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समालोचन

Home » कथा – गाथा : अपर्णा मनोज

कथा – गाथा : अपर्णा मनोज

      बच्चों के यौन दुराचार की खबरों से शायद ही अखबार का कोई दिन खाली जाता होगा. बाल मन पर इसका बहुत गहरा और घातक दुष्प्रभाव है. तरह-तरह की मानसिक समस्याओं में घिर कर वह जीवन भर इस संत्रास को भोगता है. साहित्य के लिए ज़ाहिर है यह खबर भर नहीं है, वह उसके अंधरे […]

by arun dev
February 25, 2012
in कथा
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बच्चों के यौन दुराचार की खबरों से शायद ही अखबार का कोई दिन खाली जाता होगा. बाल मन पर इसका बहुत गहरा और घातक दुष्प्रभाव है. तरह-तरह की मानसिक समस्याओं में घिर कर वह जीवन भर इस संत्रास को भोगता है. साहित्य के लिए ज़ाहिर है यह खबर भर नहीं है, वह उसके अंधरे में डूबकर उस यातना को सामने लाता है. अपर्णा मनोज ने ऐसी ही एक बच्ची के मनोजगत को समझा है जिसकी युवावस्था पर उसके बचपन की काली छाया है.     
अपर्णा की कहानिओं ने इधर ध्यान खींचा है, शिल्प पर वह मेहनत करती हैं. यह कहानी गहन प्रभाव छोडती है.    

 
   
आउट ऑफ़ द ब्लू            
अपर्णा मनोज
  

सागर के नेपथ्य में : 
नीले अरब सागर में वह मुट्ठी भर–भर कर रेत फेंकती रही. बीच–बीच में कोई बड़ी सीपी मिल जाती तो उसे गोल घुमाकर दूर लहरों पर उछाल देती और फिर क्षितिज के पार शून्य को देखने लगती. वरसोवा की काली चट्टानें उसे अपने डॉबरमैन अबू की तरह लग रही थीं जो अपने कान समेटे, पैर अन्दर किये गुड़मुड़ लेटा रहता है, पर आने वाली हर आवाज़ को दबोचने के लिए तैयार. 

सूरज समुद्र में गोते लगा रहा है
. अब डूबा, तब डूबा  कुछ जहाज़ दूर जाते धब्बों की तरह ओझल हो रहे हैं तो कुछ पास आते हुए किसी बड़े समुद्री पक्षी की तरह अपने डैने फैलाए दीख रहे हैं. दाहिने हाथ पर कतार से छोटी–बड़ी डोंगियाँ, ट्रौलर लगे हैं. फैले हुए फिशिंग नेट्स, लाइंस और जगह–जगह लटकी सूखी मछलियों के परदे.कोलियों के टोलों की आवा–जाही लहरों के शोर पर थपकियाँ दे रही है.

हवा के झोंके ने उसके गाल ठंडे कर दिए
. हथेलियों से गाल रगड़कर वह आउट ऑफ़ द ब्लू मुस्कराई और बोली, ओ.. You splendorous Arabian.. Lunging on this sand! Bewitching me! Alluring my pensive soul.
नहीं आज कोई कविता नहीं. झटके से उसने अपने जेहन को काबू किया और बेलौस आँखों से रेत के आर–पार झाँकने लगी. अपनी नरम–नाज़ुक उँगलियों से उसने रेत पर अंग्रेजी में लिखा ,\”MAULSHREE\”. फिर दूसरे ही पल पैरों से उसने अपने नाम को समतल कर दिया. अब वहाँ उसके होने का कोई निशान नहीं बचा था.अलबत्ता सांझ का गुलमोहर लम्बी छाया में बदलने लगा और उस पर न जाने कहाँ से कूबड़ वाले केंकड़े रेंगने लगे. कुछ मिटटी के रंग के स्नेल अपनी केंचुल में सिमटे जा रहे थे. लहरें आतीं और उनके चारों तरफ गोल–गोल घूमतीं, फिर घसीटकर उन्हें समंदर में ले जातीं. वे धकियाते पर जोर न चलता. 

तभी किसी ने मुलायमियत से उसका नाम पुकारा,
\”मौली\” वह बिज़ली की तरह उठी और बेतहाशा दौड़ने लगी. आवाज़ उसका पीछा कर रही थी. पुकार ने उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया. उसके होंठ जल रहे थे और आँखें सुर्ख. कुनमुना कर वह कुछ देर  आलिंगन में छटपटाई और बिना कुछ उज्र किये खुद को ढीला छोड़ दिया. हाथों की उँगलियाँ एक–दूजे में फंस गईं. एक की आँख दिलासा से नम थीं और दूसरे की आँख न जाने कितनी पुरानी नमी से नम. लड़के ने अपने जवान ओंठ उसकी आँखों की कोर पर रख दिए. लड़की के आंसू मीठे थे और खूब–खूब  ज़ख्मों से सहलाए हुए. अँधेरे में लड़की की आँखें नीले सितारे की तरह लगीं जो हवा की उँगलियों में फंस रह–रह काँपता रहा और जिसकी धारधार रौशनी पर ओस की बूँदें जमा होकर ढुरकती रहीं. एक–एक रौशनी पर हज़ार–हज़ार शबनम के भंवरे अँधेरा बियाबान क़दमों में तब्दील होने लगा और दोनों जवान आकृतियाँ धीरे –धीरे महानगर में खो गईं. वरसोवा का समुद्र उचक–उचक कर काली मटमैली गलियों की ओर देख रहा था, जहां से आने वाला शोर यकबयक समुद्र की मछलियों को खींच कर ले जाता और अपने कलेजे में उनकी चिकनी देह को ठूंसता हुआ एलान करता कि जीवन गलफड़े में अटके कांटे से खींची हुई ऑक्सिजन है. रह रहकर बीच में कुत्तों के भूँकने की आवाज़ हुम–हुम हुंकारे भरती. बस्ती पर न जाने कितनी कश्तियों ने एक ठंडी  दिलकश आवाज़ उंडेल दी थी, हइया ओ, हैया हो
उधर बरसात अपनी जगह बनाकर टपकती रही छनछन. बादलों में भटकता चाँद किसी प्रेमी युगल का इस्तिक्बाल कर रहा था. उस पर गिरने वाली छाया किसी बुढ़िया के चरखा कातने की कहानी नहीं हो सकती थी. लॉर्ड अलींस की बेटी की छाया थी बड़ी–बड़ी लहरों के अपराधी हाथों में क़त्ल होती.
व्यतिक्रम : मेरी कथा एक मुआफी 
मेरी कहानी यहाँ से शुरू होती है. इस समुद्र को साक्षी मानकर मैं वाचक जो कुछ कहूँगी वह एक लड़की का भुगता हुआ सच है. मेरी आत्मा में कई लड़कियां छलांगे लगाती हैं. डुबकियाँ मारती हैं. आलामारा से जोन द आर्क तक.नन्ही सी उमराव जान से किसी अनजान अस्पताल में रेप के बाद दम तोड़ती बच्ची तक.मैं भी फंसी हूँ अपने चरित्रों के हलक में.कोई गहरा ज़ख्म है. मेरे फेफड़े हर बार सांस लेते में उसी दर्द से कराह उठते हैं.तो क्या मैं लिखूं, कहूँ, सुनाऊं ? सुन रहे हैं न आप सब? अपने दिलों को बचाकर रखियेगा. डर है कि ये लड़की आपके दिल न चबा जाए.

समुद्र के बाहर
:
क्यों लौटी  घर?  फुसफुसाई; बिलकुल ऐसे जैसे मुंबई की बरसात अचानक कान में फुसफुसा जाती है.  घर में सन्नाटे के सिवा है क्या? एक दुबली–पतली बहुत जवान लड़की है. हम दोनों एक साथ पैदा हुए, जुड़वां. हम दोनों की कई तस्वीरें हैं एक ही तरह, एक ही रंग के कपड़े पहने. लिविंग रूम में बहुत बड़ा कोलाज़ लगा हुआ है. इसे देखकर अस्फुट एक गाली निकल जाती है मुंह से और फिर फिस–फिस करके मैं देर तक हंसा करती हूँ.

पापा कहीं बहुत दूर से रोज़ आते हैं
. किसी दिन नहीं भी आते. उनके होने से घर कॉफी बीन्स,  शैम्पेन, बरगंडी,बारबरा और न जाने कितनी रेड वाइन की खुशबू से तर रहता है. घर की पीली रोशनी कुछ ज्यादा ही चौकन्नी हो जाती है और टुबैको  के छल्ले घर भर में उड़ते हैं. मैं अक्सर इन्हें हथेलियों में भरकर घर के रिक्त में छोड़ देती हूँ.

ये पापा भी कमाल हैं
. बहुत प्यारे. इनके के साथ कभी औफेंसिव होने का दिल नहीं करता. सीने से इन्हें लगाने का जी करता है, बालों में हाथ घुमाने का जी करता है और दिल करता है कि कहूँ, बार–बार कहूँ, \”आई लव यू, पापा\”. कई सालों से उनकी  गोद में उचक कर नहीं चढ़ी हूँ. उनसे जिद्द कहाँ की सालों से.. हम्म,कभी उनके कंधे पर चढ़कर मैंने मुंबई के सारे बीच घूमे थे. जुहू पर नंग –धडंग रेत में लोटी थी.  अपनी छोटी–छोटी पौकेट्स में सीपियाँ समुद्र से चुराकर भरना और फिर उन्हें औचक सागर में बहा देना. किलकारियां मार कर अबू के काले चमकीले बदन से लिपट जाना, लौटते में ढाब का मीठा–मीठा पानी वाह ! वाह ! बस वाह ! और अब ये ढाब मेरा पीछा नहीं छोड़ते. अंतहीन ताड़ की कतारें जिस्म पर डेरा डाले हैं.

एक औरत का जिस्म हमेशा टेलकम में नहाया, बदहावस देर रात घर लौट कर आता है और बिजली की तरह अपने बिस्तर में घुस जाता है
. मुझे ये अपनी प्रतिद्वंद्वी लगती है. मैं सत्रह की और ये बयालीस की. सुतवां नाक, रंग दिप–दिप करता, पतली कमर. सुडौल पैर, नाज़ुक उँगलियाँ, लम्बे नाखून और उन पर संवरी मैचिंग नेल पोलिश, ऐडिट की हुई एक मुस्कान. बड़ा सम्मोहन है इसमें, पर मुझे इस पर हमेशा खीझ आती है. हाथ–पैर पटक कर भड़ाक कमरा बंद करके मैं उसे हमेशा चेतावनी दिया करती हूँ. फिर भी वह आदतन मेरे कमरे में दाखिल होती है. कभी–कभी सिर पर हाथ फेरती है और चादर की सलवटें ठीक करते हुए आहिस्ता से पूछ बैठती है. आज का दिन कैसा रहा? कॉलेज गईं थीं?
दिन तो साला उंहूँ है. रास्कल. ब्लडी… और ये औरत कितनी प्रोवोकेटिव. आई हेट हर लाइक सिन.

औरत पूछती है, \”कुछ कहा तुमने?\”
\”यही, कि पापा के सिर में दर्द है.\” 

वह निगाहों से भरकर मुझे देखती है
. उसकी आँखों में ऐसा क्या है जो मुझे हर बार पराजित करता है. बड़ी–बड़ी आँखों के सफ़ेद हाशिये में \”माँ\” लिखा है, वही पढ़कर मैं हार जाती हूँ और मेरी नफ़रत लौटकर सिर्फ अनर्थ करती है. खैर वह कमरे से चली गई. उसे किसी ने नहीं रोका. न मैंने और न ही कमरे में बैड पर औंधी लेट कर सदा किताबों में डूबी रहने वाली उस पतली–दुबली लड़की सुगंधा ने.

मेरे हाथ में रंग हैं.
ईसल पर महीनों पुराना कैनवास लगा है.
अधूरी पेंटिंग. अर्टीमिसिया की प्रसिद्ध तस्वीर की नक़ल.
\”ज्यूडिथ बीहैडिंग होलोफर्न्स\”
और मैं उस औरत के बारे में सोच रही हूँ.
\”पता नहीं कहाँ से लौटी है इतनी रात गए? I just have to grin and bear her.”

पापा अकसर कहते हैं कि मैंने जब बोलना शुरू किया तब सबसे पहला शब्द
\”माँ\” बोला था.
अब इस शब्द तक आने में ज़ुबान अकड़ जाती है. जैसे कोई बहुत पुरानी पड़ी पीली बर्फ हो, फ्रॉस्ट बाईट करती हुई.

दिमाग बार
–बार दोहराता है,\”शी इज़ माय राइवल.\”

एक टीस हुमक
–हुमक कर उठी. मुझे पकड–पकड़ कर फंचीटती रही. अपनी दोनों छातियाँ हाथों में भींच लीं. होंठ काटे और अपने आंसू दाँतों के बीच दबा लिए.

आउट ऑफ द ब्ल्यू,
उँगली के पोर पर लाल गाढ़ा रंग लेकर अधूरी  पेंटिंग के नीचे लिखा-
\”शरण्या\”
कमरे में एमेडस मोजार्ट का रिक्वीम रूईदार बादलों की तरह उड़ता रहा
.
मैंने उँगली पर लगा रंग अपनी टीशर्ट से पोंछ दिया.
सुगंधा \’द लॉस्ट सिम्बल\’ से आँखें उठाते हुए बोली, \”शरण्या\”, क्या ये तुम्हारा पैन नेम है, मौलश्री. अच्छा है. सुंदर नाम.\”

वह मुस्करायी .
मुझे उसकी हंसी में तेजाब की गंध आई
.
मैंने विचलित होकर उसकी तरफ देखा. मन ही मन सोचा, \”मैं तो शरण्या ही हूँ. मौलश्री कौन है ? और ये सामने किताब पढ़ती लड़की ? क्या मैं इसे जानती हूँ?
घर की दीवारों का रंग नीला होने लगा. बिस्तर का बिछावन भी नीला पड़ गया. वह लड़की भी नीली हो गई.
आँखें बंद करके मैं  बिस्तर पर लेट गई.
क्या मैं समुद्र के बाहर थी ?

जाने भी दो न ये समंदर
:
जिस रास्ते से अकसर गुज़रा करती हूँ, वह सात बंगले का वह रास्ता है जो मुझे आराम नगर ले जाता है. हर थोड़ी दूर पर दायीं हाथ की गलियां समंदर में खुलती हैं. मैं अकसर दायें हाथ को ही मुड़ा करती हूँ. जैसे कम्पास की सुई उत्तर को झुकी रहती है, मैं समंदर को झुकी रहती हूँ. एक वही है जिससे मेरी कोई रार नहीं.

घड़ी की सूई रात के बारह बजा रही थी
. उसका पेंडुलम दोलन करते हुए टन से बजा और कुछ पल सिटपिटाया सा घर की दीवारों को घूरने लगा. मैं अचानक बिस्तर से उठी. अपने चारों तरफ निगाह घुमाई. सब गहरी नींद में थे. यहाँ तक कि कान खड़े करके सोने वाला अबू भी खर्राटे ले रहा था. अपना वॉलट लिया, एक झोले में पुरानी वोदका की आधी खाली बोतल डाली, अपनी ड्राइंग फ़ाइल ली, सफ़ेद पैनटोफल पहने और धीरे से लैच खोल कर निकल गई. लिफ्ट से नीचे आई. वॉचमैन ने मुझे घूरा, पर बोला कुछ नहीं. यहाँ मुंबई में चलता है एटीट्यूड ख़ासा काम करता है.

बाहर बरसात खूब गिर रही थी
. बायीं हाथ को बनी पुरानी कौटेजिस पानी में नहाई बड़ी भली लग रही थीं. इनमें से सिनेमाई खुशबू आ रही थी. थोड़ी दूर पर एक तिराहा है. यहाँ कभी बरिस्तान हुआ करता था. मुंबई में सब जल्दी–जल्दी बिना अफ़सोस के बदलता है. अब इस जगह कॉफी की महक नहीं है. लेफ्टहैण्ड साइड पर एक सी.सी डी. है. आगे को एक तिराहा है जहां एक पुराना शिव मंदिर है.

अभी मुंबई गहरी नींद में है
. ये इसके स्वप्न गीतों का प्रहर है. लुडविग बीथोवन की किसी सिम्फनी पर थिरक–थिरक के सोता शहर. पीली सोडियम लाइट्स के धुंधलके में सूखी जगह तलाशकर सोये कुत्ते बीच–बीच में भूँकने लगते हैं. किनारे लगी रेड़ियों के फ़रिश्ते अपनी चालों में अगले दिन की फ़िक्र में करवट बदल रहे हैं. कुछ मसीहा हैं, जो बरसाती आकाश में यूँ ही फुटपाथों पर बिछौना डाले लंबलेट पसरे हैं. कभी–कभी कोई गाडी नेपथ्य से बरबस आकर डरा देती है. 

मैं शिव मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गई
. वहाँ बैठकर बरसात में भीगते हुए वोदका पीती रही. सिग्नल लाइट्स अब भी अपना काम कर रही थीं. अब रुको, अब चलो, अब धीमे हो जाओ. मानो जिन्दगी न हुई सड़क की सावधानी भर रह गई . बरत –बरत कर चलती हुई, खुद को नामालूम से जैम में अटकाती हुई.

इस सन्नाटे में किसी ने मेरे हाथ से बोतल ली
. अपने रुमाल से मेरा मुंह पोंछा और मेरे सिर पर छतरी तान दी.

मैं उसे पहचानने की कोशिश कर रही थी
. उसने मेरे हाथ पर अनामिका से कुछ लिखा. फिर बहुत धीरे से कान के पास अपना मुंह ले जाकर बोला ,\”रात के एक बजे. मौली, ये तो घर में भी पी जा सकती थी न. भीग गई हो. बीमार पड़ जाओगी .\”

मैंने पूछा, मौली कौन?\”
वह चौंका, \”फिर तुम कौन ?\” उसने मेरी नाक पर गुदगुदी की.
\”मैं, शरण्या.\”
\”अच्छा, शरण्या, तो तुम मौली को तो जानती होंगी .\”
\”नहीं तो.\”
\”मैं जानता हूँ,तुम्हारे जैसी है. कपड़े भी ऐसे ही पहनती है. मेले में खोयी बहन लगती हो उसकी\”
\”लोग तो अपने ही घर में अमूमन खो जाते हैं, मेले की भली कही.\”
वह जोर से हंसा और उसने मेरा हाथ थामते हुए कहा , चलोगी समंदर.\”
मैंने पूछा, \”पहले नाम तो बताओ अपना. सूरत से पाजी नहीं लगते.\”
\”गाली .. अब नाम भी बताना पड़ेगा. नशा बहुत हो गया है तुम्हे. वैसे मैं एल्डन, तुम्हारा ओल्ड वाइज़ प्रोटेक्टर . अब चलो भी .समंदर चलते हैं.\”
\”जाने भी दो न समंदर… नींद आ रही है.\”
\”तो घर चलो.\”
\”ये है तो.\”
\”ये मंदिर की सीढ़ियाँ ?\”
\”शरण्या, क्या हुआ? रो रही हो. आओ यहाँ लेटो. मेरी गोद में सिर रख लो.\”

वह मुझे सहलाता रहा. देर तक मेरी पीठ थपथपाई. वोदका की बोतल बैग में रखी. बैग से पेंटिंग्स की फ़ाइल निकाली और अँधेरे में उनके रंगों को बांचने की कोशिश करता रहा. बीच में बारिश के साथ बतियाते समुद्र की आवाज़ हमारे मौन को गंभीर बना रही थी. क्या मैं उसे जानती थी ? लेकिन मुझे उसके हाथों की गर्मी बहुत सुखद लगी. 
मैं शरण्या उसकी गोद में सो गई .

ऑन द बीच
:
सुबह चार बजे आँख खुली. उठकर विंडो पेन से बाहर देखा. हल्का धुंधलका. घिरे बादल. शांत समुद्र. आकाश में उड़ती समुद्री लाल–काले बदन वाली ब्राह्मणी चीलों की ऊक–टुक आवाज़ जो लहरों की हुंह –हूँघ में तैर रही थी. सूरज गाढ़े लाल में पुता हुआ पानी पर डोल रहा था. मैंने अलसाकर आँखें मलीं और आज की दिनचर्या का हिसाब लगाने लगी.
आज बहुत सारे काम हैं . मैंने अपनी डायरी निकाली और सब नोट डाउन किया.

१
. माय डांस लेसन, मोर्निंग सिक्स ओ क्लॉक से सेवन  तक. 
२. ब्रेकफास्ट में ऑमलेट और ब्रैड बनाना है. पापा–मॉम और हम दोनों लड़कियों का लंच,
पैक करना है. ये काम ९ बजे तक.
३. कॉलेज में आज ड्रामा प्रैक्टिस के लिए स्टे बैक करना पड़ेगा. शाम के सात बज जायेंगे.
४. एज़ यूजुअल , वरसोवा पर, लेकिन आज देर से . एल्डन को बताना पड़ेगा कि न आये .
बीच पर पहुँचते–पहुँचते ९ बज जायेंगे .
५. आज रात खाना कैंसल, कुछ पुराने हिंदी गीत सुनूँगी, मुधुबाल की फिल्म के.

बदस्तूर काम होते गए
. कैसे दिन निकला पता नहीं चला. ड्रामा के बाद बहुत थकान लग रही थी. सोचा कि आज बीच कैंसल करती हूँ, फिर एल्डन भी तो नहीं आएगा वहाँ. घर की राह पकड़ी, लेकिन फिर न जाने क्यों अनजाने ही कदम वरसोवा को बढ़ गए. वही काली चट्टानें रोज़मर्रा की. वही रेत में धंसीं छोटी–छोटी झीलें (गड्ढे ). किस्मत से आज पानी नहीं गिरा था.भूख लग रही थी. वहीँ ठेले से वड़ा–पाव लिया झालदार. चलते–चलते खाती रही और कुछ सोचती रही.
एक फीके हरे रंग का बजरा पूरब का मुंह किये हमेशा औंधा पड़ा रहता है. इसकी सीली गंध मुझे बहुत भाती है. न जाने किस मछुआरे का है. कभी इसे पानी में नहीं देखा. सालों से यूँ उल्टा का उल्टा धरा है. जैसे मेरे लिए ही किसी ने रख छोड़ा है. यहीं मैं बैठा करती हूँ एल्डन के साथ. घंटों. उसके कंधे पर सिर धरे. 

आज भी मैं अपनी तय जगह पर पहुँच गई
. वहाँ कोई युगल पहले से डेरा डाले था.
निराशा हुई. अकेलापन भी लगा. फिर भी एक उम्मीद से पैर उसी दिशा को बढ़ गए.
मैं बजरे के पास खड़ी हूँ.
हतबुद्धि. युगल को घूरते हुए. 
वे दो.
पहचाने हुए.
एक दूसरे के हाथ पकड़े हुए.
दोनों की पीठ मेरी तरफ है.
मैं सिर्फ इनकी आवाजें सुन रही हूँ .
समुद्र के पानी से नमकीन होती आवाजें.
आवाजें हवाओं में तैर रही हैं , उन्हें काटती .. उनके पंखों को नोचती . मेरे भीतर भी ये टूटे–फूटे पंख खून से तर–बतर बिखरते गए.

मैंने आँखें भींच लीं
. लगा जैसे मेरे बदन को किसी ने लोहे के दरवाज़े के पाटों के बीच रख दिया है और जबरन कोई इसे बंद करता जा रहा है. बंद. कसते हुए .खूब –खूब कसते हुए. मेरा शरीर .. ओह कोई कुचल देगा . रौंद देगा. सरसराती आवाजें भारी रोड रोलर की तरह मेरी आत्मा से गुज़र गईं.

आवाजें समुद्री हवाओं की :
दोनों के कहने –सुनने के बीच मैं स्याह सन्नाटे की तरह फंसी थी .. जैसे दो ख़ास तारीखों के बीच जीवन फंसा होता है.
वह धीमे–धीमे बोल रही थी .. जैसे लालटेन की भक–भक करती लौ अँधेरे से बतिया रही हो.
वह कान लगा कर सुन रहा था. जैसे अँधेरा अपने ही पैरों की आवाज़ को जानने की कोशिश में हो.

\”अपने को शरण्या समझती है, वह. तुम क्या कहते हो इस बारे में
. रात में ही क्यों होता है ऐसा? वे ही रंग. हर कैनवास पर एक अधूरा चित्र. तुमने तो उसके सभी चित्र देखे हैं. उनमें हिंसा साफ़ दिखती है. उसकी मैथ्यू पेंटिंग. गहरे लाल रंग का गाढ़ा खून. एक औरत का अधूरा जिस्म. पी नट पेंटिंग. एक फूले पेट वाली औरत . कई सारे घाव रिसते हुए. मवाद का रंग लाल में नीले के साथ मर्ज होता हुआ.और अब ये नयी. ज्यूडिथ बीहैडिंग होलोफर्न्स. इसे देखकर मैं काँप गई हूँ. उसके नीचे वह अनजान नाम \”शरण्या\”, फिर घनी रात में उसका घर से बाहर निकल जाना. अपने फोल्डर के साथ. मौलश्री शराब नहीं पीती पर शरण्या पीती है. मौलश्री दिन में रंगों से नफरत करती है, पर शरण्या उनमें उँगलियाँ डुबोती है. दोनों के बीच बस एक ही बात कॉमन है; ये दोनों मुझसे नफ़रत करती हैं. एल्डन मैं  माँ हूँ. रोज़ इस नफरत को उसकी आँखों में देखती हूँ और सहम जाती हूँ. तुम्हें कुछ बताना चाहती हूँ. बहुत दिनों से सोच रही थी, पर कहाँ से शुरू करूँ ये नहीं जान पा रही थी. एल्डन, इतवार का दिन था. मैं घर की सफाई कर रही थी. मौलश्री और सुगंधा दोनों सिनेमा देखने चली गईं थीं. आलोक हमेशा की तरह लम्बे टूर पर थे. मौलश्री के कमरे से कुछ सामान मिला. वही तुम्हें दिखाना चाह रही हूँ. ये कुछ चित्र और एक डायरी.\”

उसने फ़ाइल खोली
. उसके चेहरे पर तनाव और विस्मय का भाव था. धीमे स्वर में कहा,\” ये तो बड़े अश्लील हैं … और ये फुरकान कौन है ?\”
\”बताती हूँ\”, गहरी सांस भरते हुए उसने कहा. पहले ये डायरी यहाँ से. चार सितम्बर, २००४ इस पेज पर जो लिखा है. हाँ , यहाँ से पढ़ो तब मौलश्री नौ पूरे कर चुकी थी.
रुको…ये टॉर्च. हाँ, अब ठीक से दिख रहा है.  पढ़ो..\”

वह बुदबुदा रहा था
. सिर झुक कर डायरी में फंस गया था.
वह सुन रही थी
. उसने अपना चेहरा हथेलियों से ढांप लिया था, जैसे बरसों का कोई दुःख
ढांप रही हो.

समंदर लिखता गया
:
चार सितम्बर , २००४

डायरी


आज मुझे बहुत बुखार है. शरीर अभी भी तप रहा है. सारे बदन में दर्द है . मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ ? मैं दोपहर से रो रही हूँ. घर में कोई नहीं. मुझे डर लग रहा है. हर आवाज़ मुझे डरा रही है. सुगंधा डे बोर्डिंग से माँ के साथ आएगी. माँ तो रोज़ देर से आती हैं. क्यूरेटर हैं न, बिज़ी रहती हैं.

पापा तुम जापान क्यों चले गए ? क्यों ? पापा, फुरकान चाचा …माँ कहती हैं कि वे कितनी अच्छी ड्राइंग करते हैं. तुम कहते हो कि उनके जैसी कहानी कोई नहीं सुना सकता. पर. आज देखो. उन्हीं फुरकान चाचा ने क्या किया. पापा क्या किया उन्होंने.  वे दोपहर में घर आये थे. उन्होंने बैल बजाई. मैंने की–होल से देखा. चाचा खड़े थे. मैं खूब खुश हुई. अपना बुखार भी भूल गई. मैंने दरवाज़ा खोल दिया. चाचा ने मुझे गोद में उठाया. बोले, \”अरे मौली, तुम तो बहुत गरम हो रही हो. अकेली हो घर पर. सब कहाँ हैं. चलो लेट जाओ कमरे में. मैं तुम्हें चित्र बनाकर दूंगा. कहानी सुनाऊंगा.\”
चाचा ने मेरे लिए चित्र बनाया. पहले भी कई बार बनाकर दिए थे. पर मुझे देखने में वे अजीब लगते थे, इसलिए मैं उन्हें छिपा देती थी. फिर चाचा कहानी सुनाते हुए मेरा सिर सहलाने लगे. मुझे अच्छा लग रहा था. अचानक चाचा ने मुझे गोद में ले लिया. वे मुझे प्यार करने लगे. कहने लगे, \”ला, तेरा बुखार दूर कर दूँ.\” उनके ओंठ मेरे ओंठ पर थे. उन्होंने मुझे कस कर जकड़ लिया. मैं डर गई. मैंने छुडाने की कोशिश की …पर. मैं चीख रही थी. उन्होंने मुझे नहीं छोड़ा.  पापा मेरी फ्रॉक. मैं तुम्हें पुकारती रही. कोई नहीं आया. और चाचा चले गए. मैंने बड़ी मुश्किल से कपड़े पहने.  मैं दर्द से तड़प रही हूँ पापा. अब और नहीं लिख सकती. बाहर लैच की आवाज़.

लगता है माँ आ गईं
. कितनी देर से आयीं. कहीं चाचा तो नहीं. मैं छिप जाती हूँ.
डायरी अब मैं तुम्हें भी छिपा रही हूँ
.हम दोनों छिप जाते हैं.\”

समंदर लिख चुका था और अब केवल मौन छूट गया था किनारे पर
.
कुछ सिसकियों की आवाजें रेत पर फिसल –फिसल रही थीं.

घनी होती सिसकियों में वह बोली , \”एल्डन फुरकान फिर कभी घर नहीं आया
. और\”

\”मत रोइए
. हौसला रखिये. इसे पढ़कर सब खुल रहा है मुझ पर. मैं साईकाट्रिस्ट हूँ. अब मौलश्री के शरण्या होने का मसला समझ आ रहा है. ये डिसोशीयेटिव डिसऑर्डर है. मल्टीपल पर्सनेलिटी. साथ में इम्पल्सिव सिन्ड्रोम. देर नहीं हुई अभी. उसके अवचेतन में ये परछाइयां उसे डराती हैं, तिस पर उसका अकेलापन. लेकिन बीमारी का इलाज नहीं हुआ तो ये खतरनाक हो सकता है. किसी हिंसा में उसे धकेल सकता है..मैं करूँगा उसका. दवाइयां और प्यार भरपूर प्यार. तुम्हें भी समय देना होगा, अरुंधती.\”

\”हाँ
\” वह फफक पड़ी ..

सागर उठेगा अभी
:
मैं उनके सामने खड़ी थी .
वे भौंचक .
सभी नंगी तस्वीरें सागर की लहरों पर बहती गईं .. एकर की लहरों पर बहती गईं .. एक .. दो .. तीन ..
मैंने एल्डन की तरफ देखा .
माँ को भी ..  इस बार प्यार से.  दोनों से कहा,\”आई लव यू\”
समुद्र उठ–उठकर बैठ रहा था. बैठ –बैठ उठ रहा था . मुझसे माफ़ी मांगता लगा वह .
मेरा डॉक्टर.
अब मैं उसकी बांहों में थी.
माँ को दूर जाते देखा मैंने.और बहुत करीब पाया .
बस.
बस.
बस.
सागर अपने नीलेपन से बाहर था अब.
…………………………………………………………………………..

अपर्णा मनोज  : कवयित्री, कथाकार, अनुवादक 
aparnashrey@gmail.com
———————- 
अपर्णा की एक नई कहानी मैवरिक यहाँ पढ़ें …
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