लॉकडाउन का समय चल रहा है. ज्यादतर लोग घरों में बंद हैं. तो फिर कहानी ही कह-सुन ली जाए?
खैर, तो अब प्रजा को जनता कहा जाने लगा था और किताब के अनुसार जनता ही शासक थी. शासक को एक तरह से सेवक होना था. आधुनिकता के पास बहुत बड़े-बड़े यंत्र थे जो इतने सक्षम थे कि कभी किसी को भूखा-नंगा न रहना पड़े. लब्बोलुआब यह कि जिंदगी को खुशहाल बनाने के सब उपक्रम मौजूद थे.
महान ग्रीक दार्शनिक प्लेटो के अनुसार दुनिया से परे एक जगत में सभी आदर्श रहते हैं. यथार्थ जगत उनका प्रतिबिम्ब है. लोकतंत्र के आदर्श भी किताबों में बंद हो गए क्या? कुछ वाणी में विलास करते दिखते हैं. यथार्थ जगत में झलकने में तमाम बाधाएँ आड़े आती हैं, इसलिए दिखते तो हैं पर कम मात्रा में. इन बाधाओं के चलते शब्दों के प्रतिबिम्ब गलत कोण से गलत ढंग से बन जाते हैं. मसलन स्वतंत्रता चंद लोगों की अराजकता हो जाए. समानता वर्चस्वशाली वर्ग के शोषण के तौर-तरीकों और सोच में घटित हो. वैज्ञानिक चेतना मध्य कालीन मूल्यों के फलने-फूलने के लिए काम में लाई जाए. मध्य काल में विज्ञान और तकनीकी का विकास नहीं हुआ था. प्रकृति से कमतर होने की स्थिति में उन मूल्यों का अधिकतम उपभोग सम्भव नहीं हो पाया था. जैसे एक लड़के को पाने के लिए कई लड़कियों को पैदा करने की मजबूरी हो सकती है या गाँव से नौकरी या पढ़ाई करने नगर आने पर जातिगत जकड़नें मजबूरन टूट जाती थीं. कभी-कभी लिंग भेद की कुंजी से जाति का ताला खुलने जैसी अजीबोगरीब घटनाएँ भी घट जातीं. कभी वर्ग विषमता जाति के किले को भेद देती.
ऐसे राज-काज के समय में काँटा कोरोना नाम से आन पड़ा. एक को चुभे तो दर्द की लहरें पूरी मानव जाति तक जा सकने में सक्षम. सबकी सुरक्षा से ही सबकी सुरक्षा होगी. है तो यह विषाणु इतना छोटा कि हमारे शरीर की कोशिका के हजार टुकड़े करने पर कोरोना का आकार मिलेगा. पूर्ण जीव भी नहीं है. मगर न किसी के प्रभाव मंडल से रौब खाता है, न विषमता जानता है, न दया, न करुणा, न अति की अति से कोई गुरेज. अच्छी बात यह है कि उसके फैलने के तरीकों में ही रोकने के आसान तरीके निहित थे. एक का शुभ होने पर सबका शुभ हो जाता. पहले पहल शिकार बनने वाले लोग जूते पहन लेते तो काँटे की चुभन वहीं तक सीमित रह जाती. सीमित लोगों के लिए और उनके हिस्से का काम करने के लिए इतने लोग और साधन होते कि समस्या विकराल रूप ले ही नहीं सकती थी. तब यह विश्वव्यापी न बनती. मगर कभी राष्ट्र की नीतियाँ काँटों को पहचानने और जूते पहनने में बाधा बनी कभी उनके आर्थिक, अंतर्राष्ट्रीय, राजनीतिक सरोकार तो कभी प्रतिष्ठा के कृत्रिम आयाम, सामाजिक टैबू, दूरदर्शिता की कमी, कभी समस्या को गहरे आत्मसात करने में अपात्रता… राष्ट्र और व्यक्ति की सीमा के कारण विषाणु का विस्तार होता गया.
बहरहाल एक ओर बीमारी का डर इस कदर छाया हुआ है कि अजीब अहमकाना खबरें आई जा रही हैं- एक बुजुर्ग व्यक्ति के खाँसने पर उसे यात्रियों ने बस से बाहर निकाल दिया और हृदयाघात से उसने दम तोड़ दिया. एक ओर भयातुर हो कर ऐसी अमानवीय हरकतें हो रही हैं. दूसरी ओर सामान्य मानवीय सावधानियाँ बरतने के लिए भी लोग तैयार नहीं हैं. संक्रमण की आशंका वाले लोगों को क्वारांटाइन की अवधि में सभी सुविधाएँ मिल रही थी, किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं थी और फिर कोरोना पॉजिटिव आने की स्थिति में व्यक्ति को बेहतरीन इलाज समय से मिलने लगता. फिर भी अपनी प्रभाव-शक्ति का इस्तेमाल करके लोगों ने वहाँ से पलायन करके कई लोगों को इस विषाणु से संक्रमित कर दिया. कोविड 19 होने की पुख्ता खबर होने पर भी पढ़े-लिखे-सुसभ्य कहलाने वाले लोग भाग खड़े हो रहे हैं.
ढीली क्या, कैसे करें, इसका बोध कहाँ से लाया जाए अचानक? कहाँ खाली करें कोई पात्र भी हो सामने. कैसे बाँटे और क्या बाँटे? अच्छाई कोई छाता थोड़ी है कि सालों साल बंद पड़ी रहे और अचानक बारिश होने पर बटन दबाया और खुल गई. प्रशिक्षण ही नहीं है ऐसा कुछ करने का, जिसकी जरूरत आन पड़ी है. पता ही नहीं कि लोकतांत्रिक मूल्यों और सामान्य मानवीय भावों को सहज ढंग से कैसे जीना है. परिस्थितिवश बहुसंख्य लोगों के लिए पैदा हुए सरोकार आचरण में ढलना नहीं जानते इसलिए वे भीतर ही भीतर खदबदा कर ऐसा रसायन बन जा रहे हैं कि व्यक्ति अपने ‘स्व’ के ऊपर ही रक्षा की परतें दर परतें चढ़ाए जा रहा है, चढ़ाए जा रहा है. यह सोचे बिना कि अपनी स्वकेंद्रितता में आकंठ डूब कर दुनिया पर टूटे कहर को भुलाया जा सकता है भी या नहीं.
लोगों के यह हाल देख कर फिर से एक कहानी याद आ गई. एक बार देवता और राक्षसों को दिव्य भोज के लिए बुलाया जाता है. सबके हाथों में लम्बी सी चम्मच बाँध दी जाती है. राक्षसों का नम्बर आता है तो वे एक दाना भी नहीं खा पाते. तेज भूख और सामने रखे हुए भाँति-भाँति के स्वादु पकवान. उनका सब्र टूट जाता है और खलबली मच जाती है. फिर उन्हें ख्याल आता है कि देवताओं वाले भोजनकक्ष से शोरगुल नहीं आ रहा है, जरूर उन्हें छोटी चम्मच मिली होगी. जाकर देखा तो एक-दूसरे से हाथ भर की दूरी बनाए हुए कतार बना कर देवता लोग आराम से बैठे हुए हैं. सब एक-दूसरे को बड़े प्रेम से खाना खिला रहे हैं. राक्षस हैरान रह जाते हैं कि ये बात हमारे दिमाग में क्यों न आई कि अपने मुँह में चम्मच नहीं जा सकती पर दूसरे के मुँह में तो जा सकती है. मेरी दूसरे के मुँह में जाएगी तो दूसरे की भी तो मुझ तक आएगी.
अब भी मीटर भर दूरी बना कर रखनी है एक-दूसरे से. हाथों में ऐसी चम्मच बँध गई है कि चाह कर भी सिर्फ अपना पेट भरना सम्भव नहीं है. फिर भी अपनी-अपनी रक्षा की ही हम सोचे जा रहे हैं. जो कुछ भी उस चम्मच की परिधि में आए उसे खींच कर अपने घेरे में उड़ेलते जा रहे हैं. चाहे वह अपना प्रभाव प्रयुक्त करके क्वारांटाइन से भागने की आजादी हो, या अपने लिए मास्क और सैनेटाइजर सहित जरूरत का तमाम सामान भरते जाने की कवायद. दूसरी ओर अचानक घरबंदी होने से कई लोग बीच भँवर में फंस गए हैं. श्रमिक वर्ग के लोगों के खाने-पीने-घर पहुँचने का कोई ठिकाना नहीं है. तीन अस्पतालों में चक्कर लगाने के बाद एक मरीज का जब तक इलाज शुरू हुआ, उसने कोरोना के संक्रमण के कारण दम तोड़ दिया. दिल दहलाने वाली अनेक खबरें निरंतर आ रही हैं.
डॉक्टर और अन्य चिकित्सा कर्मियों और बुनियादी सेवा से जुड़े लोगों को निरंतर काम करना पड़ रहा है. यही लोग हैं जिन्हें काँटे वाली सड़कों में लगातार गुजरते रहना है. उनके पाँवों में जूते जरूरी हैं. उनके पैरों में काँटे चुभे तो कौन किसे बचा पाएगा. प्रतिस्पर्धा के इस दौर में लोगों ने अपने घरों के लिए इतना चमड़ा जमा कर लिया है कि सबकी सुरक्षा खतरे में पड़ गई है. कहानी की भाषा छोड़ के सीधे शब्दों में आते हैं. आज के समय की जटिलता को वहन करने की ताकत पुराने किस्सों में नहीं है. तब लोग अबोध थे. फकीर ने बोध दे दिया. इधर चिराग जला उधर अंधेरा दूर हुआ. मगर अब सब कुछ इतना सीधा नहीं है. बौद्धिकता के अतिरेक से उगले हुए अंधेरे हैं ये. मेडिकल सेवियों के लिए मास्क और सैनिटाइजर जैसी बुनियादी सुविधाएँ नहीं हैं. हमें उनके लिए तालियाँ और थालियाँ पीटने की जल्दी है. संसाधनों पर अपनी पकड़ ढीली करके और उनके काम करने के लिए अनुकूल माहौल बना कर हम उनकी मदद नहीं कर सकते?
अफवाहों और चुटकलों को ग्रहण करना और भेजना बंद करना भी जरूरी है. निरर्थक शब्दों के सैलाब में आम आदमी के लिए प्रामाणिक सूचनाओं को पहचानना मुश्किल हो जाता है. मीडिया अपनी विश्वसनीयता कायम नहीं रख सका है इसलिए अपनी अतिव्यस्त दिनचर्या से समय निकाल कर डॉक्टर्स को ही जनता को संबोधित करना पड़ रहा है. अफवाहों, अंधविश्वासों, आभासी सत्यों की वैशाखियों में जीने की आदत बहुसंख्य जनता में इतने गहरे समायी है कि वह तथ्यों को ग्रहण कर ही नहीं पा रही है तो अनुसरण कैसे करेगी. जनता- कर्फ्यू के पहले दिन ही लोगों ने जलूस निकाल लिए, भीड़ ने जश्न मनाना शुरू कर दिया. मानो किसी पंडित ने जजमान को 10 घंटे घर के अंदर रहने का टोटका बताया हो. और वह निभते ही विषाणु दुनिया के पार हो गया हो, मानो ओझा ने भूत भगा दिया हो. मंदिरों और मस्जिदों में भी लोगों का मजमा देखने को मिला. भक्तों का पूरा विश्वास था कि उनका खुदा और ईश्वर उन्हें कुछ नहीं होने देगा, वे एक ही हौद के पानी से एक-साथ हाथ ही क्यों न धोएँ. वह खुदा का पानी जो है.
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