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समालोचन

Home » आवाज़ की जगह : १: प्रभात रंजन और सीतामढ़ी

आवाज़ की जगह : १: प्रभात रंजन और सीतामढ़ी

युवा कवि आलोचक  गिरिराज ने अपनी पसन्द के कहानीकारों पर लिखते रहने का वायदा किया है. शुरुआत  प्रभात रंजन से. गिरिराज की समूची उपस्थिति ही साहित्य के लिए आह्लादकारी है. इस शुरुआत में अपने समकाल पर लिखने  की जहां जरूरी पहल हुई हैं, वहीं प्रभात के कथा – रहस्य में गहराई से उतरने का आलोचकीय […]

by arun dev
January 7, 2013
in आलेख
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युवा कवि आलोचक  गिरिराज ने अपनी पसन्द के कहानीकारों पर लिखते रहने का वायदा किया है. शुरुआत  प्रभात रंजन से. गिरिराज की समूची उपस्थिति ही साहित्य के लिए आह्लादकारी है. इस शुरुआत में अपने समकाल पर लिखने  की जहां जरूरी पहल हुई हैं, वहीं प्रभात के कथा – रहस्य में गहराई से उतरने का आलोचकीय जोखिम भी लिया गया है.

इस रहस्य और कथा – रस  को जानने के लिए यह लेख है . प्रभात को बधाई दी जानी चाहिए.  

आवाज़ का ठिकाना १: प्रभात रंजन और सीतामढ़ी            

गिरिराज किराडू

वह बहुत छोटी-सी खबर थी, जिस पर मेरी आँखें ठहर गयीं. अखबार के दूसरे-तीसरे पन्नों पर हर रोज ऐसी असंख्य खबरें मैं बरसों से पढता आ रहा हूँ….एक तरह से अपने प्रिय राष्ट्रीय दैनिक के वे दो पन्ने मेरे लिए स्थानीय और राष्ट्रीय प्रगति का आईना जैसे बन गये हैं….मैं आपसे झूठ नहीं बोलना चाहता, यथार्थ से जुड़े रहने का मेरा यही एकमात्र जरिया रह गया है.
(फ्लैशबैक: प्रभात रंजन)

प्रभात रंजन के दोनों कहानी संग्रहों – \’जानकीपुल\’ और \’बोलेरो क्लास\’ में – कहानी बार-बार सीतामढ़ी  पहुँच जाती है. हर कहानी में राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय होता है, कोई ना कोई लड़का नोट्स लेने देने के बहाने किसी लड़की से मिलना शुरू करता है, किसी ना किसी पात्र का सरनेम \’मंडल\’ होता है, और \’लिली\’ अगर किसी लड़की का नहीं तो \’वीडियो कोच\’ का नाम होता है और लड़की हो या \’वीडियो कोच\’ इस नाम से एक \’लिली कांड\’ ज़रूर होता है और हर कहानी में नेपाल से जिसके सूत्र जुड़े हों ऐसा \’ब्लू फिल्मों\’ और सेक्स रैकेट का स्कैंडल होता है  कई कहानियाँ पढ़ते हुए आपको लगता है आप इस जगह या किरदार से पहले भी मिल चुके हैं. हर कहानी का नैरेटर दिल्ली में रह रहा होता है और उसका सीतामढ़ी -यथार्थ के साथ सम्बन्ध अक्सर अप्रत्यक्ष स्रोतों से रहता है – अखबार से, वहाँ के किसी दिल्ली आ गये परिचित से या अपनी छुट्टियों में होने वाली विजिट से. लेकिन कोई भी कहानी यह नैरेटर खुद पूरी नहीं कहता – वह अखबार/टीवी को और दूसरे किरदारों को भी नैरेटर नियुक्त कर देता है. अखबार/ टीवी को एक नैरेटर के रूप में इस्तेमाल करना प्रभात रंजन की कथा के उन कई नायाब आविष्कारों में से हैं जिन पर अभी तक ध्यान नहीं गया है. यहाँ कथा बिना अखबार/टीवी के नहीं बन सकती – हमारे समकालीन यथार्थ का एक ऐसा सच जिसे इस कथाकार ने बरसों पहले पहचान लिया था. पहचान इसने यह भी लिया था कि हर \’गौण कथा\’ उसके लिए एक मुख्य कथा है लेकिन जिस समाज में वह घटित होती है वह उसके इतने संस्करण निर्मित करता है कि जो एकवचन प्रतिरोध के लिए आवश्यक होता है उसे नष्ट करने का उसके पास सबसे कारगर तरीका यही है कि कथा को किसी एक सच में कहने योग्य ना रहने दो, उसे कई परस्पर विरोधी संस्करणों में बदल दो (यहाँ यह दिलचस्प है कि \’राशोमन इफेक्ट\’ जिसको लेकर पढ़े लिखे लोग इतना अभिभूत रहते आये, भारत जैसे गल्पप्रेमी समाज की अपनी एक युक्ति है किसी सच को न्याय-योग्य ना रहने देने का – क्यूंकि भंते कला/दर्शन के लिए यह इफेक्ट चाहे जितना आकर्षक हो, न्याय की अवधारणा के लिए भी, लेकिन न्याय-प्रणाली के लिए नहीं – न्याय-प्रक्रिया यथार्थ के एक न्यूनतम संभव, सत्य संस्करण के बिना संभव नहीं).


\’पक्षधर\’ कला की तरह प्रभात रंजन की कथा लेखकीय हस्तक्षेप से इस विलक्षण सामाजिक युक्ति को एकपक्षीय वृतांत में नहीं बदलती लेकिन कथा पढ़ने के बाद आप यह लगातार सोचते रहते हैं कि लेखक ने ऐसा क्यूँ नहीं किया? अगर उसे ऐसा नहीं करना था तो उसने ये गौण (Marginal) पात्र और उनकी कथा चुनी ही क्यूँ? प्रभात रंजन के पात्र ऐसे विक्टिम हैं जिन्हें कथाकार कोई उम्मीद नहीं बख्शता, वे \’आदर्श\’ विक्टिम भी नहीं हैं – वे \’पूरे\’ पात्र हैं, अच्छे भी बुरे भी और अपनी त्रासदी का सामना करते हैं अपने इसी पूरेपन के साथ. एक ख़ास तरह के हिन्दुस्तानी ठंडेपन के साथ, एक तरह की निसंगता के साथ ये किरदार और उनकी कथाएं हमारे सामने अपने त्रासद अंत की तरफ बढ़ते हैं. और क्यूंकि कथाकार कोई रिलीफ हमें नहीं देता, हमें अधिक विचलित करते हैं. संयोग नहीं कि ये सब \’भविष्य-विहीन\’ किरदार हैं. कहानी इस तरह खत्म होती है कि उसके साथ किरदार भी खत्म हो जाते हैं – यह भविष्यविहीनता उन किरदारों की ही नहीं , उनके लोकेल की भी है. जो गौण है उसके डिस्टोपिया का यह गहरा अहसास उनकी कथा का एक और नायाब आविष्कार है.

२

ऐसी बहुत-सी कहानियां हैं इन दो संग्रहों में जो मुझे याद रहती हैं लेकिन कोई भी \’फ्लैशबैक\’ से ज़्यादा नहीं. यह बांके भाई की कथा है जो कभी छात्र नेता हुआ करते थे और कथा के एक नैरेटर \’मैं\’ ने उनको अपना मेंटर समझ कर अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की. \’मैं\’ का राजनैतिक जीवन एक छात्र आंदोलन के उपद्रव और लूटपाट में बदलने के एक सदमे से ही समाप्त हो जाता है और वह अपने परिवार की परंपरा के मुताबिक डाक्टर आदि ना बनने की भरपाई मैनेजमेंट पास करके एक वाइन कंपनी में  नौकरी लगके करता है. यहाँ सब कहानियों की तरह यह नैरेटर भी दिल्ली (फरीदाबाद/गाज़ियाबाद) आ जाता है और यहाँ से कहानी दूसरे नैरेटर सुनाने लगते हैं. लोकप्रिय छात्र नेता बांके भाई उसी आंदोलन के मुख्य आरोपी से हाथ मिला लेते हैं, प्रदेश महामंत्री बन जाते हैं और बाद में वह आरोपी भी सांसद बन जाता है, बांके भाई इस्तीफा देकर जाति-उन्मूलन के लिए काम करने लगते हैं और अपने शिष्य सांसदों और स्टार नेताओं के साथ दुकानदारों के फोटो खिंचवाने का धंधा शुरू कर देते हैं. और नेरेटर को अंततः मिलते हैं उसके प्रिय राष्ट्रीय दैनिक की एक छोटी-से खबर बनके – अपने सांसद शिष्य का स्टिंग आपरेशन करने की असफल कोशिश में गिरफ्तार होते हुए. एक \’आदर्श\’ छात्र नेता से नेताओं को लड़कियां सप्लाई करने वाले बांके बिहारी की बची हुई कहानी हम दैनिक समेत तीन और आवाजों में सुनते हैं याने कुल चार नैरेटर.

कहानी यह कहते हुए खत्म हो जाती है कि \’उस दिन के समाचार के बाद उनकी और कोई खबर छपी नहीं देखी है.\’
३
प्रभात रंजन की कथा में करुणा प्रदर्शित नहीं की जाती. क्या बांके भाई किसी करुणा के योग्य हैं? क्या समूचा सीतामढ़ी , जैसा उनकी कथा में वह है, किसी करुणा के योग्य है? यह कैसा शहर है जिसके मटमैले मामूली किरदार, अक्सर अपराध से सने, इस कथाकार की आवाज़ में बोलते हैं? क्यूँ वह उनसे भागने की कोशिश करता है, क्यूँ वह उनकी हर कथा को आधे सच आधे झूठ की तरह, कई नैरेटर्स के साथ बयान करता है? – भंते, हम कलात्मक दूरी, आख्यान की नैतिकता, वस्तुपरक सत्यान्वेषण जैसे जुमलों से बच कर बात करेंगे. यह कला में उम्मीद के फ़रेब से बचने की कला है – अगर उम्मीद नहीं है तो नहीं है. 
सीतामढ़ी  और ऐसे दूसरे तमाम शहर अपना यथार्थ खुद नहीं निर्मित करते – कहीं बहुत दूर किसी ग्लोबल में, नैशनल में कुछ होता है और वह उनके यथार्थ को बनाता बिगाड़ता है. इसी तरह बांके भाई और दूसरे किरदार (ध्यान रहे प्रभात रंजन के सारे किरदार गौण किरदार हैं, उनका लोकेल गौण है) अपना यथार्थ खुद निर्मित नहीं करते; वे उन चीज़ों के हाथों बनते हैं – राष्ट्र राज्य, लोकतंत्र, मीडिया, टेक्नोलॉजी, पूंजीवाद – जिन्हें उन्होंने निर्मित नहीं किया है. वे इस बड़े और बेढंगे लोकतंत्र की संतानें हैं – विषमता के उस संजाल की संतानें जिसमें अपराध एक छलपूर्ण शब्द है, एक ब्यूरोक्रेटिक, समाजवैज्ञानिक बाजीगरी विषमता को छुपाने के लिए.
इस ख़ास अर्थ में, प्रभात रंजन \’अपराध लेखक\’ हैं. 
४
प्रभात रंजन की कथा की आवाज़ दिल्ली में आ बसे नैरेटर की आवाज़ है लेकिन जो शहर उनकी कथा में बोलता है वह सीतामढ़ी  है – कुछ कुछ रेणु के पूर्णिया, आर. के. नारायण के मालगुडी, हार्डी के वैसेक्स की तरह. रेणु और हार्डी में करुणा बहुत है, प्रभात रंजन में वह कॉमिक भी नहीं है जो आर.के. में है. यह करुणा और कॉमिक से अलग त्रासदी को ऐसे लिखना है कि आप – पाठक – तय करे कि यह कथा उसके साथ क्या कर (पाएगी). यह लेखक (ऑथर) के  स्वर और आख्यान (सच?) पर उसकी अथॉरिटी को पढ़ने वाले में विलीन करने वाली कथा है

५
मैं एक ख्वाब देखता हूँ: मैं किताबों की किसी दूकान में घुसता हूँ और मेरे सामने एक पुस्तक है: \’सीतामढ़ी  क्रॉनिकल्स\’: प्रभात रंजन. प्रकाशक: प्रतिलिपि बुक्स.
बस एक ज़रूरी डिटेल नहीं दिखती: ट्रांसलेटेड बाय ….
है कोई उम्मीदवार?
________________________________________________


प्रभात रंजन की कहानी
गिरिराज किराडू की कविताएँ 

————

rajkiradoo@gmail.com
Tags: गिरिराज किराडू
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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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