गिरिराज किराडू अक्टूबर 2024 |
सेल्फी
क्लिक करते वक़्त नहीं देख पाई
तीस डिग्री झुका हुआ दुख
ट्रैफ़िक लाइट पर किताब बेचते लड़के के साथ खड़ी बच्ची
पीछे होर्डिंग में मुस्कुराता हुआ सुधीर चौधरी
और तीन दिन बाद होने वाले हार्ट अटैक से अनजान अपना जिस्म
9 बजे रात पोस्ट करना है मुझे
दोपहर दो बजे का अपना एंड्रॉयड चेहरा
लाइव
हत्या का सीधा प्रसारण जरा भी मुश्किल नहीं ज़्यादा तामझाम नहीं चाहिए
एक स्मार्ट फोन सौ पचास का डेटा ई मेल
यू ट्यूब चैनल तो सबका बन ही जाता है
रात ज़रूरी नहीं दिन दहाड़े हो तो वीडियो साफ़ आता है
एकांत एकदम नहीं चाहिए भीड़ जितनी हो उतना अच्छा
चाकू हो तो ठीक है ज़रूरी नहीं इंसान के हाथ और पैर काफ़ी हैं
युद्ध का सीधा प्रसारण सी एन एन बनाता है
हत्या के विचार से उत्तेजित प्राइम टाइम हत्या को लोकप्रिय विचार बनाता है
हत्या का सीधा प्रसारण राष्ट्र बनाता है?
SPB
जिस गाने को ग्रामीण विद्रोह का गाना माना वह स्टॉकर लड़कों की हुड़दंग निकला
जिसे विरह का समझा आक्रोश का निकला जिसे प्रेम का मृत्यु गान निकला
जिसे शोक गीत सामाजिक व्यथा का बखान निकला
जिसे तमिल समझा मलयालम निकला
जिसे मलयालम तेलुगु निकला
और एक तस्वीर में तो
शायद 1990 में बोफ़ोर्स और रथयात्रा के साये में बीते उस निजी वसंत के साल में
जिसे तुम्हारा समझा वो जिस्म इलैयाराजा का निकला
तुम्हारी आवाज़ में इतने गायक गाते थे जिसे तुम्हारा समझा कभी मनो कभी राजेश कृष्णन का निकला
तुम्हारी आवाज़ से वे शायद अपनी आवाज़ पा गये
मेरी तो कोई आवाज़ नहीं जो है तुम्हारी नक़ल है
सोचो कोई दिन होता मैं तुम्हें मनरम वंद या इदु ओरु पोन मालई या नगुवा नयना या नानिच्चली गाकर सुनाता
कहता इतने भजन क्यूँ गाते हो
इतने धार्मिक क्यूँ हो
तुम्हारे स्वास्थ्य की खबर फ़ासिस्ट सत्तापुरुष क्यों रखते हैं
उन्होंने जो तबाही मचायी है उसे
माफ़ करना तुम्हारे सारे गाने मिलकर भी कम नहीं कर सकते
दो बार हम मिल सकते थे मैंने पूरी कोशिश नहीं की
लेकिन सातवीं में पढ़ने वाले एक लड़के के जीवन में मारिया और जॉनी का गीत गाते
पैदाइशी अभिमानी खड़ी बोली को अहिन्दी उच्चारण से बनाते-बिगाड़ते
अगर तुम न आते तो नहीं समझ आता कलाओं का वर्णाश्रम
अगर अनजान लिपियों के बीच रोमन में सिर्फ़ तीन अक्षर देखकर न ले आते मैग्ना साउंड के वो केसेट
नहीं समझ आती मेरिट पुलिस की कारगुज़ारियाँ
तुम्हारा विदा गीत मेरे पास नहीं है वो तमिल होगा तेलुगू होगा हिन्दी होगा पता नहीं वो तुम्हारा अपना नी गुडू चेदीरिंदी होगा या कुछ और पता नहीं राजेश और मनो और रहमान और राजा सबने तुमको अलविदा बोल दिया है मैं कब बोल पाऊँगा पता नहीं रमबमबम आरमबम तो शोकगीत के लिये ठीक नहीं रहेगा लेकिन क्या ही विदा होगी ना वो अगर उषा उत्थुप और राजेश और मनो और मैं और पुनीत शर्मा और अमित श्रीवास्तव देश की नयी संसद के आगे खड़े हो कर तुम्हें पुकारते हुए शुरू हो जायें रमबमबम आरंबम रमबमबम आरंबम
एक फोन नंबर की तरह हैं
मैं तो आपको कॉल करने वाला था!
एक दिन की शूट हम साथ कर चुके थे
इतनी जल्द, तीन दिन के भीतर, दूसरी होगी पता नहीं था
इन तीन दिनों में कई बार आपके बारे में सोचता रहा
आप जिस शहर में रहते हैं कुछ-कुछ उसकी तरह हैं
धीमे, और इसीलिए कुछ पिछड़े, बीसवीं शताब्दी में फँसे-से
मैं सोचता रहा आजकल आपका काम उतना ठीक चल रहा है न
जितना आप बताते हैं, आपकी पत्नी जो हिन्दू घर से है कैसी हैं?
बच्चे हैं आपके? क्या कर रहे हैं? इस शहर से निकले कि नहीं?
आपका कैमरा पुराने दूरदर्शन के मेयार से भले पूरा मेल न खाये
मिज़ाज तो एकदम मेल खाता है
आपकी आँखें उससे इंसान नहीं रोशनी देखने में लगी हुई थीं पूरे दिन
जाने क्यों मुझे लगता है आपने इन्हीं आँखों से जेपी और इंदिरा दोनों को सामने से देखा होगा
पर कुछ करिए आपके उपकरण पुराने पड़ रहे हैं
दूरदर्शन को रोज़गार की तरह याद रखिये ना, इश्क़ की तरह नहीं
लेकिन, आपके बारे में बात करने नहीं आया हूँ आपके पास
यूँ भी अगली शूट का कोई अंदाज़ा नहीं, पेमेंट आपका हो ही गया है,
दोस्त हम अभी हुए नहीं
शायद कभी होंगे भी नहीं क्यूँकि मेरे कोई दोस्त नहीं
मैं अभी भी गरीब कस्बाई अना, अकड़ और आत्मदया का एक चलता-फिरता, मामूली वीराना हूँ
ख़ैर, मैं अपने बारे में भी बात करने नहीं आया हूँ आपके पास
गो उसके अलावा कुछ और करना मुश्किलतर होता जा रहा है
मैं आपको एक असहनीय दुख बताने आया हूँ
तो, हुआ यह कि, मैं तो आपको कॉल करने वाला था!
आपका नाम लिखकर सर्च करने पर अरसे बाद जाहिर हुआ
मेरे फ़ोन में, मेरी ज़िन्दगी में आप अकेले एजाज़ नहीं हैं
उस दूसरे एजाज़ का नंबर मेरे फ़ोन में
साल-दर-साल शहर-दर-शहर फैले इस बेदोस्त वीराने में
कैसे रहा चला आया पता नहीं
जबसे मैंने उस नाम और नंबर को देखा है बचे खुचे पंख टूट रहे हैं
रो रहा हूँ जैसे एक बेदोस्त, मामूली वीराना रोता होगा
रो रहा हूँ छियालीस डिग्री में भरी सड़क पर भारी ट्रैफ़िक में मोटरसाइकल चलाते हुए
आप समझ रहे हैं न एजाज़ अहमद इस दुनिया में नहीं हैं, और मेरे फ़ोन में एक नंबर की तरह हैं
आप समझ रहे हैं न यह कितनी कुचल देने वाली बात है कि
एजाज़ अहमद
नहीं हैं
[‘इन थियरी’ समेत अनेक यादगार किताबों, निबंधों के लेखक, ग़ालिब के अनुवादक और मार्क्सीय विचारक एजाज़ अहमद (1941-2022) के नाम ]
नये युग में मित्र
स्त्रियों को गाली देने पर एक अफ़सर लेखक के ख़िलाफ़ चले अभियान में
हस्ताक्षर कर दिये थे लेकिन नौकरी से हटाने की माँग पर नहीं माने
ऐसा करते हुए उन्होंने मुझसे फ़ोन पर कहा, “मैं एक राजनीतिक आदमी हूँ” –
उस दिन से मैंने उनको आदरपूर्वक वही माना
तब यह हिन्दी संस्कृति थी किसी फ़ासिस्ट के आयोजन में नहीं जाना है
और एक बार वे चले गये थे
तब उन्होंने मुझसे कहा था, “मुझे पता नहीं था” –
यह मैंने आदरपूर्वक नहीं माना
जैसी दिल्ली की साहित्यिक आयोजन वाली शामें होती हैं वैसी एक शाम
हैबिटेट में बाहर सिगरेट जलाते हुए उन्होंने पूछा,
“ये ऑडियो वाले काम में पैसा ठीक मिल जाता है?”
मेरे वेतन बताने पर बोले, “ऐसा काम मुझे भी दिला दो, इससे कम भी चलेगा”
उस दिन के बाद हर महीने वेतन आने पर उनका चेहरा, सिगरेट के साथ, याद आता है
वे तब सत्तर बरस के थे, मृत्यु से दो साल दूर
उनकी यादगार कविता “संगतकार” पर दो बार लिखा
पहली बार सवाल थे, हिंदी की भीतर की राजनीति का असर था
दूसरी बार प्रशंसा थी, दुनिया में कला की राजनीति का असर था
पहली बार तक हम अलग अलग ख़ेमों में माने जाते थे हिन्दी के
दूसरी बार तक खेमे उस तरह रह नहीं गये थे हिन्दी में
लेकिन दोनों बार इस कविता और उस पर मेरे लिखे के बारे में हमने बात नहीं की
कभी नहीं की
वे जैसे कवि थे वैसा कवि इंसान कारीगर मज़दूर इंजीनियर अध्यापक वकील नेता पेंटर कुछ भी होने के लिए जगह
जितनी कम हुई है उतनी ही वैसा होने की ज़रूरत बढ़ी है. जनसंहारकों के अभियानों में जब लेखक कलाकार संगीतकार
चित्रकार दाखिल हो रहे थे, वे अक्सर गहरी समझ और कभी-कभी हताश मासूमियत से उन शक्तियों से जूझते रहे.
हम कभी दोस्त नहीं रहे, हो सकते थे
लेकिन जब भी मिले दोस्तों की तरह मिले
जब भी विदा ली दोस्तों की तरह ली
[कवि मंगलेश डबराल (1948-2020) के नाम से}
नमस्कार मैं रवीश कुमार
बुरा मत मानियेगा लेकिन आपके व्यूज ने नहीं मुझे मेरे डर ने बचाया है आपके प्यार ने नहीं मेरे
बेचैन अहंकार ने बचाया है ख़ुद के सही होने और ख़ुद को सही समझने की ख़ब्त ने बचाया है
परिवार और दोस्तों ने बचाया है
मुझसे ज़्यादा किसे पता जनता एक नहीं अनेक जनताएँ हैं एक जनता मुझे प्राइम टाइम पर
लिंच होते हुए देखना चाहती है एक जनता मुझे फ़ोन करती है गुड़ फल अनाज मिठाई
उपहार भेजती है एक मेरे साथ सेल्फी खिंचा कर गाली खाती है
और एक जनता हमेशा होती है जिससे होती है सच्ची निस्संग नफ़रत
आपको मुझको या दिवंगत लगभग विस्मृत रघुवीर सहाय को
बंगलुरू 4.0
डूब जायेंगी कारें तैरने लगेंगे स्कूटर
कपड़े कंडोम कामवासना सब गीले रहेंगे सात सप्ताह
स्विगी ब्लिंकिट ज़ोमेटो अमेज़न अलीबाबा का ड्रोन घूमेगा ख़यालों में
मूर्ति मूर्ति हो जाएगा
झील की कब्र पर क्या खूब ही लगेगा मेला!
_______
गिरिराज किराडू भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित. कृष्ण बलदेव वैद फ़ेलोशिप और संगम हॉउस इंटरनेशनल रेसीडेंसी भी मिली है. ऑनलाइन पत्रिका ‘प्रतिलिपि’ के सह-संस्थापक और संपादक. एक फ़्रेंच कविता पत्रिका (Recours au poème) के सहयोगी, संगम हाउस राइटर्स रेजीडेंसी और सियाही लिटरेरी एजेंसी के सलाहकार, और राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका के सहयोगी संपादक रहे हैं. कई साल अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ाने के बाद गिरिराज ने पीरामल फ़ाउंडेशन के गांधी फ़ेलोशिप प्रोग्राम में ऑपरेशंस और लर्निंग में काम किया, स्वीडिश ऑडियो बुक स्ट्रीमिंग प्लेटफार्म ‘स्टोरटेल’ और डिजिटल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म योरस्टोरी के भारतीय भाषा प्रमुख रहे. rajkiradoo@gmail.com |
पढ़ लिया । कविताएं अपने कहन में बेजोड़ हैं लेकिन इनके पाठ में गंभीर समस्या है । कविता की एक शर्त यह भी है कि वह पठनीय भी हो । पठनीयता के साथ ही जुड़ी है संप्रेषणीयता ।
यह भी कि मैं इन्हें कैसे याद रखूं । कहीं कोड करना चाहूं तो कैसे करूं । कविता क्या खालिस विचार है ? खैर पढ़ते हुए बहुत सारे सवाल हैं आलोचक गैर फरमाएं तो बेहतर
कवि निश्चय ही राजनीति से आक्रांत है मगर कविताएँ राजनीति से आक्रांत नहीं लगती। जैसे तैसे खींचतानकर कविताएँ बनाई गई है। न इनमें वर्तमान राजनीति की जटिलताएं दिखती है न इस ग्रहण करने वाले कवि की काम्प्लेक्स मानसिक संरचना बल्कि पॉपुलर कल्चर से ग्रस्त एक कॉर्पोरेट स्टाफ की यह स्क्रिबलिंग्स है (अंग्रेज़ी का ऐसा उपयोग इसलिए क्योंकि यह कवि स्वयं ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते मैंने सुने है)।
पॉप कल्चर अपने समय को देखने का एक रास्ता अवश्य हो सकता है मगर यह बहुत सरलीकृत रास्ता है और उनका दिखाया रास्ता है जिसके विरुद्ध साहित्य लिखा जाता है।
कुलमिलाकर कविताओं ने बहुत निराश किया।
डूब जायेंगी कारें तैरने लगेंगे स्कूटर
कपड़े कंडोम कामवासना सब गीले रहेंगे सात सप्ताह
स्विगी ब्लिंकिट ज़ोमेटो अमेज़न अलीबाबा का ड्रोन घूमेगा ख़यालों में
मूर्ति मूर्ति हो जाएगा
झील की कब्र पर क्या खूब ही लगेगा मेला!
…..
पढ़ रही हूँ. बहुत दिन हुए गिरिराज का कुछ पढ़े.
यह स्वर निश्चित ही श्रवण की कोई नवीन सामर्थ्य मांगता है. मुझे अभी समय लगेगा. लेकिन गिरिराज की कविता के साथ कुछ दूर चलकर देखना चाहती हूँ क्योंकि गिरिराज के पास ऐसी *दृष्टियां* हैँ जो लगातार सु नम्य और लोचपूर्ण रहती हैँ.
बढ़िया कविताएँ! अपने समय की राजनीति और विचार पर साफगोई और गहराई से फोकस्ड!
कविताएँ पढीं।
अपनी तरह की कविताएँ हैं ये। धीरज से पढ़ने की मांग करती ये कविताएँ, कविता की सामान्य समझ और पहचान से भिन्न हैं। तथापि ये कविताएँ कविता के क्षितिज का विस्तार करती हैं।
एजाज अहमद, मंगलेश डबराल और रवीश कुमार पर लिखी गई कविताएं अवस्मरणीय हैं। वास्तविक चरित्र के माध्यम से आभासी हो चले समय की पहचान करने और उसे समझने की यह कोशिश अधिक काव्यात्मक और विश्वसनीय है। फोन की संपर्क सूची का एक उपेक्षित और विस्मृत नंबर सहसा उस समय के सामने खड़ा कर देता है, जिसका सामना करते हुए एजाज़ अहमद ने बौद्धिक उत्कर्ष पाया था। एक अतिचर्चित पुरानी कविता अपनी हताश मासूमियत के साथ अपने कवि के जीवन और उसके समय में पत्थर की तरह गिर कर लहरों के आवर्त बनाने लगती है। लगभग विस्मृत रघुवीर सहाय अपनी जनताओं के साथ रवीश कुमार के समय स्टूडियों में खड़े हो जाते हैं। इन कविताएं में एक बेचैन नयापन है, जो देर तक झकझोर कर रखता है।
ये कविताएँ विषय केंद्रित होते हुए भी एक रैखिक नहीं हैं और इनमें अपना उतार-चढ़ाव भरा स्पंदन है, जिसका एक ई सी जी जैसा प्रिंट अंकित होता है। कवि की पहले की कविताओं से ये अलग हैं और इधर के जीवन, समाज और मनुष्य को कुछ क़रीब से देखने के उपक्रम में हैं। इनका इस तरह अलहदा होना भी विचारणीय है।
बधाई।
हिंदी में प्रयोगधर्मिता को प्रोत्साहन की ज़रूरत है और पाठकों को और उदारता से और मेहनत से उन्हें पढ़ने और रीसिव करने की। यह कविता की बिल्कुल अलहदा भाषा है। बाक़ी जो ऊपर आशुतोष सर ने कहा वह बिल्कुल सही बात है। मेरी जानकारी में हिंदी में एजाज़ अहमद पर शायद यह इकलौती कविता है।
उनका अपना डिक्शन है और इस बार बिल्कुल अलहदा स्वर ।
काश गिरिराज लगातार लिखें
एक संभावना शील कवि एक संभावना शील कवि रहा आता है ।
शानदार कविताएँ. ऐसी कविताएँ हिन्दी में कम ही पढ़ने को मिलती हैं जो अपने समय को इतनी साफ़ दृष्टि से देख पाती हों.
कई दिनों के बाद गिरिराज को पढ़ना अच्छा लगा। ये कविताएं प्रवाह की कविताएं नहीं हैं, बाधाओं से जूझती कविताएं है, abstraction से घिरी हुईं। विषय अनूठे हैं। बधाई।
गिरिराजियत बरकरार है।
बंगलुरू 4.0 का असर गहरा है । नाटकीयता कम है , जैसे कि अन्य में है ।
नाटकीयता धीरे धीरे झर जाती है , असर टिकता है शायद ।
या यूं कहा जाए ‘अन्य ‘ बंगलुरू 4.0 का मेला है ।
हिन्दी कविता की प्रतिरोधी भंगिमा से ज़रा अलग बाँकपन है इन में. दिलचस्प कविताएँ हैं, गरचे दिल पे चस्पा नहीं होतीं. इन में बेबाक और पुरख़ुलूस संवाद (यथा, लोगो मेरे देश के लोगो और उनके नेताओ) तो है लेकिन सामाजिक या व्यक्तिगत वेदना (यथा, टूट मेरे मन टूट) नहीं फूटती. रघुवीर सहाय की विशिष्टता इन कविताओं की सीमा है.