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Home » अदनान कफ़ील दरवेश की कविताएँ

अदनान कफ़ील दरवेश की कविताएँ

अदनान कफ़ील दरवेश की कविता ‘क़िबला’ को २०१८ के ‘भारत भूषण अग्रवाल’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, आलोचक ‘पुरुषोत्तम अग्रवाल’ के निर्णय का स्वागत करते हुए ‘विष्णु खरे’ ने ‘समालोचन’ पर ही एक अच्छी बात कही थी कि ‘इस समय इतने प्रतिभाशाली युवा कवि-कवयित्रियाँ हिंदी में हैं कि एक embarrassment of riches का माहौल […]

by arun dev
June 23, 2019
in कविता
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अदनान कफ़ील दरवेश की कविता ‘क़िबला’ को २०१८ के ‘भारत भूषण अग्रवाल’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, आलोचक ‘पुरुषोत्तम अग्रवाल’ के निर्णय का स्वागत करते हुए ‘विष्णु खरे’ ने ‘समालोचन’ पर ही एक अच्छी बात कही थी कि ‘इस समय इतने प्रतिभाशाली युवा कवि-कवयित्रियाँ हिंदी में हैं कि एक embarrassment of riches का माहौल है.\’ 
अच्छी बात इसलिए कि कुछ वर्षो पहले यह सुना जाता था कि युवा कवि पिछले कवियों की नकल हैं और उनमे इस तरह से एकरूपता है कि उनकी कविताओं को  अलग से पहचानना संभव नहीं.

अदनान कफ़ील दरवेश की कुछ कविताएँ आपने पहले भी ‘समालोचन’ पर पढ़ीं हैं. इन कविताओं में जो बात ध्यान खींचती है वह है वृतांत. वे ब्यौरे अपने आस-पास से उठाते हैं और कुशलता से उन्हें कविता में गूँथ देते हैं. 

कविताओं के तात्कालिक सन्दर्भ रहते हैं. बड़ी कविताएँ तात्कालिकता को युग सत्य में बदल देती हैं. कालजयी होने के लिए भी काल में धंसना जरूरी है. साहित्य में जरूरी नहीं कि ‘contemporary’ ‘temporary’ हो. शाश्वत विषयों पर लिखी कविता ही श्रेष्ठ कविता होगी ऐसी भी कोई अनिवार्यता नहीं है. 

अदनान की कुछ कविताएँ आप के लिए.


अदनान कफ़ील दरवेश की कविताएँ                    
_________________________________________

शहर की सुबह

शहर खुलता है रोज़ाना
किसी पुराने संदूक़-सा नहीं
किसी बच्चे की नरम मुट्ठियों-सा नहीं
बल्कि वो खुलता है सूरज की असंख्य रौशन धारों से
जो शहर के बीचों-बीच गोलम्बरों पर गिरती हैं
और फैल जाती हैं उन तारीक गलियों तक
जहाँ तक जाने में एक शरीफ़ आदमी कतराता है
लेकिन जहाँ कुत्ते और सुअर बेधड़क घुसे चले जाते हैं
शहर खुलता है मज़दूरों की क़तारों से
जो लेबर-चौकों को आरास्ता करते हैं
शहर खुलता है एक शराबी की तनी आँखों में
नौकरीपेशा लड़कियों की धनक से खुलता है
शहर, गाजे-बाजे और लाल बत्तियों के परेडों से नहीं
बल्कि रिक्शे की ट्रिंग-ट्रिंग
और दूध के कनस्तरों की उठा-पटक से खुलता है
शहर रेलयात्रियों के आगमन से खुलता है
उनके आँखों में बसी थकान से खुलता है
शहर खुलता है खण्डहरों में टपकी ओस से
जहाँ प्रेमी-युगल पाते हैं थोड़ी-सी शरण
शहर खुलता है गंदे सीवरों में उतरते आदमीनुमा मज़दूर से
शहर भिखमंगों के कासे में खुलता है ; पहले सिक्के की खनक से
शहर खुलता है एक नए षड्यंत्र से
जो सफ़ेदपोशों की गुप्त-बैठकों में आकर लेता है
शहर खुलता है एक मृतक से
जो इस लोकतंत्र में बेनाम लाश की तरह
शहर के अँधेरों में पड़ा होता है
शहर खुलता है पान की थूकों से
उबलती चाय की गंध से
शहर खुलता है एक कवि की धुएँ से भरी आँखों में
जिसमें एक स्वप्न की चिता
अभी-अभी जल कर राख हुई होती है…

अकेलापन

(एक)
अकेलापन तुम्हें घेरेगा हवा की तरह
तुम्हें उदास करेगा जैसे पतझड़ में झड़ते हैं सूखे पत्ते
और उदास हो जाती है प्रकृति
अकेलापन तुम्हें धिक्कारेगा तुम्हें बहलाएगा तुम्हें पगलाएगा
अकेलापन तुम्हें अवकाश देगा आत्मा के छंद को सुनने का
उसे रचने के औज़ार तराशने का
अकेलापन तुम्हें उलझाएगा
तुम्हें स्मृतियों के समुद्र में डुबाएगा
तुम्हें रुलाएगा
तुम्हारे गीले आकाश पर तारों की तरह टिमटिमाएगा वो
तुम्हें मसखरे की तरह हँसाएगा
अकेलापन तुमसे शाम के झुटपुटे में बेल की तरह लिपट-लिपट जाएगा
अकेलापन एक जगह होगी
जहाँ तुम \’होने\’ का अर्थ खोजोगे
अकेलापन तुम्हें अधिक मनुष्य और अधिक निष्ठुर बनाएगा।
(दो)
तपती है दुपहरिया
उड़ती है लू
कमरे में जमती है महीन धूल की चादर
कानों को अखरती है पंखे की कर्कश आवाज़
किताबें मुँह फुलाए घूरती हैं
देख-देख हतोत्साहित होता हूँ
उँगलियाँ चटकाता हुआ
आत्मा धँसती है शरीर की झाड़ियों में
देह धँसता है बिस्तरे में
दिन का डाकिया
उड़ेल देता है बालकनी पर सुनहरे पत्र
सूख जाते हैं अलगनी पर रंग-बिरंगे कपड़े
जिन्हें फैलाते हैं कोमल हाथ
देर तक गूँजती है गलियारे में नन्ही बच्ची की आवाज़
उड़ जाती है डाल से आख़िरी चिड़िया
एक स्त्री की चींख घुट जाती है उसके सूने बरामदे में
वो हँसती है जैसे फट जाता है साज़ का पर्दा
खीझती है ख़ुद पर ; पटकती है बर्तन
हँसती है और छुप कर रो-रो लेती है
जर्जर पेट ऐंठता है दोनों का
दुखती है गुदा…

हत्यारा कवि

उसकी कविताएँ मुझे चकित करती रहीं
उसकी लिखी पंक्तियाँ पढ़कर
अक्सर
मन करुणा से भर-भर जाता
कैसे कहूँ कि उसकी कविताएँ पढ़कर रोया हूँ बारहा
आधी रातों के सुनसानों में
बहुत दिनों तक उसे उसकी कविताओं से ही जाना था
अचानक वो मिल गया किसी गोष्ठी में
और उससे सीधे पहचान हुई
धीरे-धीरे पता चला उसका राजनीतिक पक्ष
जो कि हत्यारों की तरफ़ था
मेरे पाँव से ज़मीन ही खिसक गई
विश्वास नहीं हुआ कि कैसे मेरा प्रिय कवि
हत्यारों की ढाल बन सकता है
जी हुआ उसकी कविताएँ जला दूँ
जिसे पढ़कर रोया था बार-बार
फिर अचानक उसकी एक और कविता पढ़ी
और मन बदल लिया
कोई कवि इतना अदाकार कैसे हो सकता है कविता में
अब भी चकित हूँ
नोचूँ हूँ घास
देखूँ हूँ उसकी तस्वीर, उसका मासूम चेहरा जिसपर फैली है गुनगुनी धूप
सोचूँ हूँ, शायद वो कल मेरी हत्या करने मेरे गले पर छुरी रखे
तो मैं उसका विरोध भी न कर पाऊँ
अजीब प्रेम है उससे मुझे
उफ़्फ़
शायद उसे कहूँ कि भाई गला काट के हाथ धो के जाना
अलमारी में मेरे कपड़े होंगे उन्हें पहन लेना
मुझे तुम्हारी कविताएँ बहुत अच्छी लगती हैं !

स्वप्नकथा


(एक)
घर एक सूखा पत्ता है
जो रात भर खड़खड़ाता है मेरे सिरहाने
पत्ते से निकलती है एक बिल्ली
सारे रास्ते काटती
कूद जाती है कुएँ में
पत्ते से निकलता है साँप
और निगल जाता है मेंढक को
पत्ते से निकलती है भीत
जिसपर चिपकी होती है उजली छिपकली
पत्ते से निकलता है एक फ़िलिप्स का पुराना रेडियो
जिसपर चलती हैं ख़बरें बर्रे-सग़ीर की और आलम की
और के. एल. सहगल का कोई गीत
या बेगम अख़्तर की पाटदार आवाज़
पत्ते से निकलता है चूहा
किताबें और रिसाले कुतरता, गिरता है पटनी से
पत्ते से निकलती है टॉर्च
और गिरती है सिरहाने से बार-बार
ठेंगुरी टेकते चलती है एक आदमक़द छाया
दिन भर का थका सूरज
चुपके से घुस जाता है जर्जर चमड़े के जूते में
जंगले पर रखी ढिबरी में
आलोकित होती हैं खनकती चूड़ियाँ
ओसारे में बजते हैं
पायल के थके घुँघरू
शरीर में अचानक कड़कती है बिजली
और हाथ से गिरता है पानी का गिलास
जो डगरता हुआ धँसता चला जाता है
कितनी-कितनी नींदों के भीतर
मेरी हथेली को भींचती हैं एक जोड़ी बूढ़ी हथेलियाँ
पूछती हैं, \”आओगे नहीं इलाहाबाद या उसके पार, जहाँ हूँ ?\”
मैं कातर नज़रों से देखता हूँ दाढ़ी में छुपा बाबा का चेहरा
जिसे जागकर कभी नहीं देख पाऊँगा
घड़ी की सुई की आवाज़ के साथ
काँपता हूँ उस भयानक सन्नाटे में
तब तक टनकता है अलार्म और टूटती है बरसों की नींद
और हत्यारा सूरज
गिरता है सौ मन के भारी पत्थर की तरह
मेरे सिर के भीतर…
(दो)
एक अड़हुल का फूल अपनी शाख़ से निकलकर
बढ़ रहा है मुलायम हथेलियों की जानिब
कनैल के फूल से भरी टोकरी
चढ़ रही है मंदिर की पथरीली सीढ़ियाँ
मुँह-अँधेरे बरबराता-चुरमुराता हुआ
खुल रहा है
नन्हे नमाज़ी के लिए
घर का बूढ़ा फाटक
मिट्टी में खुरपी से रोपा जा रहा है लौकी का बीज
चाय की कटोरी में झाँक रही है सोंधी सुबह
पानी से भरे गिलास में घुल रहा है बताशे का सिक्का
नन्हे दामन में हुलस रही हैं नीम की पकी निंबौलियाँ
एक मेंढक टर्राता हुआ उछलता
चढ़ आया है गीले पाँव पर
झींगुरों का सामूहिक-गान साँझ से ही चालू है
पोखर में डूब रही है धीरे-धीरे एक थपुए की चिप्पी
बारिश में हुमक-हुमक कर तैर रही है
एक रंगीन काग़ज़ की छोटी-सी नाव
एक तितली सरसों के खेतों से बतियाती निकल रही है
झमाझम होती बारिश में रो रहा है एक बच्चा
हिल-डुल चारपाई में ठुक रहा है बाँस का पाँचर
कसी जा रही है उसकी ओड़चन
दोपहर में बाज़ार से
सफ़ेद रुमाल में बँधे
चले आ रहे हैं ललगुदिया अमरूद
दर्ज़ी ले रहा है उरेबी गंजी की माप
रात के अँधेरे में
बदन पर फिर रहे हैं जाने-पहचाने हाथ
काजल में रची आँखों से
गिर रही हैं आँसू की मोटी-मोटी बूँदें
रात में शामिल है एक और रात का रोमांच
सीने में चाकू की तरह धँसी है एक जलती हुई बात
भिनास फटने से बहता जा रहा है नाक से ख़ून
झुटपुटे के वक़्त दरवाज़े पर
फन काढ़े बैठा है तमतमाया गेंहुवन साँप
धँस रहा है नींद में बिच्छुओं का तना हुआ डंक
एक बच्ची की चीख़ से झड़ रहे हैं घर के पलस्तर
और काँप रही है दीवार
सारे इलाज पड़ चुके हैं बेकार
सीढ़ियों के नीचे के अँधेरों से
निकल रहा है एक चमकीला फूल
जो चढ़ता जा रहा है सीढ़ियाँ
छत से बूँद-बूँद टपक रहा है ख़ून
बुआ ! बुआ ! बुआ !
कौन पुकार रहा है इस बेचैन कर देने वाली मीठी आवाज़ में
कौन है जो दलदल में धँसता चला जा रहा है
एक परिंदे की चीख़ से काँप उठा है आकाश
पानी ! पानी ! पानी !
किसकी है ये कातर आवाज़ ?
उफ़्फ़ !
आँखों में भर रही है रेत
हाथ से झर रही है रेत
कौन खड़ा है दरवाज़े के पीछे
दम घुटने पर भी निकलती क्यों नहीं चीख़ ?
यूँ स्मृतियों की स्मृतियों में
नींद के पंखों पर बीतता है
नीला पड़ चुका 
सड़ा हुआ
ठंडा समय…

ढिबरी

ये बात है उन दिनों की
जब रात का अँधेरा एक सच्चाई होती थी
और रौशनी के लिए सीमित साधन ही मौजूद थे मेरे गाँव में
जिसमें सबसे इज़्ज़तदार हैसियत होती थी लालटेन की
जिसे साँझ होते ही पोंछा जाता था
और उसके शीशे चमकाए जाते थे
राजा बेटा की तरह माँ और बहने तैयार करती थीं उसे
लेकिन मुझे तो वो बिल्कुल मुखिया लगता था
शाम को
घर के अँधेरों का
लालटेन, प्रायः घरों में एक या दो ही होते थे
जिन्हें प्रायः
अन्हरकूप घरों की इज़्ज़त रखने वाली जगहों पर ही
बारा जाता था
मसलन, बैठके में या फिर रसोईघर में
कभी-कभी तेल ख़तम हो जाने पर हम ढिबरी में पढ़ते थे
मुझे आती थी हाजमोला की शीशी से ढिबरी बनानी
एक छेद टेकुरी से उसके ढक्कन में
फिर बाती पिरो कर तेल भरना होता था बस
ढिबरी जलने से करिया जाता था ताखा
जिसे सुबह गीले कपड़े से पोंछना पड़ता था
ढिबरी का प्रकाश बहुत कमज़ोर होता था
आँखों पर बहुत ज़ोर पड़ता था पढ़ने में
ढिबरी को यहाँ-वहाँ ले जाने में
उसके बुझने का धड़का भी बराबर लगा रहता था
उसके लिए ज़रूरत होती थी
सधी हथेलियों और सधे क़दमों के ख़ूबसूरत मेल की
अब इस नई दुनिया में
जहाँ ढिबरी एक आदिम युग की बात लगती है
मैं जब याद करता हूँ अपना अँधेरा बचपन
जहाँ अब भी बिजली नहीं पहुँचती
और न ही काम आती है ज़ोरदार टॉर्च
आज भी उसी ढिबरी से आलोकित होता है
वो पुराना ठहरा समय
जहाँ एक ढिबरी अब भी लुढ़की पड़ी है
जिसका तेल
बरामदे के कच्चे फ़र्श पर फैल रहा है…

___________________________________
(क़िबला और अन्य कविताएँ) 

अदनान कफ़ील दरवेश

(30 जुलाई 1994,गड़वार, बलिया, उत्तर प्रदेश)
कंप्यूटर साइंस आनर्स (स्नातक, दिल्ली विश्वविद्यालय

ईमेल: thisadnan@gmail.com
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