• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » दरविश की ग़ज़ल

दरविश की ग़ज़ल

  कवयित्री बाबुषा ने दरविश की ग़ज़लों की तरफ ध्यान खींचा तो महसूस हुआ कि कुछ बात तो है इस शायर में.     ग़ज़लें और शेर इतने लोकप्रिय हैं कि इसकी कीमत इस विधा को भी चुकानी पड़ी है. आप पांच ठीक-ठाक ग़ज़लें लिखकर जीवन भर मुशायरों में जमे रह सकते हैं. शायरी करने […]

by arun dev
June 28, 2021
in कविता, साहित्य
A A
दरविश की ग़ज़ल
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

 

कवयित्री बाबुषा ने दरविश की ग़ज़लों की तरफ ध्यान खींचा तो महसूस हुआ कि कुछ बात तो है इस शायर में.  

 

ग़ज़लें और शेर इतने लोकप्रिय हैं कि इसकी कीमत इस विधा को भी चुकानी पड़ी है. आप पांच ठीक-ठाक ग़ज़लें लिखकर जीवन भर मुशायरों में जमे रह सकते हैं. शायरी करने वाले बहुत हैं लेकिन एक विधा के रूप में उसे आगे ले जाने वाले बहुत कम लोग मिलेंगे, चाहे वह हिंदी हो या उर्दू, भारत हो या पाकिस्तान.  

 

दरविश में शिल्प और कथ्य दोनों में ताज़गी और चुस्ती है और वे अभी लिख भी रहें हैं. जिस परम्परा में मीर, ग़ालिब,  फैज़, फ़राज़  हो चुकें हों उसमें कुछ अलग और बेहतर करना आसान तो नहीं.

 

प्रस्तुत हैं दरविश की कुछ ग़ज़लें

 

ll ग़ ज़ ल II 

 

दरविश

 

 

 

 

1.

 

 

मुस्तकिल आसमान ताक़ने की ख़ू सीखी

मैंने दहक़ान से बारिश की आरज़ू सीखी ।

 

अना को काट के फेंका तो बरी इश्क़ हुआ

ज़ुबान काट के फेंकी तो गुफ़्तगू सीखी ।

 

मैं सम्त सम्त गया और कू-ब-कू सीखी

उसको पाने की ज़िद मे मैंने ज़ुस्तजू सीखी ।

 

नाम में मेरी माशूक़ा के कई नुक़्ते थे,

उसे पुकारने के वास्ते उर्दू सीखी ।

 

गुजरना पडता है हर शय से सीखने के लिये,

हम उसके फूल से जो गुज़रे तो खुश्बू सीखी ।

 

किताबें पढ के कहां आई तू मुझे दरविश

आख़रिश आंखें पढी तेरी और तू सीखी ।

 

 

 

2.

 

न सियासत न नफ़रतों के कारोबार में हैं

शुक्र अल्लाह का जानेमन कि तेरे प्यार में हैं

 

तेरे हंसने की रस्म पूरी हो तो झर जायें

चांदनी के तमाम फूल इंतेज़ार में हैं

 

रोज़ इक शेड नया चुनती है महबूबा मेरी,

लब मेरे उसकी लिपस्टिक के इख़्तियार में हैं ।

 

ये पहली बार है आशिक़ का उसके रोल मिला,

ये पहली मर्तबा है, लगता है किरदार में हैं

 

लेने आये हैं मुझे इश्क़ के इस्टेशन पे,

हिज्र तन्हाई इज्तेराब इंतेज़ार में हैं ।

 

तुम अपने कैमरे की आंख वहां झपकाओ,

जिधर भी तुमको लगे ,लोग बाग प्यार में हैं

 

गिरेबां जिसका फाड़ डाला उसने जाते हुऐ,

हम अभी तक उसी कुर्ता-ए-तार तार में हैं ।

 

कोई पूछे कि कैसे करते हो तख़लीक़े-ग़ज़ल

हम बडे़ फख़्र से कहते हैं, तेरे प्यार में हैं ।

 

सारी दुनिया के रास्तों से गुज़रकर दरविश

हम एक बार फिर उसी की रहगुजार में हैं ।  

 

 

3.

 

धड़कने बढ़ते ही दुनिया को ख़बर लगती है

प्यार को मेरे बहुत जल्द नज़र लगती है

 

सोचते ही उसे पसीने सूख जाते है

ऐसी ठंडक तो बस साया-ए-शजर लगती है

 

प्यार में गुस्से की परवा न करो, कह डालो,

कोई भी बात बुरी तुमको अगर लगती है

 

इश्क़, सिगरेट, शराब और सचाई की तलब

ख़ू की आदत है कि वो बारे दिगर लगती है

 

बात अलहदगी की हो या के साथ आने की,

मेरी महबूबा मुझे मुझसे निडर लगती है

 

उन्ही की नफसियात का ईलाज करती है अब

जो ये कहते थे कि ये लडकी डफ़र लगती है

 

प्यार के लफ़्ज़ का मुश्किल है तलफ़फुज़ दरविश

हर्फ़े- पे सीखने में आधी उमर लगती है ।

 

ना संगे-मील कोई ना कोई मंज़िल का निशां,

हो न हो ये किसी दरविश की डगर लगती है ।

 

 

४.

 

सरज़मीनों पे है इंसां खाली

और फिर सर पे आसमां ख़ाली

 

ख़ाली हो कर ही ख़ूबसूरत है

देखिये कितना आसमां ख़ाली

 

प्यार से कर दे मुझे यूं बेबस

ज़ोम से कर दे मेरी जां ख़ाली

 

बस उसे जाने का ख़्याल आया

हो गया मेरा आशियां ख़ाली

 

इक तेरे नाम की पतंग उड़े

बाक़ी है दिल का आसमां ख़ाली

 

बस तेरा चेहरा पसेमंज़र में

और मंज़र में आसमां खाली

 

रंग भरने की सहूलत दी है

एक नुक़्ता नहीं जहां ख़ाली ।

 

प्यास तेरी बुझा सके तो पी

कर न दरिया को रायग़ां ख़ाली

 

जाना है एक दिन तुझे दरविश

करके उसका ये आस्तां खाली

 

 

5.

 

एक तकिया एक करवट और इक सलवट कम है

उसके न होने से बिस्तर की खिलावट कम है ।

 

तेरे न होने की बेचैनी से हम पर ये खुला,

हज़ार बार तेरे होने का झंझट कम है ।

 

जब से देखा है बाज़ आसमां में उडते हुऐ,

क़फ़स में चुप हैं परिंदे ,फडफडाहट कम है

 

झगडे तो उतने ही हैं तीसरी मुहब्बत के,

हां मगर अब के मरासिम की थकावट कम है ।

 

लोग घर में ही दफ़न कर रहे हैं मुरदों को

इतनी लाशों के लिये गांव का मरघट कम है

 

बिना काजल बिना मस्कारे की आंखें उसकी

चमकती शब में तीरगी की मिलावट कम है

 

इक मेरी जिन्दगी के कमरे के दरवाज़े पे

सीढियां चढते तेरे कदमों की आहट कम है

 

दुआ सलाम,खैरियत के तक़ल्लुफ़ से परे,

हम वहां हैं जहां लोगों की बसावट कम है

 

  

६.

 

उसको मेरी तलब हो ये इसरार किया,

हमने ख़ुद को ऐसे ख़ुद मुख़तार किया ।

 

जब भी हम थोड़े बाग़ी होने को थे,

ठीक तभी इस दुनिया ने पुचकार किया ।

 

सबको नफ़ा हुआ उसके नुक़सानों से,

जब भी इक शायर ने कारोबार किया ।

 

माँग लिया है फिर थोड़ा सा वक़्त उसने,

कब मेरे मूंह पे उसने इंकार किया ।

 

जीस्त मुझे अब ग़म देते घबराती है,

मैंने खुद पे ही कुछ ऐसा वार किया l

 

लफ़्ज़ों से जो खाई खोदी थी, उसपे,

चुप्पी का इक पुल हमने तैयार किया ।

 

लुत्फ़ वो कोई वस्ल से कम न था,दरविश,

हासिल था वो फिर भी इंतेज़ार किया ।

 

  

७.

 

डूबने दो ज़रा मुश्ताक़ को गहराई में

दीदा-ए-यार भी शामिल करो पढाई में

 

क़लम डुबा के रखो इल्म की सियाई में

चांद सूरज सितारे सब हैं रोशनाई में

 

मुझे हिंदी से मुहब्बत है इश्क़ उर्दू से

दोनों में रचियो मेरा नाम तू हिनाई में ।

 

ख़ुदा की नींद में डालेगी ख़लल आह मिरी

रोज़े रखने लगा हूं मैं तेरी जुदाई में

 

और मक़बूलियत से पढते हैं सब शे’र मेरे

जब भी शाया हों तेरे हाथ की लिखाई में ।

 

मैं उसकी नेलपॉलिशों के रंग चुनता हूं

मरज़ियां उसकी मेरे कुर्तों की सिलाई में ।

 

हमको मंज़ूर है कितनी भी मिरची खाने में

एक बोसा भी वो दे दे अगर मिठाई में

 

मैं हूं मामून सर्दियों से, के लड़कपन में

इक दफ़े उससे सट के बैठा था रजाई में

 

और टाला जो तूने वस्ल, कहे देता हूं

दाग़ लग जायेगा दामाने-पारसाई में

 

8.

 

शेर पढ़ती है, ज़ूम करती है तस्वीर मेरी

आ ही जाती है वो फिर वॉल पे आख़ीर मेरी

 

कभी आज़ाद करे और कभी ज़ंजीर मेरी

मेरी तक़दीर पे हावी रहे तदबीर मेरी ।

 

मुझको लगता है देख लेते हैं पढ़ने वाले

उसके अश्आर में बनती हुई तस्वीर मेरी

 

क़ैद अहसास हैं अल्फ़ाज़ की ज़ंजीरों में

तुम मुझे जज न करो सुन के ये तक़रीर मेरी

 

तेरे ख़्याल के सूरज से चमके चांदे-सुख़न,

रोशनाई से मुनव्वर तेरी, तहरीर मेरी । 

 

दिन दुनी रात चौगनी बढे इसकी सरहद,

फूलती फलती रहे इश्क़ की जागीर मेरी

ये गुनह किसके हैं जिनकी मैं काटता हूं सज़ा

किसके मलबे से तूने की ख़ुदा तामीर मेरी

आख़िरी पन्ना है वो ज़िन्दगी के नॉवल का

लिखा हुआ है जो उसमें वही तकदीर मिरी

 

 

९.

यूँ लगे है, थक गया हूँ लिखते लिखते,

या यूँ है के चुक गया हूँ लिखते लिखते।

इतना चौंकाया किसी शय ने नहीं था,

तुमको पढ़कर रुक गया हूँ लिखते लिखते ।

ऐसे भी पूरा लगा है अपना क़िस्सा,

आधा लिखके रुक गया हूँ लिखते लिखते।

 

सारे मज़हब मुझको क़ाफिर कह रहे हैं,

मैं मुकम्मल झुक गया हूँ लिखते लिखते ।

 

लफ़्ज़ों में जो ज़ायक़ा है क्या बताऊँ,

रोशनाई चख गया हूँ लिखते लिखते ।

 

हर गजल से उसको आँच आयेगी बेशक,

हां मगर मैं फुँक गया हूँ लिखते लिखते ।

 

सोचा था दीवान हो जायेगा दरविश,

इक ग़ज़ल को चुक गया हूँ लिखते लिखते ।

 

 _____________________ 



 

 

दरविश

(१५ अक्तूबर, १९७३ दिल्ली में)

 

 तालीम : एम. ए. इतिहास एवं भारतीय संस्कृति

डिप्लोमा : उर्दू ( राजस्थान यूनिवर्सिटी), फ़्रेंच (पांडिचेरी)

शौक़ : फ़िल्में, पढ़ना-लिखना, घुमक्कड़ी.

रिहाइश : जयपुर

vishdervish@gmail.com

Tags: ग़ज़ल
ShareTweetSend
Previous Post

बीहू आनंद की कविताएँ

Next Post

आख्यान-प्रतिआख्यान (3): सहेला रे (मृणाल पाण्डे): राकेश बिहारी   

Related Posts

आलेख

राहत इंदौरी : एक ख़ुद्दार शायर : मोहसिन ख़ान

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक