नदियाँ धरती की कविताएँ हैं और वन कथाएं. लोक ने नदियों की भी प्रेम-कथा बुन ली है. प्रेम बिना त्रिकोण के तो सजता ही नहीं है. नर्मदा और सोन के विवाह के बीच एक नदी आ जाती है जोहिला.
\’मान\’ भारतीय प्रेम का एक मुख्य चरित्र है और उज्ज्वल भी, प्रेम को इसने गिरने नहीं दिया, और जैसा कि प्रेम कथाओं में होता है वह सब इस कविता में हैं जिसे कला रसिक और संवेदनशील कवि प्रेमशंकर शुक्ल ने लिखा है. दूसरी भी प्रेम कविता है यह विषम नहीं सम है और कामगार जोड़े पर है.
ये दोनों कविताएँ आपके लिए.
कविताएँ : प्रेमशंकर शुक्ल
नदियों की प्रेम-कथा
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अद्वितीय है बावस्ता होना
नदियों की प्रेम-कथा से
यद्यपि हमारी प्रेम-कथाओं का
नदियों से है अथाह सम्बन्ध
लेकिन नदियों की अपनी प्रेम-कथा है
सुनकर इसे होता है सुखद आश्चर्य !
रेवा (नर्मदा) – पिता मेकल की प्रतिज्ञा-पूर्ति के बाद
नर्मदा-सोन का प्रेम
और विवाह की तैयारी
फिर विवाह के पहले ही जोहिला का आ जाना
सोन और नर्मदा के बीच
(बीच का भी बीच होता है
जोहिला इसी तरह आयी
नर्मदा – सोन के बीच)
प्रेम त्रिकोण कहें इसे
या पृथ्वी पर प्रेम की अप्रतिम नदी-कथा
लोककण्ठ में बहती है जो अबाध
नर्मदा-सोन का विवाह होने-होने को है
कि नर्मदा की सेविका-सह-सखी
जोहिला का हो जाता है सोन से मिलन-प्रसंग
सोन और जोहिला को प्रणय-आबद्ध देखना
नर्मदा के लिए था असहनीय आघात
होते-होते रिश्ता टूट गया
मिलते-मिलते रह गया दो लहरों का मन
क्रोधावेश में नर्मदा चल दी पश्चिम
छोड़कर सोन का साथ
श्रुति में सोनभद्र नद
और नर्मदा, जोहिला हैं नदी
इस तरह नद-नदी का रह गया विवाह
रह गया विवाह कथा में बहता है
बनकर धरती का पहला प्रेम त्रिकोण
सोन पूरब-नर्मदा पच्छिम
प्रेम में विलोम बहने का यह है अपूर्व दृष्टान्त
कितना सुनता आया हूँ कि –
तिर्यक ही चुनता है अपने लिए प्रेम
कविता ने ही बताया मुझे कि प्रेम में है
अचानक का वर्चस्व
समय भी नहीं जानता प्रेम की नियति
जोहिला को सोन संग रतिरत निहार
क्रोधावेग में चल देती है नर्मदा
कुछ पलों के बाद संज्ञान में
सोन को पता चलता है जब नर्मदा की नाराजगी का रहस्य अपनी चूक का वास्ता दे-दे कर
रेवा ! रेवा ! रेवा ! पुकारता है सोनभद्र
लेकिन पीछे पलटकर निहारती तक नहीं रेवा (नर्मदा)
सोन की रेवा ! रेवा ! की पुकार
मेकल के जंगलों में गूँजती है आज भी
और रेवा में भी बहती है इस पुकार की करुण-ध्वनि
जोहिला से सोन का मिलन
मलिन नहीं हुआ है अब तक
लेकिन रेवा के लिए सोनभद्र के कलेजे में
उठती है तड़प-टीस लगातार
और चाहत अपरम्पार
रेवा भी सोन के लिए अशुभ नहीं कहती कुछ
चिर कुँवारी रहने का व्रत ही अब रेवा का अलंकार है
जोहिला तो पा गयी दुर्लभ प्रेम
लेकिन नर्मदा भटकती है जंगल-जंगल
और रेवा ! रेवा ! पुकारते गंगा में छलांग लगा लेता है सोन
पृथ्वी-पोथी में लिखी हुई है
प्रेम की यह अचरज भरी कथा-सन्धि
आख्यान कि सुन्दरता है यह
या है यह सुन्दरता का आख्यान
रेवा की कसक
सोन का अफसोस
लहरें लेकर बहती हैं
कहती हैं वनलताएँ इसे कनबतियों की तरह
कविता में इस प्रेमकथा का फैला है
रमणीय आदिवास
दुनिया में नदियों की प्रेमकथा यह पहली
बहती रहती है कभी रेवा-लय
कभी सोन की धार
जोहिला भी सोन-संगम में
सहेजे रहती है अपना अस्तित्व
सोन-जोहिला के मिलन
और नर्मदा के चिर बिछोह को समेटे
नदियों की महान प्रेम-कथा
कविता में भी धड़कती है लगातार
नर्मदा-सोन की प्रेमकथा
आँसू भर कर गायी जाने वाली प्रेमकथा है
अपने \”अचानक\” में जो
भरे हुए है युग-युगान्तर
रेवा की सोन-कसक
सोन की रेवा-हूक
कविता के कलेजे में है
पीर का अथाह
सोन स्त्री-सुख पाया
लेकिन रह गया दाम्पत्य सुख
जिसकी विदग्ध हूक लिए बहता है सोनभद्र
कौमार्य – सज्जित नर्मदा
महान प्रेमकथा में
अनवरत लिखी जा रही
अर्थोत्कर्षी कविता की तरह बहती है
कविता कहती है हलफ उठाकर
रेवा का जीवन है एकदम
कविता के जीवन जैसा ही !!
रेजा-राजगीर
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गारा-गिट्टी ढोते हुए खिलखिला रही है रेजा
प्रेमीपति जिसका राजगीर है
कोठी बन रही है किसी सेठ-साहूकार की
साथ ही लगे हैं काम पर दोनों
सुबह उठकर वह जल्दी-जल्दी कर लेती है रोटी-पानी
और पति के साथ आ लगती है फिर काम
काम और प्यार में डूबे हुए हैं
रेजा और राजगीर
कोठी की दीवार जोड़ते हुए
दरअसल अपनी आत्मा में ये
जोड़ते रहते हैं परस्पर का प्यार
हमारे जनपदों में रेजा कहते हैं
मेहनत-मजूरी करती स्त्रियों को
इस तरह यह रेजा और राजगीर की जोड़ी है
दीवार की जोड़ाई में देखते ही बनती है
राजगीर के हाथ की सफाई
रेजा-राजगीर की जोड़ी में अथाह है पसीना और प्रेम
साथ मजूरी करते रेजा बँध गयी राजगीर के प्यार में
और अब दोनों का हर पल का है संग-साथ
साथी रेजाओं के साथ खुशमन कर रही है वह
मशाला ढोने का काम
तसला-तगाड़ी उठा रही है ताजादम
खुद पानी पीने लगी तो ऊपरी दीवार
जोड़ रहे आदमी को भी दे आयी लोटा भर जल
कोठी की जोड़ाई का काम चल रहा है पुरजोर
दोपहर हो चली अब सभी ने खोल ली
घर से लायी रोटी की पोटली
बोरी बिछाकर बैठ दोनों खा-पी रहे हैं रोटी-पानी
और देखते ही बन रहा है परस्पर का मनुहार-प्यार
निहारते हुए यह मुग्ध है कविता
ऐसे प्रेम को देख-देख
पा रही है अनिर्वचनीय सुख
बन रही कोठी में क्या होगा-क्या नहीं
कहाँ जान पाएँगे हम
लेकिन बनाने का हाथ लिए
रेजा और राजगीर की साँसों में
पसीना और प्रेम को
जो इज्ज़त हासिल है
भाषा के अनुरागी चित्त को
इसी से प्रेमिल गहराई मिल रही है !
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1967premshankarshukla@gmail.com
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