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Home » एक दिन का समंदर: हरजीत: प्रेम साहिल

एक दिन का समंदर: हरजीत: प्रेम साहिल

एक दिन का समंदर : हरजीत प्रेम साहिल हरजीत ने ख़ुद को इतना फैला लिया था कि आज उसे लफ़्ज़ों में पकड़ने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है. ग़ज़ल कहने, रेखांकन, पत्रकारिता, फ़ोटोग्राफ़ी करने, कोलाज बनाने, दोस्ती निभाने, घर चलाने, आंगनवाड़ियों के लिए खिलौने तैयार कराने, हैंडमेड काग़ज़ के प्रयोग से ग्रीटिंग कार्ड तथा […]

by arun dev
August 30, 2019
in संस्मरण
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एक दिन का समंदर: हरजीत: प्रेम साहिल
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एक दिन का समंदर : हरजीत
प्रेम साहिल

हरजीत ने ख़ुद को इतना फैला लिया था कि आज उसे लफ़्ज़ों में पकड़ने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है. ग़ज़ल कहने, रेखांकन, पत्रकारिता, फ़ोटोग्राफ़ी करने, कोलाज बनाने, दोस्ती निभाने, घर चलाने, आंगनवाड़ियों के लिए खिलौने तैयार कराने, हैंडमेड काग़ज़ के प्रयोग से ग्रीटिंग कार्ड तथा फ़ैंसी डिबियां बनाने, उन पर फूल-पत्ती चिपकाने, फूल-पत्तियां जुटाने, तैयार वस्तुयों को खपाने, साहित्यिक व सांस्कृतिक समारोह कराने, बच्चों को चित्रांकन सिखाने के अतिरिक्त अभी और भी न जाने वो क्या-क्या करता. उसने तो अपनी सीमाएँ ही पोंछ डालनी थीं अगर मुशाइरों में जाना उसने लगभग बंद ना कर दिया होता. फिर भी साल में एकाध बार अंजनीसैंण या कोटद्वार के मुशाइरों में चला ही जाता था.

कारोबार के सिलसिले में चण्डीगढ़, दिल्ली, जयपुर तो क्या मुम्बई तक हो आता था. इतनी मशक्कत, भागदौड़ और वो भी दमे के मर्ज़ में मुब्तिला रहते हुए हरजीत के ही बूते की बात थी. कोई और होता तो कभी का बिस्तर पकड़ चुका होता. लेकिन हरजीत न जाने किस मिट्टी का बना हुआ था कि दमे की खांसी को भी जब तक चाहता दबा लेता था. जबकि छाती उसकी बलगम से लबालब रहती थी. इसके बावजूद जो समेटने की बजाए वो ख़ुद को फैलाता ही चला गया उसकी भी ख़ास वजह थी :

ये सब कुछ यूं नहीं बेवजह फैलाया हुआ हमने
ये सब कुछ क्यूं भला करते अगर राहत नहीं मिलती

सर खुजाने की फ़ुर्सत भी न पा सकने वाला हरजीत दोस्तों के बुलाने पर उनके कार्यों को अंजाम देने की गरज़ से तो ऐसे चल देता था जैसे कि उसके पास करने के लिए अपना कोई काम नहीं था.

बढ़ रही ज़रूरतों की पूर्ति  के लिए नये-नये साधनों की तलाश में कभी सप्ताह तो कभी माह भर के लिए भी घर से बाहर रहने लगा था. कहां जाता था, क्या लाता था इसकी चर्चा किसी से कभी अंतरंगता की रौ में ही करता था. उसमें ना प्रतिभा की कमी थी न परिश्रम का अभाव था. लेकिन अर्थ की विषमता उसे लील रही थी. इस में दोष इतना उसका नहीं था जितना कि उस व्यवस्था का जिस में गधा-घोड़ा एक समान आंका जा रहा है.

आमदनी के साधनों की तलाश ने कभी उसे चैन से बैठने ही नहीं दिया. बैठा वो नज़र तो आता था मगर बैठ कहां पाता था. व्याकुल आदमी चैन से बैठ ही नहीं सकता. ऐसा जो संभव होता तो वो ये क्यों कहता :

मुझको इतना काम नहीं है
हां फिर भी आराम नहीं है

न वो ख़ुद आराम करता था न उसके जो कुछ लगते थे उसे कभी चैन से रहने देते थे. आराम न करने की हद तक काम करने वाले हरजीत का उक्त शे‘र पढ़ने-सुनने वालों को हैरत में डाल देता है. लेकिन उसके ऐसा कहने का तात्पर्य ये भी हो सकता है कि उसके पास कोई नियमित या स्थाई रोज़गार नहीं था. बावजूद इसके वो जितना व जो भी करता था उसे गर्व एवं स्वाभिमान की निगाह से देखता था :

अपना ही कारोबार करते हैं
हम कोई नौकरी नहीं करते

हरजीत निठल्ला नहीं था. फिर भी तंगदस्त रहा. जबकि एकआध को छोड़ कर उसके दायरे के अधिकांश लोगों की आर्थिक दशा अच्छी-ख़ासी थी. क्या वे लोग हरजीत से ज़ियादा प्रतिभा सम्पन्न थे ? क्या वे उस से अधिक परिश्रमी थे ? दरअसल तर्ज़े-बयान की तरह हरजीत का तर्ज़े-हयात भी दूसरों से भिन्न था:

वो अपनी तर्ज़ का मैक़श,हम अपनी तर्ज़ के मैक़श
हमारे जाम मिलते हैं मगर आदत नहीं मिलती……

कारीगरी उसे विरासत में मिली थी. जहां उसे कारीगर के महत्व का ज्ञान था वहां उसकी विषमताओं से भी अनभिज्ञ नहीं था :

फ़नकारों का नाम है लेकिन
कारीगर का नाम नहीं है…..

उसने कारीगरी की बजाय फ़नकारी को अपनाया. उस में उस ने नाम भी कमाया लेकिन दाम के लिए उसे और भी पापड़ बेलने पड़े. पापड़ तो उसने नाम कमाने के लिए भी ज़रूर बेले होंगे मगर इस प्रयास का आभास कभी सरेआम नहीं होने दिया. पर कौन नहीं जानता कि इस अंधे युग में फ़न का लोहा मनवाने के लिए भी लोहे के चने चबाने पड़ते हैं. दाम कमाने के लिए उसे कारीगरों की ख़ुशामद भी करनी पड़ती थी. स्वयं कारीगरों की पृष्ठभूमि से आए हरजीत के लिए कारीगरों के नखरे उठाना कोई हैरत की बात नहीं थी :

नक्शे नहीं बताते कैसे बने इमारत
होते हैं और ही कुछ कारीगरों के नक्शे

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहीं लिखा है :

“जो अभावों और संघर्षों में पले-बढ़े हैं उनका सब से बड़ा दुश्मन उनका सर होता है जो झुकना नहीं जानता और जो झुकता है वो सर भी तो उनका दुश्मन ही होता है.”

उक्त कथन हरजीत और उसके जीवन पर भी कम सही नहीं बैठता.

एक शाइर के रूप में तो मैं हरजीत को उसकी ग़ज़लों के माध्यम से जानता था. कभी आमना-सामना नहीं हुआ था. इतना सुना था कि शाम के समय वो ‘टिप-टॉप‘ में जाता है. मेरा चमोली (गढ़वाल) से देहरादून जाना साल में एक-दो बार ही हो पाता था. लेकिन जब से उसके अड्डे की भनक लगी थी मेरी इच्छा हो रही थी कि वो मुझे टिप-टॉप में मिल जाए तो सुबहानअल्लाह. ना भी मिले तो वहां से उसका सुराग तो मिल ही जाएगा. इस गरज़ से एक बार मैं चकरॉता रोड़ चला भी गया. लेकिन वहां टिपटॉप नाम का होटल मुझे नहीं मिला.. शाम का समय था. चालीस किलो मीटर दूर अपने ससुराल जाने की जल्दी में किसी से पूछने की ज़हमत भी नहीं उठाई. दूसरी बार गया तो ढूंढने के बावजूद वह होटल फिर कहीं नज़र नहीं आया. उस बार भी जल्दी में था. तीसरी बार एक दुकानदार से मैंने पूछ ही लिया. देखने के बाद मालूम हुआ कि उस होटल का साइन बोर्ड ही नदारद है. ख़ैर जब होटल मालिक से मैंने हरजीत के विषय में पूछा तो पता चला कि आजकल वो वहां दस बारह दिन में एक बार जा पाता है.

संयोग से जब मेरी पत्नी स्थानांत्रित होकर देहरादून में रहने लगी तब एक रोज़ किसी का स्कूटर मांग कर मैं हरजीत के घर चला गया. घर का पता उसकी पहली पुस्तक “ये हरे पेड़ हैं” जो कि बी मोहन नेगी की मार्फ़त मुझे बहुत पहले मिल चुकी थी में दर्ज था.

हरजीत के घर तशरीफ़ ले जाने का समय तो अब मुझे याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि बताने पर जब मैंने उसके कमरे में प्रवेश किया था, वो रज़ाई ओढ़ कर बिस्तर पर लेटा हुआ था, कुछ देर पहले ही गैरसैण से लौटा था. थकान मिटाने या सुस्ताने की गरज़ से ही वो बिस्तर अपनाता था ऐसी बात नहीं थी. उसका तो कार्यस्थल ही बिस्तर था. अपना नाम बता कर मैं उसके पास ही कुर्सी पर बैठ गया, थकान के बावजूद वो भी उठ कर बैठ गया. लेकिन आलस्य का कोई शेड न उसके चेहरे पर था न उसकी आवाज़ से महसूस हुआ. हम दोनों की बात होने लगी. जब मैंने उस से उसकी नयी पुस्तक ‘एक पुल‘ मांगी तो उसने कहा कि बाइण्डर के यहां से लानी पड़ेगी, इस समय मेरे पास एक भी प्रति नहीं है. उस ने मुझ से दूसरे दिन आने का आग्रह किया और मुझ से मेरा फ़ोन नंबर भी ले लिया.

उसे पीने का शौक था ना कि लत. एक बार अपनी तो अनेक बार दोस्तों की जेब से मंगाने, कभी उनके तो कभी अपने घर में बैठ कर पीने-पिलाने और उठने से पहले ” वन फ़ॉर द रोड़ ” वाला जुमला दोहराने का भी शौक ही था, ना कि लत. लत से तो दासता की बू आती है जबकि हरजीत किसी का दास नहीं था. शौक़ीन था. शौक़ में गौरव की ख़ुश्बू है. इस लिए उसे हरजीत सिंह उर्फ़ शौक़ीन सिंह तो कहा जा सकता था, मगर हरजीत दास हरगिज़ नहीं.

शौक़ और लत में जो बुनियादी फ़र्क है उसे समझना इस लिए लाज़मी है कि ऐसा ना करने से हरजीत का आचरण बदगुमानी का शिकार हो सकता है. मैं स्वयं उसके शौक़ को लत समझने की भूल कर चुका हूं. मुझ से कभी पैसे मांग लेता तो मैं सोचता था कि उसे मांगने की लत है. लेकिन वो मांगता कहां था, वो तो निकालता था मानो उसकी अपनी जेब सामने वाले की पैंट या शर्ट पर लगी हो. लेन-देन के मामले में हरजीत लगभग फ़ेयर था. वो अगर किसी से पैसे लेता था तो बदले में सेवाएँ देता था. जहां सेवाएँ लेता था वहां पैसे ही देता था. जहां तक खाने पीने की बात है अकेले में तो खर्च कर लेता था लेकिन दोस्तों की सभा में खर्च करने की ज़हमत उठाने का अवसर उसे चाहने पर भी नहीं मिल पाता था. बावजूद इसके अपनी जेब ढीली करने का अवसर लेने में संकोच भी नहीं करता था. अपने को इस काबिल बनाने के लिए ही तो इतना हलकान हो रहा था. ये दीगर बात है कि उतनी सफलता नहीं मिल पा रही थी जितने कि वह हाथ-पांव मार रहा था.

मैंने सुना है कि एक्सीडेंट के बाद से वो बहुत संभल और सिमट गया था, लेकिन मुझे इस बात का कतई इल्म नहीं है क्योंकि  हरजीत से मेरी मुलाकात ही एक्सीडेंट से बहुत बाद में हुई थी. उसके माज़ी की कंद्राओं में घुसपैठ का प्रयास भी मैंने नहीं किया. मैंने तो उसे महज़ वहां से उठाया जहां पर वो मुझे मिला था. इस लिए उसके सम्हलने और सिमटने की कहानी मेरे व्यक्तिगत अनुभव से बिलकुल भिन्न है. मैंने तो जब-जब देखा उसे पंख फ़ैलाए उड़ते हुए देखा. लहराते, गुनगुनाते और मुसकुराते ही देखा.

दूसरों के काम आने के साथ-साथ दूसरों से काम लेने का भी उसे शऊर था. दो-एक मर्तबा मेरे काम से पेरे साथ वो जा चुका था. एक दिन शाम को अचानक मेरे घर आया, बैठा, खाया-पिया और अन्य बातें कर लेने के पश्चात उठ कर जाने से पहले कहने लगा, ” कल सुबह तुम्हें मेरे साथ मसूरी जाना है. अब तक तू मुझे लेकर जाता रहा, कल को तू मेरे साथ जाएगा ” और हँसने लगा.

मज़े की बात देखिए, काम से जाते समय भी वो लुत्फ़ लेना नहीं भूलता था. घर से बाहर शहर या शहर से बाहर कहीं भी जाता था तो शोल्डर-बैग या तो उसके कंधे पर लटका रहता था या स्कूटर के हैंडल पर. बैग में वो छोटी-बड़ी दो-तीन प्रकार की पानी की बोतलें, प्लास्टिक के दो-तीन गिलास, एक बलेडनुमा फोल्डिंग चाकू, सलाद का सामान, नमकीन की पुड़िया, एक फ़ाइल जिस में कभी कुछ फ़ोटो, कुछ नेगेटिव कुछ अन्य काग़ज़-पत्र आदि तो वो घर से ही लेकर चलता था. घर में उपलब्ध रहती तो एकाध पाव रम भी अलग से किसी बोतल में डाल कर बैग के किसी कोने में छुपा कर साथ ले लिया करता था. कोई दोस्त टकर जाता तो अतिरिक्त व्यवस्था बाज़ार से की जाती थी, कोई नहीं भी मिला तो अपना माल जय-गोपाल.

उस दिन जब उसके काम से हम मसूरी जा रहे थे तो रम का एक हाफ़ हमने देहरादून से ही रख लिया था. रास्ते में एक जगह स्कूटर रोक कर सड़क के किनारे एक पैराफिट पर बैठ गये थे. बैठते ही वो गुनगुनाने लगा और साथ ही जश्न का सामान भी सजाने बैठ गया था. मैंने कहा ना कि वो कारोबारी लम्हों को भी जशन के रंग में डुबो लेता था. दो-दो पेग मार लेने के उपरान्त पुन: जब खरामा खरामा मसूरी की ओर बढ़ने लगे तो मेरे पीछे बैठा हरजीत अचानक कहने लगा, “मैंने अभी चालीस साल और जीना है.” उसकी बात सुन कर मुझे हैरत भी हुयी और डर भी लगा था. हैरत जीने की प्रबल इच्छा से छलक रहे उसके आत्मविश्वास पर और डर उसके मर्ज़ के कारण.

 

दबा कर रखने की उसकी लाख कोशिशों के बावजूद मैंने उसके मर्ज़ को जितनी गम्भीरता से लिया था उतनी गम्भीरता से कहने का कभी साहस नहीं जुटा पाया. उसकी छाती में बलगम इतनी तीव्र गति से बन रहा था कि खारिज करते रहने और दबा लेते रहने के बावजूद उसकी रफ़तार कम नहीं हो रही थी.

हरजीत को आराम की सख़्त ज़रूरत थी. लेकिन आराम तो उसका नंबर एक दुश्मन ठहरा. आराम लेने की बजाए उसने “विरासत निनियानवें” की दौड़-धूप और धूल ली. जिस समय हरजीत “विरासत” का ताम-झाम समेट रहा था, उसके खो जाने की घड़ी कार्य में उसका हाथ बटा रही थी. कार्य निपटा कर हरजीत ने अपने धूल-भरे हाथ अभी झाड़े ही थे कि दुष्ट घड़ी ने लपक कर उसे अपने शिकंजे में ले लिया.

हरजीत मेरी उपलब्धि था. लेकिन मेरी उपलब्धि की विडम्बना देखिए :

कुछ दिन पहले मैंने उसको ढूढ़ लिया
आने वाले वक़्त में जिसको खोना था

मुझे इस बात का मलाल नहीं कि मैंने डूब रहे सूरज से हाथ मिलाया था, बल्कि तसल्ली इस बात की है कि हाथ सूरज से मिलाया था. उसके हाथ की गरमी आज भी मेरे हाथ में है.

ग़ज़ल उसकी तमाम संवेदनाओं का केंद्र होने की वजह से उसकी अभिलाशाओं का आधार थी. इसको लेकर उसकी आँखों में जुगनू  चमक रहे थे. रतजगे उन आँखों को न जाने कहां कहां लिए फिरते रहे :

रतजगा दिन भर मेरी आँखें लिए फिरता रहा
शाम लौटा साथ लेकर वो बहुत से रतजगे

रतजगों का ये सिलसिला लंबा खिंच सकता था अगर हरजीत अपनी आँखें नहीं मूंद लेता.

आओ हम उस लहर के सीने पर जाकर विश्राम करें
देखो तो उस लहर को वो इक लहर किनारों जैसी है

अल्पायु में ही आँखें मूंद लेने वाला हरजीत बेशक एक दिन का समंदर था, जिसकी लहरों पर हम विश्राम तो कर सकते हैं लेकिन उसे समेट कर सीलबंद करने का हुनर हम में से किसी के पास नहीं है. उसने कहा था:

एक दिन के लिए समंदर हूँ
कल मुझे बादलों में मिलना तुम

समंदर आज बादल बन चुका है. हरजीत के मित्र कवि अवधेश कुमार के सिवाए अन्य कोई तौफ़ीक वाला ही आज हरजीत से हाथ मिला सकता है.

________________

प्रेम साहिल
47- शालीन एनक्लेव
बदरीपुर रोड

जोगीवाला, देहरादून – 248005

मोबाइल – 9410313590

Tags: हरजीत
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