• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » परख : अथ-साहित्य : पाठ और प्रसंग (राजीव रंजन गिरि)

परख : अथ-साहित्य : पाठ और प्रसंग (राजीव रंजन गिरि)

अथ-साहित्य : पाठ और प्रसंग राजीव रंजन गिरि प्रकाशक : अनुज्ञा बुक्स, 1/10206 वेस्ट गोरख पार्क शाहदरा, दिल्ली – 110032 मूल्य : 750/- रुपये  पृष्ठ 391 साहित्य के  आयाम                                                 रणजीत यादव […]

by arun dev
June 12, 2016
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

अथ-साहित्य : पाठ और प्रसंग
राजीव रंजन गिरि
प्रकाशक : अनुज्ञा बुक्स, 1/10206 वेस्ट गोरख पार्क
शाहदरा, दिल्ली – 110032

मूल्य : 750/- रुपये  पृष्ठ 391




साहित्य के  आयाम                                                
रणजीत यादव


राजीव रंजन गिरि की किताब ‘अथ-साहित्य : पाठ और प्रसंग’ अपनी विविध आयामी अर्थवत्ता के कारण एक सृजनात्मक परखधर्मी साहित्यिक हस्तक्षेप है. विगत दस वर्षों में लिखे गये शोध लेख, समीक्षा, संवाद, टिप्पणी इसमें समाहित हैं, जिसे नौ खण्डों में व्यवस्थित किया गया है.

प्रथम खण्ड, भक्तिकाल पर केन्द्रित, ‘सार-सार को गही रखे’ के अन्तर्गत चार लेख हैं. ‘भक्ति आन्दोलन का अवसान और अर्थवत्ता’ शोधपरक विचारोत्तेजक लेख है. साहित्य के समस्त काल खण्डों में भक्तिकाल सबसे ज्यादा चर्चित और विवादित रहा है. ऐसे में यह लेख साहित्य एवं इतिहास के महत्वपूर्ण विद्वानों की स्थापनाओं को प्रस्तुत करते हुए उसके अन्तर्विरोधों, सहमति-असहमति के स्वरों का तटस्थ परीक्षण करता है. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय, वासुदेवशरण अग्रवाल, मुक्तिबोध, हरबंस मुखिया, सतीशचन्द्र, इरफान हबीब, एम.एन. श्रीनिवासन और वीर भारत तलवार के मतों को प्रमुखता से शामिल किया गया है. इनकी मान्यता है ‘वर्तमान अर्थवत्ता के सन्दर्भ में ही रचनाओं की विशिष्टता तथा उनके आपसी अन्तर्विरोध को ध्यान में रखने की दरकार है.’ भक्ति आन्दोलन अपने समस्त रचनात्मक पहल के कारण आज भी महत्वपूर्ण है. इस खण्ड में तीन और लेख हैं–अन्धश्रद्धा भाव से आधुनिकता की पड़ताल, राधा के वस्तुकरण की प्रक्रिया और अस्मितावादी अतिचार से मुखामुखम.

दूसरा खण्ड, नवजागरण पर केन्द्रित, ‘स्वत्व निज भारत गहै’ शीर्षक के तहत छह लेख हैं. आरम्भिक आधुनिकता की तलाश, सत्यार्थ प्रकाश एवं आर्य-समाज, भारतेन्दु-युग और इतिहास-निर्माण, सारसुधा निधि की रचनाएँ, साम्प्रदायिकता, सत्ता और साहित्य तथा भिखारी ठाकुर की कला.  सत्ता बहुत षड्यन्त्रपूर्ण तरीके  से साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल करती है. मैकियावेली ने लिखा है कि सत्ता अपनी सुविधा के लिए सुनियोजित तरीके  से भ्रम फैलाती है. साहित्य और सत्ता का सम्बन्ध द्वन्द्वात्मक होता है. कभी हाँ तो कभी ना. इस मामले में सन्त कवि कुम्भनदास बड़े निर्भीक थे, जो गर्व से कहते थे – ‘सन्तन को कहाँ सीकरी सो काम’. उत्तरोतर काल में सत्ता विरोधी स्वर आवश्यकतानुसार घटते-बढ़ते रहे. भारतेन्दु ‘अँग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी’ देखते हैं तो प्रताप नारायण मिश्र अपने को ‘राजभक्त’ घोषित करते हैं. ये है आधुनिक युग के समाज हितैषी लेखकों के हाल. वही कुछ रचनाओं और रचनाकार भी हैं जो सत्ता विरोधी स्वर के लिए हमेशा याद किये जाएँगे. प्रेमचन्द का सोजे वतन, तसलीमा नसरीन की आत्मकथा तथा मुक्तिबोध की किताब को प्रतिबन्धित किया गया. इतना ही नहीं कुछ ऐसे स्वनाम धन्य विद्वान भी हैं, जिन्होंने इमरजेन्सी का समर्थन किया, फिर भी प्रतिशील बने हुए हैं. ‘भिखारी ठाकुर की कला’ के अन्तर्गत सहज सादगीपूर्ण किन्तु संघर्षशील भिखारी ठाकुर के जीवन के कलात्मक अवदान को प्रस्तुत किया गया है.

तीसरे खण्ड, ‘सघनतम की आँख’ शीर्षक के तहत नौ लेख हैं, जो प्रेमचन्द की रचनात्मकता से रूबरू कराते हुए, इनकी आलोचना दृष्टि, सृजनात्मक विवेक और समसामयिक विमर्शों के केन्द्र में इनका मूल्यांकन करते हैं. ‘प्रेमचन्द का प्रयोजन’ में ‘साहित्य का उद्देश्य’ के अन्तर्गत मुख्य स्थापनाओं को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है. प्रेमचन्द साहित्य की परिभाषा जीवन की अलोचना के रूप में करते हैं. भाव और भाषा में पहले कौन? प्रेमचन्द का मत है – ‘भाषा साधन है, साध्य नहीं.’

चौथे खण्ड, ‘कथा प्रान्तर’ के अन्तर्गत पाँच लेख हैं. इसके केन्द्र में उपन्यास और कहानियाँ हैं. अँग्रेजी ढंग का पहला हिन्दी उपन्यास’ में लाला श्री निवासदास के ‘परीक्षा गुरु’ के साथ नामवर सिंह द्वारा दिये गये व्याख्यान ‘अर्ली नावेल्स ऑफ इण्डिया’ की चर्चा है.

पाँचवें खण्ड ‘जहाँ मूल्यवान हैं शब्द’ के तहत कविता पर विचार-विमर्श किया गया है. इसमें आठ लेख हैं. ‘पूर्वग्रह’ के ‘अज्ञेय पर एकाग्र’ अंक की चर्चा ‘अज्ञेय पर पूर्वग्रह’ शीर्षक से की गई है. साथ ही मुक्तिबोध की अवधारणा ‘जड़ीभूत-सौंदर्याभिरूचि’ की खोज-खबर ली गई है.

‘देखना दिखन को’ में आलोचना एवं आलोचकों की पड़ताल की गयी है. इसमें कुल छह लेख हैं. ‘अयोध्या प्रसाद खत्री का महत्व’ में हिन्दी, उर्दू भाषा विवाद के जिक्र के साथ ही खत्री जी की निर्भयता का वर्णन है. एक उदाहरण देखें– ‘बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ईश्वर नहीं थे. उन्हें शब्दों का (फिलोलॉजी) कुछ भी बोध नहीं था. यदि फिलोलॉजी का ज्ञान होता तो खड़ी बोली में पद्य रचना नहीं हो सकती, ऐसा नहीं कहते.’ निश्चय ही जिस समय भारतेन्दु की ख्याति चरम पर थी, उस समय ऐसी बात उन्हें कोई नहीं कह सकता था, जो खत्री जी ने कही. इनकी एक उपलब्धि खड़ी बोली का विभाजन भी है. उन्होंने इसे पाँच भागों में बाँटा – ठेठ हिन्दी, पण्डित जी की हिन्दी, मुन्शी जी की हिन्दी, मौलवी साहब की हिन्दी और यूरेशियन हिन्दी!’ ‘दूसरी परम्परा के सर्जक’ में भारतीय साहित्य को ऐतिहासिक सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यों के आलोक में देखने वाले आलोचक पण्डित हजारी प्रसाद द्विवेदी का पूज्य स्मरण है. जिस कबीर को आचार्य शुक्ल कुछ वाक्यों में पिट गये, उसी कबीर पर ठोस तार्किकता के साथ एक अच्छी पुस्तक ‘कबीर’ (1942) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखी.

सातवाँ, ‘उड़ान की अकुलाहट’ में स्त्री और दलित विमर्श पर केन्द्रित आलोच्य खण्ड है. इसमें आठ लेख हैं. ‘मुक्ति– आकांक्षा की रचनाकार’ में महादेवी वर्मा के विशिष्ट रचनात्मक पक्ष को मूल्यांकित किया गया है. इसमें इनके द्वारा रचित गद्य एवं पद्य दोनों शामिल हैं. जिस समय महादेवी वर्मा ‘शृंखला की कडिय़ाँ’ लिख रही थीं, सीमोन द बोउवा बच्ची थीं, ऐसा कर महफिल जीतनेवाले बौने आलोचकों से सवाल  भी किया गया है.


‘सौन्दर्य का मिथक-निर्माण’ में पश्चिमी दृष्टिकोण में आये सौन्दर्य के प्रति बदलाव का तार्किक विश्लेषण किया गया है. कई महत्वपूर्ण पुस्तकों के हवाले से, जिसमें सिमोन द बोउवा की ‘सेकेण्ड सेक्स’ और नाओमी वुल्फ की – ‘द ब्यूटी मिथ’ प्रमुख हैं, बताया गया है कि बाजार सौन्दर्य के प्रतिमानों को तय कर रहा है. इसके आँकड़े भी प्रस्तुत किये गये हैं. ‘रह गयी अधूरी पूजा जो साहित्य में’ लेख में स्त्री विमर्श को विभिन्न साहित्यिक एवं ऐतिहासिक पहलू से देखा गया है. सीमान्तनी उपदेश, एक अज्ञात हिन्दू औरत, बंग महिला और केट मिलेट के ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स’ के वैचारिक तत्वों को निरूपित किया गया है. राजीव का मानना है कि स्त्री रचनाशीलता की परम्परा समृद्ध है – ‘थेरीगाथा की विश्वारा, आयारका, उण्विटी, संस्कृत – प्राकृत की विज्जका, रेखा, भक्तिकाल की मीरा, सहजो, अक्क-महादेवी और आधुनिक काल की महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, उषा देवी मित्र’ आदि. सुमन राजे के ‘हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास’ के मत की भी चर्चा है.

आठवें खण्ड ‘भाषा बहता नीर’ में, भाषिक विमर्श को शामिल कि या गया है. इसमें कुल छह लेख हैं. ‘भाषा, साहित्य और शिक्षण’ एनसीआरटी के पाठ्य-पुस्तक के अन्तर्गत शामिल किये गये रचनाकार और उनकी रचनाओं का विश्लेषण है. क्षितिज, कृतिका, संचयन और स्पर्श– इन चारों किताबों में शामिल पाठ केन्द्र में हैं. पुस्तक कैसी हो– इस परिप्रेक्ष्य में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन उद्धृत किया गया है ‘‘जिस पुस्तक से मनुष्य का अज्ञान, कुसंस्कार और अविवेक दूर नहीं हो जाता, जिससे मनुष्य शोषण और अत्याचार के विरुद्ध सिर उठाकर खड़ा नहीं हो जाता. जिससे वह छीना-झपटी, स्वार्थपरता और हिंसा के दलदल से उबर नहीं पाता, वह पुस्तक किसी काम की नहीं.’ वास्तव में किसी भी पाठ्य-पुस्तक का उद्देश्य सिर्फ सैद्धान्तिक आदमी तैयार करना नहीं होता, बल्कि उसमें मानवोचित गुण-व्यवहार का विकास भी अपेक्षित होता है, तभी बेहतर समाज बन सकेगा.

‘सबद निरन्तर’ इस किताब का आखिरी खण्ड है. इसमें कुल दस लेख हैं, साथ ही कुछ टिप्पणियाँ भी शामिल हैं. प्रथम हैं– ‘बात-बात में बात’. यह यशपाल की रचना है. इसमें चौदह चरित्रों की कल्पना है– ‘जिज्ञासु, राष्ट्रीयजी, वैज्ञानिक, शुद्ध साहित्यिक, प्रगतिशील, सर्वोदयी, इतिहासज्ञ, माक्र्सवादी, कामरेड, श्रीमती जी, महिला, भद्रपुरुष, काँग्रेसी और मौजी.’ बुजुर्गों की कहावत भी उद्धृत किया गया है– ‘ज्यों केला के पात में पात-पात में पात, त्यों चतुरन की बात में बात-बात में बात.’ इतना ही नहीं तत्व बोध की भी बात शामिल है– वादे वादे जायते तत्व बोध :.
राजीव रंजन गिरि की किताब ‘अथ-साहित्य: पाठ और प्रसंग’ विचार-विमर्श, शोध, समीक्षा, टिप्पणी और पिछले एक दशक में सर्जनात्मकता के स्तर पर हुई पहल की विद्वतापूर्ण, बौद्धिक पड़ताल है. प्रथम खण्ड में भक्तिकालीन विमर्शों से सार तत्वों को ग्रहण किया गया है. वहीं द्वितीय खण्ड में आधुनिकता के साथ सत्ता और साहित्य की परख की गई है. तृतीय में प्रेमचन्द के रचनात्मक कौशल के साथ ही उन्हें विवाद और विमर्श दोनों स्थितियों में परखा गया है. चतुर्थ खण्ड में उपन्यास सम्बन्धित विश्लेषण हैं वही पंचम में काव्य-कौशल का परीक्षण है. छठे में आलोचना पर दृष्टिपात के साथ ही चर्चित आलोचकों की स्थापना का मूल्यांकन है. सातवें में स्त्री दलित विमर्श की केन्द्रीयता है, वही आठवें में भाषा चिन्तन. नौवें खण्ड में विभिन्न मसलों लेख हैं. इस प्रकार साहित्य की बौद्धिक परख की गई है. सभी लेख पहले की चर्चित पत्रिकाओं – आलोचना, पाखी, पुस्तक वार्ता, वागर्थ, संवेद, वाक्, अनभै साँचा, वसुधा आदि में प्रकाशित हो चुके हैं. समग्रता में पढऩे और समझने का अपना ही आनन्द है.

यह किताब रचनात्मक और वैचारिक ऊष्मा से परिपूर्ण एक सशक्त हस्तक्षेप प्रस्तुत करती है. यह किताब पठनीय और संग्रहणीय है. साहित्य को बहुआयामी कोण से देखने, समझने और सोचने हेतु सहायक भी है.
____________

रणजीत यादव
शोधार्थी, हिन्दी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-7
ShareTweetSend
Previous Post

निज घर : मृत्यु के बाद कहानी मुझे रचेगी : प्रियंवद

Next Post

परिप्रेक्ष्य : कुसुमाग्रज राष्ट्रीय पुरस्कार

Related Posts

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन
समीक्षा

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी
समीक्षा

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण
संस्मरण

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक