(पटना के बिहार म्यूजियम से) |
विनय कुमार मनोचिकित्सक हैं और हिंदी के लेखक भी. \’एक मनोचिकित्सक के नोट्स\’, मनोचिकित्सा संवाद, \’मॉल में कबूतर\’, ‘आम्रपाली और अन्य कविताएँ’ आदि पुस्तकें प्रकाशित हैं.
यक्षिणी की मूर्तियाँ भारत के कई भागों में पायी गयीं हैं. शिल्प में थोड़े बहुत अंतर के बावजूद वे लगभग एक जैसी ही हैं. एक तरह से भारतीय सौन्दर्य-बोध की प्रतिमूर्ति.
विनय कुमार ने यक्षिणी को केंद्र में रखकर कविता श्रृंखला लिखी है जिसका अंतिम भाग ‘कथान्तर’ यहाँ प्रस्तुत है. यह संग्रह शीघ्र प्रकाश्य है.
विनय कुमार इस कविता को लिखते हुए यक्षिणी की मूर्ति के शिल्प को कविता के शिल्प में कुछ इस तरह विन्यस्त करते हैं कि शिल्प का समय और समय के आघात दोनों आलोकित हो उठते हैं, प्रवाह इसे और भी अचूक बनाता है.
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“मित्रो, यक्षिणी शीर्षक सुदीर्घ काव्य श्रृंखला पटना के बिहार म्यूज़ियम में संरक्षित-प्रदर्शित मौर्यकालीन मूर्ति दीदारगंज की यक्षी पर केंद्रित है. यह मूर्ति पहले पटना म्यूज़ियम में थी. जब नवनिर्मित बिहार में इसे स्थानांतरित किया जाने लगा तो इस प्रकरण पर एक कविता सम्भव हुई. कुछ दिनों बाद इसे नए ठिकाने पर देखने का अवसर मिला और विस्मय से भर उठा. पुराने म्यूज़ियम में प्रवेश द्वार के निकट पर खड़ी की गयी मूर्ति नए भवन में एक बड़े स्पेस में किसी साम्राज्ञी की तरह न सिर्फ़ उपस्थित थी बल्कि प्रकाशित भी. … और इसके बाद शुरू हुई यह श्रृंखला जिसका सत्तर प्रतिशत डेढ़ महीने में लिखा गया. मैं जैसे आविष्ट था . इसका अंतिम अंश जो वस्तुत: एक काव्य कथा है सिर्फ़ ढाई घंटे में पूरा हुआ था.
यह श्रृंखला शुरू तो मूर्ति के बहाने हुई किंतु मेरी प्रश्नाकुलता मुझे कला के बाहर मिथक, इतिहास, धर्म दर्शन,समाज और राजनीति हर जगह ले गयी। आज से एक नयी यात्रा …”
विनय कुमार
यक्षिणी
कथान्तर
विनय कुमार
मैं नगर के अंतिम घर का वासी हूँ
कहते थे गुरु
शीत नहीं ताप नहीं
कुंदन-सी काया कुमुदिनी मुस्कान
साम्राज्ञी की ओर से आती रही वह
अंतस की अग्नि से पाहन पिघलते रहे
‘किसी भी स्त्री को अंगों में बाँटकर देखना पाप है
दिवस है तो दिवस रात्रि है तो रात्रि
तुम्हारे बाल उड़ रहे हैं
(एक)
मैं एक साधारण मनुष्य हूँ
श्रमिक, कुशल श्रमिक भी कह सकते हैं
मेरी कोई कथा नहीं
कुछ घटनाएँ है जो मेरे स्वेद से भींगी है
और एक शूल जो मेरे रक्त से
एक स्पर्श जो मेरे अंतस का वैभव है
एक स्मृति जो मेरी साँस
और एक अनुपस्थिति जो उच्छ्वास
मेरी कथा सगुण मिट्टी
और निर्गुण वायु के बीच की है.
(दो)
मैंने वह समय देखा है
जो राज-प्रासाद में रहता है
मैंने उस समय को चखा है
जो कुछ भी खा लेता है
मैंने वह शक्ति देखी है
जिसके कशाघात से काँपता है समय
और वह यश-कातरता भी देखी है
जो कथा के मंदिर में करबद्ध नतशीश
एक उपमा एक विरुद के लिए आतुर
कथा में जाने के लिए क्या नहीं किया जाता
घोड़े घूमकर आते हैं और मार दिए जाते हैं
कवि आश्रयहीन कर दिया जाता है
कि कविता में मुकुट वैसा नहीं कौंधता
जैसा किसी कूँचीधारी के चित्र में
और कई हाथ इसलिए ख़ाली रह जाते हैं
कि माटी की सोंधी-सोंधी मूरतें बनाते हैं
और ऐसी मूरतें महल में तो नहीं रह सकतीं नऽ
कथा में जाने के लिए खोदे जाते हैं अगम कूप
कलिंग को शवों से पाट दिया जाता है
और धर्म के चीवर से पोंछे जाते हैं रक्त के छींटे
कथा में जाने के लिए
सिंहासन पर बैठकर
संतान को संन्यासी या नेत्रहीन होते देखना होता है
कथा में साधारण मनुष्य भी जाते हैं
मगर नाम और तिथि के साथ नहीं
और बैठे-बैठे तो विस्मरणीय कथा में भी नहीं
बैठे-बैठे आप अनाम श्रोता हो सकते हैं या भाग्यहीन शव
गति ही मुझे भी ले गयी वहाँ
जहाँ पहुँचने-भर से
मेरा अतीत और भविष्य कथा की वस्तु हुए
वहीं से आरम्भ …..
(तीन)
मैं नगर के अंतिम घर का वासी हूँ
थोड़ी ही दूर बाद एक गाँव है दर्शनपुर
वहाँ वे रहते हैं जो नगर में नहीं रह सकते
मैं भी वहीं रहता था कभी
और तराशता था शिवलिंग और अर्घ्य
किंतु एक दिन
…..किसी श्रेष्ठि के लिए
बनायी एक मूर्ति कुबेर की
जो सम्राट को अर्पित हो गई
(अपने आराध्य को खोए बिना धन नहीं आता कवि !)
और एक दिन मैं
पाटलिपुत्र की राजसभा में उपस्थित किया गया
पहली बार देखा कि क्या होती है राजसभा
पहली बार जाना
कि जो मुख नृत्य देख कहते हैं – साधु! साधु!
वही वध का आदेश भी देते हैं
और वह भी कितनी निर्लिप्तता से
पहली बार जाना कि सम्राट होना क्या होता है
और क्या है कृपा के बरसने का व्याकरण
मुकुट को चाहिए अमरत्व
कथा की तरह वायवीय और शिला की तरह दृढ़
यानी कवि भी चाहिए और शिल्पी भी
और मैं राजशिल्पियों के समूह का अंग
नगर में निवास जहाँ से देखता हूँ पूरब
तो दिखता है गाँव जो अब भी मेरा है
हाँ, मैं उसका नहीं
लता को छोड़ते हैं फूल
फूल को छोड़ती है सुगंध
मिट्टी ऐसे ही छूटती है
ऐसे ही छूटते हैं उसके गुण
(चार)
कहते थे गुरु
कला का कर्म कठिन है
कठिनतर कला-धर्म का निर्वाह
किंतु सबसे कठिन कह पाना
कि कोई भी कला अपने सर्जक को क्या देगी
दण्ड या पुरस्कार
वह पुरस्कार का पथ था
जो मुझे साम्राज्ञी के उपवन तक ले गया
जिसकी नवीन सज्जा करनी थी मुझे
वहीं मैंने देखा उसे देते आदेश
देखो, यह रही मल्लिका
वो उधर वहाँ होंगे पाटल
रजनीगंधा वहाँ गवाक्ष के निकट
यहाँ होगा बीच में साम्राज्ञी का आसन
यही उनकी इच्छा है
देखो और समझो कि कैसे सजाओगे
कितनी और कैसी मूर्तियाँ लगाओगे
पूरी स्वतंत्रता
अंतिम दो शब्द कहते समय
झटके से मुखमंडल प्रकट हुआ पूरा
दर्प का कवच तनिक दरका
पाटल की कालिकाएँ खिलीं
श्वेत कलिकाओं की पंक्ति तनिक झलकी
कंदुक से उछले दो शब्द -पूरी स्वतंत्रता
और मैं दास हुआ
उसने भी देखा मुझे तनिक देर
काँप उठा मैं
शनै:-शनै: निकट आयी साधिकार पूछा
-किस पुर के वासी हो
– जी, दर्शनपुर
– दर्शनीय भी हो
पाहन हुई जीभ
– कार्य की प्रगति की निरीक्षिका मैं ही
पाहन हुए प्राण
– कार्यारम्भ शीघ्र हो, जाओ
पाहन हुए पैर
– पूछना है कुछ
पर्वत हुआ मैं
कि सहसा निकट आयी वह
छू मेरी ठुड्डी चपलता से बोली
-जाओ युवा शिल्पी साम्राज्ञी का उपवन है
फिरा मैं
जाने किन पहियों पर चला
जाने किन मार्गों से कार्यशाला पहुँचा
टकराया अपने ही आधे बने शिल्प से
तब जाकर चेत आया
हाय! मूर्ति का टूटना घोर अपशकुन!
किंतु दूसरे ही क्षण ठुड्डी जो सिहरी
तो मेघों के बीच मैं!
(पांच)
शीत नहीं ताप नहीं
पूजा नहीं जाप नहीं
वर नहीं शाप नहीं
पुण्य नहीं पाप नहीं
क्षुधा नहीं क्लांति नहीं
भय नहीं भ्रांति नहीं
सिंधु-सा विकल मन
शांति नहीं शांति नहीं
कर्म कर्म कला कर्म
कोई विश्रांति नहीं.
(छह)
कुंदन-सी काया कुमुदिनी मुस्कान
अतिपुष्ट जूड़े में कसे हुए केश
फूलों से भरी एक लहराती डाल
गरिमामयी चाल
ग्रीष्म-सी खुली पावस-सी सरस
स्वर में वसंत आँखों में इतना अनंत
कि उड़ने को जी चाहे.
(सात)
साम्राज्ञी की ओर से आती रही वह
छवियाँ छिटकाती रही किंतु अपनी ओर से
धूप में छाया-सी छाया में धूप-सी
भान तो होगा ही उसे भी कि क्या है
कि आते ही शिल्पी के हाथ धड़क उठते हैं
पत्थर और लोहे की झड़प ताल बनती है
सृजन-राग सप्तम पर.
(आठ)
अंतस की अग्नि से पाहन पिघलते रहे
मूर्तियाँ निकलती रहीं
सब में वह प्रतिबिम्बित तनिक-तनिक
कहीं अधर कहीं केशराशि
कटि कपोल वक्ष कहीं बाहों के वर्तुल
समझे कवि,
पत्थर भी निर्मल जल-दर्पण हो सकता है
(नौ)
‘किसी भी स्त्री को अंगों में बाँटकर देखना पाप है
किंतु पुरुष जाति को श्राप है – ऐसा ही करेगा’
वही थी
उड़ते हुए मेघ पर खड़ी बिलकुल वही थी
जैसे कोई यक्षिणी दिगंत में
उसी का था स्वर
ताना-सा मारा और बह गयी
रात थी नींद थी स्वप्न था
किंतु, मेरी सहमी हुई चेतना का जागना सत्य था
(दस)
दिवस है तो दिवस रात्रि है तो रात्रि
जब जितना प्रकाश
उतने में आँखें खोलकर देखता हूँ
कोई गोधूलि नहीं
बातें करता हूँ
साझा करता हूँ कला के रहस्य
मन के सब गोपन
दर्शनपुर के सुख
दुःख पाटलिपुत्र के
बड़े धैर्य के साथ सब सुनती वह
पूछ भी लेती कभी-कभी
कैसे सीखा
कौन-सी मूर्ति कब, क्यों और कैसे बनायी
और मैं सीखने के दिनों को याद करता
यह भी कि कैसे छिटकती है छेनी
और एक बच्चे की कोमल उँगली रक्त से भींग जाती है
कि कैसे बिदकता है हथौड़ा और
पिता के श्रम की नाक टूट जाती है
और कितनी क्षिप्रता से लहराती है
एक हताश हथेली और बच्चे के गाल पर छप जाती है
सब सुनती वह इतनी तन्मय होकर
मानों अपनी ही किसी त्रासद स्मृति के वन में खो गयी हो
और धीरे-धीरे उसके गालों की चम्पई आभा मलिन हो जाती
एक दिन ऐसी ही धूमिल बतरस के बीच
उसके दुःख ने लील लिया था मुझे
मगर हथौड़ियाँ कब मानती हैं
कब रुकती हैं छेनियाँ
पत्थर में लुप्त अंगों की खोज जारी
कि थोड़ी देर बाद सुनी
गुड़ के दानेदार शर्बत सी गीली आवाज़
मैं मुड़ा
हाय, वह तो रो रही थी
चाहा तो बहुत कि पोंछ दूँ
करुणा के जल से भींगा सारा मालिन्य
मगर कहाँ वे चम्पई गाल
और कहाँ मेरी गाँठदार मैली हथेली
वस्त्र भी पत्थर के कणों से अटे
कोरे-कुँवारे इस मन के सिवा
कुछ भी तो नहीं था स्वच्छ
(ग्यारह)
तुम्हारे बाल उड़ रहे हैं
और मेरा आकाश ढक गया है
तुम्हारी आँखें खुली हैं
और सृष्टि के सारे मेघ शरणागत हैं
एक पीली आभा है
यानी मैं तुम्हें देख पा रहा हूँ
और मेरी सृष्टि में धूप है
जैसे तुम हँस रही हो
लानतें भेजता हूँ उन्हें
जो प्रकृति को कृति कहकर
कहीं और देखने लग जाते हैं.
(बारह)
एक दिन आयी वह हल्के नीले वस्त्र में
जैसे पहने हो कार्तिक मास का निर्मल आकाश
उजले-पीले फूल तारों की तरह चमक रहे थे
लगा कि कंधे पर रेशमी चँवर धारे
कोई यक्षिणी अभिसार को निकली हो
मैंने परिहास किया
-आज का निरीक्षक तो मैं हूँ देवि
-प्रस्तुत हूँ
कहा उसने इठलाकर
मैं उसे घूम-घूम देखता रहा
कभी आगे कभी पीछे
कभी दाएँ कभी बाएँ
निहारता रहा ईश्वर का सुलेख
काया की कूटभाषा पढ़ता रहा बार-बार
साम्राज्ञी की सहचरी थी वह
गरिमा और धैर्य की क्या सीमा
सारी की सारी सृष्टि निस्पंद
जागृत बस दो
मेरी समाधि और उसकी मुस्कान
ऐसी समाधि कि
घड़ी बरस दिवस नहीं युग बीते
जाने किस युग में हम थे
कि आयी एक अनुचरी
-देवि, साम्राज्ञी ने आपको बुलाया है
और वह यंत्रवत चल पड़ी
तनिक आगे बढ़ी
तो मेरे मुख से नियति ने पुकारा –
हे निरीक्षिके! आना अब एक मास बाद
उपवन की सारी मूर्तियाँ तैयार मिलेंगी
सुनकर वह मुड़ी
कंदुक से उछले दो शब्द – पूरी स्वतंत्रता
और वह गयी
काँपता रहा दूर तक उसका गजनौटा
देर तक उड़ती रही उसकी मुस्कान
धूल-धूसरित कार्यशाला को धन्य कर
(तेरह)
एक मास बाद क्षुधा और क्लांति थी
विकट विश्रांति थी
भूमि की शय्या पर निद्रा के सिंधु में निमग्न था मैं
कि उद्धत प्रतिहारी ने झिंझोड़कर जगाया
उठो शिल्पी, उठो, दोपहर होने को आयी, उठो
साम्राज्ञी स्वयं आ रही हैं मूर्तियाँ निरीक्षण को
मैं घबराकर उठा
मुँह धोकर डाल एक उत्तरीय
यथाशीघ्र प्रस्तुत हुआ ही था
कि सुरभियुक्त वायु ने सचेत किया
‘मूर्तियाँ आवृत क्यों है शिल्पी
एक-एक कर अनावृत की जाएँ’
उसी का स्वर था किंतु वह नहीं
साम्राज्ञी की मुख्य परिचरिका बोल रही थी
और मैं नतशीश यंत्रवत
एक के बाद एक दस मूर्तियाँ अनावृत कीं
“साधु! साधु! साधु!”
पहली बार सुनी वह ध्वनि
कानों के परदे पर
मन की जीभ पर
राजसी मिठास के छींटे पहली बार पड़े
‘और यह ऊँची मूर्ति
इसे भी अनावृत करो शिल्पी’
मैं धन्य
कला की ऊष्मा
सत्ता को कैसे कोमल कर देती है
और मैंने शिशु सुलभ चपलता से आवरण हटाया
और पहली बार देखा महादेवी की ओर
हाय! यह क्या साम्राज्ञी के नेत्र तो विस्फारित
किंतु ईर्ष्या और क्रोध की लपटें क्यों
क्यों देख रहीं वे एक बार मूर्ति को
और दूसरी बार उसे
और उसका मुख इतना विवर्ण क्यों
मैं हतप्रभ…..
साम्राज्ञी मुड़ीं और कहा प्रतिहारी से
इस मूर्ति को अंग-भंग
और शिल्पी को दंडित मूर्ति के साथ
नगर से निष्कासन मिले
वे गयीं और गया सारा दल
साथ में वह भी
जैसे भागते हुए शकट से बँधी एक आहत मृगी
मुड़कर एक बार भी नहीं देखा
(चौदह)
-लेकिन क्यों
कला की कोमलता को इतना कठोर दंड क्यों
क्या अपराध है मेरा
-अपनी सबसे ऊँची मूर्ति को देखो शिल्पी
दंडाधिकारी का उत्तर था
-क्यों देखूँ भला
ज्ञात है मुझे
वह मेरी सर्वश्रेष्ठ कृति है
शुभांगी है विचित्रा प्रसन्नवदना है वह
ऐसी कि पत्थर के आगे भी रख दो
तो जीवन मुस्का दे
-इसीलिए कहता हूँ शिल्पी
इससे पहले कि अंगों का भंग हो
देख लो अंतिम अखंड छवि अपनी विशिष्टा की
और मैंने देखा
अरे! यह तो वही है बिलकुल वही
इसे मैंने कब रचा
मैं तो सतर्क था
कि शिल्प में मेरे वह हो तो अवश्य
किंतु इतना ही मात्र कि वह जाने मैं जानूँ
और जग कहे कि साधु साधु सुंदर अति सुंदर
असफल हूँ मैं पूर्णतया असफल
शिल्पी नहीं अपराधी
दास हूँ अनंग का
आत्मा का पाप हूँ
अपनी ही सृष्टि पर शाप हूँ
शिल्प क्यों शिल्पी हो दण्डित
अंग-भंग मेरा करो
हाय !
प्रथम छवि अंतिम
प्रथम स्पर्श अंतिम
और मात्र एक आधा-अधूरा अभिसार
शेष संहार………..शेष संहार
(पन्द्रह)
यह गंगा का तट है कवि
उस गंगा का जो कथाओं में ही नहीं
बाहर भी बहती है
यहीं रहता हूँ
वो रही मेरी पर्णकुटी
मैं उसके स्नान के लिए जल लेने आया हूँ
बस, हमीं दोनों रहते हैं और क्या
क्या नगर क्या पुर
खंडित मूर्ति और दंडित शिल्पी के लिए
कहीं स्थान नहीं
क्या करता हूँ
हाहाहाहाहाहा
प्रार्थना करता हूँ प्रार्थना
ईश्वर के ईश्वर से
कि ईश्वर के शिल्प को
शिल्प के ईश्वर दंड से मुक्त करें
और दंड ही देना हो
तो मुक्ति का दंड दें
मुक्ति का दंड हाहाहाहाहाहा
और क्या
उसे मैं निहारता हूँ
मुझे वह निहारती है
खेलता हूँ टकटकी लगाने का खेल
और कवि उसकी ढिठाई तो देखो
कभी नहीं हारती
चलता है चलने दो
जैसे वह प्रसन्न रहे
सच तो यही कि उसकी ही स्मिति से किरणें छिटकती हैं
दिन की उजास उसी की आभा से
उसी की थकान से गगन सँवलाता है
उसी की देह के घावों का कृष्ण रक्त तिमिर बन बहता है
उसी की पीड़ा से रात की निविड़ता
विकल वनस्पतियों में वही सिसकती है
-और अब क्या कहूँ
आपस में करते हैं बातें चुपचाप
सोचो तुम, कौन अधिक पत्थर है !
विनय कुमार
(९ जून १९६१), जहानाबाद , बिहार
एम. डी (मनोचिकित्सा)
Hony General Secretary:Indian Psychiatric Society
Chairperson, Publication Committee: Indian Psychiatric Society (2016-18)
Hony Treasurer: Indian Association for Social Psychiatry
Past Hony. Treasurer : Indian Psychiatric Society (2012-16)
Past Chairperson, Election Commission: Indian Psychiatric Society
Editor: Manoveda Digest (1st Hindi Mental Health Magazine)
Chairman: Vijay Memorial Trust
Consultant Psychiatrist
Manoved Mind Hospital & Research Centre
NC-116, SBI Officer\’s Colony, Kankarbag, Patna. India
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dr.vinaykr@gmail.com