‘ऐ लड़की’ में कृष्णा जी की पात्र अम्मू कहती है – “अपने आप में आप होना परम है. खुद पाए हुए अनुभव श्रेष्ठ हैं जिसका विकल्प और कोई अनुभव हो ही नहीं सकता.” कृष्णा जी लिखती हैं– “मैं किसी को नहीं पुकारती. जो मुझे आवाज़ देगा, मैं उसे जवाब दूँगी.” – मेरी पुकार का ऐसा ही जवाब दिया था एक सुदीर्घ रचनात्मक जीवन जीने वाली और आज भी खूब सकारात्मक ऊर्जा से भरी हुई कृष्णा जी ने. शरीर से भले वृद्ध हों लेकिन विचार के स्तर पर युवा हैं, खूब जमकर लगातार लिख रही हैं, भावुकता, उदारता और बौद्धिकता का अद्भुत संगम, बात-बात में ज़ोर का कहकहा, ज़ुबान से धाराप्रवाह फिसलती फ़ारसी, पंजाबी और अंग्रेजी, ज़िन्दगी और जिंदादिली, अद्भुत जिजीविषा. हंसकर कह पड़ीं मुझसे “मैंने तो इस (सहायिका) को फोन नम्बर लिखकर दे रखे हैं, कि किसी सुबह आवाज़ देने पर मैं उस पुकार से परे जा निकलूँ तब …हाँ और सुनिए गरिमा! जी चाहता है वहां ऊपर अल्ला मियां से कहकर वनरूम फ़्लैट आरक्षित करवा लूं ..” मैं हतप्रभ हूँ और वे हैं कि हँस रही हैं.
नौ दशकों का सफ़र विश्रांत हो रहा है, इसे समझकर भी मन चाहता है कि यदि कोई ऊपर हो और मेरी बात सुने तो उससे अर्ज़ करूं कि इस सोहबत को भरपूर स्वास्थ्य दे कि और कुछ वर्ष वे लिख सकें, ऐसा कुछ जिससे हम ऐसे पाठकों में शुमार हों जिन्होंने ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जीने की तमीज़ सीखी है, उन्हें पढ़कर. वे इनदिनों गुजरात पर लिख रही हैं..बिना रुके, अपनी तकलीफों के पुलिंदों को छिपाए हँसकर मिलजुल रही हैं. कहती हैं- दिल्ली में लोग आपस में मिलने–जुलने का रिवाज़ कम ही रखते हैं. कैसे कहूँ उन्हें कि अपरिचय और कृत्रिमता ही आज किसी भी शहर की रवायत बन चुके हैं. गाँवों में भी धीरे–धीरे ये बीमारी पंहुच गयी है. कर्ण–गुहा में मोबाईल का प्लग फंसाए हम दूसरी दुनिया के निवासी हैं, जहाँ दूसरे के दुःख सुख, हँसी–कराह की ध्वनियाँ वर्जित हैं, अजनबियत भी आत्मरक्षा का एक हथियार है. लेकिन फिर हम विरासत पाएंगे किससे, जीवन को समझने की अनुभव संपन्न दृष्टि दे सकने वाले लोग अपनी–अपनी यात्राओं पर चले जायेंगे, और हम सभाएं कर उन्हें स्मरण कर कर्तव्य कर लिया करेंगे.
आज दिन के चार–पांच घंटे एक अरसे के बाद उनके साथ गुज़ारे.. या यों कहूँ जीए. सन १९९४ में एम. फ़िल की उपाधि के लिए उनकी किताब ‘ऐ लड़की’ के चुनाव का सुझाव प्रो.नित्यानंद तिवारी ने दिया था. संकोच और कम उम्र के तकाज़े ने कृष्णा जी से एक निश्चित दूरी बनाये रखी. इसबार दिल्ली आने पर जब उनका फोन आया कि ज्वाइन कर लिया हो तो मिलने आ जाओ. हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय ने उन्हें जब डी.लिट् की मानद उपाधि (Honoris Causa) दी तो विश्वविद्यालय स्वयं सम्मानित हुआ, और शायद हिन्दी पट्टी के विश्वविद्यालयों में भी हिन्दी की इतनी बड़ी रचनाकार को Honoris Causa दिलवा देना इतना सहज भी नहीं होता. हमारे विभाग में तत्कालीन विभागाध्यक्ष प्रो.रवि रंजन और सहयोगियों ने इस प्रस्ताव का ज़ोरदार समर्थन किया और अंततः कई स्तरों से गुजरने और शैक्षिक परिषद् की हंगामेदार बहस के बाद स्वीकृति मिल ही गयी, विभाग में सब एकमत थे कि दूसरे के सम्मान से हम खुद सम्मानित होते हैं. २०१२ के दीक्षांत समारोह में कृष्णा जी का स्वयं आकर सम्मान लेना स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कतों के कारण हो नहीं पाया, उनकी जगह अशोक वाजपेयी (जिन्हें है.के.वि वि. ने सम्मानित किया था) ने सम्मान उनतक पहुँचाया, लेकिन हम हमेशा फोन पर लम्बी चर्चाएँ करते रहे.
जे.एन.यू. के भारतीय भाषा केंद्र के सहयोगियों से मैंने कृष्णा सोबती से अपनी भावी मुलाकात का ज़िक्र किया था दिन में, और रात को अरावली के कमरे में, जहाँ हर घंटे यूँ गिना करती कि लो अब बोईंग विमान उड़ान के पहले रनवे पर बीस मिनट घिसटा, अब दो-चालीस हुए और विशाल भारी पंखों, जगमगाती बत्तियों वाले विमान को जे.एन.यू. पर मंडराने के अलावा कुछ सूझ ही नहीं रहा, लाईन क्लियर नहीं है, जाग पड़ी रहती है- अनिद्रा और निद्रा के बीच सपने में यों भासा ज्यों वे व्हील चेयर पर बैठी हों, बड़े फ्रेम का चश्मा पहने, काले दुपट्टे से सिर और गले को लपेटे, बीच में गौरवर्ण तेजस्वी मुख दीप्त हो और मैं उन्हें दिखा रही होऊं जे.एन.यू. के पेड़–पौधे, मानुस, नया इंडिया काफी हॉउस, गंगा ढाबा, पार्थसारथी रॉक, खूब पढ़ाकू छात्रों से भरी लाइब्रेरी, हवाई चप्पल पहने तेजोद्दीप्त आवेगमय विद्यार्थियों का झुण्ड, अपने में ही गुम सर झुकाए जाता कोई अध्यापक, नीलगायों के झुण्ड, मोरों के रंगीन पंख और देर रात नाच गान करते कई छात्र. वे देखती हों हर चीज़ को कौतुक से, मेरे उत्साह से उत्साहित सी, ज्यों पहली बार स्वच्छ आकाश में पेड़ों के बीच से झांकते तारों की बोली–बानी सुनती हों ..
कृष्णा जी उन लोगों में शुमार हैं जो मनुष्य को जाति, वर्ग और जेंडर के कठघरे में बाँटने से पहले उसके आत्यंतिक सत्य को महत्व देती हैं- शबारी उपरे मानुष सत्य …जे. एन. यू. में ज्वाइन करने के बाद मैंने उनसे कहा कि सर्दियों की छुट्टियों के बाद आपको मिलती हूँ, लेकिन उनका आग्रह था अभी मिलो न.. इस अभी मिल लेने में कुछ था जो कहा नहीं गया पर महसूसा गया- वह था, कल किसने देखा है? मुझसे हाथ मिलाकर बोलती हैं ..आप तो तीसरी पीढ़ी की हैं. पैदाईशी महानगरीय होना और छोटी जगह से आकर यहाँ बस जाने के फर्क को देर तक समझाती हैं. मैंने हौले से उनके झुर्रियों भरे गोरे हाथ को छू लिया है, दो उँगलियों में हीरे की अंगूठियाँ हैं, कलाई में सोने का एक सादा सा कड़ा, त्वचा झूल गयी है, नीली, हरी नसें हड्डियों को मजबूती से थामे हुए हैं. उँगलियाँ कलात्मक हैं. मेरी उँगलियाँ देख रही हैं वे भी गौर से ..चश्मे के भीतर एक जोड़ी चुस्त और चौकन्नी आँखें हैं, सुनने बोलने में कहीं कोई दिक्कत नहीं, बस कहती हैं कि अब थक जाया करती हूँ, देर रात तक जाग कर काम करना उन्हें पहले से ही सुहाता है, इसलिए सुबह देर से सोकर उठती हैं
“आपको ग्यारह बजे आना था इसलिए आज जल्दी उठ गयी” – और बच्चों की तरह खिलखिला उठती हैं. सर को उन्होंने काले ऊनी टोपे से ढँक रखा है, मैंने थोड़ा इठलाकर कहा है कि उनके सन से केश देखना चाहती हूँ, वे बिलकुल आत्मीय पुरनिया की तरह टोपी उतार देती हैं, रबीन्द्रनाथ ठाकुर की श्वेत केश राशि याद आ रही है. अब वे कुछ ज्यादा ही कमजोर हो गयी हैं. सालों पहले की कृष्णा सोबती जिनकी विस्तृत आडम्बरपूर्ण ‘हाई-टी’ का लुत्फ़ बहुत से साहित्यकार, अतिथि, परिचित उठाया करते थे, उसकी रौनक मंद भले हो गयी हो, बुझी नहीं है. सहायिका ने इशारा समझकर चाय का एक लम्बा सरंजाम रख दिया है. मैंने नोटिस किया है कि वे बहुत कम खा रही हैं .. न के बराबर, लेकिन निरंतर इस बात का ख्याल रख रही हैं कि मेहमाननवाज़ी में कुछ कमी न रह जाए. ये वो पीढ़ी है जिसकी जड़ें भारतीय सभ्यता और संस्कार में गहरे तक जमी हैं और पाश्चात्य संस्कृति से पुष्पित–पल्लवित हुई हैं.
कृष्णा जी अपने बचपन के दिनों को याद कर रही हैं. शरीर यहीं सोफे पर मेरे साथ बैठा रह गया है और ऑंखें की पुतलियाँ थोड़ी सिकुड़ गयी हैं और दृष्टि स्थिर, जा पहुंची है अतीत के सुदूर कोने–अंतरों को देखने- “हमारे पिता रात को रौशनी बुझ जाने पर घर के बीचों बीच बैठकर लालटेन की मंद रौशनी में कोई साहित्यिक टुकड़ा पढ़ा करते, हम सब अपने अपने बिस्तरों पर लेटे, घर में गूंजती उस गुरु गंभीर मंद्र आवाज़ को सुना करते, भाषा की ध्वनियाँ और उसका शब्द भंडार अजीब रहस्यमय ढंग से हमारे कानों के जरिये सीधे दिल में उतर जाया करता..भाषा के संस्कार हमने अपने माता–पिता से पाए, और अनुशासन भी.”
मैंने उन्हें कुरेदने की कोशिश की है – आपकी पहली रचना? वे बोल उठीं –‘चन्ना’ शीर्षक मैंने पहला उपन्यास लिखा था, जिसे छपाया नहीं क्योंकि इलाहाबाद के किन्हीं लल्लूलाल जी ने कम्पोजिंग में ही पंजाबी के लोकशब्दों को अपनी तरफ से सुधारकर शुद्ध हिन्दी के शब्द भंडार में शामिल करने योग्य बना लिया था, मसलन शाहनी को उन्होंने सुधारकर शाह-पत्नी कर दिया, अपने बचपन की बोली–बानी, रवानेदार पंजाबी मुहावरों को खडी बोली का चुस्त पहनावा पहनाना मुझे असहय हो गया, और उसे प्रकाशित करवाने का विचार त्याग दिया. मैंने उनसे कहा है कि मुझे ‘ज़िंदगीनामा’ के अगले खंड की प्रतीक्षा है, वे मुस्कुराती हैं और मेरी आँखों के सामने बड़े शाहजी के सिरहाने शबद उचारती राब्याँ की चुनरी की कोर झिलमिला गयी है. क्या आप ही हैं राब्याँ ? आप कब कहाँ मिलीं राब्याँ से..जिसकी आवाज का दर्द, दीनो–जहान में मुहब्बत का दर्द हर उस पाठक के दिल में टीस- सा जिंदा है जो पैडे मारती राब्याँ को शाहजी के पीछे पीछे दरया में उतरता देख चुका है, जाति-बिरादरी, उम्र, शरीर के परे शाहजी की राब्याँ के लिए दीवानगी देख चुका है, ताक पर रखे दीये की लौ -सी झिलमिला रही हैं कृष्णा जी की आँखें..न न राब्याँ की ऑंखें. जिस दिन वह लाली शाह की पुकार को अनसुना करके दरिया में उतर गयी थी बेआवाज़ ..हौले ..चुपचाप ..सारी हवेली की दौलत को पीछे छोड़कर चली गयी थी उसी दरया में ..जहाँ शाहजी गए थे ..तबसे ढूंढ रही हूँ मैं उस राब्याँ को ..मिली नहीं कभी मिलेगी भी नहीं ..
’सिक्का बदल गया’ की शाहनी ट्रक पर चढ़ा दी गयी है, खेत, दौलत, सम्बन्ध, नाते, शाहजी की स्मृतियाँ सब कुछ पीछे छूट रहा है, ट्रक की गति उस शाहनी को दूर ले जा रही है मुझसे ..क्या आप ही हैं शाहनी ..राब्याँ ..कृष्णा जी की ऑंखें झिलमिला रही हैं या मेरी आँखों का पानी ही धुंधला कर रहा है मेरी नज़र को ..जी कह रहा है कहूँ- “मत जाओ राब्याँ, कहीं मत जाओ, यहीं सबद उचारो, तुम्हारे शाहजी नहीं लेकिन अब वक्त बदला है तुम्हारी ज़रूरत है बहुतों को..मत जाओ शाहनी अपने खेत–खलिहानों को छोड़कर ..ये नन्हें – मुन्ने सरसों के पौधे सर्द हवा में बाहें फैलाकर तुम्हें बुलाते हैं ..रुक तो जाओ ..यूँ भी जाता है कोई..रुको न अम्मू! तुमने कहा था –लड़की! परलोक होता है दूसरों का लोक ..परायों का ..वहां का रास्ता क्यों देखना ..मुझ जैसी कई लड़कियां होंगी जिन्हें ज़रूरत होगी तुम्हारे अनुभवों से बहुत कुछ सीखने की, अभी अपनी तैयारी स्थगित रखो शाहनी…..”
जिन्होंने कभी किसी को आवाज़ नहीं दी, बस पुकार का उत्तर भर दिया, वे जीवन भर स्वाभिमान से कभी समझौते न करने वाली रचनाकार के रूप में जानी जाती रहीं. जिस शहर की आबोहवा में हर दूसरा रचनाकार पुरस्कृत हो, या होने के लिए लालायित हो, उसी शहर में आपने बड़े-बड़े पुरस्कारों को दरवाजे से लौटा दिया –“इसका कोई अफ़सोस नहीं है मुझे”स्वाभिमान और अपनी शर्तों पर जीने के लिए कहीं हाथ नहीं फैलाया, 26 साल की कानूनी लडाई लड़ी और उसीमें घर बिक गया- ये बताते हुए चेहरे की मुस्कान धूमिल! नहीं…नहीं कहाँ .दुःख या अफ़सोस के बादल का कोई नन्हा टुकड़ा भी नहीं, निरभ्र अपरिमित विस्तार…छोटे शिमला की यादें, विभाजन की यादें..जो मन में आये कर डालना चाहिए, न कोई दोस्त न कोई दुश्मन..मैं अपना दिल खुद ही लगाती हूँ. लोग कहते हैं आप अपने निज के बारे में कुछ नहीं बतातीं. कभी किसीने मुझसे पूछा कि सुना था कभी आपका एक प्रेम प्रसंग था तो मैंने जवाब दिया–सुनिए मेरी इतनी बुरी हालत कभी नहीं थी, जहाँ सिर्फ एक ही प्रेम–प्रसंग होता’ इसके साथ ही हमारी समवेत हँसी उम्र की दीवारों को ढहाते हुए कलकल नदी सी बह उठती है जिसकी छलछलाहट बहुत दिनों तक स्मृति का मंद स्मित बिखेरती रहेगी.
इन दिनों ‘दिलोदानिश’ का पाठ हो रहा है जामिया मिल्लिया में, शाम को कृष्णा जी को वहीँ जाना है. मेरे पास समय नहीं कि अपनी प्रिय रचनाकार के इस उपन्यास–पाठ में शामिल हो सकूँ. लौटने का वक्त हो चला है- ‘सिक्का बदल गया’ की शाहनी ने अपने गहने ज़ेवर कुछ नहीं साथ रखे थे, चल दी थी शरणार्थी कैम्प में दूसरों के साथ कभी न लौटने के लिए, संग कुछ ले गयी ही नहीं ..कौन ले जा पाता है इस दुनिया से चीज़ –बस्त, अपनी सांस जब तक साथ दे तब तक ही है मैं, मेरा, अपना, हमारा ज्यों ही औचक बुलावा आया उसी समय राब्याँ चुपचाप दरया की लहरों में गुम..बादलों के घेरों ने घेर लिया है ..चुपचाप अपने रस्ते चल देना है ..किसी से गिला –शिकवा क्यों ..जीवन जितना मिला, जैसा मिला, भरपूर जिया, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया.. हाँ जब तक रहे सुकून से रहे, अच्छा खाया, अच्छा पहना गरारे से लेकर शरारे तक, अपनी धज सबसे अलग रखी, किसीको रुचे तो ठीक, न रुचे तो राम ..राम…मुझे विदाई जैसा कुछ दे रही हैं वो ..एक सुन्दर काला कुरता, जिसपर चांदनी के मोर बने हुए हैं, मानों कहती हों पहनना तो याद करना मुझे. झिलमिली आँखों में बालबंगरा के दालान में सिर पर हाथ रखे छोटे गोल मुख वाली नानी की तस्वीर है,जो दिल्ली लौटने के दिन कहती थी ‘फेर लौट के अइह, गर्मी के छुट्टी में’– विदा लेते कलेजा मुंह को आता था, सोचा था नौकरी करुँगी तो नानी की देखभाल करुँगी. नानी उससे पहले चली गयी, और फिर ननिहाल के नाम पर सबकुछ बच रहा नानी के सिवाय.
कृष्णा जी मुझे विदा दे रही हैं.उन्हीं की लिखी पंक्तियाँ याद आ रही हैं, जिन्हें दोहराने की इज़ाज़त बड़े संकोच से मैंने मांग ली है –“लड़की, प्याला बना ही इसलिए कि उठाओ और पी जाओ. जब तक पी सकते हो पीते रहो”…जीवन हिरण है हिरण. कस्तूरी मृग. इस क्षणभंगुर जगत में अपनी महक फैला यह जा और वह जा. ”सुनते ही वे आनंद से ताली बजा कर हंसने लगी हैं– तुमको याद है इतना सब ?” मेरा जवाब है – मुझे तो आपका पूरा उपन्यास याद है. कृष्णा जी ने बाएं पासंग पर रखी एक छोटी किताब से एक टुकड़ा निकाला है और कहती हैं –इसे बोल कर पढ़िए ..मुझे मालूम है कि ये टुकड़ा कौन सा है, वे मेरा उच्चारण सुनना चाहती हैं.नफीस उर्दू की नज़्म मन को ताज़ा कर गयी है….
ठण्ड बढ़ने से पहले जे. एन. यू. पहुंचना है .. दीवार पर शिवनाथ जी की मंदमुस्कान टंगी है, कोई माला नहीं.. जो साथी यहीं हैं पुराने कांच के गिलासों में, बुद्ध की धूलभरी प्रतिमा में, विवर्ण हो चुके गाढे रंग के सोफे कवरों में, सीले–सीले से रेशमी पर्दों में, रंग और पुताई की फरियाद करती दीवारों और छतों में, कभी रोशन करते कांच के झाड़-फानूसों में, उस की तस्वीर पर माला क्यों .उसकी उपस्थिति तो उत्कीर्ण है पांचवीं मंजिल के फ़्लैट के दरवाज़े पर स्टील की प्लेट पर-
जेहलम और चनाब
बहते रहेंगे इसी धरती पर.
लहराते रहेंगे
ख़ुली-डुली हवाओं के झोंके
इसी धरती पर
इसी तरह।
हर रुत-मौसम में
इसी तरह
बिलकुल इसी तरह
सिर्फ़
हम यहाँ नहीं होंगे.
नहीं होंगे,
फिर कभी नहीं होंगे,
नहीं. (जिंदगीनामा)
________________________
प्रोफ़ेसर ,भारतीय भाषा केंद्र
जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय,दिल्ली