प्रवीण प्रणव माइक्रोसॉफ्ट कम्पनी में आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में कार्य कर रहें हैं और साहित्य में भी उनकी रुचि है. उनके दो कविता संग्रह और कुछ लेख आदि प्रकाशित हैं.
रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी आत्मकथा नहीं लिखी है पर उनकी ‘दिनकर की डायरी’ प्रकाशित है और यत्र-तत्र उन्होंने अपने जीवन प्रसंगों पर भी लिखा है. उनके पत्रों से भी उनके जीवन को समझने में मदद मिलती है.
प्रवीण प्रणव ने इन सभी स्रोतों की मदद से निराला,मैथिलीशरण गुप्त,बच्चन और नेहरु से उनके सम्बन्धों पर आधारित यह आलेख लिखा है. उनके व्यक्तिगत प्रसंगों की भी यहाँ चर्चा है.
पठनीय आलेख है. आज़ादी के बाद हिंदी साहित्य से सत्ता के बनते बिगड़ते रिश्तों पर भी यह रौशनी डालता है.
रामधारी सिंह दिनकर
एक आत्मकथा जो लिखी नहीं गई
प्रवीण प्रणव
रामधारी सिंह दिनकर ऐसे साहित्यकार हुए जिन्होंने विपुल साहित्य की रचना की. गद्य और पद्य दोनों विधाओं को मिला कर दिनकर की साठ से ज्यादा प्रकाशित कृतियाँ हैं. दिनकर के कई समकालीन साहित्यकारों ने आत्मकथा लिखा लेकिन दिनकर की कोई आत्मकथा प्रकाशित नहीं है. दिनकर के अपनी आत्मकथा न लिखने या न प्रकाशित करने के अपने कारण रहे होंगे लेकिन कुछ उपलब्ध संदर्भों के आधार पर विवेचना की जा सकती है कि आखिर दिनकर अपनी आत्मकथा क्यों नहीं लिख पाये. दिनकर एक ऐसे युग के साहित्यकार रहे जब शीर्ष के सभी साहित्यकारों का आपस में घनिष्ठ संबंध रहा. साहित्य और विचारों के स्तर पर सभी एक दूसरे के प्रशंसक रहे लेकिन इनमें प्रतिद्वंद्विता की भावना भी रही. सामाजिक जीवन में तो ये सभी एक दूसरे की प्रशंसा करते रहे लेकिन वैयक्तिक स्तर पर आपसी मनमुटाव छिपा नहीं रह सका.
आत्मकथा लिखने की सूरत में इन मनोभावों के प्रदर्शित होने का डर एक बड़ा कारण हो सकता है. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि इन साहित्यकारों ने अपनी पहचान अपने साहित्य के दम पर स्थापित की. इनका वैयक्तिक जीवन या यों कहें कि इनके परिवार की जीवनी पाठकों के समक्ष नहीं रही. आत्मकथा में इन सभी दुराव-छिपाव के ध्वस्त होने की आशंका प्रबल है.
निराला और दिनकर
साहित्य में सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, रामधारी सिंह दिनकर के वरिष्ठ हैं. हालांकि दोनों की उम्र में फ़ासला सिर्फ 12 वर्षों का है लेकिन साहित्य की दुनिया में जब दिनकर को लोग जान रहे थे, निराला महाकवि की पदवी पा चुके थे. लेकिन एक लंबा अंतराल रहा जब निराला और दिनकर एक साथ साहित्य की दुनिया में सक्रिय रहे. इन दोनों साहित्यकारों की आपस में अच्छी जान-पहचान रही, दिनकर ने निराला के प्रति कई लेखों में और कई मंचों से आदर व्यक्त किया. लेकिन निराला ने दिनकर के बारे में सार्वजनिक तौर पर कभी बहुत कुछ नहीं लिखा. बिहार के ही प्रसिद्ध साहित्यकार जानकी वल्लभ शास्त्री से निराला के मधुर संबंध रहे और इन दोनों के बीच कई पत्राचार हुए. इनमें से कुछ पत्रों से प्रतीत होता है कि निराला और दिनकर के बीच ऊपरी तौर पर भले ही सब ठीक रहा हो, अंदरखाने बात कुछ और थी.
11 फरवरी 1936 को लखनऊ से जानकी वल्लभ शास्त्री को लिखे पत्र में निराला ने लिखा
“आप मेरे विचार से बिहार और समस्त हिन्दी संसार में शीघ्र अपना सुंदर कवि रूप रखेंगे; पर हिंदी की तरक्की कीजिए. जिन बिहारियों का डंका पीटा जा रहा है, मैं बहुत जल्द उनके समक्ष आपको भिड़ाता हूँ – खासतौर से दिनकर जी के मुकाबले देखा जाए. एक आंदोलन बिहारियों के काव्य-ज्ञान का खड़ा करके देखना चाहता हूँ, डंका पीटने वाले बाजदार ही हैं या समझदार भी. इस पत्र का मर्म भी खोलिएगा मत.“
एक और पत्र जो 7 जून 1939 को लखनऊ से जानकी वल्लभ शास्त्री के नाम निराला ने लिखा, में निराला लिखते हैं –
“आपकी प्रकाश्य पुस्तक की बात पढ़कर खुशी हुई. आपने उस पत्र में हुंकार (श्री रामधारी सिंह दिनकर) की तारीफ लिखी थी. किताब मैंने पढ़ी. पढ़ने पर बहुत दिन का पढ़ा ‘हुँ हुँ करोति’ याद आया. अब सोचता हूँ अगर कोई बिहारी भाई ‘डकार’ लिखते!
बंगालियों के पड़ोसी होने के कारण शायद बिहारियों में ओज की मात्रा अधिक है. मुर्दों में जान फूंकना बुरी बात नहीं, लेकिन जो जिंदा है उनके लिए क्या होगा? क्या वे गुलगपाड़ा पसंद करेंगे?”
इन दोनों पत्रों से स्पष्ट है कि दिनकर की बढ़ती ख्याति से निराला सहज नहीं थे. यदि दिनकर की बात करें तो दिनकर ने निराला पर एक लेख लिखा जिसमें दिनकर निराला से अपनी पहली मुलाकात के बारे में लिखते हैं
“पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से मेरी पहली मुलाकात सन 1939 ई. में मुजफ्फरपुर में हुई थी. ज्यों ही मैंने अपना परिचय दिया, निराला जी ने मेरी बांह पकड़कर मुझे फिटन में बिठा लिया. फिर बड़ी ही अनौपचारिकता के साथ उन्होंने कहा ‘आप के बारे में मैं वही बात कहूंगा जो बात श्रीमती सरोजिनी नायडू ने मेरे बारे में कही थी. जब मिसेज नायडू ने मेरी कविताएं सुनी, उन्होंने कहा था जो काम आप कर रहे हैं, उसे करते जाइए क्योंकि वह बहुत ही महत्वपूर्ण है’.“
जब दिनकर को कुरुक्षेत्र के लिए पुरस्कार मिला था तब निराला ने प्रयाग में उनसे मिल कर उन्हें बधाई दी थी. निराला से अपनी तीसरी मुलाकात के बारे में दिनकर ने लिखा
“निराला जी के साथ तीसरी मुलाकात सन 1947 ई. में काशी में हुई जब नन्ददुलारे जी और डॉ रामविलास शर्मा के प्रयत्न से निराला जी की जयंती मनाई गई. जयंती समारोह का उद्घाटन आचार्य नरेन्द्र देव ने किया था एवं निराला जी की स्तुति में उस दिन अनेक साहित्यकारों ने खुले कंठ से भाषण दिए थे. मेरी इच्छा थी कि बिहार की ओर से आचार्य शिवपूजन सहाय जी बोलें, जो सभा में मौजूद थे. किंतु नन्ददुलारे जी तथा रामविलास जी की इच्छा हुई कि बिहार की ओर से मुझे ही बोलना चाहिए. मैंने अपने भाषण में जब कहा ‘रिश्ते में निराला जी प्रगतिवाद और प्रयोगवाद दोनों आंदोलनों के पिता माने जाएंगे’ तब निराला जी मंच पर से बोल उठे – ‘तुम जो कह रहे हो, वह बात लोग लिखते क्यों नहीं’. मैंने मुड़कर निवेदन किया कि लोग लिखेंगे कैसे नहीं? अभी तो आप पर लिखाई शुरू हुई है. कालक्रम में हर बात लिखी जाएगी. जवाब तो मैंने दिया, लेकिन मन ही मन निराला जी पर मुझे भक्ति हो आई. जिस निश्छलता से उन्होंने यह सवाल किया था, उस निश्छलता के साथ कोई बच्चा ही बोल सकता है.“
इस लेख से लगता है कि दिनकर की तरफ से निराला के प्रति कोई मनभेद नहीं था लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है. इस लेख को दिनकर ने यह सोच कर लिखा था कि लेख प्रकाशित होगी और संभवतः यह लेख निराला के निधन के बाद उनके स्मरण में श्रद्धांजलि के तौर पर लिखा गया ऐसे में इसमें किसी कटु प्रसंग का उल्लेख अपेक्षित नहीं था. दिनकर एक ऐसे परिपक्व साहित्यकार थे जिन्हें एहसास था कि उनकी डायरी भी प्रकाशित होगी इसलिए डायरी लेखन में भी उन्होंने सावधानी बरती. जिन मुद्दों पर उनका मतभेद रहा, दिनकर ने कोशिश की कि मतभेद किसी और के जरिए दर्ज किये जाएं. दिनकर की डायरी के पन्ने 1960 के बाद खुलते हैं, इसके पहले का विवरण उपलब्ध नहीं है. या तो दिनकर ने इससे पहले डायरी नहीं लिखी या दिनकर ने इससे पहले की डायरी को सार्वजनिक करना उचित नहीं समझा. लेकिन दिनकर की डायरी को पढ़कर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसमें नितांत निजी बातें कम हैं और जो दर्ज हैं वह इस सावधानी से लिखे गए हैं कि उनके छींटें दिनकर के दामन पर आसानी से न आएं.
11 फरवरी 1962, (दिल्ली) की डायरी में दिनकर ने लिखा
“आज राष्ट्रपति भवन में निराला जयंती मनाई गई. आयोजन किया था साप्ताहिक हिन्दुस्तान के संपादक श्री बांकेबिहारी भटनागर ने. मेरा भाषण संक्षिप्त था, लेकिन उसे मैंने सोच-समझकर तैयार किया था. सभी लोग भाषण से बहुत प्रसन्न हुए मगर डॉ नागेंद्र की प्रतिक्रिया अच्छी नहीं हुई. निराला जी की तुलना मैंने मैथिलीशरण से तो की नहीं थी, फिर भी नागेंद्र को भाषण अच्छा नहीं लगा.“
इसी दिन की डायरी में दिनकर लिखते हैं
“आज निराला जी के बारे में दूसरी सभा करजन रोड पर हुई और लोगों ने उस सभा के सभापति के आसन पर मुझे बिठा दिया. अपने भाषण में एक सज्जन ने कहा ‘निराला जी की पुस्तकें हमने मेले में बेचने को भेजी थी, लेकिन उनके कठिन काव्य को किसी ने भी नहीं खरीदा. यह बात जब निराला जी को मालूम हुई तब वे अपनी ओर इशारा करके बोल उठे ‘इससे मैं बराबर कहता हूँ कि साले, आसान चीजें लिख. मगर यह तो आसान चीजें लिखता ही नहीं है.‘ उन्होंने यह भी कहा कि रेडियो वाले निराला जी के एक-दो वाक्यों के लिए 1000-2000 देने को तैयार थे, लेकिन निराला जी इसके लिए राजी नहीं हुए.“
ऐसा लगता है कि निराला जी को रेडियो से 1000-2000 तक मिलने की बात दिनकर के गले नहीं उतरी. 12 फरवरी 1962 (दिल्ली) की डायरी में उन्होंने लिखा
“आज शाम को श्रीमती कमला रत्नम के घर पर गोष्ठी हुई. बच्चन, नरेंद्र, सुमन और मैं – सभी लोगों ने कविताएं पढ़ीं. थोड़ी देर में श्री भगवान सहाय जी आ गए और फिर श्री जगदीश चंद्र माथुर भी जो ऑल इंडिया रेडियो के महानिदेशक रह चुके हैं. कल एक वक्ता ने जो बात कही थी, उसका जिक्र आया. माथुर साहब ने कहा रेडियो से 1000-2000 का ऑफर तो निराला जी को कभी नहीं गया था. बच्चन मुझ पर बिगड़ उठा ‘वे सज्जन सभा में झूठ कह रहे थे. तुमने मुझे बोलने को क्यों नहीं बुलाया? मैं इस झूठ का खंडन करना चाहता था’.”
जैसा कि डायरी की इस पंक्ति से स्पष्ट है कि दिनकर जी ने कहीं अपनी असहमति नहीं जताई लेकिन उन्होंने किसी और के माध्यम से इस असहमति या गलतबयानी को डायरी में दर्ज किया.
मैथिलीशरण गुप्त और दिनकर
मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर से उम्र में बहुत वरिष्ठ थे. दिनकर ने सार्वजनिक तौर पर और अपने पत्रों या अपनी डायरी में भी गुप्त जी के प्रति बहुत आदर भाव दिखाया. हालांकि इनके बीच भी कुछ मतभिन्नता रही. 17 अप्रैल 1962 (दिल्ली) को दिनकर ने अपनी डायरी में लिखा “इधर मैथलीशरण जी के व्यवहार से मैं बहुत दुखी रह रहा हूँ. वे मुझसे द्वेष क्यों करते हैं, कुछ समझ में नहीं आता. मैं तो उनके जूतों में बैठने को तैयार हूँ. राय कृष्णदास जी से पूछा तो उन्होंने कहा, बूढ़े पहलवान को जवान पहलवान से द्वेष होता ही है. लेकिन श्री जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी ने कहा अगर आप खण्ड काव्य नहीं लिखते तो दद्दा को आपसे द्वेष नहीं होता.
जब से हम संसद में आए, हम दोनों एक ही जगह बैठते रहे हैं. किंतु मेरे साथ बैठकर वे ऐसी-ऐसी बातें बोलते रहते हैं कि मुझे दुख तो होता ही है, उन्हें डांटते भी नहीं बनता. आखिर मैंने सेक्रेटरी को लिख दिया कि आप मेरी सीट बदल दें. आज नए सदस्यों ने शपथ ग्रहण की और आज ही मेरी सीट बदलकर मामा वरेरकर के साथ कर दी गई. जब मैं नई सीट पर जाने लगा, दद्दा बड़े नाराज़ हुए. बोले – तू पूरा चांडाल है. मैंने कहा आज से यह चांडाल बनिए को कष्ट नहीं देगा. संभवतः दिनकर की डायरी का यही अंश है जिसके बारे में महादेवी वर्मा ने भी दिनकर से शिकायत की थी कि तुमने दद्दा के बारे में अपनी डायरी में ऐसा क्यों लिखा.
लेकिन दिनकर को कई अवसरों पर यह लगा कि मैथिलीशरण गुप्त के मन में उनके प्रति कोई दुराग्रह है. 7 मई 1962 (दिल्ली) को दिनकर ने अपनी डायरी में लिखा
“आज नए राष्ट्रपति का चुनाव संपन्न हो गया. मैथिलीशरण जी के मुख से आज फिर एक कटु वाक्य निकल गया. ऐसी बात तो वही बोल सकता है जिसका अंतर्मन मेरे प्रति कुभावों से व्याप्त हो. न जाने मुझे खीर खिलाते समय इनका प्रेम कहाँ से उमड़ आता है.“
मैथिलीशरण गुप्त दिनकर से पहले राष्ट्रकवि की उपाधि प्राप्त कर चुके थे. दिनकर को भी उनकी ओजपूर्ण कविताओं के लिए राष्ट्रकवि की उपाधि दी गई. हालांकि जब मैथिलीशरण गुप्त से उनकी मतभिन्नता हुई तो अपनी डायरी में उन्होंने ‘राष्ट्रकवि’ पर सवाल उठाया. अपनी डायरी में दिनकर ने राष्ट्रकवि की सूची में अपना नाम नहीं लिखा लेकिन मैथिलीशरण गुप्त का नाम लिखते हुए सवाल उठाया कि राष्ट्रकवि किसे कहा जाना चाहिए?
24 जून 1971 (दिल्ली) को दिनकर ने अपनी डायरी में लिखा “राष्ट्रकवि किसे कहना चाहिए? अपने देश में और कई अन्य देशों में भी यह प्रथा चल रही है कि जो भी कवि राष्ट्रीय कविताएं लिखता हो, उसे राष्ट्रकवि कह देते हैं. किंतु यह काफी नहीं है. प्रत्येक जाति की आध्यात्मिक विशेषता होती है. कोई सांस्कृतिक वैशिष्ट्य होता है, संसार और जीवन को देखने की कोई दृष्टि होती है. जो कवि इस दृष्टिबोध को अभिव्यक्ति दे सके, वही राष्ट्र का राष्ट्रकवि कहलाने योग्य है. भारतवर्ष में हम मैथिलीशरण जी, माखनलाल चतुर्वेदी जी और सुब्रमण्यम भारती को राष्ट्रकवि कहते हैं, किंतु यह आंशिक ही सत्य है. हमारे असली राष्ट्रकवि वाल्मीकि हैं, कालिदास हैं, तुलसी दास हैं और रवींद्रनाथ ठाकुर हैं, क्योंकि भारत धर्म को इन्होंने सबसे अधिक अभिव्यक्ति दी है.“
वैचारिक स्थायित्व
दिनकर युग में भारत राजनीतिक स्तर पर कई बदलावों से गुजरा. स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले का दौर, स्वतंत्रता के बाद का दौर, चीन से युद्ध, पाकिस्तान से युद्ध और बांग्लादेश का अस्तित्व में आना, बहुत बड़े घटनाक्रम थे. इस दौर में जो निर्णय पहले सही लगे, बाद में उन्हीं पर प्रश्न चिन्ह लगा. जब कोई घटना घटी और उस समय की परिस्थिति पर यदि कोई लेख या कविता लिखी गई तो पाठकों ने उसे सही संदर्भ में पढ़ा, लेकिन एक आत्मकथा में इन सभी घटनाओं को पिरोना एक दुरूह कार्य साबित हो सकता था क्योंकि तब वैचारिक तौर पर जो बदलाव आए, वे खुलकर सामने आ जाते. ऐसे ही एक वैचारिक स्तर पर अलग भाव रखने की घटना के बारे में दिनकर ने अपनी डायरी में लिखा है. 5 फरवरी 1963 (पटना) को दिनकर में अपनी डायरी में राजेन्द्र बाबू के बारे में लिखा
“चीनी आक्रमण से पूर्व जुलाई में दिल्ली में अणुबम विरोधी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था. उसका उद्घाटन करने को राजेंद्र बाबू पटना से दिल्ली गए थे. उस समय उन्होंने कहा था कि भारत को अपनी ओर से यूनिलेटेलर निःशस्त्रीकरण कर देना चाहिए. फिर जब चीनी आक्रमण हुआ तब पटना के गाँधी मैदान में राजेंद्र बाबू ने कहा था भारत को चाहिए कि वह तिब्बत को स्वाधीन करवा दे. मैं दोनों सभाओं में मौजूद था. इन दोनों वक्तव्यों के बीच जो विरोधाभास है, यह मुझे खटकता रहा है.“
लेकिन इस विरोधाभास से दिनकर भी अछूते नहीं रहे. 1933 में ‘हिमालय’ में लिखी उनकी कविता बहुत प्रसिद्ध हुई जिसमें उन्होंने महात्मा गांधी की तुलना युधिष्ठिर से करते हुए लिखा “रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग धीर/ पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर\”. दरअसल गांधीजी के गोलमेज सम्मेलन में शामिल होने से दिनकर सहमत नहीं थे और विरोध में इन पंक्तियों को लिखा. लेकिन यही दिनकर थे जिन्होंने 1947 में बापू नाम से एक किताब लिखी और उसकी भूमिका में लिखा “यह छोटी सी पुस्तक विराट के चरणों में, वामन का दिया हुआ क्षुद्र उपहार है. साहित्य-कला से परे, इसका एकमात्र महत्व भी इतना ही है.“
गांधी की प्रशंसा में कविता लिखते हुए दिनकर ने लिखा
“तू कालोदधि का महास्तम्भ,आत्मा के नभ का तुंग केतु
बापू ! तू मर्त्य,अमर्त्य ,स्वर्ग,पृथ्वी,भू, नभ का महा सेतु
तेरा विराट यह रूप कल्पना पट पर नहीं समाता है
जितना कुछ कहूँ मगर, कहने को शेष बहुत रह जाता है
लज्जित मेरे अंगार; तिलक माला भी यदि ले आऊँ मैं
किस भांति उठूँ इतना ऊपर? मस्तक कैसे छू पाऊँ मैं
ग्रीवा तक हाथ न जा सकते, उँगलियाँ न छू सकती ललाट
वामन की पूजा किस प्रकार, पहुँचे तुम तक मानव,विराट.“
यही नहीं गांधी की हत्या के बाद दिनकर इतने व्यथित हुए कि उन्होंने गांधी के हत्यारे के हिन्दू जाति का होने पर दुख जताया
\”लिखता हूं कुंभीपाक नरक के पीव कुण्ड में कलम बोर,
बापू का हत्यारा पापी था कोई हिन्दू ही कठोर\”
लेकिन यही दिनकर चीन युद्ध के बाद जब राष्ट्रपति राधाकृष्णन से मिलते हैं तो दिनकर ने अपनी डायरी में 15 दिसंबर 1962 (दिल्ली) को लिखा
“राष्ट्रपति ने शांति और सद्भावना की बात चलाई. मैंने कहा ‘श्रीमान, आपको मालूम है कि इस चीनी आक्रमण की जवाबदेही किस पर है?’ राष्ट्रपति उत्सुक होकर बोले ‘किस पर?’ मैंने कहा ‘गांधीजी पर.‘ यदि गांधीजी का अहिंसात्मक प्रयोग असफल हो गया होता, तो देश को लाचार होकर तलवार उठानी ही पड़ती. और तब युद्ध में हमारी वह दशा नहीं होती, जो आज है. यदि देश खड़ग बल से स्वाधीन हुआ होता, तो हमारी सारी कमजोरियां, सारी कायरता, उसी युद्ध में जलकर खाक हो गई होती. जब से आप दिल्ली आए हैं, आप हमेशा नैतिक संस्कार का उपदेश देते रहे हैं. राजेंद्र बाबू भी नैतिकता पर ही जोड़ देते रहे. राजा जी भी नैतिक बल का ही बखान करते रहे. लेकिन इसका परिणाम क्या हुआ? जो थोड़ी सी आग हमने गांधीजी के नेतृत्व में संचित की थी, वह भी बुझ गई. खुद मुझमें पहले जितनी आग थी, उतनी अब नहीं है. यह सब आप लोगों की संगति का प्रभाव है. ऊंची मनुष्यता प्राप्त करने की उमंग का नतीजा है. मुमकिन है यह मेरी बढ़ती हुई उम्र का भी परिणाम हो, मगर यहाँ दिल्ली में हायर ह्यूमैनिटी, शांति और अहिंसा की बड़ी भारी तलाश है और आप लोग यही बार-बार बोलते हैं. उसका मुझ पर प्रभाव पड़ता है. मगर चीनी आक्रमण ने मेरी आँखें खोल दी हैं. यह स्पष्ट हो गया है कि शक्तिशाली शारीरिक संस्कार के बिना भारत किसी भी ध्येय को प्राप्त नहीं कर सकेगा. और तो और, काफी शारीरिक शक्ति संचित किए बिना, वह बच भी सकेगा या नहीं इसमें मुझे संदेह है. चीनी आक्रमण के बाद से मैं भारत का स्वप्न, एक भिन्न देश के रूप में देखने लगा हूँ. आपके शिक्षा, संस्कृति और सूचना मंत्रालयों को चाहिए कि वे एक नए मंत्र के प्रचार में लग जाएं. वह मंत्र आत्मा नहीं, शरीर के उत्थान का मंत्र है. जिससे यह देश शीघ्र से शीघ्र शरीर बल का विकास कर सकें. बुद्ध और गाँधी ने जो कुछ दिया है, उसे हम फेंक नहीं देंगे मगर केवल उसी को सिर पर लादे हुए चलते रहना अब संभव नहीं है.“
जवाहरलाल नेहरू और दिनकर
यह सर्व-विदित है कि दिनकर और जवाहरलाल नेहरू के घनिष्ठ संबंध रहे. जवाहरलाल नेहरू दिनकर की कविताओं के प्रशंसक रहे और नेहरू ने ही दिनकर को राष्ट्रकवि की उपाधि दी. दिनकर ने भी नेहरू के लिए एक नया विशेषण ‘लोकदेव’ गढ़ा और ‘लोकदेव नेहरू’ के नाम से किताब लिखी. नेहरू ने दिनकर की किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की भूमिका लिखी. नेहरू ने ही दिनकर को दो बार कांग्रेस की तरफ से राज्यसभा में भेजा. लेकिन यही दिनकर चीन की लड़ाई और उसमें भारत की हार से इतने आहत हो गये कि उन्होंने नेहरू के विरोध में सदन में अपनी ही कविता जो उन्होंने ‘हिमालय’ में लिखा था पढ़ा “रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग धीर” को पढ़ा. यही नहीं इस हार के लिए नेहरू की नीतियों को दिनकर ने जिम्मेदार माना. दिनकर ने एक किताब ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ लिखी और उसमें दिनकर ने लिखा-
“घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है.
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है.“
इस विरोध की कीमत भी दिनकर को चुकानी पड़ी. इसके बाद नेहरू और दिनकर के संबंधों में एक खटास आ गई जो कभी दूर नहीं हुई. दिनकर की पारिवारिक जिम्मेदारियाँ बहुत थीं और आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी. दिनकर की अभिलाषा थी कि उन्हें राज्यसभा के एक और कार्यकाल के लिए चुन लिया जाये. अपनी इस अभिलाषा को दिनकर ने अपनी डायरी में भी लिखा. आरंभिक गुस्से के बाद दिनकर को भी लगा होगा कि इस विरोध के बाद राज्यसभा की राह आसन नहीं होगी. सार्वजनिक तौर पर परशुराम की प्रतीक्षा के बाद दिनकर ने नेहरू या इंदिरा गांधी की कोई प्रखर आलोचना नहीं की लेकिन फिर भी उनका राज्यसभा का सपना अधूरा ही रह गया. 26 अगस्त 1962 (दिल्ली) को दिनकर ने अपनी डायरी में लिखा
“शाम को मोतीलाल जी की प्रतिमा के अनावरण समारोह में गया. मुझे एक छोटी सी कविता भी पढ़नी थी. जवाहरलाल जी ने मेरी ओर नहीं देखा. मैंने दो-एक बार दृष्टि पकड़नी भी चाही, मगर उन्होंने आंखें नहीं मिलाई. जानबूझकर किया गया अभिनय. मैं भी जब मंच पर चढ़ा, मैंने उनकी ओर निगाह नहीं की. मगर इससे क्या होता है?”
यदि दिनकर अपनी आत्मकथा लिखते तो उनके लिए नेहरू के साथ अपने संबंधों के उतार-चढ़ाव को लिखना आसन नहीं होता.
हरिवंशराय बच्चन और दिनकर
एक साहित्यकार के तौर पर दिनकर और बच्चन दोनों एक दूसरे के बहुत बड़े प्रशंसक रहे लेकिन 1962 के बाद दिनकर और नेहरू के बीच दूरियाँ बढ़ गईं तो दूसरी तरफ बच्चन की साख बढ़ने लगी. इस वजह से दिनकर और बच्चन के बीच भी थोड़ी खटास आई. 25 नवंबर 1962 (दिल्ली) को दिनकर ने अपनी डायरी में लिखा
“इंदिरा जी के यहाँ बच्चन ने जिन कवियों को बुलाया था, उनमें भवानी भी नहीं थे, मैं भी नहीं था, मैथिलीशरण जी भी नहीं थे. थोड़ी देर के बाद बच्चन जी अपनी नई पुस्तक देने को पधारे. इंदिरा जी के यहाँ जो कवि गोष्ठी हुई, उसके बारे में बच्चन जी ने पूछने पर ही बताया. उन्होंने यह नहीं माना कि कवियों को बुलवाने में उनका हाथ था. बोले मैं खुद आमंत्रित था. बच्चन जी ने इस बात का जोर से खंडन किया कि कवियों से जवाहर लाल जी की प्रशंसा में कविता लिखने को कहा गया है.“
हैदराबाद की एक घटना का जिक्र करते हुए दिनकर ने 25 जुलाई 1963 (दिल्ली) को अपनी डायरी में लिखा
“मद्रास गया था, कलकत्ता होकर. वहाँ से लौटना हुआ हैदराबाद होकर. हैदराबाद में कवि सम्मेलन था. मैं वहाँ पहुंचा मद्रास से, बच्चन जी पहुंचे दिल्ली से. हम दोनों एक ही कमरे में, एक होटल में ठहराए गए. होटल में मैं चादर लपेटकर लेटा हुआ था, इतने में बच्चन जी के कोई प्रेमी आ गए. उन्होंने कहा ‘आप दोनों आज शाम को मेरे घर पर पधारिये, वहाँ एक गोष्ठी का मैंने आयोजन किया है’. मैं मुंह ढके हुए था, मैं चुप ही रहा. बच्चन ने उनसे कहा ‘दिनकर जी बीमार हैं. मैं भी थका हुआ हूँ. अभी तो छोड़ दीजिए, आगे कभी बुला लीजिएगा. हवाई जहाज से यहाँ से दिल्ली की यात्रा ₹500 में हो जाती है’. वे सज्जन चले गए. मैंने समझा बात खत्म हो गई, लेकिन शाम को जब बच्चन और मैं हवाई अड्डे के लिए रवाना हुए, किसी ने मेरे हाथ में एक छपा हुआ पर्चा रख दिया, जिसमें लिखा था कि बच्चन जी ने शर्त लगा दी थी कि ₹500 धर दो तब तुम्हारी गोष्ठी में चलूंगा. बच्चन ने कागज पढ़ कर उसे बाहर फेंक दिया और कहा ‘हिंदी कवियों के भाग्य में यही सब बदा है’.“
बच्चन, पंत और दिनकर |
राज्यसभा में एक और कार्यकाल मिलने की लालसा में दिनकर ने इंदिरा जी के खिलाफ़ कुछ नहीं लिखा, जहां तक हो सका प्रशंसा ही की लेकिन बच्चन से अपना मतभेद छुपा नहीं सके. 17 नवंबर 1970 (दिल्ली) को दिनकर ने अपनी डायरी में लिखा
“शाम को लोटस पुरस्कार समारोह हुआ. जब इंदिरा जी मंच पर आईं, लोगों ने खड़े होकर उनके स्वागत में देर तक तालियां बजाई. औरतें तो बैठने का नाम ही नहीं लेती थी. बच्चन जी जब पुरस्कार लेने गए, सभा के एक कोने से शेम-शेम की आवाज आई. ये शायद वे ही लोग रहे होंगे जो उनपर लांछन लगा रहे हैं कि कमेटी में ये खुद थे, और खुद को ही पुरस्कार दे दिया. मेरा खयाल है निर्णय के वक्त वे कमेटी में नहीं रहे होंगे.“
1969 से पहले दिनकर ने आत्मकथा लिखने की नहीं सोची थी. उनके डायरी या उनके पत्रों में इस तरह का कोई संकेत नहीं मिलता जहाँ दिनकर ने अपनी आत्मकथा की बात की हो. लेकिन 1969 में बच्चन की आत्मकथा का प्रथम खंड ‘क्या भूलूँ क्या याद करूं’ प्रकाशित हुआ जिसने न सिर्फ साहित्यिक जगत बल्कि पाठकों के बीच भी बहुत लोकप्रियता हासिल की. इस आत्मकथा की प्रसिद्धि ने कई साहित्यकारों के मन में आत्मकथा लिखने की आकांक्षा जागृत की और दिनकर भी इनमें शामिल रहे.
दिनकर ने प्रत्यक्ष में बच्चन के साहस की प्रशंसा की लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर इसकी आलोचना भी की. बच्चन की आत्मकथा में जिस तरह उनके व्यक्तिगत संबंध सार्वजनिक हो गए, इसका डर दूसरे साहित्यकारों को भी लगा, लेकिन इस आत्मकथा की प्रसिद्धि इतनी हुई कि अपनी आत्मकथा लिखने का लोभ संवरण करना मुश्किल था. 24 दिसंबर 1970 (दिल्ली) को दिनकर ने डायरी में लिखा
“बच्चन ने यशपाल जी की पत्नी के विषय में अयोग्य कथन किया है. प्रकाशवती जी ने एक बयान बांटकर लेखकों से फरियाद की है. बयान की कॉपी मुझे नहीं मिली थी, नागेंद्र के यहाँ उसे देखा. सब का विचार हुआ कि बच्चन जी ने अपनी इज्जत तो ढकी रखी, दूसरों की इज्जत उतार दी. मगर अपनी इज्जत पर बच्चन ने पर्दा कहाँ रखा है? मैंने सबक यह लिया कि आत्मकथा लिखना जोखिम का काम है.“
1 जनवरी 1971 (दिल्ली) को दिनकर ने अपनी डायरी में यह स्वीकार किया कि वह आत्मकथा लिखने की बात सोच रहे हैं. अपनी डायरी में दिनकर ने लिखा “मैंने झाबरमल जी से कहा आपके पास एक युग का संस्मरण है. अपनी आत्मकथा लिख दीजिए तो इतिहास का बड़ा काम हो जाए. शर्मा जी ने कहा ‘इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः ॥‘ (यानि “स्वयं इन्द्र भी यदि अपने गुण गाने लगे, तो वह हीनता को प्राप्त करता है.) मुझे धक्का लगा क्योंकि मैं आत्मकथा लिखने की बात सोचने लगा हूँ.“
बच्चन की आत्मकथा में कमी निकालने का मौका दिनकर ने कभी जाने नहीं दिया. जहाँ किसी और के मत को लिखना था वहाँ तो दिनकर ने अपनी डायरी में उसे ज्यों का त्यों लिख दिया. जैसे 16 फरवरी 1971 (काशी) को दिनकर ने डायरी में लिखा
“रात सोते-सोते अज्ञेय जी ने बच्चन की आत्मकथा पर राय दी और कुछ अंश पढ़कर भी सुनाए. किताब उन्हें पसंद नहीं है, कम्पोजीशन की दृष्टि से. नैतिक दृष्टि से भी पुस्तक हेय है, यह ऐसा वे मानते हैं. सच्ची आत्मकथा की विधा उपन्यास है, ऐसा उनका मत है.“
लेकिन जहाँ अपनी बात लिखी, वहाँ दबे-छीपे स्वर में आलोचना की. 7 अप्रैल 1971 (ट्रेन में) को दिनकर ने डायरी में लिखा
“ट्रेन में काफी देर तक थीसिस पढ़ता रहा. फिर ऊबकर बच्चन की आत्मकथा पढ़ने लगा. बच्चन ने साफगोई का सबूत दिया है, मगर आत्मप्रशंसा भी बहुत की है. यानी यह दिखाना कि अपनी दृष्टि में मैं ऊंचा इंसान हूँ. मैं उससे सहमत हूँ किंतु यह सब अपने मुंह से नहीं कहना चाहिए. मगर जो भी आत्मकथा लिखेगा उसे इस दोष से बचने में कठिनाई जरूर होगी.“
हालांकि दिनकर को यह भी लगा कि यदि उन्होंने भी आत्मकथा लिखी, तो अपनी प्रशंसा तो लिखेंगे ही. 16 अप्रैल 1971 (ट्रेन में) को दिनकर ने डायरी में लिखा
“दिन भर ट्रेन में बीता. भगवान नित्यानंद की जीवनी पढ़ता आया. जीवनी खत्म करके बच्चन की आत्मकथा ‘नीड़ का निर्माण’ पढ़ने लगा. मुझे लगता है मैंने अगर आत्मकथा लिखी, तो वह भी आत्मप्रशंसा से भरी होगी. आत्मकथा में यह रोग स्वाभाविक है. अवगुण दो-एक इसलिए दिखाए जाते हैं कि वर्णन पर शंका न रहे.“
जब हर जगह बच्चन के साफगोई की प्रशंसा हो रही थी तब दिनकर ने एक बार फिर किसी और के नाम से इस साफगोई पर भी सवाल उठाया. 13 नवंबर 1971 (पटना) को दिनकर ने डायरी में लिखा “एक साहित्यकार ने कहा, बच्चन जी ने अपने जीवन की ख़राब बातें क्यों लिखी? मैंने समझाया ‘यह दिखाने को कि आदमी बड़ा लेखक हो या बड़ा नेता, वह सबसे पहले आदमी होता है. मगर आपका यह कहना ठीक है कि आदमी अपनी बुराई ही क्यों लिखे, और कहाँ तक लिखे? निश्चय ही बच्चन के जीवन में केवल दो ही घटनाएं नहीं हैं, फिर भी अपना पर्दाफाश करने का साहस तो उसने दिखाया है.‘”
व्यक्तिगत जीवन
बच्चन की आत्मकथा उनकी व्यक्तिगत जिंदगी और कुछ महिलाओं के साथ उनके संबंधों की स्वीकारोक्ति की वजह से ज्यादा चर्चित हुई. दिनकर की जिंदगी में भी कुछ ऐसे उथल-पुथल रहे जो उनकी राष्ट्र कवि वाली छवि से मेल नहीं खाते थे. दिनकर को यह एहसास तो रहा ही होगा कि आत्मकथा में इन प्रसंगों के सार्वजनिक होने से उनकी छवि पर असर पड़ेगा. दिनकर के अपने पुत्र रामसेवक सिंह से संबंध खट्टे-मीठे रहे. 29 जुलाई 63 को दिल्ली से अपने छोटे पुत्र केदारनाथ सिंह को अपने पुत्र रामसेवक सिंह के दुर्व्यवहार के बारे में दिनकर ने लिखा
“8 जून से 9 जुलाई तक मैंने जो कुत्सा, अपमान और दर्द झेला, उससे मैं बिल्कुल टूट गया था. हत्कम्प हर समय रहने लगा था, गर्दन कांपने लगी थी, सिर में हर घड़ी दर्द रहने लगा था और लगता था कि हार्ट अटैक या नर्वस ब्रेक डाउन नजदीक आ गया है. मैंने निश्चय किया कि अब मुझे इस घर में नहीं रहना है. मेरा पितृत्व विफल हो गया.“
इसी पत्र में दिनकर ने लिखा
“मैं घर से अचानक नहीं निकला. सेबो (राम सेवक सिंह) ने प्रथम बार मेरा अपमान जनवरी में किया था. बेटा बाप का अपमान नहीं करें इसकी एक ही शर्त है, यानी वह पहले दिन अपमान नहीं करे, और इधर तो लगातार 31 दिनों तक उसने मुझे इतना अधिक कष्ट दिया कि मैं जिस-तिस के आगे फूटकर रो पड़ता था. घर से मैं बहुत सोच समझकर निकला हूँ, इसलिए चलने से पहले उस घर का दरवाजा मैंने अपने लिए मजबूती से बंद कर दिया है. तुम्हारे रोने या सेबो के आंख दिखाने से मैं उस घर में वापस नहीं जा सकता. हाँ सेबो का क्रोध शांत हो तो कभी-कभार घंटे दो घंटे के लिए मैं उस घर में जाकर बाल-बच्चों से मिल आ सकता हूँ. इससे अधिक की आशा करना अब बेकार है. रुई भी दबते-दबते एक ऐसी जगह पहुँच जाती है जहाँ उसे और दबाया नहीं जा सकता. सेबो ने अत्याचार पूर्वक मुझे घर से निकाल कर मुक्ति के मार्ग पर भेज दिया है. अब मैं उसका उपकार मानता हूँ. यह काम उसके माध्यम से भगवान ने करवाया है.“
इसी पत्र में व्यथित हो कर दिनकर ने लिखा
“मैं जिस घर से निकल गया, उसके सुख-दुख, मान-अपमान की जिम्मेदारी मुझ पर नहीं है. परिवार भूखों मरे या जलेबी खाए यह सब उन्हें देखना है, जिन्होंने मुझे घर से निकाल कर सत्ता को हथियाना चाहा था. जिस घर पर से मेरा स्वामित्व नष्ट हो गया, उस घर के लिए मैं जीवित नहीं हूँ, न उनका कोई दायित्व मुझ पर शेष है. जिस घर में लौटकर मुझे नहीं जाना है, उस घर की कोई भी चिंता मुझ पर नहीं है. जो लोग बासी भात पर पंखे डुला रहे हैं, उन्हें शीघ्र ही ज्ञान हो जाएगा.“
लेकिन इस सत्य का दूसरा पहलू यह भी है कि जब एक ज्योतिषी ने उन्हें कहा था कि उनके पुत्र के जीवन पर खतरा है तो दिनकर ने न जाने कितने मंदिर और न जाने कितने साधु-सन्यासियों तक की दौर लगाई और पुत्र के सलामती की दुआ मांगते रहे. लेकिन विधि का विधान रहा कि जब उनके संबंध अपने पुत्र रामसेवक सिंह से मधुर होने शुरू हुए तब रामसेवक सिंह का निधन हो गया. 12 अप्रैल 1967 को रामसेवक सिंह का निधन हुआ और दिनकर ने डायरी में लिखा “रामसेवक पहले मेरे पुत्र थे. जब घर का बोझ संभाल कर उन्होंने मुझे निश्चिंत कर दिया, वे मेरे पिता हो गए और उन्हीं के भरोसे मैं देश-विदेश घूमता रहा. फिर 63 के जून से 66 के दिसंबर तक उन्होंने मुझे घोर कष्ट दिया. तब वे 66 के दिसम्बर में फिर मेरे पुत्र हो गए और मेरी गोद में आकर बैठ गए. जब तक जब तक कलह था, वे जीवित रहे. कलह शांत हुआ नहीं कि वे चल बसे.“
दिनकर के संबंध अपनी पत्नी से भी बहुत मधुर नहीं रहे. 10 नवंबर 1971 (पटना) को दिनकर ने अपनी डायरी में लिखा
“जवानी में अपनी प्रशंसा सुनता था तो ऐसी खुशी होती थी जैसे किसी युवती के रीझने पर भी नहीं होती. लड़के का जब ब्याह होता है, माँ को ऐसा मालूम होता है कि कोई अजनबी औरत, बेटे को छीनकर मुझसे अलग लिए जा रही है. मैंने बहुत चाहा था कि मेरी माँ को ऐसा भाव न सतावे, मगर माँ को ऐसे भाव सताने लगे. और इधर पत्नी को भी शिकायत रहने लगी कि मैं उसकी ओर खूब मुखातिब नहीं हूँ. स्त्री के प्रति मैं थोड़ा विमुख था भी.“
इसी दिन की डायरी में दिनकर का यह कथन बहुत कुछ कह जाता है कि आत्मकथा ईमानदारी से लिखना आसान क्यों नहीं था. दिनकर ने लिखा
“असल में कुसंस्कारों के कारण मुझे उस समय भी भूख महसूस नहीं हुई, जब मैं भूखा था. फिर यह भी था कि मेरा सारा ध्यान पूरे परिवार पर केंद्रित था, अतः अपनी पत्नी की ओर मैं ध्यान ही नहीं दे सका. अब उसका फल भोग रहा हूँ.“
3 अप्रैल 1971 को दिनकर ने डायरी में लिखा
“लोग कहते हैं काम-कृत्य के आधिक्य से प्रेम की मृत्यु हो जाती है. मेरा तो अनुभव यह है कि प्रेम की मृत्यु काम की कमी से होती है.“
दिनकर के भी संबंध कुछ नारियों से रहे लेकिन दिनकर ने कहीं भी उनका नाम न लिखते की सतर्कता बरती. 24 अगस्त 1971 (पटना) को दिनकर ने डायरी में लिखा
“चित्त को बाबा मुक्तानन्द के चरणों से बांध दिया है, किंतु जीवन में आई हुई नारियां मन में घूमती रहती हैं. एक तरह की नारी होती है, जो इंद्रियों के उन्माद और शारीरिक आनन्द की उद्दामता में बहना चाहती हैं. मगर मर्द अगर खुशमिजाज और शरीफ हो और ऐसा हो कि वह थोड़ी सी बात से ही प्रसन्न हो जाता हो, तो यह उद्दाम आनंद वह नारियों को नहीं दे सकता. मगर जो धीरे-धीरे सुलगता है, वह बुझता भी देर से है.“
दिनकर का विवाह बहुत कम उम्र में हुआ था. अपनी पत्नी से दुराव को कुछ हद उचित ठहराते हुए एक बार पुनः दिनकर ने दूसरों का संदर्भ देते हुए 29 नवंबर 1972 (पटना) को डायरी में लिखा
“श्री अरविन्द का विवाह अप्रैल 1901 ई. में हुआ था, जब श्री अरविन्द की उम्र 28 वर्ष की थी और उनकी दुल्हन मृणालिनी देवी केवल 14 वर्ष की थी. श्री अरविन्द के विवाह के समय सर जगदीश चंद्र बोस सपत्नीक उपस्थित थे. लड़की जब जीनियस से ब्याह करती है, तब उसे गृहस्थी का सामान्य सुख बहुत कम मिलता है. पति की कीर्ति से तो आलोकित वह अवश्य होती है, किंतु जीवन भर उसे तप करना पड़ता है, लगभग निःसंग रहना पड़ता है. परमहंस राम कृष्ण ने भी एक छोटी बच्ची से ब्याह किया था. एक बार किसी ने श्री अरविन्द से पूछा था कि जब स्त्री की संत को आवश्यकता ही नहीं होती तो फिर वे ब्याह क्यों करते हैं? श्री अरविन्द ने कहा इसलिए कि तब तक उन्हें इसका ज्ञान नहीं रहता कि जीवन में उन्हें क्या करना है? यह प्रिविजन बुद्ध को नहीं था, कन्फ्यूशियस को नहीं था, मुझे भी नहीं था.“
महिलाओं के साथ किसी भी संबंध के बारे में दिनकर ने स्पष्ट तौर पर तो कुछ नहीं लिखा लेकिन 30 मई 1971 (दिल्ली) को डायरी में दिनकर ने लिखा “शाम को एक देवी जी आ गई. सुरसिका हैं. इंग्लैंड की औरतों के बारे में पूछ बैठीं.
‘उर्वशी से तो लगता है कि आप नारियों के भक्त हैं’. \”मैंने कहा सभी मर्द औरतों के भक्त होते हैं. मगर टॉलस्टॉय ने गोर्की से कहा था कि औरतों के बारे में असली बात में तब बोलूँगा जब मेरा एक पांव कॉफिन में पड़ चुका हो. मैं दूसरा पांव भी कॉफिन में रख दूंगा, और सत्य बोलकर ढक्कन गिरा दूंगा.“
दिनकर अपने जीवन के आखिरी वर्षों में बहुत निराश हो गए थे. ओज का कवि जिसने हुंकार, कुरुक्षेत्र, परशुराम की प्रतीक्षा लिखी ने 1970 आते-आते ‘हारे को हरिनाम’ लिखा. भागलपुर विश्वविद्यालय से उप-कुलपति की नौकरी छोड़ने के बाद दिनकर आर्थिक रूप से तो परेशान थे ही साथ ही व्यक्तिगत उलझनों से भी इस कदर परेशान थे कि दिनकर ने तिरुपति बालाजी मंदिर जाकर भगवान से मृत्यु मांगने का फैसला किया. वहां पहुंचकर उन्होंने रश्मिरथी का बहुत देर तक पाठ किया जिसे कई उपस्थित श्रोताओं ने सुना. उसी रात सीने में तेज़ दर्द होने के कारण उनकी ह्रदय की गति रुक गई और मात्र 66 वर्ष की आयु में अपने समय का चमकता दिनकर 24 अप्रैल 1974 को अस्त हो गया .
मेरा ऐसा मानना है कि यदि दिनकर लंबे समय तक जीवित रहते तो जिस आत्मकथा की उन्होंने परिकल्पना की थी, शायद उसे लिख पाते. 26 जुलाई 1971 (पटना) को दिनकर ने डायरी में लिखा
“आत्मकथा का एक बार आरंभ दिल्ली में किया था, पसंद नहीं आया. दूसरी बार भी आरंभ दिल्ली में ही किया, वह भी पसंद नहीं आया. यहाँ परसों फिर तीसरी बार आरम्भ किया है. पसंद तो यह भी नहीं आ रहा है, लेकिन इस बार इसे आगे बढ़ाना ही है. संभव है आगे चलकर वर्णन कवित्वपूर्ण और विचारपूर्ण हो उठे.“
दिनकर की आत्मकथा भले ही मीठे पानी के स्वरूप में उपलब्ध नहीं जिसे हम बिना प्रयास पी सकते हों लेकिन दिनकर के लेख, संस्मरण, पत्रों और डायरी के स्वरूप में दिनकर की आत्मकथा बहुत हद तक उस खारे पानी की शक्ल में हमारे सामने उपलब्ध है जिसे सुधि पाठक गण अपने मेहनत से परिष्कृत कर पीने योग्य बना सकते हैं. दिनकर के लेख, संस्मरण, पत्रों और डायरी के विस्तृत अध्ययन के बाद, दिनकर न सिर्फ एक साहित्यकार के तौर पर बल्कि एक आम इंसान की तरह भी खुल कर पाठकों के सामने आते हैं और वह आत्मकथा जो कभी प्रकाशित नहीं हुई, उसका स्वरूप बहुत हद तक पाठक की आँखों के सामने उभर आता है.
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प्रवीण प्रणव
सूचना प्रौद्योगिकी एवं प्रबंधन में देश के ख्याति लब्ध संस्थानों IIM Calcutta और XLRI Jamshedpur से उच्च शिक्षा प्राप्त कर बहुराष्ट्रीय कम्पनी माइक्रोसॉफ्ट में डायरेक्टर, प्रोग्राम मैनेजमेंट के तौर पर कार्यरत प्रवीण प्रणव, साहित्य और तकनीक दोनों में सक्रिय हैं.तकनीक के क्षेत्र में मशीन लर्निंग/आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस पर आजकल कार्य कर रहें हैं.
प्रणव के दो प्रकाशित काव्य संकलन हैं – ‘चुप रहूँ या बोल दूँ’ और ‘ख़लिश’.
praveen.pranav@gmail.com