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Home » कथा-गाथा : वह दूसरा : जया जादवानी

कथा-गाथा : वह दूसरा : जया जादवानी

                                       वरिष्ठ कथाकार जया जादवानी की कहानी ‘वह दूसरा’ प्रस्तुत है. जया अपनी कहानियों में अस्तित्वगत प्रश्नों को उठाती रहीं हैं. यह कहानी खुद को आईने में देखने जैसा है. जीवन जीते हुए हम कब खुद से अलग हो जाते हैं पता ही नहीं चलता. वह दूसरा                  जया […]

by arun dev
May 8, 2020
in कथा
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वरिष्ठ कथाकार जया जादवानी की कहानी ‘वह दूसरा’ प्रस्तुत है. जया अपनी कहानियों में अस्तित्वगत प्रश्नों को उठाती रहीं हैं. यह कहानी खुद को आईने में देखने जैसा है. जीवन जीते हुए हम कब खुद से अलग हो जाते हैं पता ही नहीं चलता.


वह दूसरा                 
जया जादवानी  
   

    



जब से हमने होश संभाला है, हम हमेशा साथ ही रहते रहे हैं. साथ खाना-पीना. उठना-बैठना-सोना, लड़ना-झगड़ना, रूठना-मनाना भी. यहाँ तक कि जब एक आम के पेड़ पर चढ़ आम तोड़ रहा होता तो दूसरा झोली फैलाए नीचे खड़ा होता. क्लास में जब एक को बाहर खड़े रहने की पनिशमेंट मिलती तो दोनों साथ खड़े हो जाते और जब बदमाश लड़कों से एक को मार पड़ती तो दोनों रोते. बदला लेने जाते तो कमज़ोर होने की वजह से दोनों पिटते, दोनों हारे से घर लौटते और अगले दिन दोनों भूल जाते. बचपन से लेकर जवानी इसी मौज में बीत गई, जो है, न उसको लेकर ख़ास ख़ुशी, जो नहीं है, न उसको लेकर कोई ख़ास ग़म. यह नहीं कि हममें कभी झगड़ा नहीं हुआ, हुआ बहुत बार, कई-कई दिन हमने एक-दूसरे से बात नहीं की, दूर-दूर रहे पर कभी जुदाई का अहसास तक नहीं हुआ. दिन-दिन भर हमने एक-दूसरे के बगैर सब कुछ खाया पर भरा नहीं पेट और आख़िरकार हम ढूंढ़ ही लेते एक-दूसरे को.

हममें से कोई भी कभी भी बात शुरू कर सकता है बगैर झिझके या बगैर किसी शिकायत के और हमने की भी.  हमारे भीतर किसी ने इतनी जगह नहीं घेरी थी, जितनी हमने एक-दूसरे की पर तब तक हम इसे ज़ाहिरा नहीं जान पाए थे, जब तक मेरे जीवन में एक लड़की नहीं आ गई. 

जीते हम तभी तक हैं, जब तक कोई वजह आकर शामिल नहीं होती जीवन में, एक बार वजह मिल गई तो फ़िर जीना भूल उसी के इर्दगिर्द चक्कर काटने को ही जीना मान लेते हैं. कालेज में पढ़ते-पढ़ते जैसा कि आम तौर पर होता है, मैंने और उस लड़की ने कम्पूटर साइंस का एक प्रोजेक्ट साथ किया था और अब जीवन के प्रोजेक्ट की बाबत विचार कर रहे थे. ज्यादा से ज्यादा वक्त हम साथ बिताते, कालेज में मिलते तो कालेज से बाहर मिलने की ख्वाहिश, बाहर मिलते तो अगले दिन मिलने की ख्वाहिश, हाथ पकड़ते तो साथ बैठने की, साथ बैठते तो प्रेम कर लेने की , वह भी कर लेते तो कुछ और करने की. हम यह सिलसिला तोड़ना नहीं चाहते थे और यह सिलसिला न टूटे इसके लिए हम मैरिज कर लेना चाहते थे हालांकि मैरिज भी मैं ही करना चाहता था, वह नहीं. वह ‘लिव-इन’ की हिमायती थी ताकि रास्ते खुले रहें और हममें से कोई भी कभी भी निकल सके और मैं उसे निकलने का कोई अवसर नहीं देना चाहता था.

वह एक हाई क्लास लड़की थी और हाई क्लास की लड़कियां इश्क नहीं करतीं, वे एक शौहर तलाश करती हैं, जो उनकी जिस्मानी और ज़ज्बाती ज़रूरतों को एक पपेट बनकर पूरा कर सके और दिन भर ‘जानू-जानू’ कहता उनके पीछे फिरता रहे. वे किसी दकियानूसी मर्द के अंगूठे तले ज़िंदगी बसर नहीं कर सकतीं. मैं यह जानता था फ़िर भी उसे चाहता था. शायद हर मर्द की यह आरज़ू होती है कि वह औरत को उसकी पटरी से उतारे और अपने रास्ते ले चले.   


जीने की इस सारी आपाधापी में मैं उसे भूल ही बैठा था. उसने भी मेरे पास आना छोड़ दिया था. वह भी समझ गया था, मेरे वक्तों का हिसाब कोई और रखने लगा है. जाने क्या बात है, लड़कियां अपने प्रेमियों को पूरा निगल जाना चाहती हैं, वह एक कौर तक किसी और को नहीं देना चाहतीं, भले उस थाली में कीड़े पड़ जाएं और वह किसी के खाने लायक न रहे. औरत की ज़हनी और ज़ज्बाती भूख मिटाने में ही एक मर्द की ज़िंदगी ख़तम हो जाती है. ये उसकी बदनसीबी है, जिसे वह अपनी खुशनसीबी मान हँसता चला जाता है … 

मुझे उसका अभाव खलता था, मैं हर रोज़ सोचता था कि आज घड़ी भर उसके साथ बैठूँगा पर मेरी सारी घड़ियों का टाइम तो वह लड़की मिलाती थी. मुझे पता ही नहीं चला कब मैंने अपना वक्त उसके पास गिरवी रख दिया, जिसे मैं कभी छुड़ा न पाया.  
कॉलेज के साथ ही मुझे जल्दी ही जॉब भी मिल गई. मैकेनिकल इंजीनियरिंग के आखिरी साल मेरा सलेक्शन कालेज कैम्पस में ही हो गया. मुझे खुश होना चाहिए था पर मुझसे ज्यादा वह लड़की खुश थी. उसका भविष्य सिक्योर था. उसकी जॉब सर्चिंग चल ही रही थी कि हमने घरवालों को तैयार कर लिया और आख़िरकार हमने शादी कर ली.
    
यह तो बहुत बाद में समझ आता है कि न शादी का मोहब्बत से कोई ताल्लुख है, न मोहब्बत का शादी से. जब हम जबरदस्ती दोनों को जोड़ देते हैं तो वहां एक गाँठ बन जाती है और रफ़्ता-रफ़्ता यही गाँठ कैंसर बन जाती है, जिसे काट कर फेंक देने के बावज़ूद तुम्हारे बचने की कोई गारंटी नहीं. वैसे भी जिस्म की जन्नत कुछ सालों में बहुत बोसीदा हो जाती है और हम खुद को उसके कैदी समझने लगते हैं पर कैदी समझना और कैद से निकलना दो अलग बातें हैं. 

तुम इस कैद से निकलना भी चाहो तो भी जिस्मानी आदतें तुम्हें इसमें सफल नहीं होने देंगी. जिस्म तो एक ऐसा बियाबान है, जहाँ जितना भी चलो, रास्ते कभी ख़त्म नहीं होते, इस मुख़्तसर सी देह के रास्ते इतने तवील होते हैं कि अंततः हम चलते-चलते ‘चल’ ही देते हैं.

यह जीवन का एक बना बनाया फ्रेम था, जिस पर औरों की तरह मैं भी चल पड़ा था. हममें से बहुत इसके आगे नहीं सोच पाते या नहीं सोचना चाहते ….. एक अच्छा सा घर, एक अच्छी फैमिली, अच्छी शादी, अच्छे बच्चे, उनका अच्छा सा सेटलमेंट फिर अपने बुढ़ापे का अच्छा सेटलमेंट और अच्छी मृत्यु. यह ‘अच्छा’ लफ्ज़ हमारे जिस्म के घोड़े के लिए बहुत बुरा साबित होता है. हम हमेशा किसी हंटर की ज़द में होते हैं. सहो और चुप रहो. यह नहीं कि इस बोरडम की बाबत मैं नहीं जानता था, उसने मुझे बहुत पहले यह चेतावनी दे दी थी कि बनी-बनाई राह पर चलने से हम कहीं नहीं पहुंचेंगे. 

हमें तो दरअसल अपनी ही बनाई राह पर चलना है. पर अपनी बनाई राह? कौन सी? और क्या बनाना है? ये जो जीवन हमें मिला है, उसी को ठीक से जी लें, ग़नीमत है. मैं उसकी बात सुनने के लिए तैयार नहीं था. उसकी आँखों के सवाल मुझे परेशान करने लगे थे. मैं उससे खुद कन्नी काट लेता था.
अब मैं अपनी लाइफ़ बनाने में मुब्तला हो गया. मेरी पत्नी की जॉब लग गई तो हमने अपना घर बुक कर लिया. बैंगलोर में एक फ़्लैट लेना यानी उसकी किस्तों के लिए दिन-रात एक करना. आधी किश्तें उतार पाए कि बच्चा भी प्लान कर लिया गया क्योंकि हमारी शादी को दस साल हो गए थे. वह आया तो उसके लिए सहूलियतें इकठ्ठी करने में लग गए, एक बच्चा यानी बीस-पच्चीस साल का प्रोग्राम. सच कहें तो हमारे पास वक्त बच्चे के लिए भी नहीं था पर हम अपनी आखिरी बूँद तक निचोड़ कर उसे दे देना चाहते थे और हमने दी भी. 

इस आपाधापी में भी कभी-कभी वह याद आता, जो कहता था, अपनी ‘अना’ को अपना मालिक मत बनाओ. बाहरी मकसद ‘अना’ को मजबूत बनाते हैं. जीवन जीने का नाम है. इसे सफ़लता के तराज़ू में तौल कर नष्ट मत करो. अब कोई बताए, बचपन से ही सफ़लता का जिस तराज़ू के एक तरफ़ हमें बिठा दिया जाता है, दूसरी तरफ़ हमारी दुनियावी उपलब्धियों को, उससे उतरने का साहस हम कहाँ से लाएं?   
तो इस ज़िंदगी के टूटे हुए गिटार की तारें जोड़ने-बैठाने में ही हमारा बहुत वक्त ज़ाया हो रहा था. एक तार कसते तो दूसरी आहें भरने लगती और गिटार बेसुरा होने लगता. हालाँकि मुझे याद नहीं कि एक सही धुन निकालने में मैं कब कामयाब हुआ पर कोशिश मैं दिलो-जान से कर रहा था. कोशिशें ही तो आखिरकार थका देती हैं, जब वो सिर्फ़ बाहरी होती हैं और उनमें हमारा मन शामिल नहीं होता. फ़िर ऐसा होने लगा कि तारें ढ़ीली होते-होते टूटने लगीं और वह मन भी मरने लगा जो अभी तक पेचकस हाथ में पकड़े इस सितार की निगहबानी कर रहा था. पेचकस मेरे हाथ से गिर गया.    
इस बीच वह कहाँ चला गया, मैं जान ही नहीं पाया. वह मुझसे नाराज़ होगा यह जानता था पर यह भी जानता था वह मुझे छोड़ कर नहीं जाएगा. और बच्चा होने के बीस साल बाद जब वह हायर स्टडी के लिए बाहर चला गया तब मैं जैसे किसी गहरी नींद से जागा. मैं अपना साठवां बरस पार कर गया था और फेन छोड़ते घोड़े की तरह हांफ रहा था, कई बीमारियाँ गले लगा चुका था और अब कहीं थम जाना चाहता है.
बरसों बाद अब वह मुझे शिद्दत से याद आ रहा है. मैं उसे ढूंढता हूँ पर वह मुझे दिखाई नहीं देता. कई संभावित जगहों पर उसे जांचने की कोशिश की, नहीं मिला. क्या हुआ? क्या अकाल मृत्यु का शिकार हो गया? मुझे बिना बताए? नहीं, मैं नहीं मान सकता. और मैं उसे ढूंढता रहा, ढूंढता रहा, ढूंढता रहा. जब वह आसानी से मुझे मिल रहा था, मैंने उसकी कदर नहीं की और अब? मेरी पत्नी भी नहीं समझ पा रही थी कि मुझे आखिर चाहिए क्या?

वह बदस्तूर अपनी जॉब कर रही थी और अपनी कंपनी की सी.ई.ओ. बनकर अपने हासिलात पर खुश थी. इस ख़ुशी में वह फैलकर मोटी हो गई थी, पराग सारा झर चुका था और झर रही सूखी पत्तियां रोज़ सुबह हमारे बिस्तर पर पड़ी मिलती थीं, जिन्हें उठाकर चुपचाप अपने भीतर के डस्टबिन में गिरा देता था. सिर्फ़ यही नहीं भीतर न जाने कितनी आंधियां शोर मचातीं थीं और मैं इस अंधड़ से हर रोज़ दो-चार होता था. मेरी बीमारियाँ बढ़ती ही जा रहीं थीं और आखिरकार मैंने अपनी जॉब छोड़ दी और राहत की सांस ली. तब तक बहुत कुछ टूट चुका था जिसे अब रिपेयर भी नहीं किया जा सकता. दो कदम चलते ही मेरी सांस फूलने लगती और मैं वहीँ बैठ जाता. फिर मैं जल्दी ही जान गया यह एक बेचैन सांस है जो जाने कब टूट जाए और इसके पहले कि टूट जाए, मैं उसे ढूंढ लेना चाहता हूँ.
वक्त हमारे सारे दिन ले लेता है और हमें मुट्ठी भर लम्हे दे देता है. उसके साथ बिताए लम्हे मेरी हथेलियों में रेत से गड रहे हैं. वे अंदर ही अंदर ज़ख़्मी होती जा रही हैं. कुछ झर रहा है आहिस्ता-आहिस्ता, जीवन से, आसमान से, पेड़ों से, हवाओं से, हर सांस से, कुछ झर रहा है, मेरी बीबी ने मेरा टाइम लेना और देना दोनों छोड़ दिया है.
वह अधिकतर अपने दोस्तों के साथ शराब और सिगरेट पीते वक्त गुज़ारती है, बाहर खाना खाती है और लौटते में मेरे लिए भी कुछ ले आती है. कभी खाता हूँ, कभी नहीं खाता. मेरी भूख सचमुच मर चुकी है, मेरे अंदर का बहुत कुछ मर चुका है. मेरे पास व्यर्थ हो रहा वक्त का वह टुकड़ा है, जो किसी को नहीं चाहिए, खुद मुझे भी नहीं. 

मैं बहुत धीरे-धीरे अपने भीतर एक पुरानी दीवार सा ढहता जा रहा हूँ, किस अतल-तल में, पता नहीं. और अब आहिस्ता-आहिस्ता मैं उसे भूलता भी जा रहा हूँ,  वह जैसे किसी और जन्म की बात हो, अब मैं जान गया हूँ कि मैंने उसे खो दिया है. अब अकेली और हारी हुई मृत्यु निश्चित है, मैं बिस्तर से लग गया. मेरी नींद उड़ चुकी थी और कोई भी दवा असर नहीं कर रही थी. झाड़-झंखाड़ सी मेरी सफ़ेद दाढ़ी, जिसे आदतन खुजलाता हुआ मैं न जाने क्या ढूँढा करता था.

एक दिन मेरी बीबी ने सख्त हिदायत दी कि आज डॉ. के यहाँ अपाइंटमेंट है, कमअज़कम ये खसरा दाढ़ी तो बना लूँ. मुझे आदमी बनाने की अपनी व्यर्थ कोशिशों पर वह अक्सर रोती है. तब मैं उसे चुपचाप देखा करता हूँ. मैंने अपने आंसुओं की कभी उससे बात नहीं की. यह शायद मेरा आख़िरी अपाइंटमेंट हो, सोचकर उठा और किसी तरह उठकर आईने के सामने खड़ा हो गया. मेरी आँखें मेरी आँखों को नहीं, दाढ़ी को देख रही हैं, झूलती त्वचा और आँखों के आसपास की सांवली झुर्रियां देख रही हैं. जो अवयव अपने पैरों पर खड़े थे, वही पैरों के पास ढेर हो गए हैं. 

मैं कांपते हाथ से दाढ़ी बनाने के औज़ार से जूझ रहा हूँ कि बहुत गहरा कट लग गया. खून की कुछ बूंदें बेसिन में टपक पड़ीं, मैं चौंक कर जैसे किसी नींद से जागा, और खुद को आईने में ध्यान से देखा, अचानक मुझे वह दिखाई दिया, आईने में मेरी दो बूढ़ी आँखों में से झांकता, बिल्कुल उसी तरह मुस्कराता, उतना ही जवान, तना ही जीवंत, उतना ही मासूम, उसने मेरी आँखों में अपनी आँखें मटकाईं और मेरे हाथों से दाढ़ी बनाने का औज़ार गिर पड़ा, मेरे मुंह से एक चीख निकल गई और मैं वहीँ लडखडाता गिर पड़ा, मेरी आँखों से नदी बह रही है और वह मानो किसी बोट पर बैठा दूर जाता लग रहा है, उसे रोकने को मेरे होठों से कुछ लफ्ज़ निकले जो मेरे गले की कीचड़ में फंस कर खो गए.
__________

जया जादवानी
रायपुर


 मैं शब्द हूँ, अनन्त भावनाओं के बाद भी, उठाता है कोई एक मुट्ठी ऐश्वर्य (कविता संग्रह)

मुझे ही होना है बार-बार, अन्दर के पानियों में कोई सपना काँपता है, मैं अपनी मिट्टी में खड़ी हूँ कांधे पर अपना हल लिए (कहानी संग्रह)

तत्वमसि; कुछ न कुछ छूट जाता है; मिट्ठो पाणी, खारो पाणी (उपन्यास) आदि
jayasnowa@gmail.com
                       

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