कवि पंकज सिंह की कविताओं पर लिखते हुए आलोचक राजाराम भादू उन प्रसंगों को भी याद करते हैं जिनमें ये कविताएँ आकार ले रहीं थीं, आठवें दशक की जयपुर की सामाजिक-राजनीतिक सक्रियताओं में पंकज सिंह की भूमिका भी देखी गई है. विवेचना और स्मरण का यह मेल रुचिकर है.
यह आलेख प्रस्तुत है.
पंकज सिंह की कविता
माथा ऊँचा किये रहूँगा आख़िरी वार तक
राजाराम भादू
\’ऐसी कोई चुप्पी नहीं जो खत्म न हो\’
समकालीन कविता में मेरी दिलचस्पी जिन कवियों को पढ़ने से आरंभ हुई, उनमें मणि मधुकर, लीलाधर जगूडी और पंकज सिंह हैं. यह १९८१-८२ का कोई वर्ष था, पंकज सिंह का ‘आहटें आसपास’ संकलन मुझे ब्रजमोहन व्यास ने पढ़ने के लिए भेंट किया. जोधपुर के रहने वाले व्यास राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से निर्देशन में कोर्स करके राजस्थान संगीत नाटक अकादमी में प्रशासनिक अधिकारी हो गये थे. हमारे आग्रह पर वे नाट्य-कार्यशाला का निर्देशन करने भरतपुर आये थे. वहीं के एक गाँव से मैं आता हूं. पूर्वी राजस्थान के इस जिले के महाविद्यालय से मैं ने स्नातक की पढ़ाई की. हमने वहाँ साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का एक सिलसिला शुरू किया और युवाओं का एक नाट्य-समूह बनाकर यह पहली कार्यशाला आयोजित करायी. शीतकालीन अवकाश के उन दिनों में देर शाम तक ब्रजमोहन व्यास अपने मित्र पंकज सिंह की कविताओं के साथ दीगर चर्चाएँ किया करते.
असल में, इस प्रसंग की एक खास पृष्ठभूमि है. राजस्थान विश्वविद्यालय में तीसरी धारा के रैडिकल वाम से प्रेरित एक छात्र संगठन बना था-‘राजस्थान डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स फ्रंट’ (आरडीएसएफ). उन्हीं दिनों में पंकज सिंह ने कुछ समय राजस्थान विश्वविद्यालय में काम किया था. अपने इस अल्पकालिक जयपुर प्रवास में उन्होंने आरडीएसएफ के शिखर नेतृत्व को चेतना और ऊर्जा से भरने का काम किया. जल्दी ही आरडीएसएफ की राज्य के कई महाविद्यालयों में शाखाएं फैल गयीं. हम इस संगठन की दूसरी कतार में थे. राजस्थान विश्वविद्यालय से पंकज सिंह के खास मित्रों में व्यास के अलावा हर्ष चतुर्वेदी और छात्र सीनेटर मुनिदेव त्यागी मुख्य थे. हर्ष विश्वविद्यालय के दिनों से ही रंगमंच में सक्रिय थे. वे भरतपुर में शुतुरमुर्ग नाटक लेकर गये थे जिसे हमारे सीनियरों ने वहाँ के एक सिनेमा हाल में मंचित किया था. (बाद में हमने आन्दोलन करके टाउनहाल खाली कराया जिसमें जलदाय विभाग का कबाड भरा था.) वह हमारे शहर में पहला आधुनिक नाटक था जिसमें हम दर्शक की तरह शामिल थे. ब्रजमोहन व्यास की कार्यशाला से तो कोई नाट्य-प्रस्तुति संभव नहीं हुई. बाद में हर्ष भरतपुर के महाविद्यालय में लाइब्रेरियन होकर आ गये और उन्होंने निर्देशन की बागडोर संभाली. यहाँ से संसद की लाइब्रेरी में जाने तक वे नाट्य-समूह को सक्रिय बनाये रहे. मैं राजस्थान विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. करने के लिए आया था. उसके बाद हास्टल छूट गया तो जयपुर में मेरा ठीया ही त्यागी का घर हो गया. इस तरह मैं पंकज के तीन मित्रों के सान्निध्य में उनकी स्मृतियों के साथ रहा.
इन तीनों अग्रज मित्रों की चर्चाओं में पंकज सिंह बने रहते थे. ‘सम्राज्ञी आ रही है’- कविता की तो देश भर में धूम रही थी. आपातकाल के दिनों में हमारे कुछ वरिष्ठ साथी दीवारों पर नारे लिखते पकड़े गये थे और उन्हें जेल जाना पड़ा था. उनसे मिलते उनकी बातें सुनते तो पंकज सिंह की कविताओं के कई संदर्भ याद आते. मणि मधुकर एक कविता में जुलूस में नारे लगाते- डंडे खाते अपने छोटे भाई का उल्लेख करते हैं. एक दिन ब्रजमोहन व्यास ने कार्यशाला में लीलाधर जगूडी की कविता बलदेव खटीक का पाठ किया और एनएसडी में इसके मंचन के अनुभव बताये. बकरी नाटक के रिहर्सल के दिनों की बात है. उसका मुख्य नायक गाँव से आया एक शिक्षित युवा है जो लोगों को जागृत करता है. मैं ने हर्ष को बताया कि मुझे यह युवा वाला मामला रूमानी लगता है. चीजें इतनी सहज-सरल नहीं हैं. मुझे ज्यादा याद नहीं पर उन्होंने कहा, यही तो पंकज सिंह कहता है. इतने लोग जेएनयू से जाकर संघर्षों से जुड़े, उससे परिणाम क्यों नहीं उलटा. (जैसा कि हम सुधीर मिश्रा की फिल्म हजारों ख्वाहिशें ऐसी में देखते हैं) बाद में हर्ष ने कथानक में परिवर्तन किया और मुख्य भूमिका उस बुढ़िया को दी जिसकी बकरी को दबंग खा गये थे, सारा प्रतिरोध उसी के इर्दगिर्द केन्द्रित किया गया. आरडीएसएफ भी अल्पजीवी संगठन ही रहा, हमारे बाद वाली तीसरी पंक्ति के तैयार होने से पहले ही यह बिखर गया. बिखराव से पहले की बहसों में त्यागी जिस लाइन की बात करते थे, उनके अनुसार वह पंकज सिंह वाली लाइन थी. मुझे तब ठीक समझ नहीं आया कि वह लाइन क्या थी.
कुछ बरस के अंतराल में पंकज सिंह फिर मेरे सामने चर्चाओं में थे. मैं मुंबई निखिल वागले के अखबार हिंदी महानगर में काम करने अनुराग चतुर्वेदी के बुलावे पर गया था. अनुराग के पिता कवि नंद चतुर्वेदी मुझे बेटे की तरह मानते थे तो मैं अनुराग को बड़ा भाई. वह भी बीबीसी में काम करके आये थे तो कई बार पंकज जी का जिक्र आ जाता. मैं मुंबई में ज्यादा नहीं रहा और फिर स्थायी रूप से जयपुर आ गया. उसके बाद के कई वर्षों तक नीलाभ (अश्क) का जयपुर आना लगा रहता. वे कभी बुलाने पर आते तो कभी अपने एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में आ जाते और कम से कम उन दिनों तो पंकज सिंह उनकी चर्चाओं में अक्सर आते रहते. कई लोग नीलाभ और पंकज की तुलना भी करते हैं लेकिन नीलाभ से काफी अपनापे के बाबजूद मैं इससे सहमत नहीं हो पाता. अभी तक मैं पंकज जी से नहीं मिला था. बस यूं ही, अन्यथा दिल्ली कोई दूर नहीं थी और मेरा वहाँ आना-जाना रहता भी था. इसी सदी की पहली दहाई के बाद का कोई साल था. राजस्थान प्रलेस के राज्य सचिव प्रेमचंद गांधी ने राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी के साथ आमंत्रित कवियों के एकल काव्य-पाठ की श्रृंखला शुरू की. मेरे सुझाने पर उन्होंने पंकज सिंह को आमंत्रित किया. वहाँ उनका परिचय देने की जिम्मेदारी मुझ पर ही थी. पहले संकलन के अलावा मैं ने यहाँ-वहाँ उनकी कुछ कविताएँ भर पढ़ीं थीं. लिहाजा मैं ने उनके मित्रों और अपने अग्रजों के उक्त संदर्भों की चर्चा से मदद ली. साथ ही उनसे अपनी कुछ प्रिय कविताओं के पाठ की गुजारिश की, उन्होंने उनका पाठ किया भी. इसका स्वाभाविक असर था कि आयोजन के बाद मुझसे वे ऐसे मिले कि पता नहीं कबसे जानते हैं. दुर्भाग्य से मेरी उनसे यही पहली और अंतिम मुलाकात थी. हालांकि हमारे मित्र कवि कृष्ण कल्पित से उनकी खबर मिलती रहती थी.
यह ‘आहटें आसपास’ की कविताओं के लिए वह बैक-ड्राप है जिसमें हम लोग कमोबेश उनके पात्रों की तरह थे. वैसे वे खुद तो इनमें हैं ही जैसा कि उन्होंने इस संकलन की भूमिका (उन्होंने सिर्फ इसी संकलन की भूमिका लिखी है. बाद के संकलनों में यह नहीं है.) में लिखा है : लोग आहटें आसपास के कवि की उस यात्रा को जान पायें जो भाषा-संस्कृति और समाज के जीवन में उसने तय की थी. उस यात्रा में उसके जन्म का नगर मुजफ्फरपुर था, चंपारण के गाँव चैता में खेतों, अमराइयों, चरागाहों और नदी के साथ की स्मृतियाँ थीं, इलाहाबाद-वाराणसी-दिल्ली- जयपुर थे और ७८-८० के दौर के पेरिस की सघन धूप-छांव और अनुभव शामिल थे. मुजफ्फरपुर से लेकर दिल्ली (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय) तक अमर्ष और संघर्ष की ऊर्जा और ताप से भरे छात्र-जीवन में साहित्य, संस्कृति, इतिहास, परंपराओं, विश्व राजनीति और मार्क्सवाद- लेनिनवाद के अध्ययन से पूरित दुनिया को बदलने के स्वप्न से भरे युवा कवि ने क्रांतिकारी व्यवहार को अंगीकार करने का संकल्प किया, कई बार गिरफ्तार हुआ और आपातकाल की घोषणा होने पर भूमिगत होकर बिहार-बंगाल-उत्तर प्रदेश-मध्य प्रदेश से लेकर हिमाचल और पंजाब तक निरंतर इन्दिरा निरंकुशता के विरुद्ध सक्रिय रहा…. उन कठोर दिनों की आंच और पीड़ा ने कवि को और तपाया. उसके जीवन और मन का बहुत कुछ टूटा, परन्तु अपने ही सामर्थ्य से उसका बेहतर परिचय हुआ, अन्तरंगता हुई. ये कविताएँ उसका साक्ष्य हैं.”
कवि द्वारा भूमिका में तृतीय पुरुष की तरह संबोधित इस अंश को उद्धृत करने का अभिप्राय यह है कि इसे केवल व्यक्ति पंकज सिंह तक महदूद नहीं रख सकते. उन वर्षों में अनेक युवा थे जो वैसे ही स्वप्न देखते इन कविताओं से अपने को आइन्डेटिफाई कर रहे थे. बेशक, वे अपने समय के अनायक थे.
उस दौर में इस धारा से सम्बद्ध पंकज सिंह अकेले कवि नहीं थे लेकिन अपनी दृष्टि और अभिव्यक्ति-शैली के हिसाब से जरूर अकेले थे. आपातकाल के कुछ ही समय बाद प्रतिरोध आन्दोलनों में बरती गयी और भूमिगत रही कविता क्रमशः सामने आती गयी. आलोचकों ने भी स्वीकार किया है कि नक्सलवादी कविता ने समकालीन हिन्दी कविता का प्रस्थान-बिन्दु ही बदल दिया और उसमें आमूल परिवर्तन घटित हुआ. किन्तु ऐसा नहीं है कि यह कविता सीमाओं से परे थी. वैचारिक मसलों को छोड़ भी दें तो इसमें संघर्ष को लेकर एक किस्म का रूमान, वृत्तान्त में अतिरेक और अभिव्यक्ति मुद्राओं में कृत्रिमता अच्छी खासी तादाद में थी. इसी के चलते इसका एक काफी बड़ा हिस्सा जल्दी ही विस्मृत हो गया. कुछ इतिहास के लिए प्रसंग में तबदील हो गया, जैसे आलोक ध न्वा की ख्यात कविता गोली दागो पोस्टर और बाबा नागार्जुन की कई कविताएँ. पंकज सिंह की कविताएँ अभी भी क्यों जीवंत और स्पंदनशील हैं, इस पर थोड़ा आगे बात करेंगे. अभी इतना कि उन दिनों भी प्रथम दृष्टया ठंडी लगने वाली ये कविताएँ जल्दी ही एक साथ दिल और जेहन में उतरती थीं.
सम्राज्ञी …. की चर्चा तो मैं कर चुका हूं. वैसे भी उसका संदर्भ आपातकाल में सत्ता के चरित्र से जुड़ा हुआ है. उस संकलन में एक कविता जो लगातार मेरा पीछा करती है, वह है- ‘जिनके घर बार-बार ढह जाते हैं. हम में से ज्यादातर लोग गाँव से आये थे और गाँव की परिधि में बने घर अक्सर अतिवृष्टि और बाढ़ में बह जाते थे. कहना न होगा कि ये घर दलित और मजलूम समुदायों के ही होते थे. इन कविताओं में आये कृषक, मजदूर और स्त्रियों का सार्वजनीन अस्तित्व है. कुछ भौगोलिक व सांस्कृतिक संदर्भों को छोड़ दें तो ये पूरे उत्तर भारत की तस्वीर है. इनके लिए लड़ते युवाओं के प्रसंग- मैं फिर आऊंगा और मां- से कविताओं में सबके लिए इतने आम फहम थे कि हम सबको अपने लगते थे. उन्हीं दिनों हममें से ज्यादातर ने महाश्वेता की हजार चौरासीवें की मां पढ़ी थी. उसका ग्रामीण अंचल में स्थानापन्न कोई मुश्किल काम नहीं था.
वे घर की तलाशी लेते हैं
वे पूछते हैं तुमसे तुम्हारे भगोड़े बेटे का पता ठिकाना
तुम मुसकुराती हो नदियों की चमकती मुस्कान
तुम्हारा चेहरा दिये की एक जिद्दी लौ सा दिखता है
निष्कंप और शुभदा(तलाशी)
जो लोग मेहनतकश के लिए बदलाव की लड़ाई से उस समय जुड़े थे, वे सभी बहुत मेधावी थे (मसलन, आगे चलकर हमारे समूह आरडीएसएफ से जो जहां गया उसने वहाँ अपने काम और व्यक्तित्व से पहचान बनायी.). तब स्वाभाविक ही था कि उनके विपथन से पिता विकट खिन्न होते, परिवार के बाकी लोगों का संबंध भी पिता की सापेक्षता में ही निर्धारित होता था. एक मां ही थी जिसके लिए हम लोग एक स्थायी चिंता की वजह थे.
मां खाली खेत और मिट्टी हो जाती है
मां फिर धीरे-धीरे
स्तब्ध घरेलू अंधेरा
और धीरे-धीरे
इन्तजार हो जाती है(इन्तजार)
मैं महसूस करता हूं
तुलसी चबूतरे पर जलाये तुम्हारे दिये
अपनी आंखों में (मैं आऊंगा)
वह जन-उभार का ऐसा दौर था जिसमें अनेकानेक समूह पहली बार प्रतिरोध की अपनी भाषा के साथ आ रहे थे जो सदियों से मौन की संस्कृति में जीते रहे थे-
नगाड़े बज रहे हैं और शब्द आ रहे हैं
शब्द आ रहे हैं और पिछले बरसों की
सूनी उदास टहनियों पर
अंखुआ रहे हैं (शब्द)
आदिवासी कवि निर्मला पुतुल का इस कविता के कई बरस बाद संकलन आया- ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’. मैं कह नहीं सकता कि निर्मला पुतुल के इस शीर्षक के पीछे पंकज की इस कविता की कोई भूमिका है. लेकिन मुझे पंकज के यहाँ ऐसे कई वाक्यांश मिले जो बाद में कुछ कृतियों के शीर्षक दिखते हैं. भविष्यफल कविता में एक पंक्ति है- किसी एक फूल का नाम लो. इसी शीर्षक से सुरेन्द्र वर्मा का ख्यात नाटक है.
दो
अपने दूसरे संकलन में पंकज सिंह काफी आत्म-केन्द्रित और फोकस्ड लगते हैं. पहले संकलन की कविताएँ जहां अपने अनेक मित्रों को विशेष रूप से संबोधित हैं (इससे उनके संबंधों की रेंज और विविधता भी पता चलती है.), वहीं दूसरा संकलन अपनी समानधर्मी सविता और बेटियों को समर्पित है. जल्दी ही आप पायेंगे कि यह बाहर से विमुख आत्म-केन्द्रण नहीं है बल्कि एक ओर यह आत्मावलोकन और आत्म-संधान है तो दूसरी ओर चीजों को देखने के लिए अपनी कविता को एक समर्थ दार्शनिक दृष्टि से सम्पन्न करने की प्रक्रिया है जो सतत चलती रहती है.
अब शायद जरूरी है यह जानना कि मैं कौन हूं
मैं क्यों हूं इस शहर में अपना घर ढूंढ़ता (अपना घर…)
और उनकी कविता का फोकस कहां है ? यह शक्ति के नये केन्द्रों और इनकी अनुषंगी ऐजेन्सियों पर है. इन कविताओं में विगत शताब्दी के अंतिम दो दशकों में तीव्र गति से घटित संक्रमण प्रतिबिंबित है. भूमंडलीकरण और आर्थिक बदलाव पर हाहाकार उस दौर की कविता का मुख्य स्वर (शायद शोर) है. पंकज सिंह इस परिघटना को अपनी कविता में नये कोण से देखते हैं जहां उनकी सभ्यता- समीक्षा कहीं अधिक प्रामाणिक और मारक है. एक यूटोपिया के विखंडन से जहां उनके समकालीन संशय और हताशा जैसी स्थितियों में लिख रहे थे, तब पंकज की कविता एक भिन्न कार्य-भार का निर्वहन कर रही थी.
इस संकलन की कविताओं की अन्तर-वस्तु महानगर, विशेषकर राजधानी में हुए व्यापक संक्रमण पर केन्द्रित है. इस प्रक्रिया में वजूद में आयी अपसंस्कृति की वे बहुत गहरी पड़ताल करते हैं. उनकी दार्शनिक दृष्टि संस्कृति-जगत का पारदर्शी इंवेस्टीगेशन करती है और उसमें छुपे अपराधों की जरूरी शिनाख्त करती है. चूंकि कवि भी उसी बिरादरी में शामिल है तो स्वाभाविक है कि एक आत्मसंघर्ष वहाँ अनवरत चलता रहता है. यह मुक्तिबोध के आगे का आत्मसंघर्ष है जिसमें कवि अपने बांधवों के भी कैरीकेचर प्रस्तुत करता है. इन कविताओं में वर्णन की शैली अधिक संश्लिष्ट मगर स्पष्ट है जहां सतह के नीचे के स्तरों अथवा भव्य आवरणों से भी सत्य को टोहकर उद्घाटित किया गया है. यहाँ उल्लेखनीय है कि इस दौर में दुनिया भर में भूमंडलीय संक्रमण में आये बदलावों पर वाल्टर बैंजामिन जैसे विद्वान सांस्कृतिक अध्ययन कर रहे थे. ये क्रिस्टोफर काडवेल द्वारा पूंजीवादी मरणधर्मा संस्कृति के अध्ययन से आगे के उपक्रम थे. इस प्रसंग में यह उल्लेख भी जरूरी है कि पंकज सिंह ने उत्तर पूंजीवाद की चमक-दमक के पार्श्व में अन्तर-व्याप्त संरचनात्मक हिंसा को न केवल पहचाना है बल्कि इसे अपनी कविताओं में समर्थ अभिव्यक्ति प्रदान की है.
खुद पंकज के शब्दों में,
‘साहित्य में देह और पतनशील रोमानीपन की वासनाएं जीवन के समस्त प्रतिरोध, पीडा और त्रासदियों को उत्सवों की चकाचौंध और अघाये हुओं के रंग-ब-रंगी अमूर्तन की हतवीर्य शिथिलता से ढंकने की निष्फल कुचेष्टा में लगी हैं. शहरी केन्द्रों में पूंजीवादी लोकतंत्र और इसके कारकुन अपनी सारी प्रवीणता से इस देश को शोषितों-उत्पीडित मनुष्यों के नरक में तब्दील कर देने की विशाल परियोजना में लगे हैं. जन-जन के श्रम से अर्जित धनराशियां, हमारी सम्पदाएं और सुन्दरताएं जिस बर्बरता से लूटी और नोची-खसोटी जा रही हैं उस पर झूठ से भरे शब्दाडंम्बरों और जनसंचार माध्यमों के तुमुल कोलाहल और छल में परदे डालने की कोशिशें अहर्निश जारी हैं.’ (भूमिका- आहटें आसपास)
फ्रेडरिक जेम्सन ने कहा था कि जब तक तुम भूमंडलीकरण को समझोगे, वह अपना काम निबटा कर जा चुका होगा. पंकज सिंह उन चंद लोगों में से थे जो उसे आते ही न केवल समझ गये थे बल्कि उसके विरुद्ध अपनी तरह सक्रिय रहे. यह अलग बात है कि भारत से ऐसी चीजें आसानी से जाती नहीं हैं, यहाँ से न जातिवाद गया न सामंतवाद, पितृसत्ता गयी न पूंजीवाद, हर आने वाली पतनशील प्रवृत्ति ने अपनी पूर्ववर्ती से सहयोजन कर लिया. सत्ता क्यों और कैसी शांति चाहती है –
कि वह सिर्फ सहमति और स्थिरता चाहती है
बदहाली के इन दिनों में
आपसी सद्भाव से समाज में शांति रहती है
शांति में ही संभव है प्रगति और विकास
ये अच्छे विचार हैं कुछ लोगों के लिए फायदेमंद
पंकज साइलेंट पीस और बाइब्रेंट पीस का अंतर जानते हैं और जो इसे न जानने के भ्रम में हैं, उनके लिए कवि का कहना है –
खुली आंखों की अंधता और विस्मृति का
कोई प्रायश्चित नहीं होता.
(मत कहना चेतावनी…)
जो साहित्यकार भूमंडलीकरण से आतंकित हैं, दूसरे ओर वे अपने भय और जड़ता को क्राफ्ट में छुपा लेना चाहते हैं, उनकी रचनात्मक स्थिति के बारे में वे कहते हैं-
भाषा में आशंकाओं और असमंजस की जो लंबी ऋतु ठहरी है
दूर से देखने पर वह कालातीत काव्य कौशल सी लगती है
(किन्तु)
परे खिसकाते हुए
नैतिकता के सवाल, बदलाव के स्वप्न
आवेग की अग्नि संचारी शिराएं
भाषा और पीड़ा के बीच कलात्मक परदे लटकाते
इंकार की जगह चापलूस मुस्कानें बिछाते हुए
हालत ये है कि आलोचना और विरोध के शब्द हाशिए पर जा टिके हैं. इसमें सृजन की बहुत सी तरकीबें कला मानी जा रही हैं. दूसरी ओर वे देख रहे हैं कि आततायी सत्ता के वाह्य रूपा कार में परिवर्तन के बावजूद उसका मूल चरित्र बरकरार रहता है-
और सत्ताएं तो सिर्फ हस्तान्तरित हो रही हैं
हजारों-हजार साल से
कि राजकीय हिंसा की सारी घटनाएं जन्म-जन्मान्तरों के नियम हैं
दुस्साहसिक प्रजाओं के लिए
यह थोडा अति-कथन लग सकता है कि अपने समकालीनों में पंकज संभवतः सबसे आधुनिक हैं, और इस आधुनिकता का संबंध वैचारिकता और अन्तर्दृष्टि से है. अपने समकालीनों में देश और विदेश दोनों मामलों में उनका एक्सपोजर भी ज्यादा है. साहित्य के अलावा दूसरी कलाओं- पेंटिंग, रंगमंच और सिनेमा से उनका अन्त: अनुशासनिक संबंध है. उनके आरंभिक दो संकलनों के आवरण पर रजा की कृतियाँ हैं जिनसे उनका संबंध-संवाद था. यह वैविध्य उनकी मित्र- मंडली में भी झलकता है जिसका हमने पहले उल्लेख किया. इस सबके बावजूद उनकी कविता भाषा अपने समकालीनों की तुलना में अतिरेक-विहीन, संयत और सान्द्र है. उनकी कविता गद्य के बहुत नजदीक है. वह लगभग वाक्यों जैसा ही विन्यास लिए है. लेकिन यह कवित्व से इस कदर लथपथ (अलंकृत नहीं) है कि गद्य से उतनी ही दूर चली जाती है. पंकज सिंह की कविता को यही भाषा और फ्रेजोलाजी अलग पहचान देती है-
मुझे पूरे-पूरे वाक्य चाहिए
जिनमें निश्चित अर्थ हों
गिट्टियों में हवा में आकाश में जल में जड़ें फूटें
मेरी स्वप्नतरु कविता की
(इच्छाएं)
पंकज सिंह के पहले संकलन में आये मेहनतकश स्वाभाविक रूप से महानगर में कहीं बिला गये हैं. इनमें से अनेक रोजी की जुगाड़ में गाँव से पलायन कर शहरों की ओर आये हैं-
जो हांक दिये जाते हैं दिल्ली से चंडीगढ़ भोपाल से कलकत्ता
चटकलों में जो पीछे छूटे खेतों की याद लिए खटते हैं
इन्हीं शहरी सबाल्टर्न लोगों की कुछ छवियां इन कविताओं में आती हैं-
थका मजदूर सोता है बेढंगेपन से
जहाँ पाये तहां
रोती है देर तक मार खायी औरत
बकौल पंकज सिंह, बीमार बच्चों, भिखमंगों और डरी हुई औरतों के साथ नसीब का साझा करते हुए ये कविताएँ संभव हुई हैं.
पंकज सिंह की कविताओं आयी स्त्रियां प्रतिनिधित्व और भूमिका के हिसाब से कमतर हैं, यह उस संघर्ष की वास्तविकता है. लेकिन उनकी स्त्री-दृष्टि में एक साथीपन और व्यवहार में समानुभूति के लिए भरसक जद्दोजहद है
उनके पहले संकलन में उदास और प्रताड़ित स्त्रियाँ हैं. प्यार-बाबुस्का जैसी कुछ कविताओं को छोड़कर बाकी यातनाएं झेलती स्त्रियों के चित्र हैं-
वहाँ उदास लडकियां और पिटी ब्याहताएं
आकर बैठती हैं अपना क्या कुछ बतियाती हुई
(पिछले बरामदे में)
बूढ़ी औरतों सी आती हैं यादें
अपने अभावग्रस्त कवि का माथा सहलाने
(आधी रात ..)
उनकी एक कविता- वह किसान औरत नींद में क्या देखती है, की ये पंक्तियाँ मोहन राकेश की कहानी उसकी रोटी की याद दिला देती हैं-
वह औरत न जाने किसे एक बहुत लंबी चिट्ठी
लिखना चाहती है लिखना न जानते हुए भी
इस संकलन में अधिकांशतः उपभोक्ता संस्कृति द्वारा अनुकूलित स्त्रियों के विद्रूप चित्र हैं, उनके प्रति गहरे कंसर्न के साथ. यह ऐसी संस्कृति है जिसमें जीवंत संज्ञाएँ भी निर्जीव और अमूर्त संख्याओं में बदल जाती हैं. पंकज के शब्दों में मनुष्यों का अवसान हूबहू वस्तुओं की तरह हो रहा है. तीसरे संकलन में स्त्रियाँ पुनः उनके अपने लोगों में सक्रिय भागीदारी करती आती हैं. तब पंकज की अपने लोगों के लिए कही ये बातें उन पर भी आयत्त हैं : वे सचमुच के मनुष्य हैं मुझ सरीखों की आस और सचमुच अपने, मैं ने उन्हें हारते भी देखा है पर वे कभी नहीं हारते सदा के लिए.
तीन
हिन्दी साहित्य में कृतियों के शीर्षक प्रायः औसत आकार के रहे हैं. तथापि जो लंबे शीर्षक हैं उनकी तुलना में छोटे दुर्लभ हैं. पंकज सिंह के तीसरे संकलन का शीर्षक है- ‘नहीं’. इसकी संक्षिप्ति की अपेक्षा निहितार्थ महत्वपूर्ण है. नहीं में सिर्फ असहमति नहीं है. इसमें अस्वीकार है जो समझौता-विहीन असहमति का परिणाम है. यह नकार असल में प्रतिरोध की एक अनिवार्य पूर्व- शर्त है. भले ही अभी कोई विकल्प न हो लेकिन जब आप किसी चीज को नकार देते हैं तो फिर विकल्प के लिए भी जमीन तैयार हो जाती है. यहां से फिर पंकज सिंह की नागरिक सक्रियता का एक नया दौर शुरू होता है-
विरोध में उठी थीं जो मुट्ठियां कुछ विचार दे गयीं
टुकड़ों में कुछ कथाएं जिनका अंत हमें गढ़ना है
(मोहलत)
मैं कुछ बुनियादी चीजों के साथ रहता चला आया
बजिद हूं
बजिद हूं अपनी यात्रा की गूंजती थकान लिए उत्सुक
यहाँ मारे गये पूर्वजों की गंध बाकी है
यहाँ एक पुराने स्वप्न की फड़फडाहट है
मैं सींचा करता हूं इसे (
भले कुछ-कुछ उदास)
बड़ी चीज है साफ जिन्दगी बड़ी चीज है साफगोई
आतंक की आंखों में आंखें डाल सादगी से कहना अपनी बात
(मैं कुछ नहीं छुपाऊंगा)
तीसरे संकलन तक आते आप जान जाते हैं कि पंकज की कविता मूलतः एक दीर्घकालिक न्याय के संघर्ष में लंबे समय से पराजित और असफल रहे लोगों की कविता है.
मैं ने जीने का तरीका मरती हुई चीजों से सीखा है
आदमियों और वनस्पतियों से
जिन्हें क्षण- क्षण विकराल होती एक क्रूर भयावहता
लपेटती जाती है
जिसकी जडें
हमारे घरों तक बिस्तरों और चूल्हों तक
जमीन के नीचे- नीचे रेंगती चली जाती हैं
(इन्तजार)
उनकी कविताओं में चीख का संदर्भ बार-बार आता है- एक चीख की अनेक गूंजें-अनुगूंजें लौटती हैं भाषा की शिराओं में जो बेबसी और विद्रोह की पराकाष्ठा होती है. वे कहीं भी इस सचाई को दरकिनार नहीं करते बल्कि घायल देह और स्वप्न, दमन और उत्पीड़न की पीड़ाओं को वे पूरी तफसील से दर्ज करते हैं. उनके यहाँ अपने लोगों के लिए भावुक दिलासाएं और छद्म आशाएं भी नहीं है. फिर क्या कारण है कि ये कविताएँ पाठक को निराश नहीं करतीं. मुझे लगता है, इसमें पहली बात तो यह है कि ये पाठक को भी सोच व संवेदना दोनों स्तरों पर ही सक्रिय करती हैं जो कविताओं की साफगोई के चलते कवि से पहले ही जुड़ाव बना चुका होता है. फिर उसमें अन्तर-निहित सत्य के सत्व और नैतिक गरिमा को उभारती हैं जिसके मायने हैं कि हम एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं जिसे कभी मार्क्स ने हिस्टोरिकल नेसेसिटी कहा था और आज हम भले ही हार रहे हैं लेकिन एक बेहतर दुनिया के लिए संघर्ष को खारिज या स्थगित नहीं किया जा सकता.
यही वह चीज है जो पंकज सिंह को अपनी पुरानी लडाइयों से जोडती है, जिन्हें इन कविताओं में वे बड़ी शिद्दत से और बार-बार याद करते हैं. वे उस पूरे आलोडन को मौजूदा प्रतिरोधों (वे भी भले ही कितने कमजोर हैं.) से क्रमिकता में जोड़ते हैं. तब उनका पहला संकलन प्रासंगिकता के एक नये अर्थ आलोक से दीप्त हो उठता है और हमारे लिए संघर्ष भरे समय की स्मृतियों की वे पगडंडियां (शायद इससे अधिक वे थीं भी नहीं) शक्ति की नयी स्रोत बन जाती हैं. वे स्वयं भी अपने जीवन के सारांश को अपने सृजन से ऐसे ही जोड़ना चाहते थे. अपने पहले संकलन की भूमिका में उन्होंने कहा भी है :
इस पूरे परिदृश्य में, आहटें आसपास के कवि ने अपनी यात्रा के आरम्भ में जिन विश्वासों और दीप्तियों को प्राणों में भरकर रचने का यत्न- प्रयत्न किया था उन्हीं से आबद्ध और उन्हीं को समर्पित होने की अनिवार्यता वह पहले से कहीं ज्यादा महसूस कर रहा है. उसके लिए कविता ऐतिहासिक समय के द्वन्द्वात्मक यथार्थ, भाषा और जीवन में सदियों से सतत विकसित होते मानवीय सौंदर्य-बोध के बीच अनुभवों की संश्लिष्ट अन्तर-क्रिया की उपज है जिसका सामर्थ्य उसके संवेद्य और उपयोगी होने में है….
पंकज सिंह का यही कन्विक्शन और अन्तर्दृष्टि उनके तीनों संकलनों के अंत: प्रवाह में विद्यमान है, जैसा कि वे कहते हैं, इस कवि ने पिछली सदी के आठवें दशक से अब तक जो जिया और जो किया, उनके वृत्तांत और छवियाँ बाद के दो कविता संग्रहों- ‘जैसे पवन पानी’ (२००१) और ‘नहीं’ (२००९) में हैं.
अब आप उनके वैयक्तिक संदर्भ में देखें अपने पिता की स्मृति में लिखी कविता लोग पहचान लेते हैं की पंक्तियाँ देखें-
लोग पहचान लेते हैं कहते हैं अरे
यह तो उन्हीं मास्टर साहब का बेटा है
कम्युनिस्ट थे नाकाम रहे गरीबी में मरे, च्च…च्च..
और यह भी उसी राह पर दिखे है, हाय !
अपना संकलन उन्होंने अपने पिता और कामरेड शिवरत्न सिंह को समर्पित किया है जो अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के संघर्ष की विरासत से खुद को जोड़ना है.
वहीं से शुरू करें जहाँ छूटा था अधूरा संवाद
इस मामले में याददाश्त से ज्यादा जरूरी होगी
स्वाधीनता की आदिम इच्छा
अपने पिछले जीवन के अनुभवों से कवि जानता है कि कोई वृत्तान्त बिना जोखिम नहीं रचा जा सकता. इस संदर्भ पंकज सिंह के अन्तर्द्वंद को समझना जरूरी है. मुक्तिबोध ने कहा था कि अभिव्यक्ति के खतरे उठाने होंगे जिसे वक्ता अपने भाषणों में और कवि अपनी रचनाओं में दोहराते रहे हैं. जबकि इसके निहितार्थ गहरे हैं. कवि को अपने समय की चुनौतियों के अनुरूप अपने सोच और शैली के लिए प्रचलित में काफी तोड-फोड और नवोन्मेष करना होता है. इसीलिए मुक्तिबोध अपनी भाषा और चिन्तन में अलग हैं. पंकज सिंह के समय में स्मृति और स्वप्न कविता के कोई अच्छे गुण नहीं माने जाते थे, इन्हें यथार्थ से पलायन के रूप में देखा जाता था. पंकज जिस वाम-दर्शन से अपने को जुड़ा देखते थे, उसकी प्रैक्टिस में अनेक संकीर्णता और कठोरताएं थीं जिनका उन्होंने अतिक्रमण किया है. दूसरी ओर, जिस साहित्यिक बिरादरी में वे रह-रच रहे हैं उसके प्रति वे कितने क्रिटिकल हैं, यह हम देख चुके हैं. इस सबका खामियाजा अकेलेपन, उपेक्षा और अभिव्यक्ति के मंच खो देने के रूप में होता है. इस यथार्थ के बारे में अपनी समानधर्मा सविता को संबोधित करते हुए वे कहते हैं-
इस क्रूर समय में बर्बरता के सम्मुख
मैं ने तय किया है, सवि, महज शिकायत नहीं करूंगा
लडूंगा
माथा ऊंचा किये रहूंगा आखिरी वार तक
… मुमकिन चीजों की सूची में
मारे जाने की आशंका को काफी ऊपर रखना होगा
अपनी बेटी मेघा को सम्बोधित एक कविता में वे कहते हैं कि इस अंधेरे वक्त में भी हम-
… हम घिरे हैं
गिरे नहीं
और जब इन अपनों में स्त्रियाँ भी शामिल होती हैं तो-
चोटें थीं जिदें थीं
गये दिनों से कोई स्वर कहता था
इन्हीं में होना और जूझना है
और इसी क्रम में प्रेम फिर-फिर नया- नया होता रहता है.
पंकज सिंह की जन-संघर्ष से यह सम्बद्धता और सन्नद्धता गहरे वैचारिक आधार, समझ और संवेदना पर आधारित है. वे यथार्थ को व्यक्त करने की लिए अतियथार्थवादी शैली चुनते हैं क्योंकि इसका विद्रूप और भयावहता इसी में बेहतर अभिव्यक्त हो सकती थी. पंकज सिंह के व्यक्तित्व का श्रम और संघर्षरत समष्टि के साथ संवेदनागत विलयन हो जाता है. वे मानते हैं-
जख्मआलूदा सब कुछ के बावजूद
तुमने सहेजे रखीं सदियों पुरानी धुनें
जिनमें आहत सभ्यताओं ने शोक और शब्द भरे थे
तुममें छिपी थी आग महज एक रगड की प्रतीक्षा में
(आईना-१)
स्मृतियों की एक छवि यह है –
किसी कामरेड की हथेली के निशान
जिसने देर तक दस्तक दी थी तक- तक मेरे आर-पार
(कोई दीवार)
मेरे जो अपने थे नेकियों के तरफदार रहे
और रहा मैं उनका उन्हीं में
उन्हीं की पीड़ा में शोक में अमर्ष में.
(उनका उन्हीं में)
इन अपनों की सत्य-निष्ठा और न्याय-संघर्ष से उनकी काव्य-मीमांसा व भाषा एक तिर्यक व्यंग्य का तेवर अख्तियार करती है जो सत्ता के शक्ति-केन्दों के इर्दगिर्द रहे लोगों के भव्य दिखते व्यक्तित्वों के आन्तरिक खोखलेपन को एक्सपोज करती है. राम-राम, प्रोफेसर, हें-हें जैसी कविताओं को इसके उदाहरणों बतौर पढ़ा जा सकता है. उनकी कुछ कविताओं का यहां में विशेष रूप से जिक्र करना चाहूँगा जिनमें एक सूरत के दंगे पर है. मानवीय क्रूरता और बेचारगी को ऐसे अर्थवान कन्ट्रास्ट में दिखाने वाली कोई दूसरी कविता हिन्दी में मुझे ध्यान नहीं आती. अगली कविता नासिक से पुणे की यात्रा में दिखती महाराष्ट्र के सूखे की तस्वीर है. पंकज की अन्य कविताओं में किसानों की आत्महत्याओं का त्रासद जिक्र आता है. तीसरी राजस्थान के खानाबदोश गाडिया लुहारों पर है. उन पर अनेक भाव-विह्वल कविताएँ रची गयी हैं, लेकिन पंकज हैं कि उनके माध्यम से देश में विचरते सैंकड़ों घुमंतू समुदायों को संसाधनों के नव- साम्राज्यवादी लुटेरों के विपर्यय में खड़ा कर देते हैं-
सारे ठौर तुम्हारे मापो बांटो कीनो छीनो
पृथ्वी बहुत बड़ी है सदियों-सदियों भटकने के लिए
सो हम भटके हैं भटकेंगे चले जायेंगे
लौट-लौट आयेंगे हम इस गोल पृथ्वी पर आग लोहे औजार हथियार
मेहनत की कथा रचते दिन-प्रतिदिन
हम लौट-लौट आयेंगे
सुनामी की त्रासदी में एक नाविक परिवार का चित्र-
नारियल के जंगल में झोंपडे में बीमार बच्चा
मां को आवाज देता है जो नहीं है अब
थी तो सहमी हुई देह पर थामे हुए लाचारियां
उल्लेखनीय है कि पंकज की कविताओं में बच्चों की अनेक छवियाँ हैं- बहुधा उदास और क्लान्त क्योंकि किसी भी अमानवीय सभ्यता की नृशंसता के पहले शिकार बच्चे और स्त्रियाँ हो होते हैं. इस संदर्भ में उनकी एक छोटी- सी कविता शर्म को उद्धृत करना जरूरी है-
डरी हुई हैं बेशुमार भली स्त्रियाँ
डरे हुए हैं बेशुमार बच्चे
कागज पर कलम लेकर झुके लोगों
यह कितनी शर्म की बात है
हिन्दी में प्रगतिशील-जनवादी कविता भार की अपेक्षा मात्रा बहुल रही है. इसी को प्रायः राजनीतिक कविता की भी आधार-भूमि माना जाता है. इसके मुख्य स्वर में प्रायः हुंकार-फूंकार, उग्र भंगिमाएं, आह्वान और एक धीरोदात्त कवि-नायकत्व प्रदर्शित होता रहा है. लेकिन इसके समानांतर चलती पंकज की कविता भिन्न है. उसकी स्वाभाविकता ही उसे विशिष्ट बनाती है. शायद इसीलिए जहां प्रगतिशील-जनवादी कविता का बहुलांश इतिवृत्त में अपघटित हो गया, वहीं पंकज की कविता में नये अर्थ उद्घाटित हो रहे हैं. ऐसा नहीं है कि पंकज की कविता सिर्फ डार्क जोनर (आज की चालू शब्दावली में) की है. उनमें जीवन के उज्ज्वल और खुशनुमा पक्षों पर भी अनेक कविताएँ हैं और उन्हें व्याख्या की खास दरकार नहीं है. इनमें ऋतुएं गुनती हैं, घास-तिनके-फूल, बचपन-गाँव-घोंसला, एक सुंदर सपना और गाथा जैसी बहुतेरी कविताएँ हैं. अति-यथार्थवाद वहां भी है लेकिन उनके बिम्ब और शब्दावली में एक महीन- सा परिवर्तन वहाँ आता है और कुछ विरल- सा लिरिकल टोन रहता हैं. इस लिहाज से वे शमशेर से जुड़ते हैं जैसे कि अपनी बाकी जद्दोजहद में मुक्तिबोध के साथ.
यह दिलचस्प है कि तब लंबे विदेश प्रवास करने वाले हिन्दी रचनाकारों में निर्मल वर्मा के बाद पंकज शायद दूसरे व्यक्ति थे. लेकिन इन तीनों संकलनों में बमुश्किल तीन कविताएँ विदेशी लोकेल पर हैं जिनमें से बोन नुई (शुभ रात्रि) एक दिपदिपाती कविता है. हिन्दी में शोकगीत (ऐलेजी) लिखने का चलन नहीं है. लेकिन कभी निराला की सरोज स्मृति से शुरू करके इनका कोई संचयन तैयार करने का किसी ने उपक्रम किया तो अपने पिता पर लिखी पंकज की कविता वे गये प्रमुखता से शामिल होगी.
अपनी कविता और उसकी संकल्पना के बारे में वे भी पंकज अपनी कविताओं में बोलते हैं. वे अपने सोच, जीवन और आकांक्षाओं को लेकर बड़ी पारदर्शिता से कविताओं में उपस्थित होते हैं-
सन्ताप के धागों से ही बुनता है वह एक चादर
बेहद झीनी
और ढ़कता है अपनी
मनुष्योचित पीडाएं
तुम्हारी मुक्ति और अभिमान के लिए
(शायद वह)
उनकी कविताओं में विषाद लोकगीतों की तरह सतह के नीचे प्रवाहित है. अपनी कविता को वे चोट खाती कविता कहते हैं-
मुश्किल है हार को इस तरह लिखना
कि वह किसी कीमती हासिल सी दिपदिपाती जान पड़े
(दुबला अमर)
वे ऐसे कवि हैं जो नरक की हजार यंत्रणाओं के बीच भी संभावनाएं नहीं गंवाते. हिंसा को लेकर कवि का रुख बहुत साफ है- उसमें विवेक- शून्य प्रतिशोध की पाशविकता न थी फिर से रचने की उद्दाम लालसा थी. (किसी आवाज..) . उनकी एक और कविता की पंक्तियाँ हैं-
आखेटक की हिंसा में सिर्फ आखेट नहीं मरता
सभ्यता के बियाबान में आखेटक को भी
राख करती जाती है उसकी हिंसा
अपने इस सोच के चलते ही पंकज अलग तरह के राजनीतिक कवि हो जाते हैं. पाब्लो फ्रेयरे मानते थे कि उत्पीड़ित की तरह उत्पीडक को भी मुक्ति की जरूरत है क्योंकि उसका भी अमानवीयकरण (भले ही भिन्न तरह से) हो चुका होता है, वह सामान्य मानवीय गुणों को खो चुका होता है.
आस्कर वाइल्ड ने कहा है कि श्रेष्ठ कृतियाँ रचनाकार की आत्मकथा की तरह होती हैं. इसका एक अभिप्राय यह है कि कृति में जीवन और सृजन का अंतराल मिट जाता है. पंकज के संदर्भ में भी यही स्थिति है जो उनके जीवन व इन तीनों कविता-संकलनों में परिलक्षित है :
‘मैं पहले उदास हुआ अकेला और सबके साथ हुआ आखिरकार.’
वह अपने को कविता में अनुपस्थित सुन्दरता और जरूरी खयालों का कारीगर मानते हैं. वह सच की आभा वाले पुराने शब्दों को भी संजो रहे हैं. भाषा में निहित आंसुओं को कविता में लाना एक बड़ी चुनौती होता है. वे शोक और उम्मीद के निशानों को एक साथ अंकित करना चाहते हैं. अब भी सब कुछ संभल सकता है, यही उनके लिए अमरता का पथ है.
पंकज सिंह के ही शब्दों में, …
‘मगर कभी खत्म नहीं होते आदमी के स्वप्न. मृत्यु के अंधकार में वे लगातार भविष्य की ओर यात्राएं करते हैं. सिरजते हैं घनघोर दुखों में, हाहाकार में, पवित्रता का प्रकाश. …
उस दुसाहस सरीखा जो जीवन को मृत्यु से बड़ा बनाता है. जो जीवितों की आत्मा को धब्बों और कीडों से बचाता है. (दिखूंगा) …
और अन्तर्रात्मा का दरवाजा पीटती है कविता. \’
यह अकारण नहीं है कि कवि प्रेम और करुणा जैसे मूल्यों को केन्द्रीयता प्रदान करता है-
\’सारे कला-कौशल के बीच बचानी होगी करुणा. शायद इसलिए भी कि.. किसकी तरफ उठेंगे यातना में असहाय होते हाथ, मेरा तो, कोई ईश्वर भी नहीं है. .\’
वे एक नयी तरह की आस्था रचते हैं, मनुष्य और प्रकृति को जोड़ते. एक कविता में वे कहते हैं-
\’मैं तो रहा यहीं की धूल, सज्जनों मिट्टी से जन्मा और मिट्टी में मिलता खुश-खुश. \’
इस तरह बेबसियों के बावजूद औरों के साथ-साथ आत्मा का उजाला बटोरते हुए पंकज का सृजन रहा है. इन कविताओं में अनुभव से भाषा में आया समझ और भविष्य की तैयारी के स्वप्नों से भरा एक व्याकरण विन्यस्त है. पंकज अपनी कविताओं के उपयोगी रहने की आकांक्षा रखते हैं. हम देख सकते हैं कि इन्हें अपने साथ रखना क्यों जरूरी है.
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