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Home » नील कमल की असुख और अन्य कविताएँ

नील कमल की असुख और अन्य कविताएँ

नील कमल अपनी कविताओं को लेकर गम्भीर हैं, अपने कवि को लेकर बे परवाह, यह कवि स्थापित होने की किसी दौड़ में कहीं नज़र नहीं आता. नील की कविताएँ  शिल्प में सहजता से ढलती हैं पर कथ्य की तलाश में दूर-दूर तक भटकती हैं, कभी-कभी अपने आंतरिक वैभव के साथ कहीं कहीं दिख जाती हैं. […]

by arun dev
July 10, 2020
in कविता
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नील कमल अपनी कविताओं को लेकर गम्भीर हैं, अपने कवि को लेकर बे परवाह, यह कवि स्थापित होने की किसी दौड़ में कहीं नज़र नहीं आता.
नील की कविताएँ  शिल्प में सहजता से ढलती हैं पर कथ्य की तलाश में दूर-दूर तक भटकती हैं, कभी-कभी अपने आंतरिक वैभव के साथ कहीं कहीं दिख जाती हैं.
प्रस्तुत कविताओं में  से कुछ व्याधियों को लेकर लिखी गईं हैं. सिर्फ़ ग्रस्त की पीड़ा नहीं, उपचार के बीच कामना की कातर आँखों को भी कवि देखता है.
कविताएँ प्रस्तुत हैं.    
नील कमल  की असुख  और अन्य कविताएँ                          
असुख
समय अचीन्हा सा
पीड़ा की गहरी रेखाएँ मुख पर
तमाम ग्रह नक्षत्र समेत
सौर मंडल सारा पैदल पैदल
खून के दाग छोड़ता राजमार्ग पर
गर्भिणी पृथ्वी का
समय के राजमार्ग पर असमय प्रसव
नवजातक को लिए गोद वह पैदल पैदल
मास्क लगाए सूरज मुख वाले शिशु
पाँच पाँच रुपए के बिस्कुट वाले पैकेट
की खातिर दाताओं के आगे हाथ पसारे
मंगल और बृहस्पति शुक्र शनि लादे
अपनी अपनी टूटी गृहस्थी साईकिल पर
चाँद सरीखे नन्हे भी पैदल पैदल ही आगे
समय कैसा यह ?
समय ऐसा कि कारखाना ईश्वर का बंद हुआ
सौरमंडल के सारे ग्रह नक्षत्र उपग्रह सर्वहारा
सड़कों पर कोटि कोटि उतरे नगरों को छोड़ छाड़
पीड़ित, कीलित यह
समय असुख से कातर होकर पड़ा रहा निश्चेष्ट.
(Zainab Abdulhussain: The Covered II ) 


व्यथा
जब जब स्मृति में
कौंध जाती है पीड़ा की विद्युत रेखा
तब तब याद आती है मुझे कोई स्त्री
घुटने में लगी जब चोट
एक स्त्री ने उठाया मुझे
नीम की छाल से औषधि उसने निकाली
अंतर में जब शूल सा उठा
एक स्त्री के कोमल हाथ थे
उसने हर व्यथा को सहनीय बनाया मेरे लिए
शल्यक्रिया के बाद की
नीम बेहोशी में एक स्त्री का चेहरा रहा सामने
जय में पराजय में स्त्रियाँ ही थीं
मृत्यु के मुख से निकाल कर मुझे
यहाँ तक लाने वाली वह एक स्त्री ही तो थी
व्यथा दी उसने कभी तो
व्यथा को सहने लायक भी मुझे उसी ने बनाया
मेरे हर पुरुषार्थ में रहा स्त्रियों का कोमल स्पर्श.

कर्ण प्रदाह
छाती से उसकी
फूटा उस दिन दूधिया झरना
उसने अपना मांसल स्तन निचोड़ा
मेरे कान में असह्य पीड़ा को निरख
वह एक सद्यप्रसूता स्त्री थी
जौ गेहूँ के देश से एकदिन ब्याह कर
जो चली गई थी मक्के बाजरे के देश
पीड़ा से कातर था मेरा मुख
गेंदे की पत्तियों का रस भी हुआ व्यर्थ
पीड़ा को याद कर सिहरता हूँ आज भी
एक गर्म धकधक छाती थी
एक कलश था जिससे चूता बूँद बूँद अमृत
औषधि बन हर पीड़ा को हर लेने को आतुर
उस स्त्री की स्थायी स्मृति लिए
एक दिन आखिर निकल पड़ा था उससे मिलने
पहली बार मोर के पंख मुझे इसी रास्ते पर मिले
वह एक सद्यप्रसूता स्त्री थी
छाती से जिसकी बहती थी
इस पृथ्वी पर उपलब्ध सबसे उजली औषधि
जब जब दुखते हैं कान याद उसकी आती है.

मियादी बुखार
मांगुर माछ का पतला झोल
दोपहर में खिलाया उसना भात संग
कई दिनों बाद उतरा जब मेरा बुखार
नहा कर पहनी मैंने नीली कमीज
बजाज ने जिसे बेचा था यही कहकर
खूब खिलेगा रंग मेरे गेहुँआ बदन पर
उस स्त्री ने मुझे धूप में बिठा दिया
मैं खेलते हुए दोस्तों को देख सकता था
कई दिन बाद उतरा जब मियादी बुखार
स्त्रियों के पास होती है छठीं इन्द्रिय
भाँप लेती हैं आखिरआसन्न संकटों को
जो अक्सर छुपके आते खुशी के भेष में
स्त्री की आँखों में चिंता के मेघ टहलते
विद्युत कौंध जाता था उस मेघ के बीच से
मांगुर माछ का झोल परोसते हुए भात पर
बहुत ज़िद करता, बहुत बहुत ज़िद,
हार कर निकालती थी वह नीली कमीज
उसकी नजर में अपशकुन थी जो कमीज
आप कहेंगे यह दकियानूसी विचार है
लेकिन जब जब पहनी मैंने नीली कमीज
लौट लौट आया बुखार मेरी जर्जर काया में
देख गये हैं डॉक्टर बसाक बदल दी है दवा
टैबलेट कैप्सूल के साथ दिया है मिक्सचर
कहते हैं उतर जायेगा जल्द मियादी बुखार
स्त्री ने तथापि ले ही लिया चूड़ान्त निर्णय
नीली कमीज को वह गाड़ आयेगी पाताल
हारेगा अंततः मियादी बुखार स्त्री के आगे.

चेचक
देवी गीत गाती हुई स्त्री
करुणा से भरी हुई है लबालब
नीम की कोमल पत्तियों का गुच्छा
फेरते हुए मेरी अस्थिर देह पर अभी
वह सबसे कोमल स्वरों में साध रही
इस दुनिया का सबसे पवित्र संगीत
लाल लाल दाने उभर आये त्वचा पर
बेचैनी सी छाई मेरी देह में आत्मा में
केवल वह जानती है दुलारो कुपित हैं
मना लेगी उन्हें नीम से अपने गीतों से
स्त्री नहीं जानती है किसी वाइरस को
वह दुलारो को प्रसन्न करना जानती है
सिरनी बाँटेगी जब गीतों से संतुष्ट देवी
लौट जायेंगी और उठूँगा स्वस्थ होकर
फिलहाल देवी झूल रहीं नीम पर झूला
स्त्री मेरे लिए देवी को प्रसन्न कर ही लेगी.

मृत्यु
एक स्त्री ने हवा में उछाला मुझे
मैं गेंद की तरह गिरा भूमि पर आकर
मैं एक शव सा पड़ा रहा निस्पंद
एक स्त्री आई उसने मुझे उठाया गोद में
एक स्त्री ने मुझे मारा
एक स्त्री ने ही जीवित किया मुझे.
_____________________________

नील कमल (जन्म : १५ अगस्त १९६८, बनारस) के दो  कविता संग्रह ‘हाथ सुंदर लगते हैं’ तथा ‘यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है’ तथा ‘गद्य वद्य कुछ’ प्रकाशित हैं. 
9433123379
nneelkkamal@gmail.com

Tags: कविताएँ
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