निराला की प्रसिद्ध कविता ‘तोड़ती पत्थर’ के कई पाठ हैं. इस कविता का एक दलित पाठ प्रसिद्ध लेखक कंवल भारती ने किया था. समालोचन पर ही शिव किशोर तिवारी की इस कविता की वह चर्चित व्याख्या भी मौज़ूद है जिसमें उन्होंने इस कविता को ‘अंतर्विरोधों की कविता’ माना है.
रजनी दिसोदिया ने इस कविता का दलित स्त्रीवादी पाठ किया है. आश्चर्य है कुछ पुरुष लेखकों को जहाँ “भर बँधा यौवन” से दिक्कत थी वहीं रजनी का मानना है “कर्म से पुष्ट और अपनी मर्यादा में आप बँधा यौवन दलित स्त्री की एक अनन्य विशेषता है जिसे व्यक्त करने से निराला चूके नहीं है.”
यह भाष्य प्रस्तुत है.
निराला
इलाहाबाद के पथ पर दलित स्त्री
रजनी दिसोदिया
वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर
कोई न छायादार
पेड़, वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन भर बँधा यौवन
नत नयन प्रिय, कर्मरत मन
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार बार प्रहार;
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार.
चढ़ रही थी धूप
गरमियों के दिन
दिवा का तमतमाया रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगी छा गयी
प्राय: हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर.
देखते देखा, मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा छिन्न-तार
देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं
सहज सजा सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार.
एक छन के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा –
\”मैं तोड़ती पत्थर”
प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के समय उसके प्रथम अधिवेशन में बोलते हुए जब प्रेमचन्द ने यह आह्वान किया कि
“हमें सुन्दरता की कसौटी बदलनी होगी. अभी तक यह कसौटी अमीरी और विलासिता के ढंग की थी. हमारा कलाकार अमीरों का पल्ला पकड़े रहना चाहता था, उन्हीं की कद्रदानी पर उसका अस्तित्व अवलंबित था और उन्हीं के सुख-दुःख, आशा-निराशा, प्रतियोगिता और प्रतिद्वन्द्विता की व्याख्या कला का उद्देश्य था. उसकी निगाह अंतःपुर और बँगलों की ओर उठती थी. झोंपड़े और खंडहर उसके ध्यान के अधिकारी न थे. उन्हें वह, मनुष्यता की परिधि के बाहर समझता था. कभी इनकी चर्चा करता भी था तो इनका मजाक उड़ाने के लिए. ग्रामवासी की देहाती वेष-भूषा और तौर-तरीके पर हँसने के लिए, उसका शीन-क़ाफ दुरुस्त न होना या मुहाविरों का ग़लत उपयोग उसके व्यंग्य विद्रूप की स्थायी सामग्री थी. वह भी मनुष्य है, उसके भी हृदय है और उसमें भी आकांक्षाएँ हैं, यह कला की कल्पना के बाहर की बात थी.\”
\”कला नाम था और अब भी है, संकुचित रूप-पूजा का, शब्द-योजना का, भाव-निबंधन का. उसके लिए कोई आदर्श नहीं है, जीवन का कोई ऊँचा उद्देश्य नहीं है,-भक्ति, वैराग्य, अध्यात्म और दुनिया से किनाराकशी उसकी सबसे ऊँची कल्पनाएँ हैं. हमारे उस कलाकार के विचार से जीवन का चरम लक्ष्य यही है. उसकी दृष्टि अभी इतनी व्यापक नहीं कि जीवन-संग्राम में सौन्दर्य का परमोत्कर्ष देखे. उपवास और नग्नता में भी सौन्दर्य का अस्तित्व संभव है, इसे कदाचित् वह स्वीकार नहीं करता. उसके लिए सौन्दर्य सुन्दर स्त्री है,- उस बच्चोवाली ग़रीब रूप-रहित स्त्री में नहीं जो बच्चे को खेत की मेंड़ पर सुलाये पसीना बहा रही है; उसने निश्चय कर लिया है कि रँगे होठों, कपोलों और भौंहों में निस्सन्देह सुन्दरता का वास है, उसके उलझे हुए बालों, पपड़ियाँ पड़े हुए होठों और कुम्हलाये हुए गालों में सौन्दर्य का प्रवेश कहाँ ?”
तब उनके ज़हन में जरूर निराला की ‘तोड़ती पत्थर’ कविता रही होगी. ‘तोड़ती पत्थर’ निराला की बहुचर्चित और बहुपठित कविता है. इसके बावजूद इस पर कम ही लिखा गया है. निश्चित ही यह कविता उनकी दूसरी बड़ी कविताओं से भिन्न एक दूसरे ही लोक और मूड की कविता है. निराला आज के दलित कवियों और लेखकों की भाँति प्रतिबद्ध होकर दलित उत्पीड़न की घटनाओं और स्थितियों का बयान तो नहीं कर रहे थे. क्योंकि उनकी निष्ठा सिर्फ़ आज के तथाकथित दलित वर्ग से बँधी हुई नहीं थी. पर उनकी संवेदनशील दृष्टि से मानवीय उत्पीड़न और मानवीय गरिमा की कोई तस्वीर ओझल नहीं हो सकती थी. वे निश्चत ही अमीरों का पल्ला पकड़े रहने वाले कलाकार नहीं थे. उनकी दृष्टि समान रूप से सब पर पड़ती थी. इलाहाबाद की सड़क पर पत्थर तोड़ती वह गरीब महिला जो गुरु हथौड़ा उठा भरपूर वार से प्रहार कर पत्थर तोड़ रही थी, उनकी दृष्टि से ओझल कैसे हो सकती थी?
इस कविता में जो स्त्री जीवंत हो उठी है वह बहुत विशेष है. इसलिए नहीं कि वह दलित स्त्री की छवि है बल्कि इसलिए कि यह छवि बहुत हद तक आज के दलित और गैर दलित साहित्यकारों द्वारा निर्मित दलित स्त्री की उस छवि से भिन्न है जिसमें वे दीनता तो देख पाते है पर साहस, कर्मठता और निर्भीकता उन्हें दिखाई नहीं पड़ती. पर निराला की इस कविता में ‘जो मार खा रोई नहीं’ में यह निर्भिकता और कर्मठता पहचान ली जाती है.
यह कविता वास्तव में एक लघुकथा है. एक ऐसी कहानी जिसे कविता में कहा गया है. यह कहानी बेशक आकार में छोटी है पर जिस सत्य और अनुभव को संप्रेषित कर रही है, वह बहुत जरूरी और महत्वपूर्ण है. दिक्कत की बात यही है कि इतना साफ़-साफ़ लिखा होने के बावजूद भी अब तक यह सत्य और अनुभव पढ़ा नहीं जा सका. देशकाल और वातावरण कहानी की वह तात्विक अनिवार्यता है जिसके बिना कथानक का भवन प्राय: खड़ा नहीं हो पाता भले ही वह आकार में कितना छोटा क्यों न हो. प्रस्तुत कविता में देशकाल और वातावरण की उपस्थिति ‘इलाहाबाद की सड़क, गर्मियों के दिन, उस पर सुबह से दोपहर बाद तक बिना किसी छायादार वृक्ष की छाया के, पत्थर तोड़ती जिस स्त्री की कहानी कही है वह स्त्री निश्चत ही कोई दलित स्त्री है.
घर से बाहर पेट भरने के लिए मेहनत–मजदूरी का काम प्राय: तथाकथित छोटी जाति की स्त्रियाँ ही करती रही हैं. चाहे ऐसा न भी रहा हो पर ऊँची जाति के स्त्री- पुरुषों ने इस तथ्य को सत्य के रूप में स्वीकार लिया है कि ऊँची जाति की स्त्रियाँ घर से बाहर निकल कर, अपने श्रम और हुनर के बल पर कमा खाने के मौकों से वंचित रही हैं. इसमें भी ये जातियाँ गौरव का अनुभव करती हैं कि वे अपनी स्त्रियों को अपने कब्जे में रखती हैं. भीतर-ही भीतर रोती कलपती और आपस में ही रार मचाती ये स्त्रियाँ इतनी मजबूर और मगरूर रही हैं कि इन पर दया भी आती है और घृणा भी होती है.
आज बहुत सी जागरूक और एक्टिविस्ट महिलाओं को दलित स्त्री के घर से बाहर घरेलू नौकरानियों, कारखानों में मजदूरों और खेतों और खलियानों में खेत मजदूरों के काम करने में उनकी हीनता और बेबसी के दर्शन होते हैं. यह सही है कि इन सभी जगहों पर काम करते हुए दलित स्त्रियाँ विभिन्न तरह से जुल्मों और अत्याचारों का शिकार होती हैं. लेकिन क्या इसलिए ही उन्हें सुरक्षा के नाम पर इन सब कामों से वंचित कर देना चाहिए? इन कामों के बल पर न केवल वे खा-कमा लेती हैं बल्कि दुनिया को देखने समझने और जानने का अवसर भी पाती हैं. इससे उनके अनुभव का दायरा बढ़ता है. क्या इसी कारण उन्हें कमतर और हीन मान लेना चाहिए?
उनकी जीवन स्थितियों से उनके इस संघर्ष में हमें उसके साहस और हौंसले को सलाम करना चाहिए या उनके भीतर बेबसी और लाचारी का प्रचार करना चाहिए. यह स्थिति ऐसे ही ही है जैसे बाल मजदूरी का विरोध करते हुए कई बार सामाजिक कार्यकर्ता उन तमाम बच्चों से खाने- कमाने के वे मौके भी छीन लेते हैं जिनके सहारे वे कम से कम अपने लिए कुछ निम्नतम जुटा पाना संभव बना पाते हैं. बजाए कि उनकी काम करने की स्थितियों को बेहतर बनाया जाए, उन्हें उचित मेहनताना दिलाया जाए और उनकी जीवन स्थितियों को कुछ जीने लायक बनाने के केवल उनसे उनके उन कामों को भी छीन लेना उन्हें अपराध जगत में जाने को मजबूर कर देना है.
निराला की यह कविता मुझे इसी मायने में बहुत विशेष लगती है कि वह पढ़ने वाले के मन में उस स्त्री के प्रति दया और करूणा का भाव न जगा कर उसके प्रति गर्व और सम्मान का भाव जगाती है. यह दलित स्त्री को उसकी सम्पूर्णता में लेकर चलने वाली कविता है. ऐसा नहीं है इलाहाबाद की उस दम तोड़ती गर्मी में जहाँ दिन का रूप तमतमाया हुआ था और धरती रुई के समान धू- धू कर जल रही थी. गर्म लू के थपेड़े शरीर को झुलसा रहे थे, इन सबका एहसास उस स्त्री को नहीं था. सुबह से दुपहर तक और भरी दुपहरी में भी अनवरत पत्थर तोड़ती उस स्त्री के बारे में निराला लिखते हैं कि वह स्त्री जो श्याम तन और भरा बँधा यौवन लिए अपने कर्म में रत है. उसका कर्म में रत होना बहुत कुछ कह रहा है.
ब्राह्मणवादी व्यवस्था में शारीरिक श्रम को निकृष्ट माना गया है. शारीरिक श्रम में रत किसी भी मनुष्य को न केवल दीन- हीन दिखाया जाता है बल्कि उसे शारीरिक रूप से क्षीण और मानसिक रूप से दुर्बल दिखाया जाता है. संदेश यही रहता है कि शारीरिक श्रम करने से तन और मन दोनों गिर जाते हैं. पर निराला ने इस कविता में इस भ्रम को तोड़ा है. ‘वह तोड़ती पत्थर’ की दलित स्त्री कृशकाय पीला मुख लिए कोई बीमार युवती नहीं है बल्कि भरा बंधा यौवन लिए कर्मरत स्त्री है. तन मन से अपने काम में लीन वह स्त्री अपने कर्म में इस कदर रत है कि काम के साथ जैसे उसने स्वयं को साध लिया है.
यह कर्म वह साधन है जिसके माध्यम से वह समाज की आर्थिक और सामाजिक विषमता को काट पा रही है. यहाँ विषमता को काटने का मतलब उसे मिटाना या समाप्त कर पाना नहीं है बल्कि उसके होने को, उस के अपनी आत्मा (चेतना) पर हो रहे असर को निर्मूल करना है. सामने की तरु मल्लिका अपार और अपनी स्थिति के बीच व्याप्त विषमता की खाई के अनुभव पर वह स्त्री चाहे धारदार भाषण न दे पाए पर उसकी मौजूदगी को समझ और अनुभव कर पा रही है. उसके द्वारा अनवरत प्रहार में उसके भीतर का आवेग और आवेश व्यक्त हो रहा है. पत्थरों का तोड़ा जाना उसके भीतर की आवेगजनित उर्जा का गतिज ऊर्जा में बदलना है. अगर वह इस कदर कर्म में रत न होती तो उसके लिए सामाजिक और आर्थिक विषमता जनित अपने इस आवेग और आवेश को झेल पाना सम्भव नहीं था.
प्राय: कामगर लोगों को कामचोर और आलसी मानने की प्रवृति हमारे सभ्य समाज में देखी जाती है. हम अक्सर अपने आस पास तमाम न केवल पुरुषों बल्कि संभ्रांत स्त्रियों को ऐसी चर्चाओं में मग्न पाते हैं कि कैसे उनके यहाँ काम करने वाली स्त्रियाँ काम से जी चुराती हैं. उनके अपने बच्चे एक पानी का गिलास खुद उठकर नहीं पी सकते, और वे स्त्रियाँ अपनी कम उम्र नौकरानियों पर मन लगाकर काम न करने का आरोप सायास और अनायास लगाती रहती हैं. वहीं निराला की वह स्त्री भरी दोपहरी में गुरु हथौड़ा उठा भरपूर वार कर पत्थर तोड़ने में व्यस्त है. पलभर सुस्ताने को पास कोई छायादार पेड़ तक नहीं. एक के बाद एक खूब भारी हथौड़ा उठा भरपूर वार करती उस ‘नत नयन प्रिय और कर्मरत मन’ स्त्री को देख कवि आवाक् है, चकित है कि कैसे इतनी विपरित परिस्थितियों में वह औरत सहज स्वीकार भाव से अपने काम में लीन है. ऐसा नहीं है वह स्त्री इतनी कमअक्ल और मंदबुद्धि है कि अपनी ओर देखते कवि की दृष्टि पहचान नहीं पाती. उसे मालूम है कि कवि उसकी बेचारगी और बेबसी को देख कर करुणा और दया से अभिभूत है. उसे अपनी ओर देखते देख वह स्त्री एक बार उस बहुमंजिला अट्टालिका की ओर देखती है जिसके ठीक सामने वह पत्थर तोड़ रही है. वहाँ कोई नहीं जो उसके समान यूँ कर्मरत हो.
चारों ओर पसरे उस सुनसान सन्नाटे में उसकी दृष्टि जब पलटकर वापस आती है तो कवि कहता है कि उसने मुझे उस दृष्टि से देखा जो ‘मार खा रोई नहीं’. अर्थात प्राय: ऐसी स्थिति में पीड़ित व्यक्ति आत्मदया के भाव से भर उठता है. आत्मदया के एहसास से उसके आँसू टपक ही पड़ते हैं. जब हमें कोई पिटते, मार खाते हुए देख ले और उसकी आँखों में हमारे प्रति दया का भाव हो तो उसकी ओर हम अपने बचाव की दृष्टि से देखते हैं कि वह हमें उबार लेगा, हमें बचा लेगा. हम बेचारे हो उठते हैं. पर ‘वह तोड़ती पत्थर’ की वह दलित स्त्री किसी की दया और करुणा की मोहताज नहीं.
उसका संघर्ष उसकी लड़ाई में वह पूरे दमखम के साथ अकेले ही खड़ी है. उसे तथाकथित मध्यवर्ग की थोथी सहानुभूति नहीं चाहिए. इस प्रकार की दया और सहानुभूति समाज की व्यवस्था में तो कोई जमीनी बदलाव, परिवर्तन तो नहीं करती उल्टे गरीब को मानसिक रूप से दुर्बल बनाती है. इसलिए ‘वह तोड़ती पत्थर’ की मजदूर स्त्री कवि के रूप में उपस्थिति बुद्धिजीवी वर्ग की उस दया और करूणा को वापस लौटा देती है. किसी की करुणा और दया का स्वीकार उसके भीतर के इस साहस और जुझारूपन को झुका सकता है. पर उसे अपनी मेहनत और लग्न पर पूरा भरोसा है. अपने ऊपर हो रहे शोषण और अपनी विपरित स्थितियों को वह बहुत बेहतर समझती है. इनसे पलायन नहीं करती बल्कि उनके मुकाबले में खड़ी है. इसलिए कवि को ‘मार खा रोई नहीं’ वाली दृष्टि (अपराजय) से देखकर वह सहज ही अपना आँचल खींच कर माथे का पसीना पौंछती है और यह स्वीकार करती हुई हाँ मैं तोड़ती पत्थर, पुन: अपने कर्म में लीन हो जाती है.
कवि के लिए यह अद्भुत क्षण है उसने यह कभी देखा नहीं कि कोई इस प्रकार कवि की करुणा और दया के दान को पूरे स्वाभिमान के साथ अस्वीकार कर सकता है. ‘सुनी जो नहीं सुनी थी झंकार’ में यही भाव व्यक्त किया गया है. उस गरीब की भी अपनी मर्यादा और स्वाभिमान है बेशक वह खुली सड़क पर सबके सामने पत्थर तोड़ रही है, पर इतने भर से तो वह हर किसी के लिए दया और दीनता का पात्र नहीं हो जाती. वह मेहनती है और मेहनत कर के अपना पेट पालती है किसी का दिया नहीं खाती, किसी की चोरी नहीं करती फिर वह खुद को क्योंकर निरीह या अकिंचन माने. क्यों स्वयं को दया का पात्र समझे और क्यों किसी को समझने दे. और महाकवि निराला ने उस स्त्री के उन जज़्बातों का सम्मान करते हुए उसकी उस स्वभिमानी छवि को ज्यों का त्यों कविता में पिरो दिया. उसे पूरे मान और सम्मान के साथ साहित्य की दुनिया में स्थापित कर दिया.
एक और विशेष बात जो इस कविता द्वारा व्यक्त होती है वह है “भर बँधा यौवन” से अभिव्यक्त होने वाला अर्थ. बेशक कुछ अलोचकों को इस पंक्ति में निराला की ब्राह्मणवादी पुरुष मानसिकता दिखाई देती है. पर मेरा मानना है कि कर्म से पुष्ट और अपनी मर्यादा में आप बँधा यौवन दलित स्त्री की एक अनन्य विशेषता है जिसे व्यक्त करने से निराला चूके नहीं है. स्त्री चाहे वह दलित हो या सवर्ण उसका यौवन कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे किसी डिबिया में बंद कर लिया जाए. वह जब शरीर का यथार्थ है तो है. बड़ी बात यह है कि सार्वजनिक स्थानों पर स्त्री अपने उस यौवन को किस प्रकार सहेजती है और उसे लेकर कैसे उपस्थित होती है?
निराला की इस कविता में दलित स्त्री अपने भरे यौवन के प्रति पूरी तरह सहज है पर साथ ही उसके प्रति सजग भी. वह यौवन उसके लिए न तो दिखाने की चीज है न छिपाने की. वह उससे आक्रांत नहीं है. वह उस पर न तो इतराती है और न उसके कारण भयभीत होती है. वह कर्मरत स्त्री अपने भरे यौवन को बाँधकर, संभालकर रखने की पूरी तरह अभ्यस्त है. निराला अपनी अन्य कविताओं में भी भारतीय समाज की उस आम साधारण महिला के इस गुण का परिचय देते हैं. ‘बाँधो न नाव’ निराला की एक ऐसी ही कविता है.
रजनी दिसोदिया
कहानी संग्रह ‘चारपाई’ और आलोचना पुस्तक ‘साहित्य और समाज: कुछ बदलते सवाल’ आदि पुस्तकें प्रकाशित.
एसोशियेट प्रोफ़ेसर
हिन्दी विभाग, मिरांडा हाउस/दिल्ली विश्वविद्यालय
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