तेजिमोला से मूलान तक: हमारी कथाओं की स्त्रियाँ
प्रीति प्रकाश
मेरी दोस्त मधुश्री असम की लोक कथाओं पर काम कर रही है. एक दिन उसने मुझे तेजिमोला की कहानी सुनाई जो असम की सबसे प्रसिद्ध लोक कथा है. तेज़िमोला नाम की एक छोटी सी लडकी के पिता, उसे सौतेली माँ के भरोसे छोड़ कर विदेश चले जाते है. इधर पिता विदेश जाते हैं उधर नन्ही बच्ची पर सौतेली माँ के अत्याचार शुरू होते हैं. वह तेजिमोला से घर के सारे काम करवाती है और एक दिन उस नन्ही सी बच्ची को, ढेकी (धान से चावल निकालने का एक पुराना यंत्र) में कूट-कूट कर मार डालती है. तेजिमोला की माँ उसे जहाँ दफ़न करती है वहीं एक लौकी की बेल उगती है जिसपर एक बड़ा सुन्दर लौकी आता है. जब भी कोई उस लौकी को तोड़ने जाता है लौकी में से आव़ाज आती है कि मैं तेजिमोला हूँ, मुझे मत तोड़ो. मेरे पिता विदेश गए हैं. सौतेली माँ ने मेरी हत्या कर दी है. मुझे अपने पिता को अपनी दर्द भरी दास्ताँ सुनानी है.
किसी तरह सौतेली माँ को इसका पता चल जाता है और वह लौकी की बेल को फल सहित टूकड़े-टूकड़े काट कर फेंक देती है. जहाँ पर बेल के टूकड़े फेंके जाते हैं वहां ओटेंगा का एक पेड़ निकलता है. जिसपर ओटेंगा का फल आता है. जो कोई भी उस फल को तोड़ने आता है फल से वही दुखभरी आव़ाज आती है जो वही दास्तान सुनाती है. सौतेली माँ को इसका भी पता चल जाता है. वो ओटेंगा के पेड़ को भी टूकड़े टूकड़े काट कर नदी में बहा देती है. अबकी बार नदी में एक कमल का फूल खिलता है. जो भी उस कमल के फूल को तोड़ने जाता है वहीं कमल से तेजिमोला की आव़ाज आती है और वही दास्तान सुनाई जाती है.
इत्तफाक से तेजिमोला के पिता उसी रास्ते से आते हैं. वो कमल के फूल को तोड़ने जाते है और सारी दास्ताँ सुनते हैं. फिर वो अपने विश्वास को पक्का करने के लिए कहते हैं कि अगर वही तेज़िमोला है तो गौरैया में बदल कर दिखाए. तेज़िमोला गौरैया में बदल जाती है. पिता गौरैया को अपनी टोपी में छुपाकर घर लौटते हैं और सौतेली माँ से तेजिमोला के बारे में पूछते हैं. माँ के झूठ बोलने पर टोपी में छुपी गौरैया बाहर आती है और गीत गाते हुए सच बताती है. पिता सौतेली माँ को घर से निकाल देते हैं और पिता पुत्री खुशी-खुशी जीवन व्यतीत करने लगते हैं.
मुझे यह कहानी सुनकर बहुत ही मिश्रित अनुभव हुआ क्योंकि बिलकुल इसी कहानी का भोजपुरी वर्जन मैंने सुन रखा था. हमने अपने उत्तर प्रदेश और बंगाल से आने वाले दोस्तों से बाते की और हमें एक बात समझ में आयी कि हम सबने लगभग एक जैसी लोक-कथाओं के अलग-अलग वर्जन सुने हैं. यही से एक दूसरा सवाल मेरे सामने उठ खड़ा हुआ, कि यह लोक-कथा आखिर ऐसी क्यों है? एक मजबूर लडकी, उसकी दुष्ट सौतेली माँ, सौतेली माँ के अत्याचार, पिता का विदेश से वापस आना, और फिर लड़की के दुःख दूर करना.
मैं बचपन में सुनी गयी कहानियां याद करती हूँ. सात भाईयों और उनकी इकलौती बहन की कहानी जिसमें भाईयों के विदेश चले जाने के बाद भौजाई, बहन पर अत्याचार करती हैं. उसे काला कम्बल धोकर सफ़ेद करने को कहती हैं. बहन कम्बल धो रही है और रो रही है. धो रही है और रो रही है और यह कहानी सुनते समय हम भी रो पड़ते थे और मन ही मन यह प्रार्थना करने लगते थे कि काश भाई लौट आते और बहन का दुःख दूर करते.
फिर कौआहंकनी की कहानी जिसमे राजा की तीन पत्नियाँ है जो सौतिया डाह में जलती हैं. दो रानी बाँझ हैं इसलिए तीसरी रानी को जब जुड़वां बच्चे होते हैं तो जलन के कारण वो उन बच्चों को राख के ढेर पर फेंक देती है और राजा तक झूठी खबर पहुंचाती हैं कि रानी को ईट पत्थर का प्रसव हुआ था. राजा कुपित होते हैं और रानी को घर से बाहर निकाल कर कौवा हांकने के काम में लगा देते हैं. फिर एक दिन राज खुलता है, राजा को उसके खोये बच्चे मिलते हैं. कौआहंकनी को मान-सम्मान मिलता है और बाकि दो रानियों को सजा.
ईर्ष्यालु रानी और उसकी सौतेली बेटी की कहानी. रानी अपने सौतेली बेटी की सुन्दरता से जलती है और उसे मारने के कई तरीके ढूंढती है. फिर एक दिन एक राजकुमार आता है और उसे बचा कर ले जाता है.
हमने तो जो विदेशी कहानियां सुनी उनमे भी ज्यादातर में यही दर्द था. सिन्ड्रेला की कहानी जिसमे सिन्ड्रेला के एक जूते की सहायता से राजकुमार उसे ढूंढता है, रापुन्जेल की कहानी जिसमे लडकी ऊँची पहाडी की ऊँची मीनार पर रहती थी और उसके बाल इतने लम्बे थे कि सीढी के बदले वो अपने बाल खिड़की से बाहर फेंकती जिसकी सहायता से उसकी झूठी माँ ऊपर आ जाती. सब के सब कहानी में एक ही बात निकलकर सामने आती है-
एक पीड़ित, मुसीबत की मारी बेचारी लड़की,
लड़की के दुःख का कारण कोई और लड़की
औरत (औरत ही औरत की दुश्मन होती है के तर्ज पर)
और दुःख से मुक्ति दिलाने के लिए किसी पुरुष पात्र की प्रतीक्षा. बच्चों की कहानी में वह पुरुष पात्र उसका पति या पिता है तो किशोरों की कहानियों में प्रेमी.
पर हर कहानी में पुरुष पात्र का स्त्री पात्र के प्रति प्रेम है जो उसे उबारता है. लेकिन उन लोक कथाओं का क्या जिनमे स्त्री पुरुष के बीच का यह सम्बन्ध नहीं होता?
मैं बचपन की कहानियां याद करती हूँ-
अकबर बीरबल की कहानियाँ
तेनालीराम के चतुराई की कहानियाँ
शेखचिल्ली के सपनें
महाराणा प्रताप और चेतक की कहानी
रहीम खान और रमजानी की कहानी
गोनू झा के किस्से
मुझे निराशा हाथ लगती है. इन कहानियों से तो लड़कियां गायब ही हैं. कहाँ गयी आखिर लड़कियां? क्या हमारे लोक कथाओं में प्रेमिका से इतर उन्हें कोई भूमिका दी ही नहीं गयी है?
लोक कथाओं में मैं यह दरिद्रता साफ़-साफ़ देख रही हूँ. कितनी सीमित भूमिकाएं है वहां लड़कियों के लिए यह समझ पा रही हूँ.
लेकिन लोक कथाओं की इस स्याह दुनियां में मूलान की कहानी एक रोशनी की तरह उभर कर आती है. मूलान चीन के इतिहास में उत्तरी और दक्षिणी साम्राज्य ( चौथी से छठी शताब्दी तक) शताब्दी की एक प्रसिद्ध लोक नायिका है. अपने पिता की जगह वह पुरुष वेश में आर्मी में शामिल होती है और बहुत ही वीरता पूर्वक कई सैन्य गतिविधियों का नेतृत्व करती है. मूलान का जिक्र सबसे पहले ‘बैलेड्स ऑफ़ मूलान’ में आता है और फिर जिसकी रचना नोर्थेन नेयी साम्राज्य के समय हुई थी. इसी नाम से बनी डिज्नी की फिल्म ने तो इस नाम को विश्व के कोने-कोने तक पहुंचा दिया. तो आखिर ऐसा क्या है इस कहानी में जो इसे अन्य लोक-कथाओं से अलग करती है.
एक ऐसा समाज जहाँ लड़कियों के जीवन का लक्ष्य शादी करना और बच्चों को जन्म देना है.
एक ऐसा समाज जहाँ मूलान के पिता को उसकी दिव्य प्रतिभा (कुशल योद्धा) को सबसे छिपाना पड़ता है वरना लोग उसे डायन घोषित कर देंगे.
एक जिद्दी और बहादुर लडकी जो अपने घायल पिता की जगह पुरुष वेश में सेना में शामिल होने के लिए रात के अँधेरे में घर छोड़ देती है. कितना आश्चर्यजनक है न, इतने सालों पहले इतने दाकियानुसी समाज में किसी अकेली लडकी का रात के अँधेरे को अपना दोस्त बनाना और अनदेखे, अनजान रस्ते पर अकेले निकल जाना.
लेकिन बस इतना ही नहीं, इस कहानी में कुछ अलग भी है. आम लोक कथा की तरह इस कहानी में भी विलेन हैं. एक विलेन जो रुरांस काबिले का सरदार बोरी खान है और एक डायन जो उसकी सहायता कर रही है. समाज उसे डायन मानता है क्योंकि उसके पास दिव्य शक्तियां और साहस है लेकिन वह खुद को योद्धा मानती है. उसका संघर्ष सिर्फ इतना है कि उसे योद्धा का दर्जा दिया जाए, एक ऐसी दुनियां जहाँ उसके तिलिस्मी ताकत को दुत्कारा न जाए, जहाँ उसे उसकी दिव्य शक्तियों के साथ स्वीकार किया जाए. क्या यह अजीब नहीं है कि उतनी प्रतिभाशाली योद्धा कोई नाम नहीं दिया जाता और उसे सिर्फ डायन के नाम से ही संबोधित किया जाता है. यह इस बात का परिचायक है कि अब तक उसका संघर्ष अपना नाम स्थापित करने के लिए जारी है. यहाँ औरत, औरत की दुश्मन नहीं है बल्कि जब पहली योद्धा को यह एहसास होता है कि दूसरी योद्धा वह कर सकती है जिसका इन्तेजार उसे जीवन भर रहा (मूलान मर्दों की सेना की सेनापति बनती है) तो वह अपने प्राणों की बाजी लगाकर उसकी सहायता करती है. दिलचस्प है न.
मूलान विजेता बनकर घर लौटती है. उसके पिता स्वीकार करते हैं कि एक योद्धा होकर उन्होंने दूसरी योद्धा पर (मूलान पर) विश्वास नहीं जताया यह उनकी भूल थी. मूलान को हमेशा के लिए सेना में उच्च अधिकारी का दर्जा मिलता है और फिर उसकी बहादुरी के किस्से मशहूर होते हैं.
मूलान जैसे किरदार इस दरिद्रता को दूर करते हैं. लेकिन डिज्नी द्वारा मूलान पर फिल्म बनाया जाना भी अनायास नहीं था. पर भारत में ऐसे कितने किरदार हैं?
अभी भी इस दृष्टि से देखें तो भारत में ऐसे सशक्त किरदार का अभाव है. प्रेमिकाओं के ढाँचे से बाहर की खिलदंड, अपने काम के प्रति समर्पित, इतिहास की धारा बदलने वाली ये लड़कियां आखिर क्यों नही बेखटके हमारे साहित्य में आ-जा रही हैं? क्या हमें मिथकों की पुनर्व्याख्या करने की जरूरत है? क्या इतिहास को फिर से पलटने की जरूरत है? क्या किवंदतियों में संशोधन की आवश्यकता है? मुझे लगता है कि वाकई इसकी जरूरत है? आखिर किसकी जिम्मेदारी है ऐसे किरदारों को रचने की? क्या यही जरूरत ‘मनीषा कुलश्रेष्ठ’ को ‘मल्लिका’, ‘अणुशक्ति सिंह’ को ‘शर्मिष्ठा’, और ‘गीता श्री’ को ‘राजनटनी’ लिखने को विवश कर रहा है? क्या ये किरदार भी उतने सशक्त हैं कि पुरुष की छाया से बाहर निकल सके?
जवाब हम सब जानते हैं लेकिन यहाँ जवाब भी एक नया सवाल खड़ा कर रहा है और वह कि फिर कौन रचेगा ऐसे किरदार जो अलग हो, अब तक जो रचा गया है उन सबसे अलग. जिसमें औरत का वजूद पुरुष द्वारा परिभाषित नहीं हो. आखिर क्यों लिखा था वर्जिनिया वूल्फ ने शेक्सपियर की बहनों के बारे में लिखते समय क्या वर्जिनिया वूल्फ भी इन्ही बदलावों की बात कर रहीं थी? आखिर उन्हें क्यों यह कल्पना करनी पड़ी कि शेक्सपियर की एक बहन थी?
व्यक्ति को उसके स्त्री या पुरुष होने के तथाकथित खांचे के बाहर भी देखने की हिम्मत रखता होगी. हर वो व्यक्ति जो एकल कहानी के खतरे को जानता है जैसा कि चिमामंदा न्गोची आदिची कहती हैं- “एकल कहानी स्टीरियोटाइप्स बनाती है और स्टीरियोटाइप होने का खतरा यह नहीं होता कि वह झूठ होता है बल्कि यह है कि वह अधूरा होता है.”
(http://www.abhiwyakti.in/2021/02/the-danger-of-single-story-chimamanda.html)
फिर इस अधूरेपन को पाटने की कोशिश क्यों नहीं की जाये. वास्तव में ऐसी कोशिशें की गयी हैं. जब मैत्रेयी पुष्पा ने ‘अल्मा कबूतरी’ लिखी थी तो यही कोशिश तो करती हैं. जब कृष्णा सोबती ‘मित्रों मरजानी’ लिखती हैं तो वो वही अधूरापन तो पाटती हैं. जब आलोक धन्वा ‘भागी हुई लड़कियां’ लिखते हैं तो यहीं बदलाव लाने की तो कोशिश करते हैं-
‘अगर एक लड़की भागती है
तो यह हमेशा जरूरी नहीं है
कि कोई लड़का भी भागा होगा
कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं
जिनके साथ वह जा सकती है
कुछ भी कर सकती है
महज जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है.’
आलोक धन्वा
स्पष्ट है कि हमें सशक्त, अलहदा, बहादुर, मजबूत लड़कियों के किरदार चाहिए. यहाँ एक और बात ध्यान देने की है कि ये किरदार हमारे समाज में हैं लेकिन बस साहित्य में उनकी उपस्थिति कम है. हम में से शायद कोई अपनी बेटी को रोती बिसूरती लड़कियों की कहानी सुनाकर यह सीख देना कि ‘लड़कियों को तो यह सब सहना ही पड़ता है’ पसंद नहीं करेगा. हम अगर उनके कहानियां सुनायेंगे तो सशक्त महिलाओं की. ऐसा नहीं है कि हमारे देश में या हमारी मिट्टी में ये कहानियां नहीं है. इतिहास से लेकर वर्तमान तक महिलाओं के संघर्ष, उनकी कोशिश, उनके जीत की जाने कितनी कहानियां हैं हमारे पास. फिर चाहे वह बोधगया आन्दोलन हो ये स्तन टैक्स का विरोध, सेना में महिलाओं का प्रवेश, ट्रिपल तलाक का विरोध, पैतृक संपत्ति में अधिकार, मन्दिर में प्रवेश के लिए उनकी जंग, समसायिक जीवन में कितना कुछ सकारात्मक घट रहा है, लेकिन वह साहित्य से नदारद है.
इन आंदोलनों की गुमनाम नायिकाओं को किताब के पन्ने तक लाना क्या इतना मुश्किल काम है? संभावनाएं अनंत हैं, जरूरत है तो बस सही दिशा में कोशिश करने की.
चलते-चलते एक जरूरी बात की तरफ भी ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी. मुख्य रूप से बच्चों के लिए एनिमेशन फिल्म बनाने वाले डिज्नी ने पिछले कुछ वर्षों में लड़कियों को केंद्र में रखकर कई फ़िल्में बनाई,- मोआना, ब्रेवो, मूलान आदि. ऐसा कृत्रिम बुद्धिमत्ता यंत्र ‘जी डी आई क्यू’ के सहयोग से हुआ जिसे ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित अदाकारा जीना डेविस के संस्थान ने विकसित किया है. ताकि बच्चों के फिल्म में लैंगिक समानता लायी जा सके. यह एक सुखद सन्देश है. साहित्य में अभी तक कृत्रिम बुद्धिमत्ता की जरूरत महसूस नहीं की गयी है क्योंकि यहाँ नैसर्गिक बुद्धिमत्ता है. जरूरत है तो बस उसे सही समय पर सही दिशा में प्रेरित करने की.
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प्रीति प्रकाश
शोधार्थी,
तेजपुर विश्वविद्यालय
preeti281192prakash@gmail.com