कविता क्या है के साथ-साथ कविता क्यों और कैसे पढ़े भी साहित्य के बड़े सवाल हैं. ख़ासकर विमर्शों द्वारा उनके अनुकूलन और व्याख्या/दुर्व्याख्या के इस दौर में यह और प्रासंगिक बनते जा रहें हैं.
क्या उन्हें हम समय,समाज और साहित्यकार से विलग किसी इकाई के रूप में देखें? ज़ाहिर है यह भी एक अधूरा उत्तर है.
ऐसे ही कुछ प्रश्नों को लेखक-अध्येता रामेश्वर राय का यह आलेख सम्बोधित करता है. सहज पर विचारोत्तेजक.
प्रस्तुत है.
कविता क्यों और कैसे पढ़ें?
रामेश्वर राय
कला के अन्य माध्यमों- सिनेमा, संगीत, चित्र आदि को लेकर यह सवाल कभी नहीं उठता. यहाँ तक कि साहित्य की काव्येतर विधाओं को लेकर भी यह सवाल नहीं उठा. ऐसा क्यों? क्या यह कविता की नियति है कि उसे समय की अदालत में बार-बार अपनी प्रासंगिकता और सार्थकता का सबूत देना पड़े? सोलहवीं सदी में फिलिप सिडनी को \’ऐन अपॉलॉजी फोर पोएट्री, उन्नीसवीं सदी में रोमांटिक कवि शैली को \’ए डिफेंस ऑफ पोएट्री\’ और बीसवीं सदी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल को \’कविता क्या है\’ के द्वारा कविता के पक्ष में बयान क्यों देना पड़ा? धर्मवीर भारती ने \’दूसरा सप्तक\’ में कविता की मौत की अफ़वाहों का प्रतिवाद कविता से ही करवाया :
‘क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी
अभी मेरी आखिरी आवाज़ बाकी है
हो चुकी हैवानियत की इन्तेहाँ
आदमीयत का अभी आगाज़ बाकी है
लो तुम्हें मैं फिर नया विश्वास देती हूँ
नया इतिहास देती हूँ
कौन कहता है कि कविता मर गई?’
वस्तुतः कविता के वज़ूद पर सवाल का इतिहास प्लेटो से लेकर आधुनिक विज्ञानवादियों तक फैला है. बावज़ूद इसके, बकौल अशोक वाजपेयी–
\”असंख्य प्रतिरोधों और दूसरे समर्थ अनुशासनों की जी तोड़ स्पर्धाओं के बावज़ूद कविता का बने रहना वैसा ही है जैसे सब कुछ हटने, बदल जाने के बावज़ूद हरी दूब बनी रहती है और कोलतार की पुख़्ता सड़कों के बीच उसकी हरी खिलखिलाहट अपनी दृढ़ विनम्रता के साथ फूट पड़ती है.\”
कविता मनुष्य की स्मृति, उसके भाव बोध और विकल्प के सपनों की आवाज़ है. मेरा ख़याल है कि अगर कविता न होती तो मानवीय अनुभूति के वे इलाके अलक्षित रह जाते जो विज्ञान, राजनीति और जीवन की दिनचर्या के मानचित्र में दर्ज़ नहीं हैं. कविता का एक ज़रूरी काम भाषा के मोर्चे पर सभी प्रकार की बर्बरताओं, हिंसा और लफंगई का प्रतिरोध है. गालियाँ भाषा में मर्दवादी बर्बरता एवं उसकी हिंसक मनोरचना की निर्मितियाँ हैं. वे स्त्री की देह को निशाना बनाती हैं. ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने बंगाल में समाज- सुधार का जो आंदोलन चलाया था उसका एक एजेंडा गालियों का उन्मूलन भी था.
भाषा और रचना के संबंध का मसला बहुत विवादास्पद है. राही मासूम रज़ा के उपन्यास \’आधा गाँव\’ को लेकर जब रचना में गालियों को लेकर सवाल उठे तो उन्होंने बहुत दृढ़ता से अपनी बात रखी. उनका कहना था कि अगर मेरे पात्र गीता के श्लोक बोलते तो मैं गीता के श्लोक ही लिखता, मगर मेरे पात्र अगर गाली बकते हैं तो मैं साहित्य अकादमी के पुरस्कार के लिए अपने पात्रों की ज़बान नहीं काट सकता. यह तर्क प्रकृतिवाद की दृष्टि से मजबूत जान पड़ता है, लेकिन रचना तो प्रकृति को संस्कृति में बदलने की साधना है. अगर जीवन को उसके प्रकृत रूप में ही दर्ज़ करना हो तो फिर, साहित्य की कोई ज़रूरत नहीं.
कविता की भाषा समाज के सांस्कृतिक मन को गढ़ती और समृद्ध करती है. वह गालियों के कीचड़ में सूअर की तरह लोट नहीं लगाती.
अब दूसरे सवाल पर विचार करते हैं :
कविता कैसे पढ़ें? प्रेम की दुनिया में प्रवेश करने की एक शर्त कबीर ने रखी थी – \’ सीस उतारे भुइं धरे, सो पैठे इहि माहिं.\’ यहाँ \’सीस\’ उतारना समाज द्वारा दी गई सभी पहचानो को खारिज़ करना है. धर्म, जाति, कुल और पांडित्य से जो अपनी पहचान और हैसियत तय करता है, वह प्रेम की दुनिया का नागरिक नहीं हो सकता. कबीर के यहाँ सार्वभौम और सनातन मनुष्यता ही प्रेम में प्रवेश की बुनियादी योग्यता है. इस तर्ज़ पर यह कहा जा सकता है कि कविता का पाठक होने की भी कुछ शर्ते हैं, जो चेतना के स्तर पर संवेदनशील, अपने समय की हलचलों के प्रति चैतन्य, बौद्धिक धरातल पर जिज्ञासु और अपनी मान्यताओं-धारणाओं के प्रति संदेहशील नहीं है, वह कविता का पाठक नहीं हो सकता. कविता शास्त्रवादी पंडितों, मार्क्सवादी फ़ार्मूलाबाज़ों एवं विमर्शवाद के सज़ायाफ्ता कैदियों के लिए नहीं है.
कविता के सामने कई संकट हैं. जिस समय और समाज में कविता पढ़ी-लिखी जा रही है, वह अपने सामाजिक आचरण में नितांत कविता विरोधी है. अवचेतन के धरातल पर मुर्दा संस्कारों की कब्र में लेटा हुआ, मगर ऊपरी तौर पर अमेज़न के पैकेट बटोरता, अद्यतन उपभोग सामग्री की रंगशाला में मगन. राजेंद्र यादव \’हंस\’ के खुराफाती संपादकीयों के कारण एक ज़माने में बहुत विवादास्पद हुए थे. लेकिन उनकी खुराफाती टिप्पणियों के नेपथ्य में एक गहरी पीड़ा और बेचैनी थी. इस समय जब मैं हिंदी समाज पर बात कर रहा हूँ, राजेंद्र यादव बेसाख़्ता याद आए. \’हंस\’ के दिसंबर 2010 के अंक में उनके संपादकीय \’मेरी तेरी उसकी बात\’ की एक टिप्पणी की ओर ध्यान गया:
\’मैं इधर बार-बार उन्हीं सवालों और ज़वाबों के दोहराव से आज़िज़ आ गया हूँ. न कोई नई बात, न कोई मौलिक कोण, खास तौर पर, साहित्य केंद्रित लोगों के पास तो निश्चय ही कुछ भी विचारोत्तेजक नहीं बचा है. सभी कुछ पूर्व ज्ञात और घिसा-पीटा है.\’
ऐसे समाज में पोषित-पालित व्यक्ति क्या कविता का सच्चा,सहृदय पाठक हो सकता है?
भारत के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग अपने औसत चरित्र में कविता के हत्यारे हैं. अज्ञेय और राजेंद्र यादव आदि ने तो विश्वविद्यालय और साहित्य के संबंधों को बाहर से देखा था, मैं तो विश्वविद्यालय का हिस्सा होने के अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ कि वे कविता के नाज़ी कैंप हैं. क्रूर कसाईखाने जहाँ कविता की उड़ान की हत्या कर, उसकी स्थूल देह का पोस्टमार्टम किया जाता है और उसकी रिपोर्ट ज़ारी की जाती है. पिछले सत्तर वर्षों मैं जो विभाग अपने प्रश्नों की भाषा तक नहीं बदल सका हो, वह साहित्य का सबसे बड़ा पुरोहित है! जब तक ये केंद्र टूटेंगे नहीं, कविता के जीवित पाठकों की कोई संभावना नहीं है.
जीवन के जीवित सवालों की तरह कविता के सवाल भी सनातन और समकालीन की साझी ज़मीन पर उगते हैं. न तो जीवन को,न ही कविता को अंतिम रूप से समझने का दावा किया जा सकता है. विजयदेव नारायण साही का मानना था कि मनुष्य के बारे में मुकम्मल तौर पर कुछ कहना संभव नहीं क्योंकि वह हर बार परिभाषा की हथेलियों से फिसल जाता है. यही बात कविता के संदर्भ में भी लागू होती है. इसलिए \’कविता क्यों\’ और \’कैसे पढ़ें\’- जैसे सवाल जितने पुराने हैं उतने ही नए भी. हर पीढ़ी इस सवाल का उत्तर अपने समय की परिस्थितियों और जीवन के अनुभवों की रोशनी में खोजती है.
इस विषय पर बात करने से पहले यह बताना ज़रूरी है कि एक शिक्षक के रूप में मैं वही कहूँगा और कहना भी चाहिए जो मुझे लगता है. संभव है, मेरी बातों से कुछ विद्यार्थियों को भावनात्मक ठेस पहुँचे. कविता या साहित्य की उनकी एक अभ्यस्त, जकड़ी हुई समझ है. मैं उनके तुष्टीकरण के लिए अपने विचारों को लोरी में नहीं बदल सकता. इस चर्चा में कोई हड़बड़ी, कोई जल्दबाजी नहीं होगी. चीनी दार्शनिक लाओत्से का कहना था कि प्रकृति कभी किसी जल्दबाजी में नहीं होती, लेकिन उसका हर काम समय पर पूरा होता है. उम्मीद है कि इस बातचीत से हम भी एक मुक़ाम तक पहुँच पाएँ .
कविता के पास आने से पहले आपको अपने दस्ताने उतारने पड़ेंगे, क्योंकि वे स्पर्श में बाधक होंगे. दस्ताने के साथ किसी भी चीज़ को पकड़ा तो जा सकता है, छुआ नहीं जा सकता. कविता को अपनी छुअन दें. साहित्य में यह दस्ताना विचारधारात्मक पूर्वग्रह है. मुक्तिबोध द्वारा प्रसाद की \’कामायनी\’ का विश्लेषण दस्ताना शैली की आलोचना का सर्वाधिक जीवंत उदाहरण है. उन्होंने निष्कर्ष का दस्ताना पहनकर \’कामायनी\’ में प्रवेश किया. \’कामायनी: एक पुनर्विचार\’ आलोचकीय विवेक के विपर्यय का विरल उदाहरण है. इसी दस्ताना- शैली का प्रयोग डॉ रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध के लिए किया था.
विचारधारात्मक औज़ारों से कविता को समझ लेने का चलन भारतीय विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में दशकों से है. किसी भी विचारधारा पर इतना भरोसा ठीक नहीं. उदय प्रकाश की कहानी \’और अन्त में प्रार्थना\’ और सृंजय की कहानी \’कामरेड का कोट\’ को याद कीजिये. प्रायः विचारधारा में आप जो दिखते हैं, वह होते नहीं. आपके \’होने\’ से बाहर जो विचार है है वह नाटक में लगाया गया मुकुट है. परदा गिरने के बाद आप ग्रीन रूम में लुंगी पहने बीड़ी पीते हुए पाये जाते हैं.
समाज विज्ञानों के दूसरे-तीसरे दर्ज़े के ज्ञान और उद्धरणों का तमंचा लहरा कर हिंदी के मोहल्ले में बौद्धिक दादागिरी करने वालों की दहशत में जीने के लिए हर दौर की युवा पीढ़ी अभिशप्त रही है. उन्हीं में से से कुछ नए दादा पैदा हो जाते हैं. यह रक्तबीजीय सिलसिला अभी तक ज़ारी है. इस दादावाद के आतंक को चुनौती दिए बिना स्वाधीन पाठक नहीं हुआ जा सकता.
कविता समाज और इतिहास के भीतर ही होती है, मगर उस तरह नहीं जैसे एटलस में पहाड़,नदियाँ और समंदर होते हैं. वह बोतल में बंद नहीं, धमनियों में प्रवाहित रक्त है. जायसी \’पद्मावत\’ की कथा का अंत इस दोहे से करते हैं :
जौहर भईं सब इस्तिरी , पुरुख भये संग्राम
पातसाही गढ़ चूरा ,चितउर भा इस्लाम.
जौहर की राख और चित्तौड़ के विध्वंस की जो त्रासदी पद्मावत में ध्वनित है, क्या उसे इतिहास के कान से सुना जा सकता है? इतिहास के तथ्यात्मक रेगिस्तान के पार उतर कर ही \’पद्मावत\’ की रचना संभव हुई होगी.
क्या कविता की कोई बुनियादी और स्थायी पहचान तय हो सकती है? हजारों सालों से आचार्यों ने कविता के लक्षणों पर विचार किया है. एक पाठक के रूप में कविता के बारे में मेरी समझ है- अगर कविता उतना ही और वैसा ही कहती है,जितना और जैसा हम जानते हैं तो वह कविता नहीं है. ज्ञात को ही बेसन की तरह फेंट कर कविता को पकौड़ा में बदल देने वाले कवि नहीं, कविता के दुकानदार हैं. दुकानदारऔर कवि की पहचान का विवेक ज़रुरी है. कविता हमें जीवन,समय और भाषा के इतिवृत्त से बाहर निकाल कर अनेकार्थता का आकाश देती है.
अपनी बात को हम मध्य काल के दो कवियों : कबीर और तुलसी पर केंद्रित करेंगे. सवाल है कि हम किस कबीर को पढ़ें? उस कबीर को जिन्हें कुमार गंधर्व, प्रहलाद टीपनिया, पाकिस्तान के सूफी गायक फ़रीद अयाज़ और अनगिनत लोक गायक गा रहे हैं और लाखों- करोड़ों लोग सुन रहे हैं या अकादमिक ताबूत में बंद कबीर को? अकादमिक विद्वानों ने कबीर की कविता का पोस्टमार्टम करके बताया है कि उनकी कविताओं में कितनी भक्ति है, कितना समाज- सुधार है, रहस्यवाद का कोहरा कितना है, और कितनी है क्रांति की आग,भाषा कैसी है, कबीर की आधुनिकता पश्चिमी है या देशज? विद्वानों की इस सूची में मैं आदरणीय बल्कि लगभग श्रद्धेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल और पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी को भी रखता हूँ, साथ ही डॉक्टर पुरुषोत्तम अग्रवाल को भी जो कई दशकों से कबीर की कविता में धुनी रमाये बैठे हैं.(\’श्रद्धेय\’ आचार्य शुक्ल और पंडित द्विवेदी के लिए आरक्षित. पुरुषोत्तम जी आदरणीय और विचारणीय तो हैं ही). या कबीर को हम विमार्शवादी अपहर्ताओं की नज़र पढ़ें जिन्होंने उन्हें एक झंडे में बदल कर उन्हें उनकी अपनी ही कविताओं की दुनिया से बेदखल कर दिया है?
कैसी है कबीर की कविताओं की दुनिया? इसमें पानी के भीतर मछली प्यास से हाँफ रही है. लोग झूठे सुखों में मगन है. बुलबुले-सी ज़िन्दगी में भी भोग और वासना का समंदर लहरा रहा है. पंडित शास्त्र की निर्जीव बातें दोहरा रहा है और काज़ी कतेब पर कदमताल कर रहा है. अर्थहीन, हास्यास्पद कर्मकांडों का बोलबाला है. हिंदू मुसलमान श्रेष्ठता के अहंकार में टकरा रहे हैं. सच कोई नहीं सुनना चाहता. झूठ का वर्चस्व है. ईश्वर के द्वारा बनाए हुए आदमी को पंडितों ने ब्राह्मण और शूद्र में विभाजित कर दिया है. उन्मादी पागलपन का अँधेरा है और कबीर अकेले पड़ गए हैं. रात में नींद नहीं आती. और बार-बार छाती से रुलाई फूट पड़ती है. श्मशान में चिता जल रही है. लोगों के जमघट से दूर बैठे कबीर चिता की आग में भस्म होती देह को देख रहे हैं. उदास और तन्हा :
हाड़ जले ज्यूँ लाकड़ी, केस जले ज्यूँ घास
सब तन जलता देख कर, भया कबीर उदास
चिता की लपटों की रोशनी में मुझे कबीर का उदास और ख़ामोश चेहरा दिखता है.
मृत्यु और जीवन की नश्वरता पर लिखी गईं कबीर की कविताएँ मन को गहराई से छूती है और इसलिए काल का अतिक्रमण करती हैं. यथार्थ का नगाड़ा बजाती कविताओं को अख़बार की उम्र भी नसीब नहीं होती.
और तुलसी?
जिन्हें प्रगतिवादियों और विमर्शवादियो की अदालत ने सामंतवाद का समर्थक और स्त्री-दलित विरोधी होने का दोषी पाया है. अदालत ने अपने फ़ैसले के औचित्य के लिए तुलसी की कविता के फुटकर उद्धरण भी दिए हैं. विश्वविद्यालयों के प्रभु वर्गीय हिंदी बौद्धिकों के हाथों में तुलसी की कविता की जगह स्वयंभू अदालतों के फैसलों की प्रातियाँ हैं. मैं तुलसी के बारे में सोचता हूँ तो तूफ़ान से जूझते दीये का बिम्ब बनता है. तुलसी पर उनके समय में भी चतुर्दिक हमले हुए. वे पूरी दृढ़ता से इन हमलों का सामना करते रहे और अपने ऊपर लगाए गए तमाम आरोपों को यह कहकर धूल की तरह झाड़ दिया :
धूत कहौ अवधूत कहौ रजपुतू कहौ
जोलहा कहौ कोऊ
काहू की बेटी से बेटा न व्याहब
काहू की जाति बिगार न सोऊ
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को
जाको रुचे सो कहे कछु ओऊ
माँगि के खैबो मसीत को सोइबो
लैबो को एक न दैबो को दोऊ.
तुलसी के इस निष्कम्प आत्मविश्वास और दृढ़ता का स्रोत है- राम में आस्था. तुलसी के राम बाल्मीकि के राम नहीं हैं. तुलसी समाज की पतन शीलता के बरक्स जीवन के उदात्त और विराट मूल्यों का एक हिमालय रचते हैं और नाम देते हैं \’राम\’. तुलसी अपने समय के अँधेरे में दीया नहीं जलाते, एक सूर्य निर्मित करते हैं. यह सूर्य ही तुलसी के राम हैं. तुलसी के यहाँ अँधेरा अनेक स्तरों पर है. अँधेरों के इस समूह को तुलसी \’कलयुग\’ कहते हैं. इस कलयुग का प्रतिपक्ष है रामराज्य. रामराज्य मनुष्य के स्वप्न का उच्चतम सोपान है. क्या तुलसी को इस दृष्टिकोण से भी नहीं देखा जा सकता?
मध्यकाल की कविता पढ़ते समय यह सवाल उठता है कि हमारे समय में उसकी क्या भूमिका हो सकती है? राजेंद्र यादव का तो कहना है वह काव्य सामंती मूल्य- बोध की निर्मिति है. वह इतिहास की वस्तु हो गया है और इसलिए उसे अलमारी में बंद कर देना चाहिए. क्या सचमुच? क्या कोई समाज अपने अतीत से, अपने इतिहास से मुक्त हो सकता है? नीत्शे का कहना था कि इतिहास में मनुष्य का पागलपन और विवेक, उसकी बर्बरता और करुणा की अंतर्विरोधी स्मृतियाँ मौज़ूद होती हैं. यह वर्तमान पीढ़ी पर निर्भर है कि वह विवेक और करुणा का वरण करती है या पागलपन और बर्बरता का. भक्ति काव्य से विच्छिन्न भारत एक स्मृतिहीन भारत होगा. क्या स्मृतियों की रोशनी के बिना भविष्य का कोई भी मानवीय मानचित्र बन सकता है? मध्यकालीन कविता को पढ़ते हुए यदि हम इन सवालों को ज़ेहन में रखें तो उससे बेहतर संवाद हो सकता है.
एक अंतिम बात. कविता को उस नज़र से मत देखिए जिस नज़र से बढ़ई पेड़ को देखता है. वह हत्यारी निगाह है जो पेड़ में केवल लकड़ी देख पाती है. पेड़ केवल लकड़ी नहीं होता. उसमें जीवन का संगीत गूँजता है. कविता को विमर्श वादी, शास्त्रवादी, मार्क्सवादी या मनोविश्लेषणवादी दृष्टि से देखने की निगाह बढ़ई वाली है. यह दृष्टि कविता को कंकाल में बदल देती है. इस कंकाल के इर्द-गिर्द आलोचक कापालिक नृत्य करते हैं.
क्या आपने कभी सोचा है कि रात के अँधेरे में पेड़ बादलों से क्या बात करते होंगे ?
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जन्म: ९ जनवरी १९६०, मिदनापुर (पश्चिम बंगाल)
दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा
रामविलास शर्मा, निराला तथा मलयज के निबन्धों तथा प्रो. निर्मला जैन के आलोचनात्मक निबन्धों का संकलन-सम्पादन.
\’कविता का परिसर : एक अंतर्यात्रा\’ आदि पुस्तकें प्रकाशित.
सम्प्रति : एसोसिएट प्रोफ़ेसर हिन्दू कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय).
dr.rameshwarrai@gmail.com
मोब. 9711177909