ये हरे पेड़ हैं
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1
कश्तियों से क्या पूछें सब्ज़ झील की बातें
बत्तखों से पूछेंगे झील की सभी बातें
कांच की हैं दीवारें जिनमें अब वो रहता है
कांच की तरह नाज़ुक उसके प्यार की बातें
शख्सियत है उसकी अब उसके दस्तखत यारों
उससे क्या सुनेंगे हम उसकी कागज़ी बातें
जाने कब जवां हो कर शहर-भर के लब छू लें
मेरे घर के आँगन में खेलती हुई बातें
हँस रहे हैं छुप छुप के कुछ ढके ढके चेहरे
चल रही हैं महफ़िल में कुछ खुली-खुली बातें
सुब्ह होश पा लेना शाम होश खो देना
सुब्ह दूसरी बातें शाम दूसरी बातें
मैंने अपने बचपन को गेंद की तरह खोया
वक़्त ले गया मुझसे मेरी तोतली बातें
बर्फ़ के पिघलते ही भर के आयेंगी नदियाँ
सर उठाएंगी अपना बर्फ़ में दबी बातें
2.
एक शोशा वो यहाँ रोज़ छोड़ देते हैं
मुल्क को जंग के ख़तरे से जोड़ देते हैं
ग़लतियों पे कोई उनकी उठाये उंगली
अपनी बातें वो ग़रीबों पे मोड़ देते हैं
अब तो वो अपने बयानों को घरोंदों की तरह
खु़द बनाते हैं उन्हें खु़द ही तोड़ देते हैं
ध्यान बारूद की बातों से बांटने के लिए
कुछ कबूतर भी हवा में वो छोड़ देते हैं
हम तो पत्थर के मुरीदों में नहीं हैं ऐ दोस्त
हम तो आवाज़ से शीशे को तोड़ देते है
3.
और कब तक कोई पाबन्द यहाँ रहता है
देखिये कितने बरस दौरे-ख़िज़ाँ रहता है
कोई दीवार किसी राह में आती ही नहीं
खू़न जब खू़न की मानिंद रवां रहता है
अपने दिल में कभी हम खु़द भी नहीं आ पाते
अपने ही दिल में कभी सारा जहाँ रहता है
कश्तियाँ डूब भी जायें तो मरने वालों में
होश जब तक रहे साहिल का गुमाँ रहता है
ये हरे पेड़ हैं इनको न जलाओ लोगों
इनके जलने से हर रोज़ धुआँ रहता है
4.
अफवाह है उस आग में कुछ भी बचा नहीं
लेकिन ख़बर ये है कि वहां कुछ हुआ नहीं
खु़शबू नहीं रही ये शिकायत तो आम है
क्यों खिल सके न फूल कोई सोचता नहीं
कुछ ऐसे ज़लज़ले भी ज़मीं पर गुज़र गये
अपनी जगह से एक भी पत्ता हिला नहीं
वो लफ़्ज़ जिसकी धार से पत्थर भी कट सके
अब तक किसी किताब में मैंने पढ़ा नहीं
तुमको हवा लगी है सियासत के शहर की
अब तुम जो कर रहे हो तुम्हारी ख़ता नहीं
इक वो थे जिनके खू़न से तारीख़ बन गयी
इक ये हैं जिनका खू़न कभी खौलता नहीं
5.
घुटन के साथ तू जाएगा इन घरों में कहां
खुली फिज़ा में जो राहत है बस्तियों में कहां
उतर चुकी है जो काग़ज़ पे अपने रंगों में
छुपी हुई थी वो तस्वीर उंगलियों में कहां
घने दरख़्त हैं इस राह से तू दिन में गुज़र
हुई जो रात तो भटकेगा जंगलों में कहां
सफ़ेद पेड़ बहुत जल्द हो गए ऊँचे
जो कल मिले थे वो मंज़र भी रास्तों में कहाँ
हरी ज़मीन पे तूने इमारतें बो दीं
मिलेगी ताज़ा हवा तुझको पत्थरों में कहां
ये रतजगे ये इबादत तो उनका पेशा है
भटक रहा है नगर उनके रतजगों में कहां
उसे निज़ाम ने अपना बना लिया यारों
अब उसका नाम अदालत के काग़ज़ों में कहां
6.
उसके लहजे में इत्मीनान भी था
और वो शख्स बदगुमान भी था
फिर मुझे दोस्त कह रहा था वो
पिछली बातों का उसको ध्यान भी था
सब अचानक नहीं हुआ यारों
ऐसा होने का कुछ गुमान भी था
देख सकते थे छू न सकते थे
कांच का पर्दा दरमियान भी था
रात भर उसके साथ रहना था
रतजगा भी था इम्तिहान भी था
आईं चिड़ियाँ तो मैंने ये जाना
मेरे कमरे में आस्मान भी था
7.
दर्द कितना भी दिलनशीं होगा
हम बिखर जायें ये नहीं होगा
तूने सदमों की धूप देखी है
कोई तुझसे भी क्या हंसीं होगा
इस तरफ़ रात है उधर दिन है
अब वो सूरज उधर कहीं होगा
घर ख़लाओं में हम बनायेंगे
आस्मां इक नई ज़मीं होगा
हम यहाँ हैं तो क्या नहीं है यहाँ
हम न होंगे तो क्या नहीं होगा
8.
मछलियाँ सोई हैं साहिल पे कश्तियों की जगह
कश्तियाँ होंगी समन्दर में मछलियों की जगह
घर समन्दर से बहुत दूर इक पहाड़ी पर
दिल समन्दर कहीं गुम है सीपियों की जगह
बर्फ़ थी जैसे कि खरगोश हों पहाड़ों पर
धूप में हो गये ओझल जो वादियों की जगह
शाम पेड़ों में हवा कितनी चीख कर रोई
टहनियां टूट गईं ख़ुश्क पत्तियों की जगह
इन मुहर बंद लिफ़ाफ़ों में तक़ल्लुफ़ है बहुत
कैसे रक्खूं मैं इन्हें सादा चिट्ठियों की जगह
ख़ुद से बाहर वो कहीं कुछ भी नहीं देख सका
आईने उसने लगाये हैं खिड़कियों की जगह
साहिल करीब देख कर मुसाफ़िर तो खुश हुए
मल्लाह चुप था उसके लिए आम बात थी
नवीन कुमार नैथानी |
देहरादून का कोई भी साहित्यिक-सांस्कृतिक उल्लेख डिलाइट और टिप-टाप के जिक्र से बचकर संभव नहीं. डिलाइट का इतिहास बहुत पुराना है और आज भी वह अपनी उसी त्वरा के साथ गतिशील है- एक साथ कई पीढ़ियों के बीच जीवन्त बहसों, अफवाहों, सूचनाओं और निखालिस गप्पबाजी का ठेठ अनौपचारिक ठीहा! आज की बढ़ती समृद्धि और घटती संवेदनशीलता के इस बेहद तेज समय में शहर के बीचो-बीच अपनी सादगी भरी धज में डटा डिलाइट प्रतिरोध का सौन्दर्यशास्त्र रचता दिखायी पडता है. टिप-टाप का जिक्र भी जरूरी है जो अस्सी के उत्तरार्ध और नब्बे के पूरे दशक भर अपने उफान पर रहा और अब बस नाम भर बचा हुआ है-चकराता रोड की भीड़ भरी भागम-भाग के बीचो-बीच एक साइन बोर्ड!
इस शहर में भीड़ का ये आलम है
घर से गेंद भी निकले तो गली के पार न हो
हरजीत ने शायद कुछ ऐसा टिप-टाप मे बैठकर ही कहा था. उन दिनों टिप-टाप पूर्णतः साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र बन चुका था. टिप-टाप का इतिहास कुछ यूं रहा कि डिलाइट के किंचित अगंभीर से दिखलायी पड़ते माहौल से हटने के लिये एक वैकल्पिक स्थल के रूप में पहले यहां पत्रकारों ने अड्डा जमाया- फिर रंगकर्मी काबिज हुए और अन्ततः साहित्यिकों की विशिष्ट मुफलिसी को टिप-टाप मालिक प्रदीप गुप्ता के दिल की रईसी और काव्य-प्रेम इस कदर रास आये कि टिप-टाप, २० चकराता रोड शहर के साहित्यिकों का पता ही बन गया.
जब कथाकार योगेंद्र आहुजा नौकरी के सिलसिले में स्थानान्तरित होकर देहरादून आये तो उन्हें दिल्ली में बताया गया कि देहरादून में किसी साहित्यकार का पता पूछने की जरूरत नहीं- सीधे टिप-टाप चले जाइये! तो टिप-टाप में ही मेरी योगेन्द्र आहूजा से पहली मुलाकात हुई– वह शायद शाम का वक्त था–लगभग साढ़े सात बज चुके थे. वे अपनी पत्नी के साथ आये थे. टिप-टाप के माहौल में किसी का सपरिवार आगमन आश्चर्य ही हुआ करता था.
“अच्छा! सिनेमा-सिनेमा वाले योगेन्द्र आहूजा!” लगभग की यही प्रतिक्रिया थी. बाद में योगेन्द्र ने गलत, अंधेरे में हंसी और मर्सिया जैसी कहानियां दीं.
खैर, यह एक अलग और विस्तृत कथा है, फिलहाल बात टंटा शब्द पर की जाये जो एक तरह से टिप-टापियों का सामूहिक नामकरण हो गया. इस शब्द के साथ थोडा सा विरोध, हलका सा प्रतिरोध और दुनिया के प्रति किंचित उपहास को मिलाकर एक खिलन्दडाना बिम्ब कालान्तर में जुड़ गया जिससे संबद्ध हर शख्स को टंटा कहा जाने लगा. बहुवचन टंटे और सामूहिकता के लिये टंटा समिति का संबोधन चल निकला. यहां बेहद गंभीर मुद्दों को गैर जिम्मेदारी की हद तक पहुंचने की दुस्साहसिक चेष्टाओं के सामूहिक आयोजन में कई गैर-टंटों ने निहायत अगंभीर (non-serious) वार्तालाप की शक्ल में बदलते देखने के बाद टंटा समिति को वक्त-बरबादी का जरिया माना और घोषणा की कि यह दो चार दिनों का शगूफा है. मजे की बात यह कि टंटों ने इस बारे में कुछ सोचा ही नहीं- गम्भीरता का उपहास वैसे भी टंटेपन का मूल भाव है! लेकिन टंटा समिति चल निकली और खूब चली. आज भी हम सबके WhatsApp समूह हरजीत के दोस्त में इसकी महिमा जस की तस बरक़रार है.
इस टंटा शब्द की भी एक कहानी है. एक शाम शहर में घूमते हुए कवि वीरेन डंगवाल टिप-टाप में आ पहुंचे. शायद राजेश सकलानी के साथ. चूंकि अवधेश और हरजीत के लिये शाम होने के बाद सूरज ढलने का इन्तजार वक्त-बरबादी के सिवा और कुछ नहीं था, सो वे चाहते थे कि वीरेनजी जरा जल्द ही टिप-टाप से निकल कर कहीं और चलें जहां हरजीत अपना ताजा शेर पढ़ सके:
ये शामे-मैकशी भी शामों में शाम है इक
नासेह, शेख, जाहिद, वाहिद हैं हमप्याला
लेकिन वीरेनजी को शायद ६.३० की ट्रेन पकड़नी थी. तो शाम कुछ फीकी से हुई जा रही थी तो हरजीत ने कहा:
“चलो ! टंटा खत्म!” फिर अगला ही जुमला कस दिया,”स्वागत एवं टंटा समिति का काम खत्म.”
अगले दिन इस बात का इतनी बार मज़ाक बनाया गया कि टंटा शब्द सबकी जबान में चढ़ गया. कालान्तर में इसमें साथ कुछ अर्थ जोड़ ने की कोशिशें हुईं. एक प्रसिद्ध नामकरण यूं रहा टंटा-शब्द के उस नामकरण के पीछे कई दिमाग लगे थे. सुनील कैन्थोला की असंदिग्ध मौलिक प्रतिभा का सहयोग तो था ही, टंटों की सामूहिक चेतना ने इसे और ऊंचाई दी. होने यह लगा कि शहर के तमाम साहित्यिक, सांस्कृतिक कार्य-क्रमों में बाकायदा टंटा-समिति के नाम निमन्त्रण पत्र आने लगे. व्यक्तिगत-स्तर पर हर टिप-टापिया अपने को टंटा समझता था किंतु टंटा-पन को लेकर सार्वजनिक खिंचाई में चूकता भी नहीं था. शायद सार्वजनिक धिक्कार की भर्त्सना करना भी टंटों के पुनीत कर्तव्यों में से एक रहा है. अवधेश की एक कविता है- माचिस जिसकी शुरुआती पंक्तियां यूं हैं:
माचिस एक आग का घर है
जिसमें बावन सिपाही रहते हैं
जिनके सिरों पर बारूद भरा है
इस कविता की पैरोडी बनायी गयी जो दुर्भाग्य से अब मुझे याद नहीं है. यह पैरोडी उस जगह चस्पा कर दी गयी जिसे अमूमन दुकानदार लम्बे इन्तजार और कई तकादों की अप्रिय प्रक्रिया के बाद थक कर उन देनदारों का नाम सार्वजनिक करने के लिये चुनते हैं जिनकी देनदारी की रकम बर्दाश्त की सीमा से बाहर जाती नजर आने लगती है. टिप-टाप में ऐसे देनदार बहुत थे- लगता था जैसे उस सांस्कृतिक हलचलों से भरपूर समय में उधार न चुका कर प्रदीप गुप्ता पर बड़ा अहसान कर रहे हैं. कुछ के पास पैसे ही नहीं होते थे!
बहरहाल अवधेश ने पैरोडी पढ़ी – उसकी प्रशंसा की और पैरोडीकारों की त्रुटियों को बाकायदा अपने हाथ से दुरुस्त कर चिपका दिया! अब टंटा गतिविधि में यह क्रिया भी शामिल हो गयी- पैरोडी. कुछ टंटे तो यह तक मानने लगे कि यह जीवन अगर सृष्टिकर्ता की रचना है तो इस जीवन को जीने वाला उसका पैरोडीकार! उन्हीं दिनों टंटों के बीच दर्द भोगपुरी का आगमन हुआ. ये साहब शायरी सीखना चाहते थे और शायराना तबीयत के मालिक थे- यह बात दीगर है कि शायराना तबीयत के बारे में उनके विचार हमेशा बदलते रहते थे. तो दर्द भोगपुरी ने हरजीत से इस्लाह लेने का इरादा किया और कुछ पंक्तियां सुनाकर जानना चाहा कि इनमें शायरी है भी या नहीं. और अगर शायरी नहीं है तो इनमें पैदा कर दे! हरजीत ने सुना बहुत देर तक सोचा. आहिस्ता-आहिस्ता अपना चश्मा दुरुस्त किया और बोला,
“दर्द साहब! यूं ही कहते जाइये. सही समय पर खुद समझ जायेंगे कि शायरी है या नहीं. और रही बात दुरुस्त करने की तो जब उसका भी वक्त आयेगा तो खुद-ब-खुद शेर हो जायेगा.”
दर्द साहब ने कुछ लोगों से सुना था कि हरजीत कभी उर्दू की नशिस्तों मे जाया करता था और राजेश पुरी तूफ़ान का शागिर्द रहा. प्रसंगवश तूफ़ान साहब से एक मुलाकात मुझे भी याद है- अतुल शर्मा के साथ. गांधी पार्क की बगल में एक नये खुले टी हाउस में (वह ज्यादा नहीं चल सका). वहां उन्होंने एक पते की बात बतायी थी- अच्छा शेर वह होता है जो गद्य और पद्य में एक सा रहे यानी उसका अन्वय न करना पड़े- उदाहरण के रूप में उन्होंने मीर के बहुत से शेर उद्धृत किये थे. एक मुझे याद आ रहा है:
नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
खैर एक रोज दर्द साहब के साथ अजब वाकया पेश आया. वे टिप-टाप मे बैठे थे कि दो महिलायें एक सुर्ख गुलाब लिये दर्द साहब को पूछती चली आयीं. थोडा सकुचाते, कुछ हिचकिचाते हुए उन्होंने वह गुलाब कुबूल किया- मेज के किनारे रखा और प्रदीप गुप्ता को उधार की चाय का आर्डर दिया. दर्द साहब सुर्ख गुलाब का सबब समझ नहीं पा रहे थे. तभी वहां हरजीत का आगमन हुआ. उसने मंजर देखा, प्रदीप गुप्ता से कुछ बात की और फिर उस सार्वजनिक पोस्टर-स्थल से अवधेश की पैरोडी हटाकर एक नया शेर चस्पां कर दिया
शराबो- जाम के इस दर्जः वो करीब हुए
जो दर्द भोगपुरी थे गटर-नसीब हुए
इसे पढ़कर दर्द भोगपुरी ने, ज़ाहिर है, राहत की सांस ली.
हम यहाँ हैं तो क्या नहीं है यहाँ : हरजीत की देहरादुनिया और मैंतेजी ग्रोवर |
प्रिय हरजीत, तुम्हें और तुम्हारी बेटियों सोनू और गोलू, तुम्हारे परिवार के सभी सदस्यों, तुम्हारे सभी दोस्तों और उन सब लोगों को भी तुम्हारी 62वीं सालगिरह मुबारक, जिन्होंने किसी शाम तुम्हें सलाद (यह नाम हम दोस्तों ने उस शै को दिया है जिसका सेवन तुम सलाद के साथ करते थे) खिलाकर तुम्हारी उस दिलफ़रेब आवाज़ में तुम्हारे कलाम को सुना है, या तुम्हारी ही तरह फक्कड़ दिखने वाली तुम्हारी स्वप्रकाशित किताबों को बार-बार पढ़ा है. तुम्हारे उन दोस्तों को भी मुबारक हो तुम्हारी सालगिरह जिन्हें तुम्हारी अनेक ग़ज़लें और फुटकर अशआर को याद रखने कोई काग़ज़ नहीं देखना पड़ता. बस मन ही मन तुम्हारी आवाज़ को सुनते हुए हर महफ़िल में याद रही आयी ग़ज़लों को पेश कर सबको अचम्भे में डालने के लत लग चुकी है तुम्हारे कुछ अज़ीज़ों को. तुम्हारे तमाम दोस्त जिनमें से कईयों को आपस में तुमने मिलवाया तक नहीं था, इस वक़्त एक दूसरे से कुछ इस तरह आ जुड़े हैं मानो उनके बीचों-बीच तुम अपने चश्मे की भाप को पोंछते और उनकी शामों को गुलज़ार करने एक बार फिर से आ बैठे हो.
तुम्हें कैसे पता होता कि तुम्हारे जाने के मात्र पाँच साल बाद की दुनिया में तुम्हारे बहुत से दोस्तों को एक-दूसरे को खोज लेने के टोटके उन्हें कुछ ऐसे माध्यमों से मिल जाने वाले हैं, जिन्हें तुम खुद शायद पसंद न भी कर पाते. या फिर इतना पसंद कर लेते कि उनकी शान में तुम्हारे यहाँ गज़लें हो जातीं, कई अशआर फूट पड़ते. तुमने धागों, सीढ़ियों, कपड़ों तक के तो रदीफ़ बना दिए, फिर तीन बार समालोचन की महफ़िल में आकर, कभी ग़ज़लों, कभी तेजस को लिखे खतों, और कभी तुम्हारे दोस्त प्रेम साहिल के लिखे संस्मरणों को देखकर तुम्हे क्या महसूस होता इसे मैं जानती हूँ, हरजीत. जीवन भर तुम्हारे किसी हुनर ने तुम्हें कोई दुनियावी शै से नहीं नवाज़ा, अभाव में ही तुमने अपने फ़न को साधा, गुना, और अपने कहन में ऐसी तराश पैदा की कि तुम्हें खुद ही कहना पड़ा :
हम तो पत्थर के मुरीदों में नहीं हैं ऐ दोस्त
हम तो आवाज़ सेशीशे को तोड़ देते हैं
फिर भी इन नए मंचों और माध्यमों के वुजूद में आने के सोलह साल बाद ही यह सम्भव हो पाया कि हम में से कई लोग जो तुम्हारे देहरादूनी ठीहों से अनभिज्ञ थे, एक दूसरे से मिले बिना भी एक दूसरे से बहुत गहरा जुड़ाव महसूस करने लगे हैं. तुम्हारी आँखों की चमक अब और भी स्निग्ध हमारी आँखों में उतर आयी है और अभी तक हमें ज़िन्दा रहे आने के नित ने गुर सिखाती हमें यह भी बतला रही है कि अब तुम एक बार फिर ख़ुद को भी ठीक से देख सुन पा रहे हो. कुछ लोगों का जाना हमें उनके इतना क़रीब ले आता है, यह तुम्हें खोकर ही कालांतर में हम जान पाए, और फिर तुम्हें इस तरह दोबारा पाकर, हरजीत! दोस्तों के शामें एक बार फिर तुम्हारी ग़ज़लों और तुम्हारे हाथ के बने रेखांकनों, आवरणों, कोलाजों और खिलौनों से गुलज़ार होने लगी हैं.
हर-मन प्यारे हरजीत, तुम जान ही रहे हो, कि तुम्हारी गिलहरी तेजस यानि ख़ाकसार ने पिछले साल किसी वक़्त इक्कीस बरस में पहली बार इतना ज़ोर से उच्चारा तुम्हारा नाम कि एक ने प्रत्युत्तर में ऐसा हुंकारा भरा कि उसने और हुंकारों को अंक में समेट लिया. वह पहले भी कई बार पुकारती आयी है तुम्हारा नाम, कई बार, और कहीं-कहीं से हुंकारे भी आये हैं. लेकिन इस बार तुम्हारे नाम को उच्चारते ही राजेंद्र शर्मा जैसा छोटा भाई और सूत्रधार भी मिल गया मुझे जिसने तुम्हारे अधूरे रह गए दीवान के बारे में मेरा सन्देश देखते ही मुझसे तुरन्त सम्पर्क किया और उनके संकल्प और प्रेम की बदौलत देखते ही देखते पचास से ऊपर कर्णप्रिय हुंकारे स्वर–संगति में आने की उम्मीद में एक दूसरे में पिरोये गए. लेकिन अभी कुछ ही दिन पहले तुम्हारे एक देहरादूनिया अज़ीज़ ने बताया कि तुम तो किसी से किसी का परिचय तक नहीं करवाते थे. बहुत बरस बाद वे (मसलन) एक दूसरे को बता रहे हैं कि मोहतरमा हम लोग हरजीत के साथ दिल्ली में दिव्या और डॉ. विनय के घर की छत पर मिल चुके हैं, लेकिन हरजीत ने नहीं बताया कि कौन-कौन है. वे मित्र फ़ोन पर बोले कि उन्हें बाद में पता चला कि उस छत पर चंडीगढ़ निवासी वे तीन लोग कौन थे. उन तीन में से एक तो अभी कुछ ही दिन पहले इस दुनिया से गया है. तुम इस मरहूम अज़ीज़ के कोलाजों के किस क़दर मुरीद थे न, और इस विधा में उसे अपना गुरु मानते थे! उसका नाम यहाँ दर्ज करना ज़रूरी लग रहा है मुझे हालाँकि उसका नाम तक लिख पाना मेरे लिए कठिन है.
चलो लिखती हूँ भारी मन से: अर्नेस्ट ऐल्बर्ट. वह भी तो अतुलवीर के साथ देहरादून में तुम्हारी शादी अटेंड करने मेरे साथ आया था न? तभी तुम्हारे कुछ टंटों और देहरादूनिया टिपटॉप टुल्लर से मुलाक़ात भी हुई होगी, लेकिन वेद भाई साहब, दीपक और रानू को छोड़ मुझे किसी की याद नहीं है. अवधेश तो तुम्हारे ही साथ मिला था हम लोगों को और उसका गीत “जितने सूरज उतनी ही छायाएँ” मैं उतनी ही शिद्दत से महफिलों में अपनी मामूली सी आवाज़ में गा देती हूँ जितने प्रेम से मैं तुम्हारी ग़ज़लों की खास शामें आयोजित करती हूँ. (और अब तो देहरादून के कलाप्रेमी दम्पति खुराना जी और कृष्णा भाभी की दरियादिल मेहमाननवाज़ी की भी याद हो आयी है मुझे!)
सुनो, मुझे अर्नेस्ट के बारे में भी यहीं बात कर लेने दो. और बताने भी किसे जाऊंगी अब? तुम्हें तो बताना ही था यूं भी क्योंकि मुझे मालूम है तुम ज़रूर जानना चाहोगे वह किस हाल में अभी कुछ ही दिन पहले इस दुनिया से रुखसत हुआ है. मरने से पहले उसने हमारे उन दोस्तों को सन्देश भेजे, जिन्हें तुम भी अच्छे से जानते हो. लेकिन (मुझ और उसके बेटे अस्सू सहित) कोई उससे बात नहीं करना चाहता रहा होगा, ऐसा कयास मैं लगा रही हूँ. तुम होते तो उससे मिलने ज़रूर पहुँच जाते क्योंकि तुम बहुत सी चीज़ों से अल्पायु में ही ऊपर उठ चुके थे (अपनी सांसों की माला से भी तो तुम चालीस की उम्र में ही उठ नहीं गए थे?). तुम अर्नेस्ट से अपने कोलाज लायक कतरनें बटोरने कभी-कभी देहरादून से ख़ास आते थे उस घर में जहाँ पहली बार तुमसे और अवधेश से इतनी अविस्मरणीय मुलाक़ात हमारी हुई. अर्नेस्ट की फिंकी हुई कतरनों में भी तुम्हें अपने काम का कुछ दिख जाता था, है न? Span में छपे उसके कोलाजों को लेकर जितना खुश तुम हुए, उतना तो शायद वह खुद भी कहाँ हुआ होगा, क्योंकि उसका मन कला से अधिक धारधार-रोमांचक चीज़ों में था, कला उसे कैसे रमाए रख पाती भला? हालाँकि तुम्हें इतना बता दूं अर्नेस्ट ने हम में से किसी को भी नहीं बताया था कि वह किस हाल में है. माँ के घर जहाँ रुस्तम और मैं अमृतसर में उस वक़्त थे, उससे कुछ ही दूरी पर उसके बेहद कठिन अंतिम दिन बीत रहे थे, और हम लोग इस बात को नहीं जानते थे. वह मेरी माँ से भी क्षमा भी मांगना चाहता था, यह सन्देश भी मुझे सात समन्दर पार से उसके जाने के बाद मिला.
प्रेम अनुग्रह नाम की एक स्विस महिला ज़्युरिक में बैठे बैठे उसे अद्भुत ढंग से अपने संदेशों से विदा कर रही थी, क्योंकि उसे भारत आने की अनुमति मिल नहीं पा रहा था. मैंने करुणा के बुद्ध सरीखे निर्वाह को पहली बार ख़ुद प्रेम अनुग्रह की कृपा से ही अनुभव किया है, हरजीत! अनुग्रह और मेरे बीच की कहानी बहुत विस्तार पा चुकी है, कई हज़ार शब्द और जज़्बात हमारे बीच धड़क रहे हैं, लेकिन फ़िलवक्त तुम्हें यही बताना चाहती हूँ कि अगर अर्नेस्ट को अनुग्रह की भावपूर्ण विदाई नसीब हो सकी तो तुम्हारे कोलाज उस्ताद का बेहद जटिल और गुह्य जीवन अकारथ नहीं गया होगा, ऐसा मान लेना चाहती हूँ, ताकि खुद अपनी अंतिम घड़ियों में भी मैं उसी के रहस्य को गुनती न रह जाऊं. यह लिखना भी उसी मनस्थिति में हो रहा है जो अर्नेस्ट के जाने के बाद ही मुझपर तारी हो सकती थी, और किसी के जाने से नहीं.
यह जो तुम्हारे मित्रों का चौपाल यहाँ बन आया है, ऐसा नहीं है कि इसपर कुछ कहा–सुनी या असहमतियाँ हुई ही न हों. एक दूसरे के मिज़ाज को समझने में कुछ वक़्त तो लगा ही. रूठने–मनाने के झीने–झीने कर्मकांड भी हुए. एक ही रसोई में रहने वाले दो बर्तन भी आपस में टंकार पैदा कर लेते हैं, तो फिर हरजीत के स्मृति–कक्ष में तो कितने ही संजीदा और टंटा सुर एक साथ छिड़ गए, और ज़रूरी नहीं कि वे तुम्हारी नज़र से गुज़रे ऐसे सूरज हों जो “अपनी ही रौशनी में परीशां” रहे आये हों. इन सबमें मुझे तुम्हारे ही दर्शन होते हैं, हरजीत, इन खुदा के बन्दों ने कई शामों की ग़मे-हस्ती को तुम्हारे साथ बैठकर कहकहों और सलादों में उड़ाया है. और मेरे लिए इनमें कई स्वर इतने आत्मीय हो गए हैं जैसे उन्हें मैं बचपन से जान रही होऊं. मेरे लिए इनका गिला-शिकवा भी सर माथे पर, हालाँकि मुझे जो दानिशमंदी यहाँ देखने को मिल रही है, जो ग़ैर दुनियावी तत्व, वह मुझे फिर तुमसे ही रूबरू करवाता जान पड़ता है.
इनमें कई तो बड़े नामवर कलाकार भी हैं, और कई भाई वीर सिंह की तरह छिपे रहने की चाह लिए इस दुनिया से “छिप टुर” जाने की रूहानियत को बहुत गहरा जी रहे हैं, अपने लिखे-बनाए को सहेज भी नहीं पाते. कोलाज का एक और उस्ताद तो इसी whatsapp चौकड़ी में बैठा है हुआ है, किसी एक कोलाज से वह हमें हर सुबह आवाज़ देकर जगा देता है और कौन नहीं समझता होगा उसके बनाए हुए अक़ीदत के फूल और परिन्दे किससे मुखातिब हैं. हम में से कुछ तो तो एक दूसरे का नाम भी पहली बार सुन रहे थे. और यह अकारण नहीं था कि तुम हमारे दरमियान इन फ़ासलों को पूरना नहीं चाहते थे. मुझे तो सिर्फ़ टिपटॉप और डीलाईट सरीखे कुछ ठीहों की खबर थी देहरादून नाम के शहर में, और अवधेश, दीपक और रानू की. तुम्हारी संगिनी मट्टो, बेटियों गोलू और सोनू, तुम्हारे छोटे भाई के परिवार और तुम्हारी माँ की.
तुमसे मुखातिब रहे आने का यह सिलसिला अभी और चलेगा, हरजीत, लेकिन फ़िलहाल दो ही शख्सियतों के ज़िक्र से अभी की बात ख़त्म करती हूँ. एक तो तुम्हारे दार्शनिक मार्गदर्शक वेद भाई साहब जिनकी ग़ैर दुनियावी झलक अब तुम्हारे उस्ताद जगजीत निशात साहब में भी मिलती है. क्या था कि मध्य प्रदेश में एक्टिविज्म के पांच साल गुज़ारने के बाद, मुझे चंडीगढ़ अपनी नौकरी पर लौटना था. भोपाल गैस काण्ड में मिले जुझारू कार्यकर्ताओं और नर्मदा बचाओ आन्दोलन के साथियों के संग-साथ के अलावा अब ग्रामीण बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में भी एक बड़ा अनुभव मुझे 1985 और 1990 के दौरान जिला होशंगाबाद के देहाती इलाक़ों में रहते हुए हो चुका था. दोबारा लौट कर शेक्सपियर कैसे पढ़ा पाऊँगी इसी की चिंता थी. एक बार तुम जब पलिया पिपरिया गाँव में मुझसे मिलने आये तो उस इलाके में तुम्हारी शायरी और ख्याति दावानल की तरह फैल गयी थी, और तुम मध्य प्रदेश के उस ग्रामीण और कस्बाती समाज के पाठकों के साथ हिलमिल कर कितने खुश थे जिसकी महिमा आज के शहरी अदीब शायद ही समझते हों. मैंने तुमसे कहा, हरजीत, अब चंडीगढ़ की दुनिया मेरे लिए अजनबी हो चुकी है. वहां लौटना थूक कर चाटने जैसा होगा. देहरादून लौट कर तुमने वेद भाई साब से हँसते हुए इस बात का ज़िक्र किया होगा. वे शायद चिंतित थे कि मेरी भावनात्मक ज़िन्दगी नाज़ुक ज़मीन पर है और वे सोचते थे कि मुझे अपने इलाके में लौट आना चाहिए. फिर तुमने मुझे लिखा कि वेद भाई साब मुझे क्या सलाह दे रहे हैं: तेजी से कहना अपना ही थूक है. कोई हर्ज नहीं.
1999 के देहरादून में मैं जीवन में पहली बार ऐसी माँ से मिल रही थी. जिसने अपने जवान और लाडले बेटे को खो दिया हो. मुझे नहीं पता तुम्हारी शायरी का तुम्हारे या मेरे जीवन से क्या रिश्ता है. लेकिन तुम्हारी माँ को देखकर क्या कोई भी यह शेर कह सकता था भला:
तूने सदमों की धूप देखी है
कोई तुझसा भी क्या हसीं होगा
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