हिन्दी के युवा कथाकार कहानी के कथ्य और शिल्प में साहसिक प्रयोग कर रहें हैं, यहीं से कहानी का नया स्वरूप आकार लेगा. समय तो इसमें लगता ही है.
अविनाश की कहानी ‘जम्प कट’ प्रस्तुत है.
जम्प कट
अविनाश
एक
आधी-अधूरी
उदास कमरे में फर्श पर बिछी हुई वह, अपने खाली पड़े स्मृति-फाँकों को अंतहीन मौन से भरने का प्रयास कर रही थी. वह दिन भर सिसकती, कुछेक चीजों के दृश्य उसके मानस पर उभरते, वह अनायास ही अपने आस-पास कोई गंध महसूसती, उसके अगल-बगल कभी-कभार मंत्रोचारण की उर्जा उसे उखाड़ फेंकती. वह रातों को आँख नहीं मूँद पाती, उसे अँधेरे में कमरे की सीलिंग पर एब्सट्रैक्ट आर्ट की तर्ज पर घुलती-धुंधलाती-रंगहीन होती तस्वीरें दीखतीं, वह फर्श में डूब जाना चाहती लेकिन आँखें नहीं मूंदती. उसे अपनी इस हालत के रहस्य को जान लेने की जिद थी. मानो उसके नियमित जिंदगी में आया यह ग्लिच उसे बर्दाश्त नहीं था. वह अपने होने के अव्यक्त व्याकरण के नए अपवाद नहीं बनाना चाहती थी.
उसके जीवन में अभी किसी प्रकार की ऊब नहीं आई थी जिससे वह तटस्थ हो जाए. उसे इस तरह ठहरना नहीं था, उसे यूं ही अभिव्यक्ति के उस पार नहीं जाना था, उसे वैचारिकी में स्वयं की मीमांसा नहीं करनी थी. वह तो उन्मुक्त-सी सबको आजाद कर देने की इच्छा रखती थी, उसके होने में कईयों के होने के संताप के निवारण का संघर्ष व्याप्त था. वह क्या कुछ करने के पथ पर थी, उसके साथ क्या कुछ हो गया है?
अपने इन्द्रिय-बोध से उसे जिस तरह की चीजें दिखाई देतीं, जिन चीजों की गमक आती, जिन चीजों के लिजलिजे स्पर्श की सिहर फैलती – एक अबोध, अनसुलझी गुत्थी में बंधती जातीं. वह जितना जान लेना चाहती, उसे उतना ही अनजान होने का ज्ञान होता. वह दैवीय दृष्टि से एक मानव सूत्र थी, जिसकी कथा से बहुत आगे तक इष्ट की आराधना और अवहेलना का फल-दंड समझाया-बुझाया जाएगा. उसे यह ‘हेल सर्किल’ छोड़ना था. दांते की बनाई परतों में वह सबसे आखिरी परत में जूझ रही थी.
जब उसके भीतर स्वीकारोक्ति का भाव उठा, वह अपनी तरह की दूसरी आधी-अधूरी चीजें जानना चाहती थी. उसे एक बाह्य पहचान-बिंदु की आवश्यकता जान पड़ी, जिससे वह अपनी स्थिति आँक सके. वह किसी-न-किसी युक्ति से खुद को इस जग में कहीं फिट होते हुए देखना चाहती थी.
भारीपन से लदे उसके कदम उठे. उसने कमरे के बल्ब को ना जाने कितने समय बाद प्रकाशित किया. कमरे के चौंधियाते जीवन-प्रकाश से उसकी आँखें मुंद गईं. कुछ क्षण के खालीपन के बाद, वह कमरे में इधर-उधर टहलने लगी. चीजों को निहारती, फिर उसका ध्यान-भंग हो जाता. उसकी क्षणभंगुरता से कमरे का हर सामान हारा हुआ महसूस कर रहा था. कुछ भी उनमें ऐसा नहीं था, जिसके वजह से वह उन्हें अपना कह सके. अपनी चीजों से ही कैसा दुराव उत्पन्न हो जाता है. जैसे चीजों की अंत्येष्टि में उनका ‘किसी का’ नहीं होना लिखा है. उसकी नजर पुराने बुकशेल्फ में कुछ फटेहाल कागज़ों की पाण्डुलिपि पर गई. यह पहली चीज थी, जो उसने अपने सामान में शायद कभी नहीं देखा था, पर ‘अपनेपन’ की चाह में उसे उठा ली. यह किसी कहानी के कुछ आधे-अधूरे पृष्ठ थे. यह साहित्य का कोई अनजाना काम था. साहित्य को उसका कर्म-बोध कराने, आधे सत्यों के अधूरे नायकों से जीवन-अमृत मथाने की इच्छा के साथ उसने वह पृष्ठ उठा लिए.
दो
क्रिएशन
मैं हर रोज नई दुनियाएं रचता हूँ. कभी उनमें फूंक मार कर हवा में गुब्बारे की तरह छोड़ देता हूँ, तो कभी उन्हीं दुनियाओं में इस जग से शरण पाता हूँ. कभी इस यथार्थ के मानी उस कल्पनातीत जग में मिलते हैं, तो कभी यह सब मिथ्या का भरोसेमंद रूप प्रतीत होता है. कभी अर्थ अपने वाक्य से भिन्न बनते चलते हैं, तो कभी वाक्य अर्थों के मलबे में दम तोड़ देते हैं. इन्हीं खींचातानियों के बीच एक अनवरत संघर्ष जारी रहता है.
मैं एक कॉफ़ी हाउस में बैठा हुआ नित नए आयाम गढ़ने की चेष्टा में हूँ. मेरे सामने वाली टेबल पर एक बुढ़ापे की ड्योढ़ी पर खड़ा आदमी बैठा हुआ है. उसके भवें किसी शिकन से तनी हुई हैं. वह अपने मोबाइल में लगातार देखे जा रहा है. लगता है जैसे कोई शोक-संदेश प्राप्त हुआ हो. या फिर कोई ऐसी सूचना मिली हो जिससे आदमी हताश हो जाए. बेमानी सा सबकुछ उसकी आँखों के सामने तैरने लगे. वह अब अपनी कॉफ़ी भी नहीं एन्जॉय कर पायेगा. हर क्षण इस मोबाइल पर कुछ-न-कुछ ऐसी चीजें तैरती रहती हैं. समाज उत्तरजीविका के चरण में आ गया है.
मुझे उसका चेहरा किसी भूली कहानी जैसा लग रहा है. यह स्मृति के उन कोनों में जा फंसी है कि अब यह मेरी अपनी कृत प्रतीत होती है. मैं इसे अपना मान लूँगा. वह आदमी अब अपनी ठंडी हो गई कॉफ़ी उठाता है. उसे यह सबकुछ एक बारम्बार बजने वाली धुन लग रही है. हर रोज इंसान अपनी जाग में वह राग अलापता रहता है.
वह आज रिटायर हुआ होगा, और हर रोज ऑफिस जाने की लत के कारण इस कॉफ़ी हाउस में आ बैठा होगा. आज अपनी आजादी और उसके साथ आने वाली अनर्गलता को किसी स्कीम में बैठाने के उद्देश्य से वह यहाँ पहुंचा होगा. अपनी तेज मुस्कान लिए वह वेटर से यहाँ का स्पेशल मंगाया होगा. फिर अपने इस नए खालीपन में अभीभूत वह अगल-बगल के लोगों को आश्चर्य से देखा होगा. तभी उसे अपनी पहचान के किसी लड़के का संदेश आया होगा की उसकी माँ बीमार है.
यह वही लड़की है जिसके वह कभी बहुत निकट था, इसी लड़की से इतना प्रेम करता था की कभी उससे बहुत दूर नहीं जा पाया. अलग-अलग जिंदगियाँ जीते हुए भी वह अपरिचित नहीं हुआ. वह अपनी कहानी को हमेशा एक विशेष रस्ते से ले जाता रहा. कभी उसकी पत्नी ने उसे किसी नई जगह बस जाने का निवेदन किया होगा, या कभी बच्चों की इच्छा रही होगी की उनके स्कूल भी फिल्मों में दिखने वाले बड़े स्कूलों की तरह हो, या कभी उसके ऑफिस में ही ट्रान्सफर और पदोन्नति की बात हुई होगी, पर हर बार अपनी मुस्कान लिए वह टालता रहा होगा. “यहाँ अपना-सा लगता है”, यही कहकर उस भाविश्य्म्भावी चर्चा की जड़ों को ही काट देता होगा.
इसी लड़की के पति का इसी शहर में छोटा व्यापार था, वह जीवन-पर्यंत यहीं रहने वाली थी. आते जाते दोनों कभी सड़कों पर मिल जाते होंगे. दोनों के साथ कोई न कोई जरूर होता होगा, औपचारिक हाल-चाल लेते होंगे. कभी सोशल गेदरिंग्स में एक दूसरे के पुराने परिचय का अनायास जिक्र आता होगा तो एक दबी मुस्कान के भीतर वह अपने हिस्से का अफ़सोस दबा लेते होंगे.
बीच में ही उसके पति की मृत्यु हो गई, कारोबार का भार उसने अपने कन्धों पर ले लिया होगा. पूरे परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी वह निभा रही होगी. थकान में कभी-कभी उसे पुराने दिन याद आते होंगे. उसी तरह इस आदमी के जीवन में अकेलापन, सबके होने के बावजूद घर कर गया होगा. वह दोनों अब जब एक दूजे को देखते होंगे तब अपनी यादों को खंगाल कर हर बार नए पहलू सामने लाते होंगे. वही लड़की आज बीमार है.
तीन
जादूगरनी
साहित्य के वह दस्तावेज अपनी रची-बनाई दुनिया में उसे खींच लिए थे. वह नए यथार्थ की तलाश में अपना यह सच छोड़ चुकी थी. पढ़ने की क्रिया में इतनी तल्लीन की उसके हाल पर अब कुछ नहीं लिखा जा सकता. वह किस पीड़ा में जी रही थी, इसे बयाँ करना एक लेखकीय झूठ होगा. किसी अप्रत्यक्ष जादू ने उसे अपनी गर्भ में समाहित कर रखा था.
यह जादू ठीक वैसा ही कुछ था, जैसा उसने तब महसूस किया था, जब उसकी जिंदगी रैखिक थी. उसका हर निर्णय क्रमबद्ध तरीके से लिया जाता रहा था. एक उदात्त जीवन के रास्ते पर चलने के लिए सभी जरूरी शर्तें पूरी करती हुई. उसके वैयक्तिक इतिहास से ही उसके निष्क्रिय क्षोभ का रहस्य पता करने का प्रयास किया जा सकता है. लेखक वैसे इस सत्य से नावाकिफ़ बिल्कुल भी नहीं है की घटनाओं के निमित्त का कोई यथातथ्य वक़्त का निर्धारण असम्भव है, फिर भी वह शिक्षित अनुमान लगाने के पक्ष में है.
स्मिता. यही उसका नाम है. दिल्ली विश्विद्यालय से ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद वह एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले एक संगठन से जुड़ गई. स्मिता वहाँ इसलिए जुड़ी क्यूँकी वह इस समुदाय के घुटन को देख सकती थी. वह अपने भीतर उस गुस्से को पनपते देख सकती थी, जब हास-परिहास में किसी विकल्प को खारिज कर दिया जाता था. किंकर्तव्यविमूढ़ से उसके साथी बस दुःख प्रकट कर देते. उसे कुछ करना था.
इस संगठन ने उसके कुछ करने की मंशा को पहली सीढ़ी प्रदान किया. वह इससे जुड़ कर एक समूह का हिस्सा खुद को मान पा रही थी. ऐसा समूह जो आजादी को सर्वमान्य मान कर आँखों पर पट्टी नहीं बाँध लेता, ऐसा समूह जिसके लिए आजादी अर्जित होती है, और उसके लिए संघर्ष एक अनवरत चलने वाली साधना.
इन्हीं दिनों में उसने उपासना जी को जाना था. एक ऐसी महिला जिसके समीप जाने की, उनके सानिध्य में अभिभूत होने की उत्कट इच्छा उसके भीतर जागी थी. यह पहली व्यक्ति थीं, जो उसके भीतर घटित हो रही सभी समस्याओं को भाषाई अभिव्यक्ति में सौन्दर्य प्रदान कर रही थीं. उन्हें सुनते हुए वह भावावेग में आकर जोर से चीखी भी थी शायद, जो बाद में एक मुलाकात में उपासना जी ने कहा था, “आपकी बातों में ही नहीं आवाज में भी बहुत दम है”, जिसपे स्मिता लजा सी गई थी. उपासना जी पहली व्यक्ति थीं, जिनके चरण स्पर्श करती थी वह. उपासना जी भी अपना स्नेह उसपर खूब लुटाती थीं.
अपने एक सहकर्मी से स्मिता ने कहा था, “यदि वह भी लेस्बियन होती तो उपासना जी के साथ ही रिलेशनशिप में आती”, फिर लड़कों के नासमझ होने पर एक लंबा आख्यान दिया था. उन दिनों वह हर काम को तत्परता से करती. उसकी जिजीविषा का कारण यह संघर्ष का उद्देश्य ही था.
11 अक्टूबर को एलजीबीटीक्यू दिवस होता है. उस दिन उनके संगठन ने एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित करने का फैसला लिया था. यह उनके संघर्ष मार्ग में एक साहसिक कदम होने वाला था. आयोजन के कई हिस्सों की जिम्मेदारी स्मिता के ही जिम्मे आई. उसका मुख्य काम आयोजन के संचालन और आये अतिथियों के इंतजामात का था. उन्हीं अतिथियों में से उपासना जी भी एक थीं.
उसने कार्यक्रम का संचालन बखूबी किया, अपने रोष को वह जादुई भाषा में परोसने में सफल रही थी. कार्यक्रम पश्चात उपासना जी ने उसकी इस उपलब्धि को रेखांकित भी किया और उसे आशीर्वाद भी दिया था.
दिन भर की थकान और अच्छे भोजन के बाद, उसके पास रात 11 बजे एक टेक्स्ट आया – “उपर कमरे में आओ, कुछ बातें करेंगे” – मन ना होते हुए भी वह कमरे की तरफ बढ़ी.
चार
स्वप्न
मैं अभी नींद से उठा हूँ. अचकचाये हुए जागा. कोई सपना देखा था, या फिर कोई कहानी थी जो जेहन में चल रही थी. वह बूढ़ा जा चुका है. समय ब-मुश्किल दस मिनट बीते होंगे. मुझे इस भरी दुपहरी में नींद कैसे आ गई? एक अफ़सोस मुझ पर तारी हो गया है. वह बूढ़ा कहाँ चला गया होगा? वेटर से पूछूँ? नहीं, मुझे इस तरह के अजीबोगरीब सवाल नहीं करने चाहिए. मेरे सामने लैपटॉप की स्क्रीन खुली है और कोई वाक्य नहीं लिखे हैं. सोने से पहले एक कहानी पूरी तो की थी? कोई मिटा गया? यहाँ सब मेरे दुश्मन दिख रहे हैं. मैं वेटर को बुलाता हूँ. वह मुस्कुराता हुआ आता है, उसकी निगाह में भी मुझे फरेब दिखता है. बिल दे कर, जल्दबाजी में अपना सारा सामान लेकर उठ जाता हूँ.
वह बूढ़ा शायद उस औरत को देखने गया होगा जो बीमार थी. वह उससे बहुत पहले प्रेम करता था, फिर धीरे धीरे वह प्रेम एक जिद में बदल गया होगा. उसने यह शहर भी इसी कारण नहीं छोड़ा होगा, वह उसे पाने की गुंजाइश पर जी रहा था. जब उसका पति मरा तो वह उसके काम में मदद करने लगा होगा. उसके करीब आने की इच्छा में वह उसके घर भी जाने लगा होगा. उसके बच्चों पर स्नेह लुटाता होगा. वह सबकुछ करता होगा, जो वह उसके लिए पहले करना चाहता था.
जब वह बोली होगी, “तुम हमारे लिए इतना मत किया करो, एहसान नहीं चुका पाएंगे हम”. उसे धक्क सा लगा होगा. वह बोला होगा, नहीं नहीं लगभग चीखा होगा, “मैं यह सब तुम्हारे लिए कर रहा हूँ, एहसान नहीं है कोई”. वह उठ कर चला गया होगा. फिर दो-तीन दिन दिखाई नहीं दिया होगा. उसके सहकर्मी फ़ोन पर उसका हाल पूछने लगे होंगे, कुछेक तो उसके घर तक चले आये होंगे, उसने कुछ ठीक नहीं लग रहा आजकल का बहाना बनाया होगा. या फिर वह किसी के भी इतने निकट नहीं रहा होगा, वह तटस्थ रहता होगा. जब दुबारा ऑफिस गया होगा तो किसी ने शायद पूछ लिया हो की क्यूँ नहीं आये, फिर आगे बढ़ गया होगा, बिना उत्तर सुने. काम से वापस आते वक़्त उसकी दुकान की तरफ झाँका होगा, वहाँ बच्चों ने अंकल प्रणाम कह के उसे सकुचा दिया होगा. वह अनमने ढंग से फिर सड़क पार कर उसके पास गया होगा, औपचारिकता में बिना नजरें मिलाये कुछेक बात किये होंगे. तभी गलती से उसके हाथ स्पर्श कर गए होंगे, वह नजरें मिलाने लगा होगा. फिर वही आक्वर्डनेस दुबारा आ गई होगी, वह घर निकल गया होगा, इस स्पर्श के मायने ढूंढते. वह फिर अपने पुराने रूटीन पर आ गया होगा, वह चाह कर भी मना नहीं कर पाई होगी.
मैं अब घर आ गया हूँ. एक नई कहानी बुनना शुरू कर दूंगा. पुरानी कहाँ फिसल गई क्या पता. यह बूढ़ा अभी भी मेरे दिमाग में अटका हुआ है. मुझे उसे ढूंढना चाहिए, वह आस-पास का ही होगा. कहां ही जाएगा?
स्मिता ने सभी पृष्ठ ख़त्म कर लिए हैं, कहानी अभी भी अधूरी है. वह उसी मनोदशा में वापस फिसल जाती है, एक और जम्प कट. ऐसा उसके साथ क्यों हो रहा है, अधूरेपन की देवी बनती जा रही है वह.
क्या उसे जान लेने की इच्छा ने उसे भुलाया रखा है? किसी लेखक ने ही लिखा है, हम याद करने की कोशिश में चीजें भूलते जाते हैं. वह क्यों सारा सच जान लेना चाहती है, वह उस सच को कैसे जान सकती है, जब उसे पता ही नहीं सच क्या है? हम जो भी याद करते हैं, हमें पता होता है हमें क्या याद करना है, फिर उसे याद करने में हम बाकी सभी गौड़ चीजें भुला देते हैं और गूढ़ तत्व यानी याद करने के उद्देश्य तक पहुँच पाते हैं.
वह अपनी पढ़ी कहानी को दुहराती है, उससे आगे का सच खुद बनाती है. अंत अब उसके हाथ में है. वह सुखांत या दुखांत कुछ भी कर सकती है. लेखक की वह कृति अब उसकी भी उतनी ही है, जितना वह कभी लिखते समय लेखक की रही होगी. अब सभी रहस्य भरभरा जायेंगे. वह सबकुछ दुबारा लिख सकती है. उसे अपने हिसाब से बाँध सकती है.
वह लेट जाती है. उसकी स्मृतियाँ एक आकर लेने लगती हैं. वह 11 अक्टूबर की रात को एक कमरे में है. उसे कोई जानी पहचानी आवाज अंदर बुलाती है, वह उसी बुलावे पे आई थी. उसे कूकीज खाने को उपासना देती हैं, वह मना करती है फिर ले लेती है. उपासना उससे कुछ सवाल करती हैं, पास आ जाती हैं. वह शायद शराब पी हुई हैं. ज्यादा शराब. वह दूर खिसक जाती है, उपासना अलग किस्म की बत्तियां जला देती हैं. वह नीचे बैठ कर उन बत्तियों को देखने लगती है, उसके आस पास धुंधलाने लगता है. उसकी आँखें भारी हो रही हैं – वह पलक झपकती है, फिर कुछ अपरिचित आवाजों पर आँख खोलती है, धूप की महक उसे आ रही होती है, वह देखती है उपासना कुछ जाप कर रही हैं. वह डर जाती है. वह कुछ बोलना चाहती है, पर आवाज उसके कंठ में दब जाती है. उसके कंठ पर वह नीला-गुलाबी रंग चहलकदमी करता है. धीरे धीरे वह रंग उसके पूरे बदन पर फिसलने लगते हैं. उपासना उसके बदन पर उन रंगों को रोकना चाहती हैं. वह उन रंगों को डांट रहीं थीं शायद, वह शायद स्मिता को हर तरफ से पलट कर बचा लेना चाहती थीं. उपासना उसे अपने में मिला लेना चाहती हैं, समेटना चाहती हैं, उसकी आवाज उनसे लिपट कर तरंगों में फैलती है. वह गुनगुना रही है, गा रही है, आलाप ले रही है – उपाआआअसनाआ
छह
चोरी
मैं घर से निकल गया हूँ, और इधर-उधर टहल रहा हूँ, इस उम्मीद में की मैं उस बूढ़े को देख लूँगा, उससे मिलूंगा. पर उससे मिल कर कहूँगा क्या? मैं क्यों मिलना चाहता था उससे? मैं बिना किसी ढाँचे के उधर टहल रहा हूँ. मुझे वह अचानक दिख जाता है, वह भी मुझे देखता है. उसकी नजरों में कुछ ऐसा है, जैसे देख कर सहम गया हो. क्या हुआ होगा ऐसा जो वह सहमा होगा?
क्या वह बीमार बुढ़िया मर गई होगी? नहीं, ऐसे में वह सहमा नहीं होता, अतिशय दुःख में होता. अभी यह सब सोच ही रहा हूँ की वह आगे निकल गया है, पलट कर मुझे देख भी रहा है, फिर गली से मेन रोड की तरफ मुड़ गया है. मैं उसके पीछे जाना चाहता हूँ, पर उस बुढ़िया के साथ क्या हुआ होगा? मैं घर में जाना चाहता हूँ, सबसे आराम से पूछना चाहता हूँ, आखिर उस बूढ़े को यहाँ से जाने क्यों दिया? उसके खौफ में एक पाप का अंश दिख रहा था मुझे.
वह उठ कर बीमार औरत के घर पहुंचा होगा. शायद उसपर गुस्सा भी होगा. वह उससे जानना चाहता होगा की उसने उसे कभी क्यों नहीं अपनाया. उसे अपने उम्मीद की डोर टूटती नजर आई होगी. वह बेतहाशा पागल हो उठा होगा. उसके आँखों में उदासी और बदन में सिहरन फ़ैल गई होगी. बुढ़िया के बच्चे उन दोनों को अकेला छोड़ कर नाश्ता का व्यवस्था करने चले गए होंगे. जाने से पहले यह बताया होगा की माँ का दिमाग नहीं काम कर रहा, की वह सुस्त पड़ी रहती हैं, की अब डॉक्टर ने भी कोई उम्मीद नहीं बताई है, की उसकी तबियत अचानक से हफ्ते भर में ही बिगड़ गई, की उसने उन सब को कितनी मेहनत से पाला था, की वह उसके लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं. वह लड़के के कंधे पर बस एक हाथ रख दिया होगा. बच्चे नाश्ते का बोल कर उन दोनों को कमरे में अकेला छोड़ गए होंगे.
उसे याद हो आया होगा वह कितने वर्षों बाद उसके पास अकेला है. पर वह अब कुछ भी नहीं बोल सकती, की उसका दिमाग नहीं काम कर रहा, की वह उसके ऊँघने पर अंदर तक झुलस जाता होगा, की वह उसके मौन से अपने भीतर बने खालीपन का जवाब चाहता होगा, की वह जानना चाहता होगा की उसने उसे हमेशा अपने बदन से क्यूँ दूर रखा. तभी वह करवट ली होगी, उसके कपड़े उघर गए होंगें. वह फुर्ती से सम्भाली नहीं होगी. वह उसके नंगे बदन को कुछ देर निहारा होगा, फिर ठीक करने की चेष्टा से अपनी कुर्सी से उठा होगा, फिर उसे अपने सारे अपमान याद आये होंगे, उसके बदन को किस तरह उसने झुठलाया था, की अपने बदन को किस तरह तराशती रहती थी, की वह बौखला उठेगा, की वह उसके योनि पर गुस्से में मारेगा, वह फिर भी बस कसमसा कर रह जायेगी, वह और जोर से मारेगा, फिर उसके बच्चे आने लगेंगे, वह जल्दी से नाश्ता कर के निकल आया होगा, तभी उसे मैं दिख गया होऊंगा और वह नजरें बचा भाग निकला है.
मैं फिर हताश होकर घर आ गया हूँ. मुझे उससे अब कुछ नहीं पूछना. मुझे कहानी लिखनी है, एक नए सिरे से, नए चीजों के साथ. यह सब बर्दाश्त नहीं होता. इन सब को जान कर मैं क्या करूंगा? क्यों लिखूं? यह सब तो अन्तर्वासना पर लिखा जाता होगा. इसे साहित्य नहीं कहेंगे. तभी फ़ोन खोल लूँगा. सोशल मीडिया पर एक परिचित लड़की का पोस्ट दिख जाएगा, उसका महीनों पहले किसी एक्टिविस्ट ने रेप किया था. मैं हैरान हो जाऊँगा. कैसे मान लूं उस लडकी को, अटेंशन चाहती होगी?
मैं लिखूंगा, परिवार और समाज ही आदर्श की परिभाषा हैं. इसी आदर्श को जज्ब करना ही साहित्यकार का काम.
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