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Home » इंदिरा गोस्वामी: अर्पण कुमार

इंदिरा गोस्वामी: अर्पण कुमार

आज इंदिरा गोस्वामी का जन्म दिन है. उनसे यह बातचीत अर्पण कुमार ने कभी की थी. उन्हें याद करते हुए इस बातचीत का एक हिस्सा आपके लिये. इंदिरा गोस्वामी का जन्म जन्म 14 नवंबर 1943 को गुवाहाटी (असम) में हुआ. 29 नवंबर 2011 को गुवाहाटी में ही उन्होंने अपनी अंतिम साँस ली. असमिया, अँग्रेज़ी, हिंदी […]

by arun dev
November 14, 2019
in आलेख
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आज इंदिरा गोस्वामी का जन्म दिन है. उनसे यह बातचीत अर्पण कुमार ने कभी की थी. उन्हें याद करते हुए इस बातचीत का एक हिस्सा आपके लिये.


इंदिरा गोस्वामी का जन्म जन्म 14 नवंबर 1943 को गुवाहाटी (असम) में हुआ. 29 नवंबर 2011 को गुवाहाटी में ही उन्होंने अपनी अंतिम साँस ली. असमिया, अँग्रेज़ी, हिंदी सहित उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था. कहानी, उपन्यास, शोध, आत्मकथा आदि कई विधाओं में सक्रिय रही. उन्होंने  रामचरितमानस से रामायण का तुलनात्मक अध्ययन किया है. इस अध्ययन पर आधारित उनका शोध-ग्रंथ \’रामायण फ्रॉम गंगा टू ब्रह्मपुत्र\’ 1996 में प्रकाशित हुआ. उन्हें अंतरराष्ट्रीय तुलसी सम्मान से भी पुरस्कृत किया गया. उनके कुछ अन्य महत्वपूर्ण उपन्यास है ,‘चेनाबेर स्रोत’ (\’चेनाब की धारा\’), ‘अहिरन’, ‘नीलकंठी ब्रज’, ‘छिन्नमस्ता’, ‘मामरे धारा तरोवाल’, ‘दक्षिण कामरूप की गाथा’, ‘दाताल हातीर उवे खोवा हावदा’, ‘तेज अरु धूलि धूसरित पृष्ठ’ आदि. उनके कहानी संग्रह हैं, ‘चिनाकी मरम’, ‘कइना’, ‘हृदय एक नदीर नाम’, ‘प्रिय गल्पो’. उनके उपन्यास \’दक्षिण कामरूप की गाथा\’ पर फ़िल्म धारावाहिक बन चुके हैं. उनकी कहानी \’खाली संदूक\’ पर टेलीफ़िल्म भी बन चुकी है.
उन्हें ‘भारत निर्माण पुरस्कार’ तथा 1992 में ‘उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान’ की ओर से सम्मान भी प्राप्त हुआ. सन 1970 से लेकर अपनी सेवानिवृत्ति तक वे दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘आधुनिक भारतीय भाषा विभाग’ में अध्यापन करती रहीं. उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार, प्रिंसिपल प्रिंस क्लाउस लाउरेट पुरस्कार (डच सरकार), अंतरराष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार (फ्लोरिडा अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय), साहित्य अकादमी पुरस्कार, असम साहित्य सभा पुरस्कार, भारत निर्माण पुरस्कार, सौहार्द पुरस्कार (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान), कमल कुमारी फाउंडेशन पुरस्कार आदि से सम्मानित किया गया.

साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन पर आप काम करती रही है और अध्यापन भी. आपने गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस और माधव कंदली की असमी रामायण का तुलनात्मक अध्यन किया है. आप इन दोनों रामायण में मोटे तौर पर क्या फर्क पाती हैं?


दोनों की मुख्य कहानी में कम फर्क है. हाँ, कंदली रामायण में असमिया समाज काफ़ी उभर कर आया है. माधव कंदली ने \’बराही राजा\’ (एक जनजातीय राजा) की राजसभा में रहकर रामायण लिखी. इसमें कबायली प्रभाव आ गया है. यहाँ स्त्रियों की जागरूकता और एकता का आलम यह है कि राम के बनवास की खबर सुनकर वे मंत्री के खिलाफ इकट्ठा होती हैं. उन्हें लगता है कि सुमंत ने ऐसा करने के लिए घूस ली है. बाद में वे अपने पतियों को पीटने लगती हैं कि तुम लोग राम को जाने से रोक क्यों नहीं पाए! तुलसी रामायण में ऐसी जागरूकता का अभाव है.  उत्तरकांड में वहीं हम नारी का पतन देखते हैं. दोनों कवियों के युग में फर्क है. 

फिर तुलसीदास बहुत सुखी नहीं थे. इसलिए ‘उत्तरकांड’ में कलयुग का वर्णन है. हिंदू समाज में हो रहे पतन को भी चित्रित किया गया है. हाँ, तुलसी की भाषा से मैं बहुत मुग्ध हुई. दीर्घ और अनूठे रूपक बांधे गए हैं. उनमें भाषा का संयम ऐसा है कि प्रगाढ़ सौंदर्य वर्णन में भी एक सुकुमारता और मर्यादा दिखती है. माधव कंदली ने मंथरा को काफ़ी शक्तिशाली दिखाया है. राम के वनवास के बाद मंथरा  कई प्रकार के गहनों से ख़ुद को सजाती हैं और भरत के आगे उसकी उप- पत्नी बनने का गुप्त रूप से प्रस्ताव रखती है. कैकेयी की हमउम्र दासी से उसके ही बेटे के आगे ऐसा प्रस्ताव रखवाना- कंदली की इस पर काफ़ी निंदा भी हुई. लोग इन साधारण बातों में मज़ा लेते हैं, कंदली ने संभवतः यह सोचकर ऐसा किया. 

कंदली का ‘हनुमान’, तुलसी के ‘हनुमान’ की ही तरह काफ़ी तेज है. जब वह लंका जाता है तो यह सोचकर कि राम को भी यहाँ आना है, रास्ते में पड़ने वाले सभी गड्ढों को भर देता है. सीता का पता लगाने के लिए रावण के महल में घुसकर सभी स्त्रियों का मुँह सूँघता है. जिस स्त्री के मुँह से शराब की गंध नहीं आएगी, राक्षसनियों के बीच वही सीता होगी , अपनी तर्कबुद्धि से वह सहज निष्कर्ष निकालता है. असमिया भाषा 13वीं शताब्दी से लिखित रूप में आती है और 14वीं शताब्दी में माधव कंदली की भाषा इतनी सुंदर और समृद्ध बन पड़ी है, इससे कंदली के सामर्थ्य और असमी की संभावना दोनों  का पता चलता है.  


\’नीलकंठी ब्रज\’ और \’दक्षिण कामरूप की गाथा\’ में विधवाओं की दारुण अवस्था का चित्रण है. आपकी आत्मकथा \’जिंदगी कोई सौदा नहीं\’ (\’आधा लेखा दस्तावेज\’)  में भी इनका काफ़ी उल्लेख आया है.  आपने स्वयं वैधव्य की पीड़ा और समाज के ताने सहे हैं. इस पृष्ठभूमि में यह सारा चित्रण प्रामाणिक और एक लेखक के लिए अनिवार्य हो उठता है. कुछ बताएँ.

\’दक्षिणी कामरूप की गाथा\’ में असम में 1940 से 1947 के दौरान घर के अंदर रहने वाली विधवाओं के दुख का वर्णन है. असम में सामान्यतः सभी शामिल होते हैं. विधवा होते ही निरामिष होना पड़ता है. सफ़ेद कपड़े पहनना और घर के अंदर तो रहना ही पड़ता है, खाना भी ज़्यादातर एक बारी मिलता है. वे मसूर का दाल, प्याज आदि भी नहीं खा सकतीं. विधवा विवाह तो था नहीं, लोग इसका फ़ायदा उठाते थे. रिश्तेदार ज़मीन हड़प लेते थे. ‘नीलकंठी ब्रज’ में पूर्वी बंगाल से वृंदावन आईं विधवाओं की आँखों देखी कारुणिक और वीभत्स स्थिति को उसकी पूरी सच्चाई के साथ उभारा गया है. अस्सी फीसदी राधेश्यामी विधवाएँ यहाँ गरीबी से तंग आकर तंग होकर आती थीं तो 20 फीसदी श्रद्धावश अपनी इच्छा से. 

1972 में सुबह-शाम भजन करके किसी तरह ये एक रुपया कमा पाती थीं. 30 रुपए में कैसे पूरे महीने का गुज़ारा होता होगा, सहज कल्पना की जा सकती है. तिस पर मरने के बाद दाह-संस्कार की चिंता. इस चिंता से उबारने का सब्जबाग दिखाते पंडा लोग. पूरे वृंदावन में जगह-जगह भाँग खाकर बुढ़िया विधवाओं तक से छेड़खानी करते लफंगे. क्या क्या बताऊँ! मरे हुए सेठ के शरीर पर भिनभिनाती मक्खियाँ उससे फैलती बदबू और चंद सिक्कों की खातिर अंतिम संस्कार होने तक उसके चारों और प्रभु स्मरण करती विधवाएँ. अज़ीब सा रिवाज़ था. इस बाबत एक बार मैंने एक स्थानीय विधायक से बात की थी. उसका टका सा जवाब था- ‘यह पश्चिम बंगाल सरकार की समस्या है. हम कुछ नहीं कर सकते.’

आप की भाषा में प्रकृति के उपादानों के लिए बड़े वीभत्स और अज़ीब साम्य आते हैं. महिला लेखन आमतौर पर ऐसे बिंबों से बचता है. निश्चय ही आप उस प्रचलित परिधि से बाहर जाती हैं, मगर ऐसे उपमान चुनने की क्या वजह है?

प्रकृति भाषा का एक बड़ा उपादान है. अपनी संवेदना और शब्द को शक्ति देने के लेखक प्रकृति को लेकर आता है. मैं तो बचपन से ही ‘डिप्रेशन’ में रहती थी. पिता को इतना चाहती थी कि हरदम उनकी मृत्यु का ख़याल आता था. डर ऐसा कि उनसे पहले ख़ुद मर जाना चाहती थी. आख़िर पिता एक दिन चले ही गए. पिता के जीवित रहते, मेरे विवाह के लिए कुछ बड़े अच्छे प्रस्ताव आए थे, लेकिन जैसे ही उनकी मृत्यु हुई, सबने मुँह फेर लिया. माँ ने कई जगहों पर अच्छे लड़के देख कर बात चलाई थी, मगर हर प्रयास विफल रहा. ज्योतिषी भी कुछ ऐसे ही थे. नवग्रह मंदिर के एक पंडित ने तो मेरे सामने ही माँ को कह दिया था, ‘इस लड़की की शादी करने से बेहतर है इसके दो टुकड़े करके नदी में फेंक दो.’ हालाँकि, बाद में उसी ज्योतिषी ने मुझे काफ़ी उत्साहित किया और मुझमें अध्यवसाय की ज्योति देखी. 

मेरे पति माधवन रायसम की जब जीप-दुर्घटना में मृत्यु हुई,  तब मेरी शादी के डेढ़ वर्ष भी नहीं हुए थे. उनके साथ बिताए वे थोड़े पल मेरे स्वर्णकाल थे. उसके बाद तो मैं आकाश की ओर देख तक नहीं पाती थी. जब कभी देखती तो बादल मुझे कोढ़ी के चकत्ते जैसे दिखते. आकाश में जगह-जगह मुझे धब्बे दिखाई पड़ते, बलात्कार के बाद छोड़ दी गई स्त्री के कपड़े पर फैले ख़ून के धब्बे सदृश. कभी मुझे लगता आकाश हमारे सिर पर उसी तरह लटका है जिस तरह कसाई के यहाँ कटे हुए बकरे का लोथ लटका होता है. सोचती, यह वही आकाश और उसके रंग हैं, जिसे माधवन के साथ राजस्थान और कश्मीर के सुदूर इलाक़ों में रहते घंटों निहारा करती थी. जैसा भी ख़याल आता, लिखती जाती. इतने मोर्चों पर उजड़ी, लेकिन बार-बार इस लेखन ने मुझे बसाया. मैं शब्दों के संसार में अपनी ही कहानी लिखकर अपने ही दुःख से मुक्त हुई. अकेलेपन का रोना रोने के बजाय उसे अभिव्यक्ति और सार्थकता प्रदान करने की कोशिश की.


आप के तीन उपन्यासों ‘मामरे धरा तरोवाल’, ‘चेनाबेर स्रोत’ और ‘अहिरन’ में पुल निर्माण कार्यों के जोखिम, कंस्ट्रक्शन कंपनियों के मातहत काम करने वाले इंजीनियरों और ज़्यादातर मजदूरों के शोषण आदि का चित्रण है. आप इन समस्याओं को किस रूप में देखती हैं?


‘चेनाबेर स्रोत’ 1966-67 की कहानी है. तब कोई यूनियन नहीं थी. बड़ी-से-बड़ी दुर्घटना हो जाती और लोगों तक बात को पहुँचने नहीं दिया जाता. कोई विरोध नहीं, कोई प्रदर्शन-धरना नहीं, अधिकार-चेतना से बिल्कुल शून्य्. जब मर्ज़ी जिसको निकाल दिया, भूखों मरने के लिए. यूनियनें 1970 में बनीं. पहले उसका शक्तिशाली और क्रमशः बाद में शिथिल और समझौतावादी होता रुख- दोनों मैंने देखे. ‘मामरे धरा तरोवाल’ को पूरा करने के लिए मैं रायबरेली के उस साइट पर छह महीने रही और सब कुछ अपनी आँखों से देखा. मैंने बेबस मज़दूरों को अपने भ्रष्ट नेताओं द्वारा दिग्भ्रमित होते देखा है जो मालिकों के आगे जूते चटकाते फिरते थे. सांगठनिक रूप से उन्हें मजबूत और ईमानदार होने की ज़रूरत है.

‘तुलनात्मक भारतीय साहित्य’ में विश्वविद्यालय स्तर पर उच्च्तर अध्ययन और शोध के लिए काफ़ी कम जगह हैं. इस समस्या को आप कितना गंभीर मानती हैं?

निश्चित रूप से इस क्षेत्र में काफ़ी काम करने की गुंजाइश है. अव्वल तो ऐसे कामों के लिए छात्रवृत्ति की व्यवस्था नहीं है. अगर हरेक राज्य इसके लिए दो-तीन छात्रवृत्तियाँ भी रखें तो काफ़ी काम संभव हो सकता है. नए लोग भी रुचि दिखाएँगे. अभी तो दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘आधुनिक भारतीय भाषा विभाग’ की स्थिति ऐसी है कि ज़्यादातर लोग डीटीसी पास बनवाने या किसी तरह छात्रावास प्राप्त करने के लिए इस तरह के पाठ्यक्रम में नामाँकन करा लेते हैं. विश्वविद्यालय के विभिन्न साहित्य विभागों में तुलनात्मक अध्ययन को अनिवार्य बनाने की ज़रूरत है. असम में आप असमिया और अँग्रेज़ी सहित का तुलनात्मक अध्ययन कर सकते हैं बाक़ी जगहों पर भी ऐसे अध्ययन को प्रतिष्ठित और लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता है.
दूसरी भारतीय भाषाओं में आप किन रचनाकारों और रचनाओं को विशेष रूप से पसंद करती हैं?
हिंदी में फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आँचल’ और भीष्म साहनी के ‘तमस’ से मैं काफ़ी प्रभावित रही हूँ. पंजाबी में सोहन संह शीतल का ‘युग बदल गया’ और अमृता प्रीतम का पिंज़र’ मुझे काफ़ी अच्छा होगा. दक्षिण के शिवराम कारंत और शिवशंकर पिल्लई को पढ़ना एक अद्भुत रहा.

____________________


अर्पण कुमार
9413396755
Tags: इंदिरा गोस्वामी
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