth-while to bring these misconceptions before the bar of reason.
इसके आगे मैंने ईश की प्रकृति और गुणों की व्याख्या की है. मैंने अबतक यह दिखाने की कोशिश की है कि ईश है, एक है, एक सत्व है, और वह केवल अपने प्रकृति की आवश्यकतानुसार कार्य करता है, वह सभी चीज़ों के पीछे का एक मुक्त कारण है, और सभी चीज़ें उस ईश में समावेशित है, उसपर निर्भर है, और बगैर उसके ना किसी चीज़ का अस्तित्व है, ना ही अवधारित की जा सकती हैं, और अंत में, सभी चीज़े उसी ईश के द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं, इसके पीछे ईश की कोई स्वेच्छा या उसके किसी आदेश जैसा कुछ भी नहीं,केवल उसकी प्रकृति है, और उसकी अनंत शक्ति.आगे बढ़ते हुए मैंने, जिन जिन अवसरों पर आवश्यकता हुई है, मैंने किसी भी तरह के पूर्वाग्रह को हटाने की भरसक प्रयास किया है, जो मेरे प्रतिपादित सिद्धांतो को उनके मूलस्वरूप में समझ पाने में अड़चन का काम करें, लेकिन फिर भी कुछ गलतफहमियां है, जो जैसा मैंने समझाने या श्रृंखलाबद्ध करने की कोशिश की है, उसमें बाधा बन सकें. इसीलिए मैंने प्रयत्न कर इन सभी भ्रांतियों को एक तर्क के घेरे में लाकर समझाने की कोशिश की है.
All such opinions spring from the notion commonly entertained, that all things in nature act as men themselves act, namely, with an end in view. It is accepted as certain, that God himself directs all things to a definite goal (for it is said that God made all things for man, and man that he might worship him). I will, therefore, consider this opinion, asking first, why it obtains general credence, and why all men are naturally so prone to adopt it?
ये भ्रांतियां साधारणत: यह मान लेने से पैदा होती है कि प्रकृति में सब कुछ ठीक वैसे ही कार्य करता है जैसे मनुष्य एक नतीज़ा (अंत) को ध्यान में रख कर करते हैं. ऐसा आसानी से निश्चित मान लिया जाता है कि ईश स्वयं सभी घटनाओं कों एक निर्धारित अंत तक पहुँचाने का कार्य करते हैं (और चूँकि ईश ने मनुष्य के लिए सभी साधनों का निर्माण किया है, और मनुष्य का निर्माण इसलिये ताकि मनुष्य उनकी आराधना कर सके). इसीलिए मैं, इस विचारधारा को ध्यान में रखकर,सबसे पहले यह प्रश्न खड़ा करूँगा कि यह सोच कैसे एक साधारण दृढ विश्वास सा बन जाता है, और क्यूँ सभी मनुष्य इतनी आसानी से इसको अपनाने पर बाध्य हो जाते है?
Secondly, I will point out its falsity; and, lastly, I will show how it has given rise to prejudices about good and bad, right and wrong, praise and blame, order and confusion, beauty and ugliness, and the like. However, this is not the place to deduce these misconceptions from the nature of the human mind: it will be sufficient here, if I assume as a starting point, what ought to be universally admitted, namely, that all men are born ignorant of the causes of things, that all have the desire to seek for what is useful to them, and that they are conscious of such desire.
दूसरा, मैं इस अवधारणा के छद्म को इंगित करूँगा, और आखिरकार, यह दिखलाने की कोशिश करूँगा कि कैसे इस अवधारणा ने समाज को पक्षपात से पाट दिया है, जैसे, अच्छा और बुरा, सही और गलत, प्रशंसा और दोष, क्रम और संभ्रम, सुन्दरता और भद्दापन आदि. हालांकि यह वह जगह नहीं है जहाँ इन भ्रांतियों का मानव मन की प्रकृति से निगमित किया जाए:यहाँ यही पर्याप्त होगा अगर मैं सीधा यह मान लूँ, और जो एक सार्वभौमिक घटना भी है,कि मनुष्य वस्तुओं के उत्पत्ति के कारण से अनभिज्ञ पैदा होता है,सभी की यह इच्छा होती है कि उन चीज़ों कों ढूँढने की जो उसके लिए उपयोगी हो और वे इस इच्छा के बारे में सचेत तो होते हैं.
Herefrom it follows, first, that men think themselves free inasmuch as they are conscious of their volitions and desires, and never even dream, in their ignorance, of the causes which have disposed them so to wish and desire. Secondly, that men do all things for an end, namely, for that which is useful to them, and which they seek.Thus it comes to pass that they only look for a knowledge of the final causes of events, and when these are learned, they are content, as having no cause for further doubt.
यहाँ पर यह निगमित किया जाता है, पहला, यह कि लोगों को लगता है कि वो इन इच्छाओं और इन इच्छाओं के पीछे कार्यरत इच्छाशक्ति में स्वयं को स्वतंत्र और सचेत महसूस कर रहें होते हैं, और अपने अनभिज्ञता से संकुचित होकर स्वप्न में भी, इस इच्छा और इच्छाशक्ति के पीछे कारकों के बारे में नहीं सोचते. दूसरा, यह कि लोग सभी कार्य एक अंत या नतीज़ा को ध्यान में रखकर करते है, एक ऐसा अंत जो उनके लिए उपयोगी सिद्ध हो और जो वे ढूंढ रहे हों. इसीलिए सभी घटनाओं से एक ऐसा विचार निकलकर सामने आता है कि लोग केवल घटनाओं के अंत की जानकारी और केवल उस अंत पीछे के कारण को ढूंढते है, पूरी प्रक्रिया की नहीं, और जब उन्हें इस अंत का पता चल जाता है, वो संतुष्ट हो जाते है, और इससे आगे या पहले के शंकाओं के प्रति अबोध रह जाते हैं या अबोध रह जाना चुनते है.
If they cannot learn such causes from external sources, they are compelled to turn to considering themselves, and reflecting what end would have induced them personally to bring about the given event, and thus they necessarily judge other natures by their own. Further, as they find in themselves and outside themselves many means which assist them not a little in the search for what is useful, for instance, eyes for seeing, teeth for chewing, herbs and animals for yielding food, the sun for giving light, the sea for breeding fish, &c., they come to look on the whole of nature as a means for obtaining such conveniences.
और जब वे इन कारणों के बारे में बाह्य श्रोत से भी नहीं सीख पाते तो वे फिर से स्वयं को केंद्र मंक रखकर, फिर से घटनाओं के उस अंत के बारे में सोचना शुरू कर देते है, जिनमें उनका अहम् समावेशित हो, और इसीलिए वो किसी घटना से जुड़े दूसरों के चरित्र या प्रकृति का निर्धारण अपने हिसाब से करना शुरू कर देते है. आगे, जैसा वे खुद में और आपने बाहर वो उन साधनों को पाते हैं जो उनकी उपयोगी वस्तुओं की खोज में कोई सहायता न करे, जैसे देखने के लिये चक्षु, चबाने के लिये दाँत, भोजन के लिये पौधे-पशु, रोशनी के लिये सूर्य, मछलियों के लिये सागर आदि, वे सारी प्रकृति को अपनी उपयोगिता के लिये साधन मात्र मान लेते हैं.
Now as they are aware, that they found these conveniences and did not make them, they think they have cause for believing, that some other being has made them for their use. As they look upon things as means, they cannot believe them to be self-created; but, judging from the means which they are accustomed to prepare for themselves, they are bound to believe in some ruler or rulers of the universe endowed with human freedom, who have arranged and adapted everything for human use. They are bound to estimate the nature of such rulers (having no information on the subject) in accordance with their own nature, and therefore they assert that the gods ordained everything for the use of man, in order to bind man to themselves and obtain from him the highest honor.
अब जब इस तरह सचेत हो जाते हैं कि उनकी उपयोगिता प्राप्त हो गयी है जिन्हें उन्होंने नहीं बनाया, वे ये सोचने लगते हैं कि उनके पास यह सोचने का कारण है कि और भी चीजें उनकी उपयोगिता के लिये ही बनी हैं. जब वे वस्तुओं को साधन के रूप में देखते हैं, वे यह विश्वास कर पाते कि यह स्व-कृत हैं, बल्कि उन साधनों से यह निश्चय करने लगते हैं जैसा वे करते आये हैं कि संसार में कोई शासक या कई शासक हैं जिन्होंने मानव को स्वतंत्रता दी है, जिसने मनुष्य के उपभोग के लिये सारी चीजें सिलसिलेवार बनायी और दी हैं. वे इस तरह शासक की प्रकृति का निर्धारण अपनी प्रकृति से करते हैं (जिस विषय में उनकी कोई जानकारी नहीं है) और इस तरह कहते हैं कि देवताओं ने सभी कुछ मनुष्य के उपयोग के लिये बनाया है, जिससे वे मनुष्य से जुड़ जायें और उनसे ही सर्वोच्च आदर पायें.
Hence also it follows, that everyone thought out for himself, according to his abilities, a different way of worshipping God, so that God might love him more than his fellows, and direct the whole course of nature for the satisfaction of his blind cupidity and insatiable avarice. Thus the prejudice developed into superstition, and took deep root in the human mind; and for this reason everyone strove most zealously to understand and explain the final causes of things; but in their endeavor to show that nature does nothing in vain, i.e. nothing which is useless to man, they only seem to have demonstrated that nature, the gods, and men are all mad together. Consider, I pray you, the result: among the many helps of nature they were bound to find some hindrances, such as storms, earthquakes, diseases, &c. : so they declared that such things happen, because the gods are angry at some wrong done to them by men, or at some fault committed in their worship.
अत: यह भी निगमित होता है कि हर किसी ने अपने लिये अपनी क्षमता के अनुसार ईश के पूजन का अलग तरीका सोचा है, ताकि ईश उसे उसके साथियों की तुलना में ज्यादा प्रेम करें और प्रकृति की समस्त प्रक्रिया उसकी अंधी वासना और कभी न तृप्त होने वाले लालच की पूर्ति के लिये लग जाये. इसलिये ऐसा पूर्वाग्रह अंधविश्वास में विकसित हो कर मानव मन में गहरे बैठ गया, और यही कारण है कि हर किसी ने पूरे उत्साह से केवल चीजों के अंत को समझने और व्याख्या करने के लिये प्रयत्न किया, लेकिन यह दिखाने की कोशिश में कि प्रकृति कुछ भी बिना मतलब के नहीं करती, मतलब ऐसा कुछ भी नहीं है को मानव के लिये पूर्णत: अनुपयोगी है, वे यही दिखा पाते हैं कि प्रकृति, देवता और मानव सारे एक साथ पागल हैं. मैं आपसे विनती करता हूँ, इसका नतीजा विचारिये, प्रकृति के बहुत से उपकारों में, जिसमें वह कुछ भी बाधाजनक पाते हैं, जैसे तूफान, भूकम्प, व्याधि आदि, वे ये कहते हैं कि ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि देवता मानव की किसी गलती से क्रोधित थे, या उनके पूजन में कोई दोष था.
Experience day by day protested and showed by infinite examples, that good and evil fortunes fall to the lot of pious and impious alike; still they would not abandon their inveterate prejudice, for it was more easy for them to class such contradictions among other unknown things of whose use they were ignorant, and thus to retain their actual and innate condition of ignorance, than to destroy the whole fabric of their reasoning and start afresh. They therefore laid down as an axiom, that God\’s judgments far transcend human understanding. Such a doctrine might well have sufficed to conceal the truth from the human race for all eternity, if mathematics had not furnished another standard of verity in considering solely the essence and properties of figures without regard to their final causes. There are other reasons (which I need not mention here) besides mathematics, which might have caused men\’s minds to be directed to these general prejudices, and have led them to the knowledge of the truth.
अनुभवों ने दिन प्रतिदिन इसका विरोध किया और अनगिन उदाहरणों से दिखाया कि अच्छी और बुरी होनी, बहुत से श्रद्धालु और नास्तिकों पर समान रूप से पड़ती है, पर फिर भी वह अपने हठी पूर्वाग्रहों को नहीं छोड़ते, क्योंकि यह उनके लिये अंतर्विरोधों को वर्गीकृत करना अपेक्षाकृत आसान होता है उन सभी अज्ञात चीजों की तुलना में जिसके उपयोग के बारे में वह अज्ञानी हैं, और इस तरह वे अपने वास्तविक और सहज अज्ञान की अवस्था को बनाये रखते हैं, बजाय अपने तर्कों की जाल को विनष्ट कर के नयी शुरुआत करने के. वे, इस तरह एक स्वयंसिद्ध प्रतिपादित करते हैं, कि ईश का न्याय मानव की समझ के परे हैं. ऐसा मत शायद पूरी मानव जाति के लिये सत्य को शाश्वत के लिये ढँक सकता था, यदिगणित सत्यता की जाँच पड़ताल के लिये सार और आकृतियों के गुण धर्मों को उनकी अंतिम परिणति से मुक्त नहीं घोषित किया होता. हालांकि गणित के अलावा अन्य कारण हैं (जिन्हें मैं यहाँ उद्धृत की आवश्यक नहीं समझता), जो मानव के मन को ऐसे सामान्य पूर्वाग्रहों से ले कर सत्य के ज्ञान तक ले जाते.
I have now sufficiently explained my first point. There is no need to show at length, that nature has no particular goal in view, and that final causes are mere human figments. This, I think, is already evident enough, both from the causes and foundations on which I have shown such prejudice to be based, and also from Prop. xvi., and the Corollary of Prop. xxxii., and, in fact, all those propositions in which I have shown, that everything in nature proceeds from a sort of necessity, and with the utmost perfection.
मैंने अब तक पर्याप्त रूप से अपना पहला बिन्दु स्पष्ट कर दिया है. इससे अधिक कोई आवश्यकता नहीं है कि प्रकृति के पास कोई विशेष लक्ष्य नहीं दिखता है, और ऐसे सारे नतीज़े केवल मनुष्य की कल्पना है. यह, मैं सोचता हूँ, कि प्रस्ताव १६ से, और उप प्रमेय ३२ सेपर्याप्त रूप से प्रमाणित हो चुका है, इनके कारण और बुनियाद से जिसपर ऐसे पूर्वाग्रह बनते हैं, और, वस्तुत: ऐसे सभी प्रमेय जो मैंने दिखलायें हैं, कि प्रकृति में जो कुछ भी है वह किसी आवश्यकता से है और पूरी उत्कृष्टता से है.
However, I will add a few remarks, in order to overthrow this doctrine of a final cause utterly. That which is really a cause it considers as an effect, and vice versâ: it makes that which is by nature first to be last, and that which is highest and most perfect to be most imperfect. Passing over the questions of cause and priority as self-evident, it is plain from Props. xxi., xxii., xxiii. that the effect is most perfect which is produced immediately by God; the effect which requires for its production several intermediate causes is, in that respect, more imperfect. But if those things which were made immediately by God were made to enable him to attain his end, then the things which come after, for the sake of which the first were made, are necessarily the most excellent of all.
हालांकि मैं कुछ टिप्पणी जोड़ना चाहूँगा, जिससे यह एक अंतिम परिणति वाला मत पूरी तरह जड़ से उखड़ जाये. वह सचमुच में एक कारण है जिसका कोई कार्य होता है और ठीक उसका उल्टा भी: जो यह बनाते है कि जो अपनी प्रकृति से पहले से अंत तक हैं और जो सर्वोच्च है ओर सर्वोत्कृष्ट से निकृष्टतम हैं. कारण और उसकी वरीयता के प्रश्न से गुजरते हुये जो कि स्वयं-प्रामाण्य हैं, यह प्रस्ताव २१, २२ और २३ से साफ है कि वह कार्य सबसे अधिक उत्कृष्ट है जो सीधे ईश से बना हो; और वह कार्य जो बहुत से मध्यवर्ती कारणों से गुजरते हुये बनता है, पहले कि तुलना में कम उत्कृष्ट है. पर यदि वे वस्तुएँ जो कि ईश के द्वारा तुरंत बनाये गये हैं वह किसी अंत को प्राप्त करने के लिये बनाये गये हैं, तब वे चीजें जो इसके बाद आती हैं, पहले बन गयी वस्तुओं के लिहाज से,अवश्य ही अधिक उत्कृष्ट हैं.
Further, this doctrine does away with the perfection of God: for, if God acts for an object, he necessarily desires something which he lacks. Certainly, theologians and metaphysicians draw a distinction between the object of want and the object of assimilation; still they confess that God made all things for the sake of himself, not for the sake of creation. They are unable to point to anything prior to creation, except God himself, as an object for which God should act, and are therefore driven to admit (as they clearly must), that God lacked those things for whose attainment he created means, and further that he desired them.
आगे, इस मत से ईश की उत्कृष्टता का निषेध होता है: क्योंकि यदि ईश एक वस्तु की तरह काम करते हैं, तो वह निश्चित तौर पर कुछ चाहेंगे जो उनके पासनहीं होगा. निश्चित रूप से धर्मशास्त्री और तत्वमीमांसक इच्छा की वस्तु और समावेश की वस्तु में फर्क करते हैं, फिर वह स्वीकार करते हैं कि ईश ने सारी चीजें अपने लिये ही बनाये हैं, सृष्टि की इच्छा से नहीं. वे सृष्टि से पहले किसी चीज की ओर इंगित करने में असमर्थ हैं, सिवा ईश के, एक वस्तु के रूप में जिस पर ईश कोई क्रिया करना चाहेंगे और इस तरह वे स्वीकार करने के लिये बाध्य हो जाते हैं (जैसा कि स्पष्टतया उन्हें होना चाहिये) कि ईश ल सभी चीजों में हीन थे जिसकी प्राप्ति के लिये उन्होंने संसाधन बनाये और आगे उसकी कामना की.
We must not omit to notice that the followers of this doctrine, anxious to display their talent in assigning final causes, have imported a new method of argument in proof of their theory—namely, a reduction, not to the impossible, but to ignorance; thus showing that they have no other method of exhibiting their doctrine. For example, if a stone falls from a roof on to someone\’s head, and kills him, they will demonstrate by their new method, that the stone fell in order to kill the man; for, if it had not by God\’s will fallen with that object, how could so many circumstances (and there are often many concurrent circumstances) have all happened together by chance?
हमारे ध्यान से यह नहीं निकलना चाहिए कि इस मत के समर्थक,अंतिम कारण को निर्धारित करने के लिए अपने उतावलेपन में अपनी प्रतिभा सेएक नया तर्क का तरीका अपनाया है जिससे उनका मत सिद्ध हो जाये- वह है अपचयन, जो असंभव के लिये नहीं उनकी अज्ञानता के लिये है, जिससे यह दीखता है कि उनके पास अपने मत को दर्शाने का कोई तरीका नहीं है. उदहारण के लिए, अगर एक पत्थर किसी छत से किसी के सर पर गिरता है, और उसकी मृत्यु हो जाती है, वो अपनी नयी पद्धति से यह दिखाएँगे कि वह पत्थर उस व्यक्ति को मारने के लिए गिरा था, क्यूंकि अगर इसमें ईश की इच्छा ना हो तो इतनी सारी संभावनाएं एक साथ ऐसे कैसे घटित हो सकती हैं?
Perhaps you will answer that the event is due to the facts that the wind was blowing, and the man was walking that way. \”But why,\” they will insist, \”was the wind blowing, and why was the man at that very time walking that way?\” If you again answer, that the wind had then sprung up because the sea had begun to be agitated the day before, the weather being previously calm, and that the man had been invited by a friend, they will again insist: \”But why was the sea agitated, and why was the man invited at that time?\” So they will pursue their questions from cause to cause, till at last you take refuge in the will of God—in other words, the sanctuary of ignorance. So, again, when they survey the frame of the human body, they are amazed; and being ignorant of the causes of so great a work of art, conclude that it has been fashioned, not mechanically, but by divine and supernatural skill, and has been so put together that one part shall not hurt another.
हो सकता है कि आप इस घटना का कारण यह उत्तर कहते हुए देंगे कि हवा बह रही थी और वह व्यक्ति उस दिशा में जा रहा था, लेकिन वह जिद्द करते हुए पूछेंगे कि क्यों? कि क्यों हवा उस दिशा में चल रही थी और वह व्यक्ति ठीक उसी समय उसी दिशा में जा रहा था? अगर आप फिर से यह उत्तर दें कि हवा की उत्पत्ति बीते दिन से समुद्र की उत्तेजना के कारण बही और चूँकि बीते दिन तक उस जगह मौसम शांत था और इसीलिए उस व्यक्ति के मित्र ने उसे आने का निमंत्रण दिया, तो वो आपसे फिर पूछेंगे कि ‘समुन्द्र उत्तेजित क्यों हुआ? और उस व्यक्ति को उसी दौरान क्यों आमंत्रित किया गया?मतलब वो अपने सवाल एक कारण से दूसरे कारण तक खीचेंगे, तबतक जबतक हारकर आप ईश की शरण ना ले लें, दूसरे शब्दों में अज्ञानता के अभ्यारण्य में.तो, फिर से, जब वो मानव शरीर की आकृति का निरीक्षण करते हैं तो वे चौंक जाते है, और उन सभी महान कारणों से अनभिज्ञ होकर जो इस कलात्मक शरीर के निर्माण के कार्य करती हैं, यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि इसका निर्माण दैवीय और अलौकिक के द्वारा किया गया है, और इसीलिए ऐसे किया गया है ताकि एक हिस्सा दूसरे हिस्से को चोट नहीं पहुंचाएं.
Hence anyone who seeks for the true causes of miracles, and strives to understand natural phenomena as an intelligent being, and not to gaze at them like a fool, is set down and denounced as an impious heretic by those, whom the masses adore as the interpreters of nature and the gods. Such persons know that, with the removal of ignorance, the wonder which forms their only available means for proving and preserving their authority would vanish also. But I now quit this subject, and pass on to my third point.
इसीलिए कोई भी जो चमत्कारों के पीछे के सत कारणों को ढूंढता है, और प्राकृतिक घटना को एक मतिमान मनुष्य की तरह समझने की कोशिश करता है, उन्हें किसी मूर्ख सा घूरते रहने के विपरीत, वह हतोत्साहित किया जाता है, दोषी और पाखंडी के रूप में उसकी निंदा की जाती है, उनके द्वारा जिन्हें जनता इश्वर और प्रकृति के व्याख्या-कर्ता के रूप में मानती है. ऐसे लोगों को यह मालूम है कि अज्ञानता को हटा देने से, वो आश्चर्य जो उनकी सत्ता बताते और बचाते हैं, समाप्त हो जायेंगे. लेकिन मैं अब इस विषय को यहीं छोड़ता हूँ और अपने तीसरे बिंदु की और बढ़ता हूँ.
After men persuaded themselves, that everything which is created is created for their sake, they were bound to consider as the chief quality in everything that which is most useful to themselves, and to account those things the best of all which have the most beneficial effect on mankind. Further, they were bound to form abstract notions for the explanation of the nature of things, such as goodness, badness, order, confusion, warmth, cold, beauty, deformity, and so on; and from the belief that they are free agents arose the further notions of praise and blame, sin and merit.
I will speak of these latter hereafter, when I treat of human nature; the former I will briefly explain here.
जब मनुष्य ने यह मान लिया कि वह सब कुछ जो बनाया गया है वह उनके लिए बनाया गया है, तो फिर वो उन चीज़ों को जो उनके लिए सबसे ज्यादा उपयोगी हैं, सर्वोत्तम मानने के लिए बाध्य हो गए, उन सभी चीज़ों को सर्वोत्तम मानने के लिए जिनका मानवजाति पर सबसे अधिक फायदेमंद प्रभाव पड़ता है.फिर, चीज़ों की प्रकृति की निर्धारण करने के लिए भावत्मक विचार निर्माण करने के लिए वो बाध्य हुए, जैसे, भलाई, बुराई, व्यवस्था, भ्रम, गर्मी, ठंडी, सौन्दर्य, कुरूपता आदि; और ऐसा मानने के कारण कि उपरोक्त सभी मुक्त कारक है, आगे चलकर, पाप-पुण्य, दोष-प्रशंसा जैसे विचार उभरे.
मैं जब मानवीय प्रकृति की बात करूँगा तो बाद में लिखें इन विचारों की भी बात करूँगा, अभी मैं पहले के बिंदु पर जाता है.
Everything which conduces to health and the worship of God they have called good, everything which hinders these objects they have styled bad; and inasmuch as those who do not understand the nature of things do not verify phenomena in any way, but merely imagine them after a fashion, and mistake their imagination for understanding, such persons firmly believe that there is an order in things, being really ignorant both of things and their own nature. When phenomena are of such a kind, that the impression they make on our senses requires little effort of imagination, and can consequently be easily remembered, we say that they are well-ordered; if the contrary, that they are ill-ordered or confused. Further, as things which are easily imagined are more pleasing to us, men prefer order to confusion-as though there were any order in nature, except in relation to our imagination—and say that God has created all things in order; thus, without knowing it, attributing imagination to God, unless, indeed, they would have it that God foresaw human imagination, and arranged everything, so that it should be most easily imagined. If this be their theory, they would not, perhaps, be daunted by the fact that we find an infinite number of phenomena, far surpassing our imagination, and very many others which confound its weakness. But enough has been said on this subject.
हर कुछ को स्वास्थ के लिये लाभदायक हो और ईश की उपासना से सम्बद्ध हो उसे ‘अच्छा’ कहा गया है और हर कुछ जो इनकी बाधा है ‘बुरा’ कहा गया है. जो चीजों की प्रकृति को नहीं समझते और विभिन्न घटनाओं की भली-भाँति जाँच-पड़ताल नहीं करते, बल्कि उन्हें किसी तरीके से कल्पित करते हैं और अपनी ही कल्पना को अपनी समझ कहने की गलती कर बैठते हैं. ऐसे लोग यह पक्का विश्वास करते हैं कि चीजों का निश्चित क्रम (व्यवस्था या अनुशासन) में है, पर वस्तुत: वे चीजों और उनकी प्रकृति के बारे में अनभिज्ञ ही होते हैं. जब ऐसे कोई ऐसी घटना होती है जो हमारी इंद्रियों पर ऐसी छाप छोड़ती है जिसमें कल्पना की बहुत कम ही गुंजाइश बची है और बाद में आसानी से याद की जा सकती , हम यह कहते हैं कि यह व्यवस्थित है या क्रम में है; वही यदि इसका उल्टा होता है उन्हें अव्यवस्थित और भ्रमजनित कहते हैं. आगे, ऐसी चीजें जो हम आसानी से कल्पित सकते हैं हमें अधिक प्यारी लगती है – और यह भी कहते हैं कि ईश सभी चीजें व्यवस्थित रखी हैं, और इस तरह नहीं जानते हुये हम कल्पना को ईश में संबोधित करते हैं जब तक कि, यह सच है, कि वे यह भी मान लें कि ईश ने मानवीय कल्पना को भी पहले ही भाँप लिया था और हर कुछ व्यवस्था में लाये ताकि चीजें आसानी से कल्पित की जा सके.अगर यही उनका सिद्धांत है, वे इस तथ्य से शायद निरुत्साहित नहीं होगें कि हम ऐसी अनंत घटनाओं को देखते हैं जो हमारी कल्पना के परे चली जाती है और ऐसे कई हैं जो इसकी कमजोरी जता देती है. लेकिन इस विषय पर बहुत कहा जा चुका है.
The other abstract notions are nothing but modes of imagining, in which the imagination is differently affected: though they are considered by the ignorant as the chief attributes of things, inasmuch as they believe that everything was created for the sake of themselves; and, according as they are affected by it, style it good or bad, healthy or rotten and corrupt. For instance, if the motion which objects we see communicate to our nerves be conducive to health, the objects causing it are styled beautiful; if a contrary motion be excited, they are styled ugly.Things which are perceived through our sense of smell are styled fragrant or fetid; if through our taste, sweet or bitter, full-flavored or insipid; if through our touch, hard or soft, rough or smooth, &c.
अन्य अमूर्त अवधारणाएँ कुछ और नहीं बल्कि चिंतन का उपांतर है, जिसमें कल्पना भिन्न तरीकों से कार्याभूत हुयी है : यद्यपि वे अज्ञानियों द्वारा चीजों के प्रमुख गुण के रूप में समझी जाती है, जब तक कि वे यह विश्वास करते हैं कि सभी चीजें उनके लिये बनायी गयीं है और जैसे वह प्रभावित होते हैं वे ‘अच्छे’ या’बुरे’, स्वास्थ्यवर्द्धक या हानिकारक और भ्रष्ट समझे जाते हैं. उदाहरण के लिये यदि हमारी आँखों की तंत्रिकाओं को किसी वस्तु के गति से स्वास्थ्य के लिये अच्छी मानी जाये, तो वैसी वस्तुयें सुंदर कही जाएँगी और यदि विपरीत गति को प्राप्त होती हैं तो वे भौंडी कहलाएँगी. जिन चीजों को हमारी इंद्रियाँ जैसा निर्धारित करती हैं उस हिसाब से कही जाती हैं, जैसे सूँघने की दृष्टि से खुशबूदार और बदबूदार, चखने की दृष्टि से मीठा या कड़वा, रसभरा या बेस्वाद, छूने के हिसाब से कठोर या मुलायम, रुखड़ाया चिकना आदि.
Whatsoever affects our ears is said to give rise to noise, sound, or harmony. In this last case, there are men lunatic enough to believe, that even God himself takes pleasure in harmony; and philosophers are not lacking who have persuaded themselves, that the motion of the heavenly bodies gives rise to harmony-all of which instances sufficiently show that everyone judges of things according to the state of his brain, or rather mistakes for things the forms of his imagination. We need no longer wonder that there have arisen all the controversies we have witnessed, and finally skepticism: for, although human bodies in many respects agree, yet in very many others they differ; so that what seems good to one seems bad to another; what seems well ordered to one seems confused to another ; what is pleasing to one displeases another, and so on. I need not further enumerate, because this is not the place to treat the subject at length, and also because the fact is sufficiently well known. It is commonly said: \”So many men, so many minds; everyone is wise in his own way ; brains differ as completely as palates.\” All of which proverbs show, that men judge of things according to their mental disposition, and rather imagine than understand: for, if they understood phenomena, they would, as mathematicians attest, be convinced, if not attracted, by what I have urged.
जो कुछ भी हमारे कानों को प्रभावित करता है, उसी हिसाब से हम उसे शोर, ध्वनि या लय का नाम देते हैं. इस आखिरी उदाहरण में कुछ ऐसे लोग हैं जो इतने पागल है कि यह मानते हैं कि ईश स्वयं लय में ही आनंद लेते हैं और ऐसे दार्शनिक भी कम नहीं है जिन्होंने अपने आप को समझा लिया है कि अंतरिक्ष के पिण्डों की गति एक लय की उत्पत्ति करती है – यह सब कुछ पर्याप्त रूप से यही दिखलाता है कि हर कोई अपने मस्तिष्क की अवस्था के अनुरूप निर्धारण करते हैं या फिर अपनी कल्पना आरोपित कर के चीजों को ग़लत समझते हैं. हमें अब अधिक विचारने की आवश्यकता नहीं है कि वे सारे विवाद जो हमने देखे और अंतत: में संशयवाद : वह यह कि यद्यपि मानव शरीर बहुत से अर्थों में आपसे में मिलते जुलते हैं, मगर फिर भी वे सभी इस बात पर अलग हो जाते हैं कि वे क्या सही और क्या ग़लत समझते हैं, क्या किसी को व्यवस्थित लगता है क्या किसी को बिखरा-भ्रमित सा लगता है, क्या किसी को अच्छा लगता है और क्या किसी को बुरा लगता है, आदि. मैं आगे और इनकी गणना नहीं करना चाहता क्योंकि यह उन विषयों पर विस्तार से चर्चा करने लायक जगह नहीं है, और यह भी क्योंकि यह तथ्य तो सर्वविदित है ही. यह आमतौर पर कहा ही जाता है: “इतने सारे आदमी और इतने सारे मन, हर कोई अपनी तरह से बुद्धिमान है, मस्तिष्क अपनी अभिरुचियों के अनुसार झुका हुआ होता है.” ऐसी सारी कहावतें यही दिखलाती हें कि मानव अपनी मानसिक स्थिति से चीजों का निर्णय लेता है और उसे समझने के बजाये कल्पना करता है, क्योंकि यदि वह घटना को समझ गया, वह वैसे ही मान जाएँगे, जैसा गणितज्ञ सहमति देंगे, जैसी मैंने व्याख्या की है.
We have now perceived, that all the explanations commonly given of nature are mere modes of imagining, and do not indicate the true nature of anything, but only the constitution of the imagination; and, although they have names, as though they were entities, existing externally to the imagination, I call them entities imaginary rather than real; and, therefore, all arguments against us drawn from such abstractions are easily rebutted.
हम लोग ने यह देख लिया है कि आमतौर पर दी जाने वाली प्रकृति की सारी व्याख्या केवल कल्पना पर आश्रित है और वे चीजों के सही रूप का निर्धारण नहीं करती, क्योंकि वे केवल कल्पना का ही आधार है और यद्यपि सबके नाम हैं, जैसे कि वे सभी भिन्न तत्त्व हों जो केवल हमारी कल्पना में अस्तित्व में हों, मैं उन सभी तत्त्वों को कल्पित ही मानता हूँ न कि वास्तविक और इसलिये इन अमूर्त कल्पनाओं से हमारे प्रति दिये गये सभी तर्क आसानी खारिज किये जाते हैं.
Many argue in this way. If all things follow from a necessity of the absolutely perfect nature of God, why are there so many imperfections in nature? such, for instance, as things corrupt to the point of putridity, loathsome deformity, confusion, evil, sin, &c. But these reasoners are, as I have said, easily confuted, for the perfection of things is to be reckoned only from their own nature and power; things are not more or less perfect, according as they delight or offend human senses, or according as they are serviceable or repugnant to mankind. To those who ask why God did not so create all men, that they should be governed only by reason, I give no answer but this: because matter was not lacking to him for the creation of every degree of perfection from highest to lowest; or, more strictly, because the laws of his nature are so vast, as to suffice for the production of everything conceivable by an infinite intelligence, as I have shown in Prop. xvi.
Such are the misconceptions I have undertaken to note; if there are any more of the same sort, everyone may easily dissipate them for himself with the aid of a little reflection.
बहुत से लोग इस तरह तर्क देते हैं. यदि हर कुछ ईश के सम्पूर्ण उत्कृष्टता की आवश्यकता से निगमित होता है, फिर प्रकृति में इतनी अनउत्कृष्टताएँ क्यों हैं? जैसा कि, उदाहरण के तौर पर, कुछ चीजें जो सड़ने के कगार पर हैं, जो घृणास्पद भौंडी हैं, भ्रम हैं, बुराई है, पाप है आदि. पर ऐसा तर्क देने वाले, जैसा मैंने कहा है कि आसानी से खारिज़ किये जा सकते हैं क्योंकि चीजों की उत्कृष्टता केवल उनकी प्रकृति से और शक्ति से निर्धारित होती हे; वस्तुएँ कुछ कम या ज्यादा उत्कृष्ट नहीं होती जैसा कि वे हमारी इंद्रियों को आनंद देने में या व्यथित करने में लगती हें, या इस तरह कि वे मानव जाति के लिये किस तरह उपयोगी या वितृष्णीय होंगी. उनके लिये जो यह पूछते हैं कि ईश ने सारे मनुष्यों को ऐसा ही क्यों नहीं बनाया कि वे सभी तर्क से ही चलें, इसके लिये मेरे पास इसके अलावा कोई और जवाब नहीं है कि: जैसा मैंने प्रस्ताव १६ में दिखाया है – क्योंकि यह वस्तु उनके पास अभाव जैसी नहीं कि वे सभी कुछ हर कोटि की उत्कृष्टता के साथ बनाते जैसे उच्चतम से निम्नतम, या अधिक सावधाणी से, क्योंकि उनकी प्रकृति के नियम इतने विस्तृत हैं कि हर कुछ जो अवधारित है उस की सृष्टि के लिये अनंत मति (बुद्धि) से पर्याप्त होते हैं.
इस तरह की ग़लत अवधारणाएँ हैं, जैसा कि मैंने नोट किया है; यदि ऐसी कुछ और इसी तरह की अवधारणाएँ हैं तो सभी उसको अपनी आसानी से थोड़े से ही चिंतन से खारिज़ कर सकते हैं.
{अनुवादक की टिप्पणी: स्पिनोज़ा के ‘नीतिशास्त्र’ का पहला अध्याय –ईश के बारे में– कुछ और नहीं उनकी दार्शनिक प्रणाली की विशिष्ट तत्त्वमीमांसिक दृष्टि का परिचायक है. इनके अध्याय से दार्शनिक पद्धतियों के बारे हम कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को समझ सकते हैं
तत्त्वदर्शन का चिंतन (स्पैकुलेटि मेटाफिज़िक्स) या तत्त्वमीमांसा की विशिष्ट दृष्टि के लिये महत्त्वपूर्ण घटक इस तरह से हैं
• दार्शनिक पदावली की परिभाषा– वे किन अर्थों में प्रयुक्त हो रही हैं
o अस्तित्व– क्या यह बाह्यरूप में स्थित वस्तुओं की सत्ता को निगमित करने के लिये है?
• द्वन्द्वात्मक पदों पर दृष्टि – प्रकृति-पुरुष या विस्तार-विचार या मूर्त-अमूर्त या मनुष्य-जगत या व्यष्टि-समष्टि या चैतन्य-विषय या आत्म-अनात्म जैसी सुपरिचित युग्मों पर मौलिक तथा विशिष्ट दृष्टि किस तरह से है
• ज्ञानमीमांसिक दृष्टि– किसे ज्ञान और किसे प्रमा समझा जा रहा है? किस तरह के प्रमाणों से प्रमेय की सिद्धि हो रही है? प्रमाता कौन है? ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान के विषय में किस तरह की अवधारणाएँ हैं?
तत्त्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा की विशिष्ट युग्मित दृष्टियों से प्रमुख चिंतनधाराएँ इस तरह की बन जाती हैं:
• विचारवाद या आदर्शवाद या प्रत्ययवाद (Idealism) – उन विचारों और मान्यताओं की समेकित विचारधारा है जिनके अनुसार इस जगत की समस्त वस्तुएं विचार (Idea) या चेतना (Consciousness) की अभिव्यक्ति है. सृष्टि का सारतत्त्व जड़ पदार्थ (Matter) नहीं अपितु मूल चेतना है. आदर्शवाद जड़ता या भौतिकवाद का विपरीत रूप प्रस्तुत करता है.
• भौतिकवाद (Materialism) – इसका यह मत है कि प्रकृति में पदार्थ ही मूल द्रव्य है, और साथ ही, सभी दृग्विषय, जिस में मानसिक दृग्विषय और चेतना भी शामिल हैं, भौतिक परस्पर संक्रिया के परिणाम हैं.
• अनुभववाद(Empiricism) – इसमें इंद्रियों को ज्ञान का माध्यम माना जाता है. इस वाद के अनुसार प्रत्यक्षीकरण संवेदनाओं और प्रतिमाओं का साहचर्य हैं. अनुभववादियों ने स्थापना की कि मन स्थिति जन्मजात न होकर अनुभवजन्य होती हैं.
• परतावादी प्रत्ययवाद (Transcendental Idealism) – इस दर्शन में ज्ञानशक्तियों की समीक्षा प्रस्तुत की गई है. इस मत में विचारसामग्री के अर्जन में इन्द्रियों की माध्यमिकता की स्वीकृति मेंइंद्रियवादियों (अनुभववादियों) से सहमत हैं; उक्त सामग्री को विचारों में परिणत करने में बुद्धि की अनिवार्यता का समर्थन करने में यह बुद्धिवादियों (प्रत्ययवादियों) से सहमत हैं; किंतु वह एक का निराकरण कर दूसरे का समर्थन करने में किसी से सहमत न था. कांट के मत में बुद्धि और इंद्रियाँ ज्ञान संबंधी दो भिन्न संस्थान नहीं हैं, बल्कि एक ही सस्थांन के दो विभिन्न अवयव हैं.
पारम्परिक तत्त्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा की दृष्टियों को लगभग नकारते हुये आधुनिक चिंतनधाराएँ इस तरह की बन जाती हैं:
• वस्तुनिष्ठावाद या ऐन्द्रिय प्रत्यक्षवाद (Positivism) – इसमें अनुभवातीत तत्व वैज्ञानिक अटकलों तथा पूर्व धारणाओं का परित्याग कर अनुभवप्रदत्तों तक सीमित रह सभी अनुभववादी दर्शनों पर लागू होता है. विभिन्न संदर्भों में प्रयुक्त होकर \”वस्तुनिष्ठावाद\” यथार्थ, निश्चित एवं शुद्ध के अतिरिक्त उपयोगी, सापेक्ष, नियमबद्ध तथा सहानुभूतिपूर्ण भी बन गया.
• तार्किक भाववाद (Logical Positivism) – सत्यापन की प्रक्रिया को ही किसी प्रस्तावना का अर्थ मानकर तार्किक वस्तुनिष्ठावादी परंपरागत दार्शनिक प्रश्नों को निरर्थक मानते हैं क्योंकि इस नवीन व्याख्या के अनुसार इंद्रियातीत विषयों से संबंधित होने के कारण वे कोई अर्थ नहीं रखते. उद्गमन को \”कार्य करने का नियम\” तथा वैज्ञानिक नियमों को \”एकवचनीय प्रस्तावनाओं की योजनाएँ\” मानकर तार्किक अनुभववादी विज्ञान का वह संगत चित्र प्रस्तुत करता है जिसके अनुसार तत्ववैज्ञानिक परिकल्पनाएँ पूर्णतया बहिष्कृत हैं. इस के अनुसार तत्वमीमांसा ने भाषा के नियमों का उल्लंघन किया है. इसलिए उसका विश्लेषण करना आवश्यक है. \”प्रमाणीकरण\” की पद्धत्ति से तत्वमीमांसा का अध्ययन करने के बाद कहा गया कि उसके सारे वाक्य \”अर्थहीन\” हैं. ईश्वर, आत्मा, अमरता आदि को प्रमाणित नहीं किया जा सकता. दर्शन का काम वास्तविकता की खोज करना नहीं, बल्कि वैज्ञानिक वाक्यों का अध्ययन करना हे. इस प्रकार कोई भी वाक्य प्रमाणीकरण के सिद्धांत पर खरा उतरता है तो उसे सार्थक कहा जा सकता है, नहीं उतरता तो वह अर्थहीन है.
• प्रतिभासवाद या भातिवाद (Phenomenology) – यह व्यक्तिनिष्ठ अनुभवों और चेतना के संरचनाओं का दार्शनिक अध्ययन है. प्रतिभास से अर्थ है, जो भी प्रदत्त वस्तु प्रत्यक्षानुभूति का विषय बनती हो. प्रतिभासवाद, ज्ञानमीमांसा से अध्ययन प्रारंभ नहीं करता. दूसरी विशेषता यह है कि प्रतिभासवाद सारतत्वों को विषयवस्तु के रूप में चुनता है. ये सारतत्व प्रतिभासी आदर्श एवं बोधगम्य होते हैं. ये प्रत्याक्षानुभूति की क्रिया में मन में छूट जाते हैं इसीलिए इसे सारतत्वों का दर्शन भी कहते हैं.
• अस्तित्ववाद (Existentialism) – अस्तित्ववाद में मृत्यु को दर्शन का आरंभिक बिंदु माना गया है. यास्पर्स के अनुसार दार्शनिकता का अर्थ है यह सीखना कि हम कैसे मृत्यु को प्राप्त हों. इसी को कहते हैं कि अस्तित्ववाद की समस्या आदमी की अस्तित्वपरक समस्या है. \”अस्तित्व\” ही इस स्कूल के अनुसार अध्ययन की मूल वस्तु है. अस्तित्व की परिभाषा प्राय: लोगों ने अलग-अलग दी है. किंतु इन सबके अनुसार, अस्तित्व आदमी के अस्तित्व के अतिरिक्त कोई दूसरी वस्तु नहीं है. आदमी स्वयं अपना निर्माण करता है और यह निर्माण उसकी स्वतंत्रता सिद्ध करता है.
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(प्रचण्ड प्रवीर, अरुण देव, प्रत्यूष पुष्कर ) |