लिफ़ाफ़े को ठेलता मज़मून |
दक्षिणायन की पाँच कहानियों में प्रचण्ड प्रवीर द्वारा रशिचक्र की उन राशियों के अधीन कहानियाँ लिखी गयी हैं जिन पर उत्तरायण में नहीं लिखा गया था. `उत्तरायण’ और `दक्षिणायन’ में राशिचक्र का यह द्वि-भाजन सूर्य द्वारा राशिचक्र में किये गये परिभ्रमण के अनुसार होता है और इस प्रकार ये दो शीर्षक ‘राशिचक्र में सूर्य’ पर नज़र रखते हैं जब कि कहानियों के शीर्षक अधिकतर ‘राशिचक्र में चन्द्र’ पर. इसे यों समझना चाहिए कि अगर हम उदाहरण के लिए दक्षिणायन की पहली कहानी कर्क लेते हैं तो उसके पात्र `पुष्य’ और `आश्लेषा’ उन नक्षत्रों के नाम हैं जिनमें चन्द्रमा की मौजूदगी के समय किसी का जन्म होने से भारतीय ज्योतिष के अनुसार उसकी राशि `कर्क’ कही जायेगी. चन्द्रमा पूरे राशिचक्र (के २७ नक्षत्रों) की यात्रा लगभग ३० दिनों में और सूर्य यही यात्रा एक वर्ष में पूरी करता है.
इस प्रकार भारतीय ज्योतिष के अनुसार एक तनाव इन दो खण्डों के शीर्षकों और कहानियों के शीर्षकों में है क्योंकि कहानियाँ राशियों के अनुसार हैं जो राशिचक्र के चान्द्र परिभ्रमण के अनुसार निर्धारित होती हैं जब कि खण्ड राशिचक्र के सौर परिभ्रमण के अनुसार विभाजित हैं. किन्तु यह तनाव केवल दो ग्रहों द्वारा राशिचक्र के अलग-अलग परिभ्रमण– समयों का नहीं है इसका एक आध्यात्मिक सन्दर्भ भी है जिसकी ओर इशारा करने वाला एक श्लोक (श्रीमद्भगवद्गीता,8- 25) दक्षिणायन के प्रारम्भ में उद्धृत किया गया है. इसका आशय यह है कि जिनकी मृत्यु दक्षिणायन के अन्तर्गत आने वाले छह महीनों में होती है वे अपने किये हुए पुण्यकर्मों के फल का भोग करने के बाद फिर पृथिवी पर वापस आते हैं अर्थात् उनकी मुक्ति नहीं होती और वे पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा नहीं पाते. यह ‘आवृत्तिमार्ग’ कहलाता है और इसे इसके पहले वाले श्लोक के साथ पढ़ना चाहिए जिसके अनुसार उत्तरायण के छह महीनों में मृत्यु प्राप्त करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता (और उसकी मुक्ति ब्रह्मा की मुक्ति के साथ होती है). इस तरफ़ ध्यान जाने से ये दोनों खण्ड जीव की पारलौकिक गतियों को समेटने का भी प्रयास करते लगते हैं.
संग्रह की कहानियों पर अलग-अलग बात करते हैं.
1.
पहली कहानी कर्क है और जैसा पहले ही मैं कह चुका हूँ इसके प्रमुख पात्र `पुष्य’ तथा `आश्लेषा’ उन नक्षत्रों के नाम हैं जो कर्क राशि के अन्तर्गत आती हैं. उनका प्रेम 21 जून को प्रारम्भ होता है जो सायन गणना के अनुसार सूर्य की कर्क संक्रान्ति का समय है. और कथा-नायक पुष्य को कैंसर है जो कि कर्क रशि का पाश्चात्य ज्योतिष में नाम है. इसका अर्थ `केंकड़ा’ होता है और पाश्चात्य ज्योतिष में इससे जुड़ी एक पुरा-कथा है जिसके अनुसार केंकड़े ने हेराक्लिटस के दूसरे पराक्रम में बाधा पहुँचायी थी जिसके बाद हेराक्लिटस ने उसे कुचल कर मार डाला था. यह पराक्रम नौ सिरों वाली सर्पिणी का वध था. अन्ततः ये दोनों आकाश में प्रतिस्थापित कर दिये गये. इस नौ सिरों वाली सर्पिणी को कथा-नायिका आश्लेषा में आरोपण किया गया है-संयोग ही है कि भारतीय ज्योतिष में भी आश्लेषा नक्षत्र का देवता सर्प है.
ग्रीक पुरा-कथा को इस कहानी में उलट दिया गया है-इस कहानी में कथा-नायक कैंसर (= केंकड़ा) से भी हारता है और कथा-नायिका आश्लेषा (= नौ सिरों वाली नागिन) से भी. आश्लेषा प्रेम में धोखा देती है-पुष्य से विवाह कर के फिर पैसों के लिए एक धनी वर से विवाह कर लेती है और फिर अपनी वासना के पाश में पुष्य को फँसा कर उसे दूसरी पराजय से परास्त करना चाहती है. यह प्रयास सफल नहीं होता किन्तु इसे सर्पिणी का वध नहीं कह सकते क्योंकि पुष्य की पराजय पहले ही आश्लेषा की बेवफ़ाई के विष से हो चुकी है. हीरो के बर-अक़्स हारे को ला खड़ा करने वाला हमारा समय अपने को मिथक के सुहावनेपन में व्याप्त कर लेता है और घुटन के बाहर निकलने के सारे रास्ते बन्द करता हुआ हमें वर्तमान की कुरूप तंगियों में क़ैद रखता है.
2.
राशिचक्र के क्रमानुसार ही अगली कहानी सिंह शीर्षक के तहत है. यह सिंह `टूटे नख रद केसरी’ वाला सिंह है, नाना जी, जिनका बल जब उम्र के नाते थका नहीं था तब भी पराजय की एक लम्बी पटकथा का प्रतिनायक था – साइंस न पढ़ पाने के नाते आर्ट्स पढ़ने वाला, प्रेमिका के उच्चवर्गीय परिवार से होने के नाते मन मसोस लेने वाला, स्वतन्त्रता-सेनानी बनते-बनते रह जाने वाला, घूस न दे पाने के नाते बेटे को नौकरी न दिला पाने वाला, दहेज़ न दे पाने के नाते बेटी की शादी खोजते हुए अपमानित होने वाला. इस सिंह की गर्जना उसकी गुफा तक ही सीमित है और वह भी केवल इसलिए कि गुफावासी उसकी गर्जना पर तरस खाते हुए उसे चुप रहने के लिए नहीं कहते.
यों, मघा नक्षत्र में जन्म लेने वाली मेघा नाम की सिंह राशि वाली वह वृद्धा कहानी से ग़ायब नहीं है जो नानी की जगह नहीं पा सकी थी किन्तु तीसरी पीढ़ी से एक समीकरण स्थापित करने में सफल हो सकी है और इस प्रकार परिवार से बेदख़ल होते हुए भी प्रेम में दाख़िल है. अपराजित प्रेम की यह न बिगाड़ी जा सकने वाली बनावट अपनी चाहत की अपूर्णता में प्रथम खण्ड की मीन कहानी की उस वृद्धा का स्मरण दिलाती है जो आज़ादी की तलाश में ठीक इसी तरह एक बँधे-गुंथे परिवार की तीसरी पीढ़ी से जुड़ती है. क्या पाया क्या खोया की ऐसी उधेड़बुन हमें मानवीय मन की उस वन्य जैविकी में झाँकने को विवश करती है जिसमें सम्पूर्ण जीव-संसार को सिर्फ़ भेड़िया और भेड़ में बाँटने वाले रचनाकर्म की पहुँच नहीं है.
3.
संग्रह में इसके बाद आने वाली कहानी भिन्न ऊपर से क्रम में लगते हुए भी वस्तुतः क्रम से बाहर है क्योंकि पूरी कहानी में जिस एक जगह `कन्या राशि’ का नाम आया है वहाँ वह सूर्य के कन्या राशि के चित्रा नक्षत्र में प्रवेश करने से सम्बन्धित है. कन्या राशि के अन्तर्गत आने वाले नक्षत्रों की गणना उत्तराफाल्गुनी के दूसरे चरण से प्रारम्भ होती है और पूरा हस्त नक्षत्र पार करने के बाद चित्रा नक्षत्र के प्रथम दो चरणों तक जाती है. इस प्रकार सूर्य चित्रा में प्रवेश के पहले भी कन्या राशि में है और बाद में भी कन्या राशि में ही रहेगा अतः यह न तो सूर्य की संक्रान्ति है और न ही चन्द्रमा की राशि-चक्र में उपस्थिति जिससे अब तक इन दो संग्रहों की कहानियों का क्रम निर्धारित होता रहा.
इस क्रम वैभिन्न्य के अतिरिक्त भी यह कहानी ‘भिन्न’ है, न केवल इस संग्रह की अन्य कहानियों से अपितु हिन्दी में लिखी जा रही अन्य कहानियों से भी. इसने अपने शीर्षक पर निरन्तर श्लेष अलंकार की छाया बनाये रखी है एक तरफ़ तो अपने प्रत्येक खण्ड के प्रारम्भ में इसने जो हिन्दी कविताओ॑ से उद्धरण दिये हैं उनमें आया `भिन्न’ शब्द अँगरेज़ी के different के अर्थ में प्रयुक्त है दूसरी तरफ़ कहानी में जिस `भिन्न’ को केन्द्रीयता प्राप्त है वह अँगरेज़ी के fraction अर्थ में प्रयुक्त है. यह दूसरा अर्थ पहले अर्थ को पुष्ट करता है क्योंकि इसमें गणित की ऐसी तमाम अवधारणाओं का उल्लेख हुआ है जिनका परिचय केवल शास्त्रनिष्ठ गणितज्ञों को है, दूसरी ओर उन अवधारणाओं को मन्त्र-शास्त्र के भीतर समायोजित करते हुए `अंकमन्त्र’ का एक नया विचार प्रस्तुत किया गया है जो मन्त्र-शास्त्र की अब तक ज्ञात सीमाओं को भी विस्तार देता है.
इसे विस्तार कहें या छेड़छाड़, यह प्रवृत्ति इस कहानी में वर्तमान है और इसके कथाशिल्प का एक प्रमुख आकर्षण भी है. उदाहरण के लिए जिन छह योगिनियों का ज़िक्र इस कहानी में है वे वस्तुतः `योगिनियाँ’ नहीं हैं, कुल-मत के अनुसार मच्छन्दनाथ के छह पुत्रों की पत्नियाँ हैं और इन्हें न केवल `योगिनी’ कहा गया है अपितु मच्छन्दनाथ = मत्स्येन्द्रनाथ को योगिनी-कौल का उपदेश करने वाली योगिनियों से भी इशारे-इशारे में जोड़ा गया है. इनके प्रस्तुतीकरण में दशमहाविद्याओं के अन्तर्गत आने वाली धूमावती देवी की भी छाया स्पष्ट देखी जा सकती है जो इनका विरूपण ही कहा जायेगा. जानकारों को पाशुपत-दर्शन के आचार्य लकुलेश्वर का ज़िक्र भी अवज्ञापूर्ण लग सकता है.
किन्तु यह समझने की बात है कि हमारी धर्मचेतना में धौल-धप्पा उस सरापा नाज़ का भी शेवा है और पेशदस्ती उभयपक्षीय है. वस्तुतः सभी पेगन धर्मचेतनाओं में देवों का परिवारीकरण स्वीकृत और वांछित है तथा मानवीय भावसंसार के सभी उद्यमों का वैध ईप्सिततम कर्म भी है.
इसी के साथ यह बात भी सच है कि यद्यपि किसी कहानी में तथ्यात्मक कसावट की मौजूदगी सर्वत्र अनिवार्य नहीं होती किन्तु जहाँ वह प्रमुख होती है, उसका सम्मान करना चाहिए और इस कहानी में ऐसी जगहों पर उसके प्रस्तुतीकरण में पूरी यथातथता बरती गयी है.
उदाहरण के लिए ऐसी कोई छेड़छाड़ गणितीय तथ्यों से नहीं की गयी है और उनकी मौजूदगी कुछ उस तरह लायी गयी है जैसी अम्बर्तो ईको समेत पश्चिम के कई समर्थ लेखकों के उपन्यासों में दीखती है. लेकिन हिन्दी के औसत पाठक की दिलचस्पी और जानकारी दोनों के क्षेत्र से भारतीय धर्म-चेतना तथा पाश्चात्य विज्ञान, दोनों की दूरी और परायापन बराबर हैं अतः इस शिल्प को `फ़ैन्टैसी’ से ले कर `हारर’ तक का कोई नाम दे कर छिटका देना ही उसके लिए आसान होगा.
ऐसे टरकाऊ नामकरण उस संस्कृति से उपजते हैं जिसमें मान्त्रिक और आनुष्ठानिक आयोजनों द्वारा दैवी शक्तियों का अनुकूलन घोषित धर्मनीति के विरुद्ध होता है. भारतीय संस्कृति में जप, पूजा और अनुष्ठान घोषित और स्वीकृत धर्माचरण के अंग हैं अतः यहाँ बहुत चाह कर भी साधनाओं में बीभत्स और भयानक का समावेश अधिक- से- अधिक एक व्यक्तिगत अस्त्रयुद्ध तक ले जा सकता है, सत् और असत् के बीच का चुनाव नहीं बन सकता. अतः जो योगिनियाँ भय और जुगुप्सा का स्रोत हैं, जिनका प्रपंच ही वह तिलिस्म है जिसमें प्रेतलोक बसा हुआ है और जिसको तोड़ कर उसमें प्रवेश करने के लिए अंकमन्त्रों और बीजमन्त्रों का इतना उद्यम है, उससे बाहर आना भी उन्हीं की कृपा से होता है.
कहानी को समाप्त करते हुए `भिन्न को दशमलव में बदलने’ का उल्लेख ऐसे हुआ है जिसके नाते उसे आशा के संकेत के रूप में लिया जा सकता है. गणितीय जटिलता के सघनतर बीहड़ों में वर्तमान संख्याओं के उल्लेख के बाद परिमेयता के उपवन में यह वापसी सरलता का बलात् आह्वान लग सकती है अगर हम इस ओर ध्यान नहीं देते कि `भिन्न’ के रूप में लिखी जा सकने वाली संख्याएँ, जो `परिमेय’ कहलाती हैं सभी वास्तविक संख्याओं में `सघन (= dense)’ हो कर व्याप्त हैं.
जाने, और शायद कभी-कभार अनजाने लायी गयी इन जटिलताओं से नज़र हटा कर पढ़ने पर यह कहानी `आर्डर (order)’ और `केआस (chaos)’ की उस शाश्वत लड़ाई की प्रतिध्वनि का आलेखन है जो क्रमशः ‘कामेडी’ और `ट्रैजिडी’ की विभाजक संज्ञाओं के मूल में हैं. मोटे तौर पर प्रश्न यह है कि गणित जैसे किसी व्यवस्थित शास्त्र को एक शस्त्र मान कर जब हम सृष्टि के अबूझ रहस्य को भेदने का प्रयास करते हैं तो यह प्रयास कितना वैध है? क्या इस प्रयास में ही उसकी विफलता के उत्प्रेरक तत्त्व नहीं छिपे हैं? मेरी समझ में इस कहानी का झुकाव इस सवाल का जवाब `हाँ’ में देने की ओर है किन्तु अगर यह सिर्फ़ सवाल उठाने तक ठहरती तो भी यह मुकम्मल थी.
4.
इस दूसरे खण्ड में वृश्चिक संक्रान्ति शीर्षक के अधीन लिखी गयी कहानी पूरी योजना में दो तरह से सुष्ठु-समंजन के अभाव को स्थापित करती है : पहले तो इस तरह से कि वह एक साथ `तुला’ और `वृश्चिक’ इन दो राशियों का प्रतिनिधित्व करती है जिसके नाते संग्रह के इस खण्ड में छह की जगह पाँच ही कहानियों से काम चल गया है और दूसरे इस तरह से कि यह दरअसल `वृश्चिक संक्रान्ति’ के शीर्षक और रूपग्रहण के बारे में है जो सूर्य के परिभ्रमण से परिभाषित है जब कि सभी अन्य राशियों की तरह ही `वृश्चिक राशि’ चन्द्रमा के परिभ्रमण से परिभाषित होती है.
इस ऊपरी छेड़छाड़ को परे रखने के बाद कहानी बड़ी सफ़ाई के साथ एक छात्र-आन्दोलन की कथा कहती है जो इस अर्थ में असफल है कि वह प्रशासन से घोषित तौर पर अपनी माँगों को मनवा लेने में कामयाब नहीं हो पाता और इस अर्थ में सफल कि जिस अपशब्द के कान में पड़ जाने के नाते वार्डेन ने छात्र को थप्पड़ मार दिया था और इस प्रकार सारे घटनाक्रम की शुरुआत हो गयी थी वही अपशब्द कहानी की समाप्ति तक फिर वार्डेन के कानों की पहुँच के भीतर उच्चरित होता है और वह इसे अनसुना कर देता है. कुल मिला कर जिस समझौते के भरोसे दुनिया चल रही है-प्रशासन कुछ हुल्लड़ को अनदेखा करे और यह भरम बनाये रखे कि वह किसी भी मुद्दे पर झुका नहीं है-उसी पर कहानी का संघर्ष लौट कर स्थिर हो जाता है.
किन्तु कहानी का अन्त इस घटनाक्रम को एक व्यापक निदर्शनावली में पिरोने का प्रयास करता है जिसके लिए आवश्यक पुष्टि कहानी में नहीं है. जो उदाहरण दिये गये हैं वे विद्याकेन्द्रों के विनाश के कारणों में बाहरी आक्रमण या आन्तरिक भ्रष्टाचार गिनाते हैं. कहानी का घटनाक्रम एक एकतरफ़ा परिभाषित अनुशासन-नियमावली के सनकी अनुपालन हेतु आग्रह का है. यह एक अधिनायक-तन्त्र का स्वरूप है और भ्रष्टाचार का ठीक उलटा है – कुछ इस तरह कि फ़्रांसीसी क्रान्ति के अधिनायक रोब्सपीयर को `इन-करप्टिबुल’ कहा जाता है `करप्ट’ नहीं. एक व्यापकतर प्रश्न उपस्थित हो सकता था वह यह कि संस्थाओं-जिनमें स्वयं समाज भी शामिल ही है – के विनाश के लिए घोषित शिष्टाचारों के अनुपालन का अतिरेकी आग्रह भी क्या उतना ही कारक नहीं है जितना उनका उल्लंघन? किन्तु ऐसी कोई भी ऊहा की जगह कहानी में सचेत रूप से नहीं है.
यों अगर कहानी की सामस्यिकी (= problematics) को केवल ‘प्रशासन में उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार’ तक सीमित कर दें तब भी कहानी अपने नैतिक निष्कर्ष में बहुत सपाट नहीं है. सभी संस्थानों की तरह विद्याकेन्द्र भी जब आक्रान्ताओं द्वारा नष्ट किये जाते हैं तब सैन्य शक्ति के द्वारा ही. जब वे आन्तरिक भ्रष्टाचार के कारण भुरभुरा कर गिरते हैं तब उनकी प्रक्रिया और परिणाम भिन्न होते हैं. फिर भी यदि हम हठात् निष्प्राणीकरण और क्रमिक क्षय के बीच अन्तर न करें तो कारण को एक ही माना जा सकता है, और तब उसे `वृश्चिक संक्रान्ति’ जैसी किसी एक ही संज्ञा में समेटा भी जा सकता है.
इन तमाम अपर्याप्तताओं के होते हुए भी, हिन्दी के वर्तमान साहित्य में, जिसका सारा ज़ोर समस्या और समाधान पर है, इस कहानी में ट्रैजिडी की प्राचीन गन्ध ने इसे बचाये रखा है और एक घटना के बयान में वह शक्ति सुरक्षित रखी है जो मानवीय इतिहास के एक व्यापकतर परिप्रेक्ष्य में इसे प्रक्षिप्त कर सकी है.
5.
संग्रह की अन्तिम कहानी धनु के खण्ड-विभाजन इस राशि के नक्षत्रों के आधार पर किये गये हैं और प्रत्येक खण्ड की शुरुआत में किसी फ़िल्मी गाने की एक पंक्ति है. यह शिल्प प्रचण्ड प्रवीर की कहानियों में अनेकत्र मिलता है और उनकी एक ख़सूसियत है. इनसे एक रूमान बनता है जो हमारे आज के रोज़मर्रा की हक़ीक़त है. प्रचण्ड प्रवीर की कहानियों में कस्बा जहाँ भी आता है उसकी एक ऐसी तस्वीर सामने आती है जिसको हमारा हिन्दी लेखन कुछ कमतर आँक कर उपेक्षित करता रहा है. सच यह है कि हमारे कहानीकार इस समय गाँव, कस्बा, पड़ोस, सब कुछ एक सिद्धान्त के अनुसार गढ़ते हैं जिसकी पुख़्तगी के बारे में उन्हें ख़ुद कोई भरोसा नहीं होता. परिणामतः वे एक `सेट’ का काम करते हैं जिसमें एक कास्ट्यूम ड्रामा खेला जाना है. प्रचण्ड प्रवीर का शिल्प एक मौजूद सेट में मौजूद कास्ट्यूम ड्रामे की पुनःप्रस्तुति का शिल्प है-जैसे एक लोकनाट्य दर्शकों के बीच की ख़ाली जगह को मंच बना लेता है और उनके भाषिक व्यवहार को संवादों में ढाल देता है.
कहानी के केन्द्र में एक प्रेमी-युगल है जो अभी कैशोर की दहलीज तक भी नहीं पहुँचा है. इन दोनों को ठीक-ठीक मालूम ही नहीं है कि वे प्रेम कर रहे हैं. इस अर्थ में यह सिंह कहानी का समय-मापनी पर पहले छोर तक अपकर्षण है. किन्तु इस युगल की आकांक्षाओं के स्फुटीकरण के क्षेत्र दूसरे हैं-कोई पोलिथीन से मक्खन तैयार करने वाला वैज्ञानिक बनना चाहता है तो कोई गायन में नाम कमाना चाहता है. माहौल ही यही है-कोई मेघदूत पढ़ रहा है और विज्ञ साहित्य-रसिक की तरह बता रहा है कि वह कितना सुन्दर काव्य है और फिर आगे अँगरेज़ी ग्रामर `पर काम करने’ का इरादा रखता है, कोई संसार का सबसे सफल कामिक तैयार करना चाहता है. इस कस्बे में उन सबके नाम गूँज रहे हैं जिन्होंने कम उम्र में नाम कमा लिया और विश्वकल्याण में योगदान दिया.
यह कस्बा उस भारत की तस्वीर है जो प्रतिभा के बल पर विश्व में अग्रणी बनना चाहता है. कोई भी `यथार्थ’ से मुँह नहीं मोड़ रहा है, वैज्ञानिक को प्रोत्साहन न मिलने का कारण उसकी ग़रीबी है, गाना कितना भी अच्छा गाओ, पुरस्कार देशभक्ति वाले गीत को ही मिलेगा, पोर्ट्रेट बनाने में कुछ नया करना चाहते हो तो गाँधी और सुभाष की जगह राजेन्द्र प्रसाद का बना दो-और निश्चय ही इन सबके विश्वप्रसिद्ध न हो पाने के कारण उस कस्बे में ही निहित हैं. `विकसित’ देशों से एकरस लोग इन सब पर हँस सकते हैं किन्तु इन सपनों की सचाई हमें तब पता लगती है जब हम देखते हैं कि हेलीकाप्टर बनाने की महत्त्वाकांक्षा पाले किसी युवा ने अपनी कार का बहिरंग हेलीकाप्टर जैसा कर लिया है और इनके भराव को उपेक्षित करने के पहले हमें उन तमाम चित्रकारों की तरफ़ नज़र डाल लेनी चाहिए जिन्होंने लेनिन का पोर्ट्रेट बना कर अपनी प्रगतिशीलता साबित की है. इस कहानी के विद्रूप को हमें उन तमाम कला-सिद्धान्तों की परख के लिए भी इस्तेमाल करना चाहिए जो यह समझाते हैं कि बादशाह की शान में लिखे गये क़सीदे से मज़दूर की शान में लिखा गया क़सीदा बिहतर हो जाता है.
6.
प्रचण्ड प्रवीर की भाषा में स्थानीयता मेरी निजी रुचि के हिसाब से कुछ अधिक है किन्तु जिन्हें यह अतिरेक शैथिल्य नहीं लगता उन्हें भी यह स्वीकार करने में एतराज़ नहीं होना चाहिए कि ( सिंह कहानी में) `भानजी’ के लिए `भगिनी’ का प्रयोग ग़ैर-बिहारी हिन्दी-भाषी के लिए असुविधाजनक है. यद्यपि भाषा का कोई सार्वभौम व्यवहार नहीं होता फिर भी पायल पहनाने और बेड़ी डालने में फ़र्क़ करना ज़रूरी है.
किन्तु उनकी कहानियो॑ का क्षेत्र अपनी दृष्टि और सृष्टि में हिन्दी के समकालीन कथा-साहित्य के रचाव से कई अर्थों में भिन्न है. हिन्दी की समकालीन कथा-बल्कि समूची साहित्य-सर्जना-का स्वर बहुत ऊँचा है लेकिन कहने के लिए वाक्य बहुत कम हैं और उन वाक्यों में बताने के लिए और भी कम होता है. इसका कारण ईक्षण और अवेक्षण में आलस है जो शिक्षा और अभ्यास में भी उसी तरह झलकता है. प्रचण्ड प्रवीर ने अपने लेखन को लेख्य की तहदारी का सम्मान करने की हिम्मत से लैस रखने की कोशिश की है और दुनिया को तदबीर की दीवारों में महदूद रखने वाली गजनिमीलिका से बचे रहे हैं. इस कारण से वे मानवीय सत्ता के उन कारकों और बरतावों पर भी नज़र रख सके हैं जिनसे मुँह मोड़ने में ही समकालीनता ने अपनी तार्किक उपस्थिति मानी है. फलतः अतिमानवीयता से टकराने के विविध उपाय- तन्त्र, विज्ञान, परा-कोपर्निकीय ग्रह-विद्या-सभी उनके उपकरण- भाण्डार में जगह और इस्तेमाल के हक़दार हैं तथा अदब- मुलाहिज़े को भी उनके यहाँ वही तरज़ीह मिलती है जो हमक़दमी और हमकलामी को.
मुझे पूरा भरोसा है कि इन कहानियों की बन्दिश का नयापन हिन्दी की वर्तमान सर्जना पर एक बढ़त के रूप में देखा जायगा और इसे न केवल वह मक़ाम हासिल होगा जिसकी वह हक़दार है बल्कि इसकी रहरवी को वह मक़बूलियत भी मिलेगी जिससे हमारी क़िस्सागोई और भी सुर्ख़रू तथा हमाहंग हो सके.
वागीश शुक्ल हिन्दी, संस्कृत, फारसी और अँग्रेज़ी वाङ्मय के गहरे और गम्भीर अध्येता, आलोचक और अनुवादक वागीश शुक्ल (जन्म : १९४६, उत्तर प्रदेश) भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली से सेवा-निवृत्त होकर इन दिनों बस्ती (उत्तर प्रदेश) में रह रहें हैं. साहित्य के मूलभूत प्रश्नों पर आधारित वैचारिक निबन्धों का संग्रह ‘शहंशाह के कपड़े कहाँ हैं’ तथा निराला की सुदीर्घ कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ की टीका ‘छन्द-छन्द पर कुमकुम’ प्रकाशित. गालिब के लगभग पूरे साहित्य की विस्तृत टीका पर कार्य जारी. अभी-अभी चन्द्रकान्ता (सन्तति) का तिलिस्म शीर्षक से आलेखों का संग्रह प्रकाशित. wagishs@yahoo.com |