कथाकार गैब्रिएल गार्सिया मार्खे़ज़ ने मेंदोजा से बातचीत में यह स्वीकार किया है कि उनके उपन्यासों में एक भी पंक्ति ऐसी नहीं है जो वास्तविकता पर आधारित न हो. लातीन अमरीका का एक-एक दिन यह सिद्ध करता है कि यथार्थ अभूतपूर्व घटनाओं से अटा पड़ा है.
![]() |
(वागीश शुक्ल) |
दक्षिणायन की पाँच कहानियों में प्रचण्ड प्रवीर द्वारा रशिचक्र की उन राशियों के अधीन कहानियाँ लिखी गयी हैं जिन पर उत्तरायण में नहीं लिखा गया था. `उत्तरायण’ और `दक्षिणायन’ में राशिचक्र का यह द्वि-भाजन सूर्य द्वारा राशिचक्र में किये गये परिभ्रमण के अनुसार होता है और इस प्रकार ये दो शीर्षक ‘राशिचक्र में सूर्य’ पर नज़र रखते हैं जब कि कहानियों के शीर्षक अधिकतर ‘राशिचक्र में चन्द्र’ पर. इसे यों समझना चाहिए कि अगर हम उदाहरण के लिए दक्षिणायन की पहली कहानी कर्क लेते हैं तो उसके पात्र `पुष्य’ और `आश्लेषा’ उन नक्षत्रों के नाम हैं जिनमें चन्द्रमा की मौजूदगी के समय किसी का जन्म होने से भारतीय ज्योतिष के अनुसार उसकी राशि `कर्क’ कही जायेगी. चन्द्रमा पूरे राशिचक्र (के २७ नक्षत्रों) की यात्रा लगभग ३० दिनों में और सूर्य यही यात्रा एक वर्ष में पूरी करता है.
इस प्रकार भारतीय ज्योतिष के अनुसार एक तनाव इन दो खण्डों के शीर्षकों और कहानियों के शीर्षकों में है क्योंकि कहानियाँ राशियों के अनुसार हैं जो राशिचक्र के चान्द्र परिभ्रमण के अनुसार निर्धारित होती हैं जब कि खण्ड राशिचक्र के सौर परिभ्रमण के अनुसार विभाजित हैं. किन्तु यह तनाव केवल दो ग्रहों द्वारा राशिचक्र के अलग-अलग परिभ्रमण– समयों का नहीं है इसका एक आध्यात्मिक सन्दर्भ भी है जिसकी ओर इशारा करने वाला एक श्लोक (श्रीमद्भगवद्गीता,8- 25) दक्षिणायन के प्रारम्भ में उद्धृत किया गया है. इसका आशय यह है कि जिनकी मृत्यु दक्षिणायन के अन्तर्गत आने वाले छह महीनों में होती है वे अपने किये हुए पुण्यकर्मों के फल का भोग करने के बाद फिर पृथिवी पर वापस आते हैं अर्थात् उनकी मुक्ति नहीं होती और वे पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा नहीं पाते. यह ‘आवृत्तिमार्ग’ कहलाता है और इसे इसके पहले वाले श्लोक के साथ पढ़ना चाहिए जिसके अनुसार उत्तरायण के छह महीनों में मृत्यु प्राप्त करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता (और उसकी मुक्ति ब्रह्मा की मुक्ति के साथ होती है). इस तरफ़ ध्यान जाने से ये दोनों खण्ड जीव की पारलौकिक गतियों को समेटने का भी प्रयास करते लगते हैं.
1.
2.
राशिचक्र के क्रमानुसार ही अगली कहानी सिंह शीर्षक के तहत है. यह सिंह `टूटे नख रद केसरी’ वाला सिंह है, नाना जी, जिनका बल जब उम्र के नाते थका नहीं था तब भी पराजय की एक लम्बी पटकथा का प्रतिनायक था – साइंस न पढ़ पाने के नाते आर्ट्स पढ़ने वाला, प्रेमिका के उच्चवर्गीय परिवार से होने के नाते मन मसोस लेने वाला, स्वतन्त्रता-सेनानी बनते-बनते रह जाने वाला, घूस न दे पाने के नाते बेटे को नौकरी न दिला पाने वाला, दहेज़ न दे पाने के नाते बेटी की शादी खोजते हुए अपमानित होने वाला. इस सिंह की गर्जना उसकी गुफा तक ही सीमित है और वह भी केवल इसलिए कि गुफावासी उसकी गर्जना पर तरस खाते हुए उसे चुप रहने के लिए नहीं कहते.
यों, मघा नक्षत्र में जन्म लेने वाली मेघा नाम की सिंह राशि वाली वह वृद्धा कहानी से ग़ायब नहीं है जो नानी की जगह नहीं पा सकी थी किन्तु तीसरी पीढ़ी से एक समीकरण स्थापित करने में सफल हो सकी है और इस प्रकार परिवार से बेदख़ल होते हुए भी प्रेम में दाख़िल है. अपराजित प्रेम की यह न बिगाड़ी जा सकने वाली बनावट अपनी चाहत की अपूर्णता में प्रथम खण्ड की मीन कहानी की उस वृद्धा का स्मरण दिलाती है जो आज़ादी की तलाश में ठीक इसी तरह एक बँधे-गुंथे परिवार की तीसरी पीढ़ी से जुड़ती है. क्या पाया क्या खोया की ऐसी उधेड़बुन हमें मानवीय मन की उस वन्य जैविकी में झाँकने को विवश करती है जिसमें सम्पूर्ण जीव-संसार को सिर्फ़ भेड़िया और भेड़ में बाँटने वाले रचनाकर्म की पहुँच नहीं है.
3.
संग्रह में इसके बाद आने वाली कहानी भिन्न ऊपर से क्रम में लगते हुए भी वस्तुतः क्रम से बाहर है क्योंकि पूरी कहानी में जिस एक जगह `कन्या राशि’ का नाम आया है वहाँ वह सूर्य के कन्या राशि के चित्रा नक्षत्र में प्रवेश करने से सम्बन्धित है. कन्या राशि के अन्तर्गत आने वाले नक्षत्रों की गणना उत्तराफाल्गुनी के दूसरे चरण से प्रारम्भ होती है और पूरा हस्त नक्षत्र पार करने के बाद चित्रा नक्षत्र के प्रथम दो चरणों तक जाती है. इस प्रकार सूर्य चित्रा में प्रवेश के पहले भी कन्या राशि में है और बाद में भी कन्या राशि में ही रहेगा अतः यह न तो सूर्य की संक्रान्ति है और न ही चन्द्रमा की राशि-चक्र में उपस्थिति जिससे अब तक इन दो संग्रहों की कहानियों का क्रम निर्धारित होता रहा.
इस क्रम वैभिन्न्य के अतिरिक्त भी यह कहानी ‘भिन्न’ है, न केवल इस संग्रह की अन्य कहानियों से अपितु हिन्दी में लिखी जा रही अन्य कहानियों से भी. इसने अपने शीर्षक पर निरन्तर श्लेष अलंकार की छाया बनाये रखी है एक तरफ़ तो अपने प्रत्येक खण्ड के प्रारम्भ में इसने जो हिन्दी कविताओ॑ से उद्धरण दिये हैं उनमें आया `भिन्न’ शब्द अँगरेज़ी के different के अर्थ में प्रयुक्त है दूसरी तरफ़ कहानी में जिस `भिन्न’ को केन्द्रीयता प्राप्त है वह अँगरेज़ी के fraction अर्थ में प्रयुक्त है. यह दूसरा अर्थ पहले अर्थ को पुष्ट करता है क्योंकि इसमें गणित की ऐसी तमाम अवधारणाओं का उल्लेख हुआ है जिनका परिचय केवल शास्त्रनिष्ठ गणितज्ञों को है, दूसरी ओर उन अवधारणाओं को मन्त्र-शास्त्र के भीतर समायोजित करते हुए `अंकमन्त्र’ का एक नया विचार प्रस्तुत किया गया है जो मन्त्र-शास्त्र की अब तक ज्ञात सीमाओं को भी विस्तार देता है.
![]() |
(प्रचण्ड प्रवीर) |
4.
इस दूसरे खण्ड में वृश्चिक संक्रान्ति शीर्षक के अधीन लिखी गयी कहानी पूरी योजना में दो तरह से सुष्ठु-समंजन के अभाव को स्थापित करती है : पहले तो इस तरह से कि वह एक साथ `तुला’ और `वृश्चिक’ इन दो राशियों का प्रतिनिधित्व करती है जिसके नाते संग्रह के इस खण्ड में छह की जगह पाँच ही कहानियों से काम चल गया है और दूसरे इस तरह से कि यह दरअसल `वृश्चिक संक्रान्ति’ के शीर्षक और रूपग्रहण के बारे में है जो सूर्य के परिभ्रमण से परिभाषित है जब कि सभी अन्य राशियों की तरह ही `वृश्चिक राशि’ चन्द्रमा के परिभ्रमण से परिभाषित होती है.
यों अगर कहानी की सामस्यिकी (= problematics) को केवल ‘प्रशासन में उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार’ तक सीमित कर दें तब भी कहानी अपने नैतिक निष्कर्ष में बहुत सपाट नहीं है. सभी संस्थानों की तरह विद्याकेन्द्र भी जब आक्रान्ताओं द्वारा नष्ट किये जाते हैं तब सैन्य शक्ति के द्वारा ही. जब वे आन्तरिक भ्रष्टाचार के कारण भुरभुरा कर गिरते हैं तब उनकी प्रक्रिया और परिणाम भिन्न होते हैं. फिर भी यदि हम हठात् निष्प्राणीकरण और क्रमिक क्षय के बीच अन्तर न करें तो कारण को एक ही माना जा सकता है, और तब उसे `वृश्चिक संक्रान्ति’ जैसी किसी एक ही संज्ञा में समेटा भी जा सकता है.
इन तमाम अपर्याप्तताओं के होते हुए भी, हिन्दी के वर्तमान साहित्य में, जिसका सारा ज़ोर समस्या और समाधान पर है, इस कहानी में ट्रैजिडी की प्राचीन गन्ध ने इसे बचाये रखा है और एक घटना के बयान में वह शक्ति सुरक्षित रखी है जो मानवीय इतिहास के एक व्यापकतर परिप्रेक्ष्य में इसे प्रक्षिप्त कर सकी है.
(यह कहानी – वृश्चिक संक्रांति आप यहाँ पढ़ सकते हैं)
कहानी के केन्द्र में एक प्रेमी-युगल है जो अभी कैशोर की दहलीज तक भी नहीं पहुँचा है. इन दोनों को ठीक-ठीक मालूम ही नहीं है कि वे प्रेम कर रहे हैं. इस अर्थ में यह सिंह कहानी का समय-मापनी पर पहले छोर तक अपकर्षण है. किन्तु इस युगल की आकांक्षाओं के स्फुटीकरण के क्षेत्र दूसरे हैं-कोई पोलिथीन से मक्खन तैयार करने वाला वैज्ञानिक बनना चाहता है तो कोई गायन में नाम कमाना चाहता है. माहौल ही यही है-कोई मेघदूत पढ़ रहा है और विज्ञ साहित्य-रसिक की तरह बता रहा है कि वह कितना सुन्दर काव्य है और फिर आगे अँगरेज़ी ग्रामर `पर काम करने’ का इरादा रखता है, कोई संसार का सबसे सफल कामिक तैयार करना चाहता है. इस कस्बे में उन सबके नाम गूँज रहे हैं जिन्होंने कम उम्र में नाम कमा लिया और विश्वकल्याण में योगदान दिया.
यह कस्बा उस भारत की तस्वीर है जो प्रतिभा के बल पर विश्व में अग्रणी बनना चाहता है. कोई भी `यथार्थ’ से मुँह नहीं मोड़ रहा है, वैज्ञानिक को प्रोत्साहन न मिलने का कारण उसकी ग़रीबी है, गाना कितना भी अच्छा गाओ, पुरस्कार देशभक्ति वाले गीत को ही मिलेगा, पोर्ट्रेट बनाने में कुछ नया करना चाहते हो तो गाँधी और सुभाष की जगह राजेन्द्र प्रसाद का बना दो-और निश्चय ही इन सबके विश्वप्रसिद्ध न हो पाने के कारण उस कस्बे में ही निहित हैं. `विकसित’ देशों से एकरस लोग इन सब पर हँस सकते हैं किन्तु इन सपनों की सचाई हमें तब पता लगती है जब हम देखते हैं कि हेलीकाप्टर बनाने की महत्त्वाकांक्षा पाले किसी युवा ने अपनी कार का बहिरंग हेलीकाप्टर जैसा कर लिया है और इनके भराव को उपेक्षित करने के पहले हमें उन तमाम चित्रकारों की तरफ़ नज़र डाल लेनी चाहिए जिन्होंने लेनिन का पोर्ट्रेट बना कर अपनी प्रगतिशीलता साबित की है. इस कहानी के विद्रूप को हमें उन तमाम कला-सिद्धान्तों की परख के लिए भी इस्तेमाल करना चाहिए जो यह समझाते हैं कि बादशाह की शान में लिखे गये क़सीदे से मज़दूर की शान में लिखा गया क़सीदा बिहतर हो जाता है.
6.
किन्तु उनकी कहानियो॑ का क्षेत्र अपनी दृष्टि और सृष्टि में हिन्दी के समकालीन कथा-साहित्य के रचाव से कई अर्थों में भिन्न है. हिन्दी की समकालीन कथा-बल्कि समूची साहित्य-सर्जना-का स्वर बहुत ऊँचा है लेकिन कहने के लिए वाक्य बहुत कम हैं और उन वाक्यों में बताने के लिए और भी कम होता है. इसका कारण ईक्षण और अवेक्षण में आलस है जो शिक्षा और अभ्यास में भी उसी तरह झलकता है. प्रचण्ड प्रवीर ने अपने लेखन को लेख्य की तहदारी का सम्मान करने की हिम्मत से लैस रखने की कोशिश की है और दुनिया को तदबीर की दीवारों में महदूद रखने वाली गजनिमीलिका से बचे रहे हैं. इस कारण से वे मानवीय सत्ता के उन कारकों और बरतावों पर भी नज़र रख सके हैं जिनसे मुँह मोड़ने में ही समकालीनता ने अपनी तार्किक उपस्थिति मानी है. फलतः अतिमानवीयता से टकराने के विविध उपाय- तन्त्र, विज्ञान, परा-कोपर्निकीय ग्रह-विद्या-सभी उनके उपकरण- भाण्डार में जगह और इस्तेमाल के हक़दार हैं तथा अदब- मुलाहिज़े को भी उनके यहाँ वही तरज़ीह मिलती है जो हमक़दमी और हमकलामी को.
(उत्तरायण की भूमिका यहाँ पढ़ें.)
__________________