हिंदी कविता का परिसर विस्तृत है. इसमें से प्रभा मुजुमदार, अशोक सिंह और संतोष अलेक्स की कविताओं पर राहुल राजेश का यह आलेख प्रस्तुत है.
कविता का प्रक्षेत्र : प्रभा मुजुमदार, अशोक सिंह, संतोष अलेक्स
राहुल राजेश
अभी हिंदी कविता में सुदूर उत्तर से दक्षिण तक और सुदूर पूरब से पश्चिम तक एक साथ अनेकानेक कवि सक्रिय हैं. अनेक कवि जहाँ फेसबुक पर सक्रिय या अति सक्रिय हैं तो वहीं अनेक कवि चुपचाप रचनारत हैं.
इन अनेकानेक कवियों की कविताओं में विविध स्वर मुखर हैं. जहाँ अनेक कवियों की कविताओं में प्रतिरोध का स्वर मुखर है तो वहीं कई कवियों की कविताओं में प्रेम का स्वर मुखर है. उदाहरण के लिए, अभी समकालीन परिदृश्य में प्रेमशंकर शुक्ल एक ऐसे अलहदा कवि हैं जिनकी कविताओं में प्रेम का स्वर मुखर है. लेकिन यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित और आवश्यक होगा कि वह श्रम और संघर्ष के दाम्पत्य से उपजे प्रेम के कवि हैं. उनकी कविताओं में प्रेम की कोरी रूमानियत नहीं है बल्कि पसीने और मानवीय परस्परता के बीच धड़कते विनम्र प्रेम की आँच है.
ठीक ऐसे ही, अनेक कवियों की कविताओं में वर्तमान सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर अत्यंत मुखर है और वे मानते हैं कि कविता सीधे-सीधे प्रतिरोध का पर्याय है. इनमें भी कुछ कवियों के तेवर इतने आक्रामक हैं कि वे एकदम आग उगलते नजर आते हैं. वहीं कुछ कवियों के कहने का ढंग बहुत बारीक है और वे देश-काल के बड़े फलक को अपनी कविता में बड़े सलीके से समेट लेते हैं.
जहाँ आक्रामकता से भरी कविता अक्सर तात्कालिक प्रतिक्रिया से आगे नहीं बढ़ पाती और अखबारी लहजे में लिखे जाने के कारण अगले दिन ही अखबार की तरह बासी हो जाती है, वहीं बहुत संयम के साथ और पार्टी लाइन से ऊपर उठकर वृहत्तर चिंता को केंद्र में रखकर लिखी गई कविता लंबे समय तक अपनी तासीर नहीं खोती और किसी विचारधारा विशेष के हठी पूर्वाग्रहों से सायास मुक्त होने के कारण अपनी विश्वसनीयता बनाए रखती है.
(2)
यहाँ इसी संदर्भ में मैं एक ऐसी कवयित्री का भी उल्लेख करना चाहता हूँ जो चुपचाप रचनारत रहती आई हैं और बहुत दृढ़ता के साथ अपना प्रतिरोध भी दर्ज करती आई हैं. वह हैं प्रभा मुजुमदार. यहाँ यह भी उल्लेख करना मानीखेज होगा कि वह बखूबी जानती हैं कि प्रतिरोध और अंधविरोध में बारीक लेकिन बड़ा फर्क होता है. इसलिए वे अपनी कविता में अपने प्रतिरोध के स्वर को अंधविरोध के प्रलाप-विलाप में कभी विगलित नहीं होने देतीं. चूंकि वह किसी पार्टी लाइन या किसी खास खेमे से बंधी हुई नहीं हैं और न ही यश-ख्याति की चाह में कभी उनकी तरफ मुखातिब हुईं, इसलिए उनकी कविताओं पर ऐसा करने या दिखने का दबाव भी नहीं है. चूंकि स्त्री होने मात्र से ही किसी \’फेमिनिस्ट\’ खेमे की शागिर्द बन जाने के लालच से भी वह बची रहीं, इसलिए उनकी कविता सिर्फ \’स्त्रीवादी\’ हो जाने से भी बची रही.
आरंभ से ही गणित और विज्ञान की विद्यार्थी रहीं और पेशे से ओएनजीसी में वैज्ञानिक रहीं प्रभा मुजुमदार के अब तक चार कविता-संग्रह आ चुके हैं. \’अपने-अपने आकाश\’, \’तलाशती हूँ जमीन\’ और \’अपने हस्तिनापुरों में\’ के बाद उनका चौथा और बिल्कुल ताजा संग्रह ‘सिर्फ स्थगित होते हैं युद्ध’ अभी मेरे हाथ में है. परिदृश्य प्रकाशन, मुंबई से प्रकाशित उनके इस चौथे संग्रह में उनके प्रतिरोध का स्वर उनके पिछले संग्रहों की तुलना में और तीखा हुआ है क्योंकि समय भी अब कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण हुआ है. इस संग्रह की कविताओं से पहले उन्होंने जो छोटी-सी भूमिका लिखी है, वह मेरी नज़र में उनकी कविताओं से भी अधिक महत्वपूर्ण है और पूरे देश-काल पर एक सारगर्भित टिप्पणी भी है. इसी में हम उनके इस संग्रह के शीर्षक का उत्स और उनके लिखते रहने की वजह भी पा सकते हैं.
वह अपनी भूमिका में लिखती हैं कि युद्ध देश की संप्रभुताओं पर ही खतरा नहीं है, वरन वह मानवीय गरिमा और संवेदनाओं पर भी आक्रमण है. और इसलिए वह इस युद्ध के ख़िलाफ़ युद्धरत हैं. वह सीधे स्वीकारती हैं-
\”…कौन-सी जरूरत मुझ जैसे महत्वहीन, अप्रसिद्ध, लगभग अपरिचित लेखक को लिखने के लिए विवश करती है? शायद यह, जीने के दौरान उपजी बेचैनी, टीस, बौखलाहट, प्रतिरोध और विद्रोह है.\”
उनकी पहली कविता ही उनकी इस बैचैनी और जिद को जाहिर कर देती है-
\”लिखूँगी तो जरूर मैं
बहेलियों के जालों में
छटपटाते निरपराधों पर
माफिया, बिचौलियों, हत्यारों के साथ
माननीयों की हिस्सेदारी पर
बहरूपियों के अभिनय और
ठगने के कौशल पर.\”
(लिखूँगी तो जरूर)
हाँ, वह स्वीकार करती हैं-
\”मेरे पास सेनाएँ नहीं
संबल है
जागीरें, धरोहरें, वसीयतनामे नहीं
कुछ संकल्प और स्वप्न हैं.\”
(संबल)
और उनका यह पूरा संग्रह ही उनके इसी संकल्प और इन्हीं स्वप्नों का विस्तार है, जो इस दुनिया को और बेहतर बनाने की एक ईमानदार जिद और जुनून से लबरेज है. और शायद इसीलिए उनके प्रतिरोध का स्वर स्वांगपूर्ण या राजनीतिक नहीं, वरन नैतिक और नैसर्गिक है.
144 पृष्ठों के इस पेपरबैक संग्रह में कुल 65 कविताएँ हैं और उन सबसे गुजरते हुए लगता है कि ये सभी कविताएँ एक बेचैनी, एक आवेग में लिखी गई हैं, एक रौ में लिखी गई हैं. इसलिए हर अगली कविता पिछली कविता का विस्तार लगती है. इसलिए कुछ कविताएँ भाव में सघन होने के बावजूद कहन में बिखर गई हैं, कुछ लंबी हो गई हैं; वहीं कुछेक अनावश्यक विस्तार और दुहराव का शिकार हो गई हैं. लेकिन इसके बावजूद उन कविताओं में अंतर्निहित जीजिविषा इतनी तीव्र और मर्मस्पर्शी है कि हर कविता हमें अगली कविता का सिरा पकड़ा देती है!
उनकी एक लंबी लेकिन महत्वपूर्ण कविता है- \’सदी के महामार्ग पर\’. इसका आरंभ ही इस तरह होता है-
\”बहुत जरूरी है कि
आग में हो
कम से कम इतनी आग
कि मशाल की तरह करे
अँधेरे कोनों को प्रदीप्त,
यूँ ही ना बिखर जाए
छोटी-छोटी चिंगारियों में.\”
आगे वह लिखती हैं-
\”बचा रह सके
आईने के भीतर इतना आईना,
न डरे न झिझके
और सच-सच कह सके
आँखों में झांक कर
कि असली चेहरा कैसा है!
कलम में बसी हो
थोड़ी-सी कलम
जो न डराई जा सके
न खरीदी, न बहलाई
पत्थरों को भी थोड़ा-सा भिगो सकें
इतना तो बचे रहें
आँसुओं के भीतर आँसू,
न कि सिर्फ अपनी आँखों को
धुँधला करके छोड़ें.\”
और अंत में वह लिखती हैं-
\”सदी के महामार्ग पर
बेचैन और बदहवास
उद्विग्न और निराश
दौड़ते, हाँफते, धकियाते
खुदगर्ज पलों के बीच,
सिर्फ एक पल
आग, हवा और पानी
आकाश और धरती
धूप, बारिश और हरियाली के नाम.
जरूरी है न यह
अपने को बचाए रखने के लिए.\”
और ऐसा एक-एक बेशकीमती पल बचाना इसलिए भी और जरूरी हो गया है क्योंकि-
\”पुल इन दिनों चरमराने लगे हैं.
संवादों के पुल
विश्वास और सद्भावों के
छोटे-बड़े कितने ही पुल
ध्वस्त कर दिए गए,
किनारों के वैमनस्य बढ़ते जा रहे हैं.\”
(पुल)
जाहिर है, उन्हें मालूम है कि अब बड़ी मुश्किल है डगर. लेकिन उनकी ये कविताएँ यह विश्वास दिलाती हैं कि वर्चस्व, श्रेष्ठता, शौर्य, अहंतृप्ति, धनपिपासा, बाजार और अंततः पूरी दुनिया पर एकाधिकार जमाने के जुनून में मनुष्यता को अनवरत लीलते जा रहे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष युद्धों के विरुद्ध उनका यह प्रतिरोध-युद्ध भी अनवरत जारी रहेगा. क्योंकि उन्हें यह भी मालूम है कि-
\”अंतिम नहीं होती
कोई हार
कोई भी जीत
निर्विवाद नहीं होती
सिर्फ स्थगित होते हैं युद्ध
खत्म नहीं होते कभी.
एक युद्ध का परिणाम
अक्सर निर्धारित करता है
आगामी जंग का आरंभ.\”
(सिर्फ स्थगित होते हैं युद्ध)
हाँ, उनके प्रतिरोध का स्वर इतना शुष्क नहीं कि वहाँ कोमल भावनाओं की गुंजाइश ही नहीं बची हो! इस लिहाज से \’यादें\’, \’तुम्हारे आकाश में\’, \’नि:सीम विस्तार में\’, \’स्थानांतरण पर\’ और \’इसी धरती पर\’ सरीखी कविताएँ संघर्ष के बीच प्रेमिल विश्रांति जैसी प्रतीत होती हैं.
(3)
जैसे प्रभा मुजुमदार की कविताओं में प्रतिरोध का स्वर मुखर है, वैसे ही अशोक सिंह की कविताओं में प्रेम का स्वर मुखर है. जैसे प्रभा मुजुमदार फेसबुक पर सक्रिय नहीं है, वैसे ही अशोक सिंह भी फेसबुक पर सक्रिय नहीं हैं. चूंकि अशोक सिंह मेरे ही गृहनगर के हैं और मेरे मित्र हैं, इसलिए मैं उनके कविकर्म से पिछले दो दशकों से अवगत हूँ. पिछले वर्ष उनका पहला कविता-संग्रह ‘कई-कई बार होता है प्रेम’ बोधि प्रकाशन, जयपुर से छपकर आया है और लोग उन्हें सराह भी रहे हैं.
संग्रह के शीर्षक से ऐसी प्रतीति होती है कि अशोक सिंह के जीवन में कई-कई बार प्रेम का आगमन-अवतरण हुआ है. या कहें कि उनके जीवन में प्रेम का अनवरत प्रवाह रहा है या फिर वही प्रेम की निरंतर, अनवरत यात्रा में हैं. प्रेम की अनवरत यात्रा में होना या जीवन में प्रेम का अनवरत बना रहना- दोनों ही स्थितियों में मनुष्य समृध्द ही होता है. इस अर्थ में अशोक सिंह के पास प्रेम का विपुल अनुभव प्रतीत होता है और इसलिए उनके पास प्रेम के इस विपुल अनुभव से उपजी विपुल कविताएँ भी हैं. संग्रह का यह शीर्षक केवल उनके जीवन में प्रेम की विपुलता का ही संकेत नहीं देता बल्कि उनके जीवन में अर्थात मनुष्य के जीवन में प्रेम की अनिवार्यता का भी संकेत देता है. और जीवन में प्रेम की इसी अनिवार्यता ने अशोक सिंह को ‘कई-कई बार होता है प्रेम’ जैसा अलहदा शीर्षक देने का बल भी दिया है और इसी शीर्षक कविता में यह पूछने का साहस भी-
\”किसने कहा इतना बड़ा झूठ
कि प्रेम जीवन में एक बार होता है?\”
ऐसा नहीं है कि इस संग्रह में सिर्फ प्रेम पर ही कविताएँ हैं. जो व्यक्ति प्रेम में डूबा होगा, वह पूरी कायनात से प्रेम करेगा. पूरी पृथ्वी से प्रेम करेगा. अपनी मिट्टी से, अपने परिवेश से, अपने परिवार से प्रेम करेगा. वह सिर्फ अपनी प्रेयसी से ही नहीं, अपने दोस्तों से, अपने माता-पिता से, अपनी बेटी से, अपनी पत्नी से भी प्रेम करेगा. इसलिए इस संग्रह में अशोक सिंह सिर्फ प्रेमी के रूप में ही नहीं बल्कि एक पिता के रूप में, पति के रूप में, पुत्र के रूप में, पोते के रूप में, भाई के रूप में, मित्र के रूप में भी उपस्थित हैं. और इन सबसे ऊपर, वे एक मनुष्य और एक नागरिक के रूप में भी उपस्थित हैं जो अपने आस-पड़ोस को ही नहीं बल्कि अपने देश-काल को भी अच्छी तरह समझता-बूझता-महसूसता है. इसलिए वह \’सिर्फ तुम तक ही सीमित नहीं है मेरी दुनिया\’ शीर्षक कविता में साफ-साफ कहते हैं-
\”माफ करना!
मेरी दुनिया सिर्फ तुम तक ही सीमित नहीं है
यह भी जरूरी नहीं कि
जब मैं कुछ लिख रहा होता हूँ
तो तुम्हारे नाम प्रेम पत्र ही लिख रहा होऊँ!
हो सकता है
मैं किसी के जलने-मरने और
देश के सुलगने की खबरें लिख रहा होऊँ!\”
अशोक सिंह की कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि उनके पास जीवन के विविधरंगी अनुभवों का बड़ा कैनवास है. और यह कैनवास अपने घर-आंगन, चूल्हा-चक्की से लेकर झारखंड के जल-जंगल-जमीन तक फैला हुआ है. लेकिन संग्रह की पहली कविता \’माँ का ताबीज\’ में ही वह स्पष्ट कर देते हैं कि-
\”मैं ताबीज नहीं
तुम्हारा विश्वास पहन रहा हूँ माँ!\”
और वहीं अंतिम से दूसरी कविता में यह स्वीकार भी कर लेते हैं कि-
\”किसी देवी-देवता की नहीं
दीवारों पर लगीं
वे प्रेमिकाओं की ही तस्वीरें थीं
बेकारी के दिनों में
जिसने टूटने से बचाया हमें.\”
इसी कविता में वह यह भी स्वीकारते हैं कि-
\”यह कहते हुए भी शर्मिंदा नहीं हूँ मैं
कि एक दिन बुढ़ापे में पीले पड़ गये
प्रेमपत्र ही होंगे हमारे साथ
जिसे धर्म ग्रंथों की तरह बाँच
और भजनों की तरह गाकर काट लूँगा मैं
अपनी बाकी बची उम्र का अकेलापन.\”
लेकिन वह इस उपयोगितावादी समय की निष्ठुरता को \’एक कोठेवाली बाई का बुढ़ापा देखकर\’ शीर्षक कविता में बहुत बारीकी से रेखांकित कर देते हैं-
\”आज जब उसके सारे पत्ते झड़ गये
सूखने लगी टहनियाँ
सपना हो गया फलने-फूलने का दिन
अब सपने में भी नहीं आते वे लोग
जो कभी उसकी हरियायी देह में
अपनी देह रगड़ने आते थे.\”
इस संग्रह में जहाँ प्रेम पर प्रचुर कविताएँ हैं, जिनमें कुछ बहुत अच्छी हैं जैसे \’दुख में तुम्हारी हँसी\’ तो कुछ बेहद औसत; वहीं संग्रह में स्त्री मन को टटोलती और उनको खोलती कुछेक बहुत अच्छी कविताएँ हैं- जैसे \’जवान होती लड़कियाँ\’, \’अकेली औरत\’, \’उठो काली औरतों गाओ कोई गीत\’, \’बस का इंतजार करती लडकी\’ या फिर \’काली लड़की\’ जिसकी शुरुआती पंक्तियाँ ही सन्न कर देती हैं-
\”काली लड़की को बहुत छलता है
सपनों में गोरा रंग
नदी में स्नान करती काली लड़की
छुड़ा रही है रगड़-रगड़ कर अपना कालापन
अब तो पानी पर से उठ गया है विश्वास!\”
अशोक सिंह के पास जमीन के अनुभव बहुत हैं, जिसे उन्होंने अपनी कई कविताओं में बखूबी पिरोया है. इस लिहाज से \’छोटे लोग\’, टूटा हुआ आदमी\’, \’एक सभागार में बुद्धिजीवी\’, यह चुप रहने का वक्त नहीं है\’, \’माफ करना बाबू\’, \’कोई तो है सुनील भाई\’, \’बूशी सोरेन के लिए\’ आदि कविताएँ मानीखेज हैं. इनमें सिर्फ झारखंड के आदिवासियों के ही नहीं बल्कि हर आम आदमी के शोषण की ईमानदार \’ग्राउंड रिपोर्ट\’ पा सकते हैं आप. \’कोई तो है सुनील भाई\’ कविता में वह यूँ ही नहीं कहते-
\”कोई तो है सुनील भाई
जो हमें धकिया रहा है
हमारी जेब का हल्कापन भाँपते हुए!\”
उन्हें बाजार के गणित की भी ठीक-ठाक समझ है पर वह बाजार के खिलाफ किसी भी तरह के उटपटांग वैचारिक फतवे जारी करने से बचते हैं. वह बस सहज स्वीकार लेते हैं अपनी टीस कि-
\”कितनी कम हैं मेरी हैसियत की चीजें वहाँ
जबकि बाजार के विज्ञापनों से पटी हैं
मेरे घर की बाहरी-भीतरी दीवारें!\”
152 पृष्ठों में फैली कुल अड़सठ कविताओं के इस पेपरबैक संग्रह में कई लंबी कविताएँ हैं जिनमें \’उमो सिंह की ढोलक\’, \’पेड़\’, \’दादी का जाना\’, \’अकाल और महंगाई में त्योहारों का आना\’, \’कई-कई बार होता है प्रेम\’, ‘एक सामूहिक शोक गीत\’ या \’हॉस्टल के लड़के\’ वाकई उल्लेखनीय हैं. लेकिन मुझे लगता है, अशोक सिंह यदि अपनी कविताओं को विस्तार के भंवर से बचा लें तो उनकी कविताएँ और अधिक असरदार और कसी हुई हो जाएंगी. लेकिन वह अक्सर अपनी कविताओं में ठीक वहीं ठहर नहीं पाते, जहाँ उन्हें बिल्कुल ठहर जाना चाहिए था और कविता को पूरा मान लेना चाहिए था. इस कमजोरी के कारण उनकी कई कविताएँ कच्ची और कमजोर रह गई जान पड़ती हैं.
जिन कविताओं में वह इस अनुशासन का पालन करने में सफल हो गए हैं, वे कविताएँ अपनी कद-काठी में छोटी होकर भी बहुत सुंदर-सशक्त बन पड़ी हैं. उदाहरण के तौर पर \’दुख में तुम्हारी हँसी\’, \’छोटे लोग\’, \’अपना घर\’, \’अपनी तमाम कमजोरियों को स्वीकारते हुए\’, \’नफरतों की बारिश में\’ या \’एक सभागार में बुद्धिजीवी\’विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. लेकिन मुझे लगता है, अपनी अधिकतर कविताओं के लंबे-लंबे शीर्षक रखना भी उनकी एक कमजोरी ही है! या फिर यह उनका ‘पर्सनल स्टाइल’ हो!
हाँ, घर-परिवार, रिश्ते-नातों पर लिखी उनकी कई कविताओं यथा- \’बहनें और घर\’, \’औरतें\’, \’तुम होती हो तो\’, \’मैं तुमसे इसलिए प्रेम नहीं करता\’, \’जब तुम मेरे पास होती हो\’, \’अच्छे दोस्त\’, \’कुछ न कुछ तो बचा रह जाऊँगा\’आदि को पढ़ते हुए सहसा लगता है कि कहीं अपनी ही कविताओं की पंक्तियाँ तो नहीं पढ़ रहा हूँ! यद्यपि ये उनकी बेहद शुरुआती और कमजोर कविताएँ प्रतीत होती हैं, तथापि उन्हें जाने-अनाजने हमउम्र कवियों की कविताओं की चपेट में आने से सायास बचना होगा; अन्यथा उनकी कविताओं को बिल्कुल अपना अलग शिल्प और अलग भाषा अर्जित करने में और लंबा समय लग जाएगा.
चूंकि यह उनका पहला कविता-संग्रह है, इसलिए इसमें थोड़ा कच्चापन और कसावट की कमी रह जाना स्वाभाविक है. पर यह एक पठनीय संग्रह है जो आश्वस्त करता है कि विपुल और विविध जीवनानुभवों से समृद्ध अशोक सिंह के कवि में और अधिक परिपक्व, सशक्त और सुंदर कविताएँ रचने का सच्चा सामर्थ्य तो है. हाँ, संग्रह में प्रूफ की कई गलतियाँ जाने-अनजाने रह गई हैं, जो खटकती हैं. लेकिन दुमका के ही चित्रकार द्वारा बनाया गया आवरण बहुत चित्ताकर्षक है.
(4)
एक ओर प्रभा मुजुमदार की कविताओं में प्रतिरोध का स्वर मुखर है, वहीं दूसरी ओर अशोक सिंह की कविताओं में प्रेम का स्वर मुखर है. लेकिन इन दोनों के बीच दैनंदिन जीवन और दाम्पत्य की सहज अनुभूतियों का भी एक स्वर है. और वह बहुत मद्धम और संयत स्वर है संतोष अलेक्स का. संतोष अलेक्स बहुभाषी अनुवादक हैं और कवि भी. वह केरल से आते हैं. इस अर्थ में यह संतोष देने वाली बात है कि संतोष दक्षिण भारतीय होकर भी हिंदी से इतना प्रेम करते हैं और हिंदी कविता को एक अलग स्वर भी दे रहे हैं.
संतोष अलेक्स के दो कविता-संग्रह आ चुके हैं. पहले कविता-संग्रह \’पाँव तले की मिट्टी\’ के बाद, उनका दूसरा संग्रह \’हमारे बीच का मौन\’ ऑथर प्रेस, दिल्ली से छपकर आया है. यह संग्रह अपने नाम के अनुरूप ही अपने मौन में बहुत मुखर है लेकिन शब्दों में बहुत मितव्ययी. इस अर्थ में इस संग्रह की कविताएँ एक शांत और पारदर्शी नदी के जल की तरह हैं जिसमें आकाश भी चमक जाता है और नदी का तल भी. अर्थात संतोष अलेक्स की कविताओं में पंक्तियों के बीच पढ़ने की ऊर्फ \’रीड बिटवीन द लाइंस\’ की बहुत गुंजाइश है और पाठकों के लिए अपने-अपने ढंग से अर्थ-ग्रहण करने का पूरा \’स्पेस\’ भी.
इस संग्रह की \’हल्की बूँदाबाँदी में चहलकदमी\’ शीर्षक भूमिका में हैदराबाद के प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी ने बहुत सही लिखा है कि-
\”असंगत यथार्थ उन्हें विचलित करता है लेकिन इस यथार्थ की उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति में वाकस्फीति या आक्रामकता नहीं है. वाकस्फीति और वक्तव्य की अतिशयता से ये कविताएँ बच सकी हैं क्योंकि कवि अपने को सर्वज्ञ नहीं मानता और अपने पाठक की सहृदयता तथा समझदारी पर विश्वास रखता है. …जब कोई रचनाकार खुद को अन्यों से विशिष्ट मान बैठता है और पाठकों की सहृदयता और समझदारी पर संदेह करने लगता है तो वह सुधारक, नेता, उपदेशक और गुरु बनता चला जाता है. कवि नहीं रह जाता. इस अर्थ में संतोष खरे कवि हैं. …ये कविताएँ स्वीकार की कविताएँ हैं, शिकायत से परे. इसलिए इन्हें पढ़ना हल्की बूँदाबाँदी में चहलकदमी करने जैसा है.\”
ओह, उन्होंने तो जैसे मेरे ही मन की बात लिख दी है! और यह बात पूरी हिन्दी कविता पर भी कमोबेश लागू होती है!
इस संग्रह की अधिकांश कविताओं से गुजरते हुए मुझे भी बिल्कुल ऐसा ही अनुभव हुआ और लगा कि रोजमर्रे की मामूली बातें भी इन छोटी-छोटी कविताओं में कितने गहरे अर्थ पा गई हैं! संग्रह की पहली कविता ही है \’हमारे बीच का मौन\’. वह कहते हैं-
\”प्रेम की तुम्हारी अपनी परिभाषा है
जो मेरी परिभाषा से काफी भिन्न है
तुम्हारे अपने तर्क हैं
मेरे अपने
खैर मैं कुछ नहीं कहना चाहता
कहता भी तो तुम शायद ही सुनती
मैं पूछना चाह रहा था कि
अब कमर दर्द कैसा है?
…हमारे बीच का मौन बहुत खूबसूरत था
तुम्हारा चुप होना महज खामोशी नहीं थी.\”
ऐसी ही तीन छोटी-छोटी कविताएँ हैं \’दाम्पत्य\’ . पहली कविता में कवि कहता है-
\”शुरुआती दिनों में
सब कहीं प्यार नजर आता था
लगता था सारी प्रकृति झूम उठी है
सिर्फ हमारे लिए
समझ रहे थे कम
चाह रहे थे एक दूसरे को ज्यादा.\”
लेकिन दाम्पत्य में जब हिचकोले आने लगते हैं तब स्थिति एकदम उलट जाती है, जिसका इतना स्वाभाविक बयान शायद ही कहीं और मिले-
\”शादी के अब कई बरस हो गए
बच्चे गृह कार्य कर रहे हैं
माँ पूजा-पाठ
लगता था प्रकृति भी साथ नहीं दे रही है
समझ रहे थे ज्यादा
चाह रहे थे कम!\”
इसी तरह \’अलग होना\’ शीर्षक कविता देखिए-
\”हमने अलग होने का निर्णय लिया
मैंने प्रेशर कुकर लिया
उसने कढ़ाई
मैंने तवा लिया
उसने चिमटा
मैं अपनी चीजों को लेकर
निकल गया…
शाम को हम एक ही तारों को गिनते
हमारे लिए एक ही हवा बहती
साल बीत गए कई
विदा होते समय
चुनी हुई चीजें सुरक्षित हैं
अब भी हमारे पास…\”
\’नाश्ता\’ शीर्षक कविता में आज की आपाधापी भरी जिंदगी कितनी बारीकी से बयां हो गई है-
\”डाइनिंग टेबल पर सबकुछ है
कमी है तो
परिवार के सदस्यों की
जिससे पूरा होता है नाश्ता.\”
ऐसे ही आज के बच्चों पर कुछेक छोटी-छोटी कविताएँ जिसमें उनका बदला हुआ बचपन चित्रित है-
\”तब स्कूल से लौटते वक्त
बेर तोड़कर खाते खाते
घर जाया करते थे बच्चे
आज के बच्चे…
तब स्कूल से लौटते वक्त
बारिश में भीग कर
कागज की नाव बनाया करते थे बच्चे
आज के बच्चे…\”
वह समाज में आयी तमाम तब्दीलियों की भी बहुत बारीक शिनाख्त करते हैं. \’हमारा मोहल्ला\’ शीर्षक कविता में वह लिखते हैं-
\”त्योहारों में मित्र घर आ जाते
मेरा पड़ोसी रिजवान
मेरे लिए खीर ले आता
मैं उसके लिए केक ले जाता
…आज भी रमजान में
रिजवान के यहाँ खीर बनती
क्रिसमस में मेरे यहाँ केक
फर्क इतना कि
न मुझे खीर मिलती
न उसे केक.\”
लेकिन इन तब्दीलियों को वह सहजता से लेते हैं और किसी तरह का प्रलाप नहीं करते हैं. इसलिए \’शहर में पिता\’ कविता में वह साफ स्वीकारते हैं-
\”मैंने होमनर्स का इंतजाम किया
पिता अस्पताल से वापस फ्लैट में पहुँचे
होमनर्स ने बिस्तर बिछाया
दवाई दी, रोटी खिलाकर
चली गई अपार्टमेंट के बी ब्लॉक में.\”
इस कविता में वह पिता के एकाकीपन को समझते हैं पर वह शहरी सुविधाओं की ओर भी इशारा करते हैं, जो अकेले पिता के लिए गाँव में भी अब संभव नहीं.
संतोष की अधिकांश कविताओं में शहराती मध्यम वर्ग और प्रायः एकल एवं कामकाजी स्त्रियों वाले परिवारों की वास्तविकताओं और विडंबनाओं का जिक्र है. लेकिन इसे वह एक यथार्थ की तरह चित्रित कर पाठकों पर छोड़ देते हैं कि वह इन पर वे कैसी प्रतिक्रिया देते हैं. इसके अलावा, मुंबई, दिल्ली, बनारस, कश्मीर, पहलगाम, इंफाल, कन्याकुमारी आदि पर भी लिखी गईं कुछ चित्रात्मक कविताएँ अच्छी हैं. \’मुंबई\’ का जीवन इस कविता में क्या खूब उतर आया है-
\”पति-पत्नी की खुशी देखो
छह बजे हैं
निकल गए हैं दोनों
लोकल पकड़ने
मुंबई में सुबह के वक्त
केवल स्त्री-पुरुष होते हैं!\”
वहीं \’भुट्टा बेचती औरत\’ कविता में एक अलग ही यथार्थ दिखता है-
\”मोल-तोल करता है ग्राहक
भुट्टे के लिए
शाम ढलते ही
मोल-तोल भुट्टे का नहीं
उसका होता है…\”
120 पृष्ठों के इस पेपरबैक संग्रह में कुल बासठ कविताएँ हैं. सभी कविताएँ जीवन की विविध दृश्य-छवियाँ हैं. कुछ श्वेत-श्याम हैं तो कुछ चटकीली और रंगीन. इनको कविता के कैनवास में देखना-पढ़ना एक अच्छा अनुभव है. अंतिम कविता \’उनको जाते देखना\’ में अंतिम पंक्तियाँ भी कुछ ऐसा ही कहती हैं-
\”पानी ढोती इन स्त्रियों को देखना
किसी सिनेमा के दृश्य
देखने जैसा है.\”
यहाँ कुछ कविताएँ अलग से उल्लेखनीय हैं, जैसे- नाच, सरहद, युद्ध, दीवारें, नाला, इतवार, चिट्ठी, वसीयतनामा, स्थान देवता, वृद्धों की हँसी, चप्पल की आत्मकथा, शीला नगर, कामवाली, शीला रेजिडेंसी आदि. उम्मीद है, संतोष अपनी मितव्ययता और बारीकी को और अधिक निखारेंगे और वह अगले संग्रह में नई ताज़गी के साथ और अधिक बारीक कविताओं के साथ मिलेंगे. संतोष छोटी कविताओं में बेहतर खिलते हैं. संभवतः यही उनका स्वभाविक शिल्प है.
इन तीनों संग्रहों से गुजरते हुए यह महसूस होता है कि इन संग्रहों की कविताएँ किसी बनावटीपन से मुक्त हैं और किसी शहराती या यशाकांक्षी शिल्प की शिकार नहीं हैं. इनमें उबाऊ उक्ति-चमत्कार भी नहीं है और न ही किसी विचारधारा विशेष की थानेदारी. ये कविताएँ अपने कहन में ईमानदार हैं, भले ही उनमें कुछ कच्चापन रह गया है. हाँ, ये कविताएँ यदि अपने आवेग में और अधिक अनुशासित हो पातीं तो अपने अनावश्यक विस्तार से बच जातीं और बेशक इनका आस्वाद बढ़ जाता.
इन कविताओं में बिंबों और प्रकृति की लगभग अनुपस्थिति खटकती है लेकिन इसके बावजूद ये कविताएँ आश्वस्त करती हैं कि हिंदी कविता के हाशिए का स्वर कहीं अधिक यथार्थपरक और तथ्यपरक है; इसलिए मुख्यधारा की कविता की तुलना में अपेक्षाकृत अनगढ़ होने के बावजूद कहीं अधिक जमीनी, अधिक ईमानदार और अधिक विश्वसनीय है.
____________________
संपर्क:-
राहुल राजेश, फ्लैट नं.-J-2/406
आरबीआई कॉलोनी, गोकुलधाम,गोरेगाँव (पूर्व), मुंबई-400063
\’मो.09429608159