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Home » कथा: राकेश श्रीमाल

कथा: राकेश श्रीमाल

उपन्यास अंश  उपन्यासकार D.H.Lawrence पर लिखते हुए आलोचक F.R. Leavis ने उनके उपन्यासों के लयात्मक वर्णन, काव्यत्मक दृश्यों, पर्यावरण और वातावरण की चर्चा की है.  फणीश्वरनाथ रेणु का मैला आँचल अपनी इन्हीं खूबिओं के कारण आज भी ताज़गी लिए हुए है.  इधर के उपन्यासों में विकट यथार्थ के दबाव से इस लय का स्वर बदला […]

by arun dev
February 5, 2011
in कथा
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उपन्यास अंश 

उपन्यासकार D.H.Lawrence पर लिखते हुए आलोचक F.R. Leavis ने उनके उपन्यासों के लयात्मक वर्णन, काव्यत्मक दृश्यों, पर्यावरण और वातावरण की चर्चा की है.  फणीश्वरनाथ रेणु का मैला आँचल अपनी इन्हीं खूबिओं के कारण आज भी ताज़गी लिए हुए है. 
इधर के उपन्यासों में विकट यथार्थ के दबाव से इस लय का स्वर बदला है. राकेश श्रीमाल अँधेरे से उलझते हैं,यह उलझना खुद से भी है और समय से भी- कुछ इस तरह की इसमें झींगुर की आवाज़ के लिए भी जगह है.    


रजाई 

वह कल फिर चला गया है. मैं फिर से अब केवल अपने पास रह गयी हूँ. घड़ी में समय हमेशा की गति के साथ चल रहा है. मैं आज दफ्तर से जल्दी आ गयी हूँ. मैंने माँ को बताया है कि मेरा सिर दुख रहा है. माँ पतीली में अदरक की चाय चढ़ाकर आयी है. अभी वह मेरे ओढ़ने के लिए जयपुरी रजाई निकाल रही है. दफ्तर से आने के बाद मैंने ठण्डे पानी से पैर धोये थे. उससे मुझे हरारत जैसे लगी थी.


मैं बाहर के कमरे में बिस्तर पर बड़े तकिये के सहारे टिककर बैठी हूँ. मेरे दोनों हाथ मेरे सिर के पीछे है. डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठी छोटी कामिक्स पढ़ रही है. यह लत उसे चाचाजी से लगी है. वह जब भी गाँव से आते हैं, अपनी पुरानी कामिक्स छोटी के लिए ले आते हैं.

माँ ने रजाई निकालकर मेरे पैरों पर डाल दी है. माँ जब भी रजाई मेरे पैरों पर डालती है तो उसकी गर्माहट से मुझे यही लगता है कि जैसे माँ ने ही रजाई में प्रवेश कर लिया है.

माँ ने मुझसे जानना चाहा है कि मैं रात में क्या खाऊँगी. मेरी कुछ भी खाने की इच्छा नहीं है. खिड़की के बाहर दिखते आकाश ने अपना रंग बदलना शुरू कर दिया है. पिछले साल इन्हीं दिनों में एक गिलहरी खिड़की पर एकटक बैठी हुई दिखाई दे जाया करती थी. अब मैंने कितने ही महीनों से गिलहरी को देखा नहीं है. मैंने कभी गिलहरी को याद नहीं किया है. शायद इसीलिए मुझे यह इच्छा भी कभी नहीं रही कि मैं गिलहरी को देखूँ. तब क्या पिछले साल गिलहरी ने मुझे देखना चाहा था और उसी ने मुझसे प्रेम किया था?

उसे भी यह शहर छोड़े एक साल से ज्यादा हो गया है.

माँ ने चाय में अदरक बहुत डाल दिया है. माँ हमेशा सोचती है कि अदरक हर रोग की दवा है. मैं अदरक की चाय पीते हुए माँ को हमेशा कोसती हूँ.

कल शायद इसी समय वह रेल में बैठा हुआ इस शहर को छोड़ रहा था. रास्ते के लिए कुछ सिगरेटें उसकी जब में होंगी और उसकी आँखों में इस शहर में गुज़ारे दिन. माँ मुझसे और आधा कप चाय पीने की ज़िद कर रही है. मै माँ को दो तीन बार मना करने के बाद चिढ़-सी गयी हूँ. मैं रजाई में अपना मुँह छुपाकर दीवार की तरफ़ मुँह करके लेट गयी हूँ. मैं जब भी ऐसा करती हूँ माँ समझ जाती है कि अब मैं किसी से बात करने की इच्छा नहीं रखती हूँ. कमरे में कोई आवाज़ भी मुझे नही चाहिए होती है.

माँ छोटी को भीतर के कमरे में जाने का बोल रही है. मैं और माँ खूब समझती हैं कि मुझे नींद नहीं आ रही है. लेकिन मुझे काफी देर ऐसे ही चुपचाप बिना कोई आवाज़ सुने लेटना अच्छा लगता है.
रजाई में अँधेरे का खेल खेलना मेरी बचपन की आदत है. मैं रजाई को इस तरह अपने आसपास लिपटा रही हूँ जिससे रोशनी आने का कोई रास्ता नहीं बचे. मेरे लिए यह रात का दूसरा प्रहर है और मैं अमावस्या की रात को किसी पहाडी पर चढ रही हूँ. मुझे नर्म रजाई में लेटे हुए बिना किसी खतरे के अपने ही बनाये डर से डरना अच्छा लगता है. मेरे लिए यह एक ऐसा खेल है जिसे खेलते हुए और जहाँ प्रवेश पाकर मैं डर से ही प्रेम करने लगती हूँ.

कभी कभी डरना भी सुखद होता है.

पहाड़ी पर पत्थरों के ढेर, सूखी झाडियाँ और छोटी चट्टानें हैं. मेरे दोनों हाथों की उँगलियाँ उन्हें टटोल-टटोल कर देख रही है. मैं स्पर्श से उन्हें पहचान पाने की चेष्टा में हूँ. शायद मेरी उँगली पर कोई पत्थर गिर गया है. नहीं, किसी कँटीली झाड़ी का कोई काँटा चुभ गया है. मुझे दर्द हो रहा है, बिना यह जाने कि यह किसकी वजह से हो रहा है.

मुझे डर लग रहा है. मैं और सँभल कर उँगलिया रख रही हूँ. मन में दबी इस इच्छा के साथ कि उँगली फिर कहीं फँस जाए.

मैं छोटी छोटी उँगलियों के सहारे पहाडी पर चढ रही हूँ, आँखें ऊपर देख रही हैं. सभी दूर अन्धकार है. एक तारा भी नहीं दिखाई दे रहा है. सब शयन कर रहे हैं, मैं जाग रही हूँ. छोटी भी यही समझती है कि दीदी सो गयी है.

जब सभी कुछ सो जाता है उस समय जागना कितना अच्छा लगता है.

मैं जंगली कीडों की आवाजे सुन रही हूँ. क्या ये जागते हुए आपस में कुछ बात कर रहे हैं? मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूँ. कभी-कभी विचार का होना अपने को कितना छोटा साबित कर देता है. कीडों की आवाजें हमारे लिए ध्वनि के अलावा क्या महत्व रखती हैं? क्या वे कीडे भी हमारी बातचीत, हमारी खुशियों की चीखों और हमारे रोने की घिघियाहट को इसी तरह से लेते होंगे?

भीतर रसोई से कुकर की सीटी की आवाज़ सुनाई दे रही है. यह पहली सीटी है. मेरे न चाहते हुए भी अब मुझे दूसरी और फिर तीसरी सीटी का इन्तजार है क्योंकि वह तय है. लेकिन जो कुछ भी तय नहीं, मुझे उसका इन्तजार क्यों है?

मैंने अपने दायें हाथ की तरफ से रजाई को थोडा ऊँचा किया. ट्यूबलाइट की रोशनी का एक भभका मेरे बनाये संसार में आया और उसे नष्ट कर गया. मैं अपने बनाये संसार को विलोप होते देखती रही. जब तक कुकर की तीन सीटियाँ नहीं बज जातीं तब तक मै अपना संसार पुनः नहीं बसाऊँगी.
रजाई के भीतर छुपे हुए थोडी सी रोशनी के साथ अपनी देह और रजाई के बीच के अन्तराल को देखना मेरे खेल का विश्राम है.

क्या उसका बार-बार इस शहर में आकर मुझसे मिलना अपने विश्राम से बाहर होना है?

हम दोनों अपनी अपनी जगह रहते हुए कौन सा खेल खेल रहे है?

कुकर की दूसरी सीटी की आवाज सुनायी दे रही है. माँ ने कुकर में क्या पकाया होगा? इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है.

मैं कई बार सोचती हूँ कि रजाई से अँधेरे में खेलने के पहले और बाद में जो भी कुछ मैं सोचती हूँ, उसका अर्थ क्या है. लेकिन मैं सोचती हूँ और उसके अर्थ की मुझे परवाह नहीं होती.

क्या इस समय मैं कुकर की उस तीसरी सीटी की आवाज के बारे में सोच रही हूँ जो थोडी ही देर में बज उठेगी?

कुकर की तीसरी सीटी रेल की सीटी से कितनी अलग सुनाई दे रही है. छोटी जब बहुत छोटी थी तब कुकर की इन्हीं सीटियों को रेल की सीटी समझा करती थी और मुझसे उस अदृश्य रेल में बैठने की जिद किया करती थी.

मैं उसकी इस इच्छा को कभी पूरा नहीं कर पायी. छोटी के लिए वह एक इच्छा थी और मेरे लिए बिना देखा हुआ एक सपना.

मैंने रजाई को फिर से पूरी तरह ढँक लिया है. मैं अपने विश्राम से वापस अपने खेल में जा रही हूँ मुझे फिर डर लग रहा है. मैं चाहते हुए भी अधिक देर विश्राम नहीं कर सकती. शायद कोई भी नहीं कर सकता.

मैं सुनसान और अंधेरी पहाडी पर बहुत ऊपर तक चढ गयी हूँ. सब नीचे अपने अपने जीवन के सुख दुख में गुम हैं. क्या उन्हें कभी खुद की याद नहीं आती? अगर आती होती तब कोई तो इस समय मेरे इस डर में मेरे साथ होता. मैं अकेली ही डर रही हूँ और अकेली ही प्रेम कर रही हूँ.

मैं जब मेरे खेल के बाहर अपने विश्राम में होती हूँ तब मुझे कोई प्रेम करता है. बहुत दूर स्थित एक शहर से आकर. मेरे लिए उपहार में खूब सारे रूमाल लेकर आता है और खूब सारे शब्द. कुछ लिखे हुए, कुछ बोले गये. मैं उन्हें चुपचाप पढती और सुनती रहती हूँ.

मुझे यह आज तक समझ नहीं आया कि इसमें मैं उसकी क्या मदद कर सकती हूँ. मुझे शब्दों से नहीं डर से प्रेम लगता है. उसके साथ होने में, उसकी बातों में, उसकी इच्छाओं में और उसके चेहरे पर मेरे लिए ऐसा कोई डर नहीं जो वह मुझे दे सके. वह मुझे डर देने में डरता है और मुझसे प्रेम करता है. मैं उसके प्रेम में डर खोजती हूँ. और नहीं मिलने पर अपने एकान्त में वापस आ जाती हूँ.
अँधेरे पहाड पर उँगलियों के सहारे चढना मेरा एकान्त है. मेरे इस एकान्त को कोई नहीं छू सकता है. मैं खुद भी नहीं.

क्या और भी लोग रजाई के अँधेरे की दुनिया में रहते होंगे? अपने अलग अलग अँधेरे और अलग-अलग इच्छाओं में.

मुझे किसी झींगुर की आवाज सुनायी दे रही है. मेरे कान भी अपने तरफ से इस रजाई की रात को उपस्थित करने में मेरी सहायता करते हैं. यह झींगुर की आवाज की स्मृति है जिसे मैं केवल आवाज की तरह ग्रहण कर रही हूँ. बचपन में गर्मी की छुट्टियों में जब मैं जब मैं नानी के गाँव जाया करती थी तब वहाँ रात को घर के बगीचे में कितने सारे झींगुरों की आवाजें सुनाई देती थी. उस समय नानी मुझे किसी सफ़ेद परी की कहानी सुनाती थी. उन्हें सफेद परी की ढेरों कहानियाँ याद थी.मान लूँ, अगर सफेद परी मुझे इस समय मिल जाए तो मैं उससे क्या बात करूँगी? पर क्या वह मुझसे बात करना चाहेगी?

क्या अँधेरे में अगर मेरी तरह कोई अन्य भी सफेद परी को खोज रहा होगा और मुझे देख अगर वह मुझे ही सफेद परी समझ बैठे , तब क्या होगा? क्या अँधेरे संसार के अपरिचित बात भी करते हैं?
इस अँधेरे में अगर मेरी तरह कोई अन्य भी सफेद परी को खोज रहा होगा और मुझे देख अगर वह मुझे ही सफेद परी समझ बैठे, तब क्या होगा?

क्या मैं उससे बात करना चाहँगी जो मुझे सफेद परी समझ रहा है?
क्या यही वह कारण तो नहीं कि वह जब भी इस शहर में होता है मैं उससे बहुत कम बात कर पाती हूँ.

क्या मैं उसके सामने अपने को सफेद परी समझती हूं या वह मुझे सफेद परी की तरह देखना चाहता है…….. और उसकी इस अनकही इच्छा को मेरा अन्तर्मन स्वतः ही समझकर उसे मेरी चुप्पी के रूप में प्रस्तुत करता है?

इस रजाई के अँधेरे में कितनी ही दूर तक निकला जा सकता है.
अँधेरे के बाहर रोशनी में छोटी पापा की थाली लगाते हुए उन्हें आवाज लगा रही है. पापा अपने कमरे में बैठे हैं.

रजाई के भीतर का अँधेरा जैसे घर के पीछे वाले बरागद के अँधेरे में घुल गया है. पीछे के बरामदे में शाम के बाद कोई नहीं जाता. इसलिए वहाँ लाइट भी नहीं जलायी जाती.

बाहर बिखरी रोशनी को मैंने अभी तक रजाई में आने की इजाजत नहीं दी. क्या रोशनी और अँधेरे के बीच भी कुछ होता है? शायद हमारा मन….. कभी रोशनी में चकाचैंध होता हुआ, कभी अँधेरे में दुबका हुआ. लेकिन रोशनी में अँधेरे की स्मृति को जीता हुआ और अँधेरे में रोशनी को अँगूठा दिखाता हुआ.

रजाई के अँधेरे में बैठी हुई मैं अपने को अँधेरे की आँख से देख रही हूँ. मुझे अँधेरे और उससे उत्पन्न डर से प्रेम हो रहा है. मैं अँधेरे में शरमा रही हूँ, अँधेरे से ही. अँधेरा मुझे छू रहा है, मैं अपने में ही सिकुड़ रही हूँ. अँधेरे ने मेरी देह के हर हिस्से पर अपना अधिकार जमा लिया है. वह मेरी पूरी देह में विलीन हो गया है. मेरी हथेलियाँ, मेरी कुहनियाँ, मेरे कन्धे, मेरे होंठ मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है. उन सबके होने की अनुभूति मुझे अँधेरे के स्पर्श से हो रही है. मेरी साँसों से अँधेरा मेरी देह के भीतर प्रवेश कर रहा है. मेरी धमनियों में अँधेरे ने अपना घर बना लिया है. मैं निस्पन्द सो रही हूँ. रह-रहकर अँधेरा कन्धों पर बिखरे मेरे बालों पर धीरे-धीरे सरक रहा है. मेरे कानों में आकर अपने होने की लोरी गा रहा है. मेरे होंठ अपनी जगह पर रहते हुए अँधेरे को चूम रहे हैं. अँधेरे और होंठों के बीच केवल स्पर्श शेष रहा है. हवा जैसे वहाँ से कहीं दूर भाग गयी है.

रजाई के अँधेरे ने मेरी लेटी हुई देह को अपने हाथ मे किसी रुई-सा उठा लिया है. उसके हाथ में मेरी देह पैरों को दोनों हाथों से बाँधे हुए बैठी हुई है. अपने को देखने की कोशिश में मेरी आँखें अँधेरे में मेरी देह से जैसे ही बाहर निकली, उसके हाथ से फिसलकर नीचे गिरने लगी. अब मेरी आँखे अपने आप को गिरता हुआ देख रही है. मैं उन्हें पकडने का सोच रही हूँ लेकिन उसके लिए कुछ नहीं कर रही हूँ. अँधेरे के हाथ से गिरकर मेरी आँखें तेजी से रोशनी में गिरती चली जा रही हैं. वहाँ पापा डाइनिंग टेबल पर बैठे भोजन कर रहे हैं. छोटी उन्हें परोस रही है. माँ पूजा के आले में अगरबत्ती लगा रही है. टेबल पर रखे आज के अखबार अपने को अन्तिम बार पढे जाने की उम्मीद में अधजगे बिछे हुए हैं. मैं कहीं नहीं हूँ. रजाई मुझे अपने अन्दर समेटे हुए है. मेरी आँखें तकिये के पास आकर गिर गयी है. रजाई से अपनी देह को बाहर निकालकर डाइनिंग टेबल पर बैठते हुए मै पापा से पूछ रहीं हूँ ‘‘पापा, आप तिल कब लेकर आएँगे, अगले गुरुवार मकर संक्रान्ति है.’’ पापा मुस्कुरा रहे हैं. माँ पास आते हुए बोल रही है कि पापा दोपहर को तिल ले आये हैं, मैने उसे बीन भी ली है.
मैं अपने सीधे हाथ की एक उँगली से टेबल पर अपना अदृश्य नाम लिखते हुए सोच रही हूँ कि कल दोपहर मैं तिल के लड्डू बनाऊँगी.


राकेश श्रीमाल : कवि,कथाकार,संपादक 

उपन्यास : अक्खी मुंबई     
एक और धीरूभाई,जो मुंबई में रहता है/काला घोड़ा और कला के सवार/मिस नीबू पानी और मारियो मिरांडो/होना मन का तर बतर होना

Tags: कहानी
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