पूनम वासम की कविताएँ |
(एक)
आमचो महाप्रभु मरलो
हिड़मा का दादा पारद में मिलने वाले हिस्से से अपनी भूख मिटा लेता था
हिड़मा की दादी महुआ का
दारू बना बेच आती थी साप्ताहिक बाजार में
हिड़मा का बाप जंगल साफ कर उगा लेता था
मंडिया, ज्वार
पेज से मिट जाती थी भूख
हिड़मा की माँ लन्दा के साथ साथ बेच आती थी इमली, तेंदू
जीने के लिए बहुत सोचने की जरूरत नहीं थी उनको
घोटुल का संगीत दिनभर की मेहनत से कसी हुई देह को
सुला देती थी गहरी नींद
हिड़मा तोड़ लाता था जंगल से हरा सोना
हरा सोना जो भर देता घर को
बुनियादी सुविधाओं से लबालब
हिड़मा का बेटा गायों के लिए हरी घास उगाता है
धान की फसल को ढेकी में कूट कर पकाता है
ढूटी कमर में लटकाए मेड़ की मछलियाँ पकड़ लाता है
हिड़मा की बहू मरका पंडुम मनाते हुए पीसती है
खट्टी चटनी
बीज पंडुम मनाते लिंगो से कहती है
भरा रहे धान से पुटका
हिड़मा का दादा धरती की उम्र बढ़ाने के नुक्से से वाकिफ था
हिड़मे की दादी जानती थी आनंदित हुए बिना जीना कितना कठिन है
हिड़मा का बाप समझता था भूख जितनी हो उतना ही लेना चाहिये धरती से उधार
हिड़मा की माँ पहचानती थी
जंगल की नरमी
जंगल फुट पड़ता था हर मौसम में
अपनी जंगली बेटियों के खोसे में उतना
जितने से खटास बनी रहे उनके जीवन में
हिड़मा को पता है पड़िया खोचने से पहले, उसकी प्रेमिका शरमा कर कहेगी “मयँ तुके खुबे मया करेंसे”
हिड़मा की पत्नी जानती है
पेड़ की टहनियों पर कितना लचकना है कि टहनियाँ झूल जाए उनकी बाँहों में
खाली नहीं रखती अपनी नाक को कभी कि
उनकी फुलगुना की चमक से तुरु मछलियाँ
मचल उठती हैं
धरती नहीं माँगती उनसे अपनी दी गई शुद्ध हवा का हिसाब
धरती निश्चिन्त रहती है वहाँ, जहाँ
पत्तियों के टूट कर गिरने भर से
छतोड़ी टूट जाने वाले दर्द से गुजरता है
हिड़मा का गाँव
धरती कभी नहीं कहना चाहेगी कि
आमचो महाप्रभु मरलो
धरती जानती है
हिड़मा का बेटा धरती के लिए आक्सीजन है
(दो)
रानी बोदली: एक कड़वी याद
(1)
उस दिन जंगल की सारी चिड़िया उदास थीं
हिरनों का झुण्ड प्यासा ही लौट गया जंगल
पलाश मुरझाया सा ताकता रहा आकाश की ओर
महुए की गंध से नहीं बौराया पाँचवी पढ़ने वाला सोनसाय
दोपहर बाद
चूल्हे में नहीं डाली गई सूखी लकड़ियां
सुकलु शाम से पहले ही लौट आया घर
महिलाएं अंधेरे से पहले ही भर लाई पानी की गुंडी
कौवे नहीं आये उस दिन गाँव में
जंगल, नदी, पहाड़ गा रहें थे कोई शोकगीत
और इधर गाँव के गले में उग आया था रहस्यों का एक पूरा पेड़
(2)
सियाड़ी बीज धरती पर गिरते हुए आशंकित सी
कोई धुन बजा रहे थे
पहाड़ पर बैठी दुर्गा की काली मूर्ति
मूर्छित हुई जा रही थी
रास्तों ने चुप्पी साध ली थी किसी भी आहट पर
पहली गोली की आवाज से ही सिसक उठा गांव का तालाब
भरभरा कर गिरने लगी स्कूल की दीवारें
बच्चियों ने किताब खोल कर बिखरा दिया बिस्तर पर
बम के धमाकों ने कितने ही कानों को बहरा बना दिया
कुछ आँखें फुट कर बाहर आने को थी
कुछ खुली हुई आँखों में भविष्य के सपनों का नक्शा चमक रहा था
कुछ की आँखों में बच्चों की धुँधली तस्वीरें उभर आईं थी
कुछ आँखों में सवाल थे
जिन्हें पढ़ने की हिम्मत किसी ने नहीं दिखाई
मुर्दे बोला नहीं करते हैं परंतु यहाँ जली हुई लाशें उठ- उठ कर दिल्ली की सड़कों पर भाग रही थीं
जली हुई लाशों की दुर्गंध से भी नहीं गंधाया संसद
यहाँ मुर्दों का करसाड़ जारी रहा पूरी रात
पचपन देवात्माओं का मिलन होना तय था
अग्नि-परीक्षा के बाद
(3)
जला हुआ इंसान कितना बेबस होता है
कि उठ कर अपने होने की गवाही भी नहीं दे सकता
जलता हुआ इंसान मर जाना चाहता है जल्दी
पूरी दुनिया ने माना
यह क्रूर हत्याएं थी
इतिहास में इससे भयानक कुछ हुआ हो तो नहीं पता
पर जागती आँखों ने उस दिन के बाद कोई और दृश्य नहीं देखा
माँ ढूंढती रही जला हुआ कोई चेहरा
जो उसके बेटे के चेहरे से मिलता हो
पत्नी ढूंढती रही जली हुई लाशों में अपने पति की अनामिका वाली उंगली
बहन ने देखा जली हुई उन सारी कलाइयों में उसकी ही बांधी हुई राखी थी
मजबूत रखा था बेटी ने अपना दिल पिता के जले हुए दिल के साथ
बेटे ने नहीं बहाया आँसू जली कटी हुई लाशों को देखकर
उसकी आँखों में बम, बारूद और माचिस की जली हुई तीलियां बस चुकी थीं
एक नई रणनीति की तरह
(4)
हत्यारे अब भी वेश बदल कर आते हैं रानी बोदली की उदास पड़ी झोपड़ियों तक
सुबह तक रानी बोदली की हवाओं में घुल चुकी होती है
मरी हुई देह की जलती हुई गन्ध
गाँव की मौन भाषा का संकेत समझने लगा है जंगल
कई-कई दिनों तक जंगल चलकर आ जाता है गाँव की सीमारेखा तक
जंगल को बर्दाश्त नहीं होती रानी बोदली के बच्चों की भूख
बहुत दिनों से खुलकर नहीं नाची कोई सोमारी
सोमारू के प्रेम में
जिंदगी ऐसे भी चलती है
पिघली हुई आइसक्रीम की तरह बेमतलब सी
दुनिया बहुत बड़ी है
बड़ी सी दुनिया का दशमलव सा हिस्सा भर हैं हम
जिन्हें पूर्ण संख्या के बाद गिना जाना जरूरी नहीं समझा जाता
(तीन)
जंगल का आत्मकथ्य
इन दिनों मैं किताब नहीं पढ़ रही हूँ
इन दिनों मैं पढ़ रही हूँ जंगल
कहानियों में पता लगा रही हूँ पलाश के मुरझा जाने का कारण
जंगल अपने आत्मकथ्य में लिखता है
उसकी प्रेमिका का हाथ पकड़कर पतझर ले गया उस ओर जिस ओर लगी थी बड़ी भयानक आग
पृष्ठ संख्या 2020 पर एक जगह जंगल लिखता है
पानी की तलाश में भटकता हुआ प्यासा हिरन
उन्हें और स्वादिष्ट लगता है
जब जंगल की आग में भूनकर
बित्ताभर रह जाती है उसकी देह
हिरन क्या जाने जरूरी विमर्श क्या है
हिरन की प्यास, हिरन की मौत या हिरन का गोश्त
बीच में कहीं जान माल हानि का उल्लेख करते हुए लिखा है
नुकसान का क्या है वही पुरानी जड़ी बूटियों का जल कर राख हो जाना
नई पौध के लिए फल ने कौवों और कोयलों की आँख से बचा रखा था जो कुछ वह सब बाँस के जलते
कोपलों के साथ
पट-पट कर शोक गीत गाते हुए विदा ले रहे हैं अब
कैसी तो प्रजातियां थी गहरे हरे कुएँ में धँसी
जिनकी देह में एक सभ्यता की अंतिम पंक्तियाँ लिखने भर की हिचकी बाकी है.
बच्चों के लिए लिखते हुए जंगल बड़बड़ाने लगता है
जंगल में आग लगी दौड़ो-दौड़ो
भागता वही है जिसके पैर के घावों में जंगल की मिट्टी का का लेप लगा हो
बच्चों को गाते हुए भीड़ में रेलगाड़ी बनाकर भागना अच्छा लगता है
बच्चे अभी भी इस गीत को खेलते हुए गाना नहीं भूलते
बच्चे क्या जाने जरूरी विमर्श
जंगल की आग, जंगल की दौड़ या जंगल की मौत.
पृष्ठ संख्या 2021 के अंत मे जंगल ने अपने आत्मकथ्य को व्यवस्थित करते हुए लिखा है
कि खरगोश, उल्लुओं, बाघों और चींटीखोर की खत्म होती प्रजातियों पर कवियों को लिखनी होगी कविताएँ
कहानियों में जंगल के चरित्र-चित्रण पर कुछ काम किया जा सकता है
बीज, मिट्टी, फल-फूल, हवा और पानी का अपना भी सृष्टि-विमर्श होता है.
अंतिम पृष्ठ पर बस यही लिखा था
कि जब कभी लौट कर आना चाहे जंगल के बाशिंदे अपनी जगह
तो उन्हें निराश मत होने देना.
यह लैपटॉप की स्क्रीन पर लगी आग नहीं है
यहाँ सचमुच जंगल में आग लगी है दौड़ो-दौड़ो!
(चार)
वे लोग: तय है जिनका जंगल में खो जाना
उनके लोकगीतों में प्रेम बारिश की तरह नहीं आता
उनकी रुचि
सियाड़ी के पत्तों पर पान रोटी पकाने से ज्यादा
बोड़ा का स्वाद चखने में है
जंगल की सूखी पत्तियों में आग लगाने के लिए
माचिस का इस्तेमाल नहीं करते
उनकी नसों में दारू की तरह दौड़ता है महुआ!
बावजूद उसके
देर रात लौटती हैं जंगल मे खो चुके पुरखाओं की आत्माएं
कुछ गिनते हुए जोड़ते-घटाते वह भटक जाती हैं फिर से जंगल के अंधेरे सच की ओर
मर चुके कुनबे की गिनती का सच सुबह उतरता है बचे हुए कुनबे के चेहरे पर
वह थोड़ा और बासी हो जाते हैं
उनके हथियार अब पहले से कम हैं
जंगल की गोद मे नारों की गूंज बढ़ती है ऐसे
जैसे जिबह से पहले निकलती है जानवर की आखिरी चीख
उनके झोला में भूख मिटाने के सामान के साथ
शामिल होती है दिमाग़ को दुरुस्त करने की खुराक भी!
उनकी हथेलियां देर तक नहीं थकती चाकू की मुठ थामे
रोटियां तोड़ने से पहले वे लोग हड्डियां तोड़ते हैं
उनकी बंदूक की गोली निशाना लगाए बिना लौट कर नहीं आती
उनकी पीठ सुरक्षा कवच हैं उनके लिए
जिन्हें गणतंत्र दिवस के दिन दोनी भर बूंदी तक नसीब नहीं होती
ये कौन लोग हैं जिनकी भाषा के भीतर लिखा गया है विद्रोह का कहकहरा
जिनकी उंगलियां हमेशा खड़ी रहती है
किसी प्रश्नचिन्ह की मुद्रा में
२.
जहाँ महिलाएं दोनों हाथों में हथियार उठाये झाड़ती हैं
संविधान की पोथी पर पड़ी धूल
पूछती हैं भूख से बड़ी कोई विपदा का नाम
ट्रेन से कटकर मरी हुई आत्माएं कहाँ गईं
दर्द का बोझा उठा कर
रोटी की गोलाई नापते-नापते
जिनके पाँव के छाले फूट पड़े वह लोग अस्पताल का पता नहीं जानते
हजारों मील दूर
जिनके घरों में इंतजार की उम्मीद थामे बूढ़ी आँखें पत्थरा गईं
उन आँखों का पानी कहाँ उड़ गया?
ट्रकों के नीचे कुचले जिन अभागों की लाशों को अंतिम मुक्ति भी नसीब नहीं हुई
उनकी हत्या का मुकदमा कहाँ दर्ज होगा?
सात माह का पेट सम्भालते
अपने होने वाले बच्चे की सलामती के लिए
एक माँ की आह!भरी पुकार को नकारने वाले ईश्वर के पास से लौटी हुई प्रार्थनाएं कहाँ अर्जी देंगी?
जमलो की मौत का तमाशा बनाने वाले सरकारी तंत्र
से उबकाये लोगों का जुलूस कहाँ गया!
वह जितनी बार जंगल के सबसे ऊंचे टीले से दोहराते हैं-
सुनो साहब!
राजा मर गया, लेकिन प्रजा की मौत अभी बाकी है.
जंगल की सीमा पर हर बार एक सरकारी बयान चस्पा होता है
कि जंगलवाद सबसे बड़ा खतरा है देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए.
हर बार ऐसा उत्तर पाती एक सभ्यता घूरती है जंगल की देह
हड्डियों से बनी आँखों से!
उनकी आँखों में अब पानी नहीं उतरता.
(पांच)
कविता की भूख
दियासलाई की एक करंट भरी तिली में
जितनी आग जमा है
झपकना भूल गई एक आंख में
जितना विस्मय
हवा के भीतर जितनी खबर
एक खाली दीवार पर चिपकी हैं
जितनी भी उदासियाँ
वह सब अपने पते पर चली जाएं
या घट जाएं
उस शहर के भीतर
जहां कविता की भूख बेदम हो रही है.
(छह)
महुआ का पेड़ जानता है
महुआ का पेड़ जानता है
महुआ की उम्र कच्ची है
कच्ची उम्र में टपकते हुये महुये को रोकना संभव नहीं.
गुरुत्वाकर्षण बल नहीं बल्कि
धरती का संगीत खींचता है उसे अपनी ओर!
बाँस की टोकनी से लिपटने का मोह
महुये को छोटी उम्र में किसी जिम्मेदार मुखिया की तरह काम करने को उकसाता है.
महुये को प्रेम है पांडु की छोटी लेकी से
उसकी खुली देह के लिए किसी कवच की तरह टप से टपकता है महुआ.
महुआ इसलिए भी टपकता है
ताकि इस बार साप्ताहिक बाजार में आयती के लिए जुगाड़ कर सके लुगा का.
आयती के दिहाड़ी वाले काम के बारे में
महुआ को सब पता है.
बड़े छाप वाले फूल और गहरे रंग वाली सूती लुगा भी
कहाँ रोक पाती है उन आँखों की रेटिना को
आयती की देह का पारदर्शी चित्र उकेरने से.
शैतानी आँखें ताड़ जाती हैं
गदराई देह पर अंकित गहरे रंग की छाप कहाँ और कैसे फीकी पड़ जाती है.
चिमनियों से टकराकर आने वाली दूषित हवा
किसी फुलपैंट वाले के नथुनों से होकर घुल न जाये तालाब के पानी में.
महुआ का टपकना जरूरी हो जाता है उस वक्त
कि महुआ की मादकता बचाएं रखती है जलपरियों को खतरनाक संक्रमित बीमारियों से.
महुआ टपकता है
अपनी मिट्टी पर
अपनी बाड़ी में
अपने गाँव-घर के बीच.
थकी देह के लिए महुआ पंडुम
इंद्र देव के दरबार में रचाई गई रासलीला की तरह है.
महुआ के फूल से खेत-खलियान अटे रहें
मन्नत के साथ गायता देता है बलि सफेद मुर्गे की.
दोना भर मन्द पीते ही, पत्तल भर भात खाते ही
पांडु की इंद्रिया लंकापल्ली जलप्रपात के कुंड में डुबकी लगा आती हैं.
फुसफुसा आती है चिंतावागू नदी के कान में
अपनी मुक्ति का कोई संदेश गोदावरी के नाम!
काली शुष्क हड्डियों से चिपका हुआ.
उसका मांस सब कुछ भुला कर पंडुम गीत गुनगुनाने लगता है.
किसी मुटियारी का धरती से अचानक रूठकर
आसमान पर चमकने की जिद्द पूरी करने के लिए
महुआ को टपकना ही पड़ता है.
महुआ का टपकना
मिट्टी के भीतर संभावित बीज के पनपने का संकेत मात्र नहीं है.
कि महुआ का टपकना,
गाँव के सबसे बुजुर्ग हाथ की नसों में स्नेह की गर्माहट का बचा रहना भी है.
(सात)
जहाँ ईश्वर की मौत निश्चित है
सबने बाँट लिए हैं अपने-अपने ईश्वर
जंगल, नदी, पहाड़ ही आये हमारे हिस्से
हमनें गढ़ा अपना देव अपनी शर्तों पर
हमारे हिस्से जंगल था सो हमने लकड़ी में प्राण फूँक दिए
हमने ईश्वर की बनाई हुई दुनिया में अपने हिस्से का संसार अकेले ही रचा
तुलार पर्वत ने किसी चित्रकार की तरह आंगा की तस्वीर उकेर दी पत्थरों पर
ताकि पहचान सकें हम अपना देव
हमारे हिस्से पहाड़ थे सो हमने पहाड़ों की कठोर भाषा में तय किये अपने जीवन के मूलमंत्र
देव की नाल काटती गाँव की औरतें शल्यचिकित्सक की भांति सतर्क होती हैं
जैसे किसी ने कप्यूटर में भरा हो कोई साफ्टवेयर
वैसे ही वो भरतीं हैं आंगा देव के ह्रदय में चलती, फिरती हड्डियों के लिए प्रेम
देव ने हमे नहीं हमने देव को दिया जन्म
देव की उम्र निर्धारित होती है
देव यहाँ मनुष्यों की तरह जीता, खाता, हँसता बोलता है
देव की मनमानी की परिधि तय है.
धर्म ने ईश्वर बांट दिए परन्तु हमने देव को काम
देव यहाँ मूकदर्शक की भूमिका में नहीं आते
संकेतों में संवाद की प्रक्रिया चलती रहती है
भक्त की मांग पूरी करना देव की पहली जिम्मेदारी है
“एक हाथ दे एक हाथ ले” वाली कहावत
भक्त व देव के बीच प्रार्थनाओं का पुल बनाते हैं
मनुष्यों की बनाई हुई दुनिया की सारी ईटों को एक दिन भरभरा कर कर गिर जाना है
फिर देव कैसे अजर अमर हो सकते हैं
हमारे हिस्से नदी आई थी सो हमने सौंप दिया नदी के पानी को देव के हिस्से का सारा पुण्य
आंगा देव अब देव नहीं बल्कि सोमारू की देह बन कर पुनर्जन्म लेते हैं बस्तर की मिट्टी में
जहाँ ईश्वर की मौत निश्चित होती है
वहाँ मनुष्य के जिंदा रहने की गुंजाइश बढ़ जाती है.
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पूनम वासम वर्तमान में बस्तर विश्वविद्यालय से शोध कार्य. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित. सम्पर्क: ब्लॉक कॉलोनी बीजापुर, जिला बीजापुर बस्तर (छत्तीसगढ़) पिन 494444 |
पूनम वासम अलहदा हैं अपनी ही धुन और अपनी ही शैली ।प्रसंसक हूँ मैं इनकी कविताओं का
पूनम वासम की कविताओं का अंतस व्याकुलता से भरा हुआ है। यह व्याकुलता पढ़ने वालों तक सम्प्रेषित हो जाती है। रचनाकार की वैचारिकी काव्यत्व पर हावी नहीं होती, यह प्रीतिकर है।
वे अप्रीतिकर सच सामने लाएं, ऐसी अपेक्षा है।
पूनम की कविता मुझे हमेशा अच्छी लगती हैं यहां भी सभी कविताएं बस्तर के सारे रंगों से रंगी हैं पूनम कौर समालोचन को दोनों को इसके लिए साधुवाद
ऐसी लोकरँगी कविताएँ इधर अन्यंत्र नहीं देखीं। ख़ूब बधाई पूनम जी को।
पूनम की कविताओं में पहली बार बस्तर की धूसर छवि दिखाई दे रही है। बस्तर को वे जिस तरह से देखती हैं वह आम देखने से अलग है।वे आदिवादियों के जीवन में गहरे पैठती हैं और जंगल ,पहाड़ सबको अपनी कविताओं में समेट लेती हैं । बधाई। ’समालोचन’ और पूनम दोनों को।
पूनम वासम की कविताओं का अपना सौंदर्य है। उनके यहाँ आदिवासी, जल, जंगल और ज़मीन अपने यथार्थ रूप में प्रकट होते हैं। पर इसका मतलब यह नहीं कि यह कविताएँ अपने आप में शुष्क हों, उनका भी अपना सौंदर्य है। बधाई!!!
वाह। प्रकृति ही नहीं उसका सारा प्रतिकार इन कविताओं में उमड़ पड़ा है। ये कविताएं नहीं, एक तरह की तपिश हैं जिसमें जंगल का प्यार महुए की तरह पक रहा है। बदन और दिमाग झनझना उठा है।
पूनम वासम की कविताओं से गुजरते हुए एक अलग किस्म का एहसास तारी रहा। जहाँ एक ओर आदिवासी संस्कृति का आदिम संगीत अपनी पूरी लयात्मकता में आत्मा की शिराओ में गूँजता रहा,वही दूसरी ओर दहशत और आतंक की सिहरन भी महसूस होती रही।मुख्यधारा से कटा हासिये का यह समाज अपने सीमित संसाधनों में भी एक सुसंस्कृत गरिमापूर्ण जीवन जीता रहा है। पर इसे भी नष्ट-भ्रष्ट किया जा रहा है। इस आदिम सभ्यता की पूरी संवेदना इन कविताओं में जज्ब है। उन्हें बधाई एवं शुभकामनाएँ !
बस्तर के आदिवासी जीवन का महाख्यान। इतनी सुंदर और मार्मिक कविताओं के लिए पूनम वासन जी को मेरी बधाई।
“मुर्दे बोला नहीं करते हैं परंतु यहाँ जली हुई लाशें उठ- उठ कर दिल्ली की सड़कों पर भाग रही थीं
जली हुई लाशों की दुर्गंध से भी नहीं गंधाया संसद”
“बेटे ने नहीं बहाया आँसू जली कटी हुई लाशों को देखकर
उसकी आँखों में बम, बारूद और माचिस की जली हुई तीलियां बस चुकी थीं
एक नई रणनीति की तरह”
“पृष्ठ संख्या 2021 के अंत मे जंगल ने अपने आत्मकथ्य को व्यवस्थित करते हुए लिखा है
कि खरगोश, उल्लुओं, बाघों और चींटीखोर की खत्म होती प्रजातियों पर कवियों को लिखनी होगी कविताएँ
कहानियों में जंगल के चरित्र-चित्रण पर कुछ काम किया जा सकता है
बीज, मिट्टी, फल-फूल, हवा और पानी का अपना भी सृष्टि-विमर्श होता है.”
“सबने बाँट लिए हैं अपने-अपने ईश्वर
जंगल, नदी, पहाड़ ही आये हमारे हिस्से
हमनें गढ़ा अपना देव अपनी शर्तों पर
हमारे हिस्से जंगल था सो हमने लकड़ी में प्राण फूँक दिए
हमने ईश्वर की बनाई हुई दुनिया में अपने हिस्से का संसार अकेले ही रचा”
कितनी पंक्तियों को यहाँ लिखूं,पूनम!
तुम्हें पढ़कर ही तो अपनी दुनिया के लोगों से परे जंगल-जीवन को करीब से महसूस करने के प्रयास किए हैं।तुम्हारी कविताएँ चेतना का विस्तार कर स्वयं को टटोलने को मजबूर करती हैं,ये कविताएँ भीतर धँसती चली जाती हैं।यूँ ही रचती रहो..खंगालती रहो.. उकेरती रहो..हमें सजग करती रहो।जंगल,महुआ हिड़मा,आंगा देव,जंगल के आत्मकथ्य…जलपरियों की अनसुनी आहें हमें सुनाती रहो।
तुम अद्भुत हो..असीम शुभकामनाएं, पूनम!💐
बेहद सार्थक और संवेदनाओं से भरी कविता होती हैं पूनम की मैं पूनम की लिखी बस्तर के दर्द में लिपटी प्रकृति की गोद मे सोती हुई कविताएँ मालूम देती हैं
पूनम की लिखी कविताओँ की मैं, बड़ी पाठक हूँ , क्योकि मुझे बेहद पसंद है पूनम की लेखनशैली, ख़ूब शुभकामनाएं
पूनम वासम की इन कविताओं में व्याकुलता और असन्तोष एक साथ दिखाई देते हैं। छतीसगढ़ के आदिवासियों के लोकजीवन और मिट्टी-पानी में सनी आर्द्र कविताओं में प्रेम, प्रकृति, मनुष्य और प्रकृति का साहचर्य, ज़मीन और आदमी – दोनों की पारस्परिकता और निर्भरता और अंततः दोनों के अंतर्संबंधों में पूंजी और सत्ता के हस्तक्षेप के विस्मयकारी दर्शन होते हैं। इन कविताओं की भाषा, पक्षधरता और बुनावट में कहीं कोई भटकाव नहीं है और इनको पढ़ना एक समानांतर आदि संस्कृति और लोकाचार से स्वयं को समृद्ध करना है। बहुत बधाई पूनम आपको। समालोचन का भी आभार कि उसने इन कविताओं से हमारा परिचय कराया।
पूनम वासम की कविताओं में धड़कता है आदिवासी जन-जीवन। ये सभी कविताएं धमनी और शिराएं हैं बस्तर की, जिनमें बहता हैं महुआ का रस, घोटुल का संगीत, जंगल की सुगंध, आदिवासियों का अपने जंगल-जीवन को बचाये रखते हुए आधुनिकता से तारतम्यता मिलाने की कोशिश, और बह रहा है अपने हक-अधिकार के छीन लिए जाने के प्रति आक्रोश। बधाई समालोचना-बधाई पूनम 💐💐
बहुत धैर्य से गंभीर कविताएँ करती रहती हैं पूनम। दूर से देखूँ तो ये कविताएँ मुझे एक विषुवतीय वन सी सघन लगती हैं पास पहुँचो तो बस्तर का आदिवासी जीवन अपने विस्तार व वैविध्य में उपस्थित है। समालोचन पर ये कविताएँ पढ़ना सुखद है।
सुन्दर कविताएँ
पूनम की ताजा कवितायें पढकर विस्मय से भर गया। पूनेम की पहले की कविताओं से अलहदा हैं ये कविताएँ. अमूमन सरकारी सेवाओं में रत कवियों के यहां प्रतिरोध इतना मुखर अभिव्यक्ति नहीं पाता।
चिराइंध महक ने वजूद को तारी कर दिया है,एक ह्रदय की आकुलता अपने लोक और लोगों की चिंता ,पाठकों तक सीधे पहुँच उन्हें भी व्याकुल कर रही। जंगल के आत्मकथ्य की घनघोर त्रासदी में कविता ज़िंदा है।पूनम और समालोचन दोनों को साधुवाद।
कल कुछ कविताएँ पढ़ी थी, लेकिन समयाभाव के कारण टिप्पणी नहीं कर सका । वनों में रहने वाले व्यक्तियों की वहाँ उपलब्ध खाद्य सामग्री तथा जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के वनों में रहने वाले व्यक्तियों द्वारा उपयोग में लाये जाने वाले सामान और उनके नाम मेरे लिए नये थे । याद भी नहीं रहेंगे ।
हार्दिक बधाई पूनम !आप सबों से अलग हैं !आप की कविता, आपके भाव, संवेदनाएं पूर्णतःआपके अपने बस्तर की हैं।आपके कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है उसका पूर्णतः स्थानीय होना। सबसे बड़ी खूबसूरतीआप शब्दों,मुहावरों से अपनी कविता में बस्तर के मांटी की सुगंध भर देती हैं !
आपकी कविताओं को पढ़कर ,समझकर बस्तर को जाना ,समझा जा सकता है! 💐