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Home » परख : आलोचना के परिसर : मीना बुद्धिराजा

परख : आलोचना के परिसर : मीना बुद्धिराजा

आलोचना के परिसर  गोपेश्वर सिंह वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली प्रथम संस्करण-2019 मूल्य- रू. 695 आलोचक गोपेश्वर सिंह की \’आलोचना के परिसर\’ पुस्तक इसी वर्ष वाणी प्रकाशन से छप कर आयी है. इस कृति को देख परख रहीं हैं मीना बुद्धिराजा.  आलोचना की नयी संस्कृति का पाठ           मीना बुद्धिराजा साहित्य के अतिरिक्त ज्ञान और कला […]

by arun dev
October 28, 2019
in समीक्षा
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आलोचना के परिसर
 गोपेश्वर सिंह
वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली
प्रथम संस्करण-2019
मूल्य- रू. 695




आलोचक गोपेश्वर सिंह की \’आलोचना के परिसर\’ पुस्तक इसी वर्ष वाणी प्रकाशन से छप कर आयी है. इस कृति को देख परख रहीं हैं मीना बुद्धिराजा. 


आलोचना की नयी संस्कृति का पाठ          
मीना बुद्धिराजा

साहित्य के अतिरिक्त ज्ञान और कला की सभी विधाएँ और क्षेत्र जीवन, समाज और सभ्यता के किसी एक विशिष्ट पहलू से संबंध रखते हैं लेकिन समूची मानव सभ्यता-संस्कृति का संवेदनात्मक दस्तावेज़ कहलाने का अधिकार केवल साहित्य को प्राप्त है. इसका सबंध वर्चस्व की अवधारणा से नहीं बल्कि इसका महत्व और निर्धारण आलोचना तय करती है कि किस विधा ने परिवर्तन की अनवरत प्रक्रिया और बदलाव की जरुरत के चलते अपने समय से संघर्ष करते हुए मानवीय जीवन और समाज के साथ कितना न्याय किया और इस सृजनात्मक द्वंद्व के बीच किस कालजयी रचना ने आने वाले समय के लिए भी नये मानक और मूल्य स्थापित किए. वस्तुत: आलोचना साहित्यिक के साथ सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक कार्य भी है क्योंकि क्योंकि रचना केंद्रित विधा होने के बावज़ूद यह उसके माध्यम से अपने समय में सीधा हस्तक्षेप करती है. इसलिये इसमें दो समय समानांतर रूप से साथ उपस्थित रहते हैं. 


एक लेखक का समय और दूसरा आलोचक का समय जो उसके महत्व को समसामयिकता में निर्धारित करता है. यही कारण है कि हिंदी साहित्य में कई रचनाकार एक लंबे अंतराल के बाद अपना स्थान प्राप्त कर सके जब समर्थ आलोचना ने पूर्ववर्ती धारणाओं से अलग उन्हें पुनर्पाठ के मूल्यांकन और नये तरीके से आविष्कृत किया. जायसी, कबीर, तुलसी, महादेवी वर्मा, निराला, प्रेमचंद, मुक्तिबोध, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, निर्मल वर्मा ऐसे बहुत लेखक हैं जिनकी व्यापक स्वीकृति के पीछे आलोचना का यह संघर्ष स्पष्ट देखा जा सकता है.
 
हिंदी की समकालीन गंभीर आलोचना के परिदृश्य में प्रसिद्ध आलोचक और लेखक प्रो. गोपेश्वर सिंह की नयी पुस्तक ‘आलोचना  के परिसर’ शीर्षक से इसी वर्ष प्रतिष्ठित वाणी प्रकाशन से प्रकाशित होकर आना एक विशिष्ट उपलब्धि है.  यह पुस्तक हिंदी के आधुनिक साहित्य के व्यापक इतिहास के संदर्भों में उस रचना और रचनाकार के माध्यम से अपने समय को गहराई से पढ़ती है और सार्थक हस्तक्षेप करती है. आलोचना की मुख्य कसौटी निष्पक्ष दृष्टि, सूक्ष्म विश्लेषण और विषय की वस्तुनिष्ठता इस पुस्तक की मुख्य विशेषता है जिसके आधार पर आलोचना अपने समय ,समाज और साहित्य के बहुआयामी संबंधों और विरोधाभासों के बीच साधारण और उदात्त रचना के बीच अंतर करके निर्णय देती है. 

साहित्य और संस्कृति के साथ जे पी आंदोलन में भी सक्रिय रह चुके आलोचक-प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह निरंतर इन सभी विषयों पर लेखन और संगोष्ठियों के माध्यम से वैचारिक विमर्श से जुड़े हुए हैं. उनकी प्रकाशित-साहित्य से संवाद, आलोचना का नया पाठ, भक्ति आंदोलन और काव्य , नलिन विलोचन शर्मा (संपादन), भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार, कल्पना का उर्वशी विवाद , शमशेर बहादुर सिंह: संकलित कविताएँ(संपादन) जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकें भी हिंदी आलोचना को समृद्ध करती हैं.
‘आलोचना के परिसर’ पुस्तक भी नयी और मौलिक आलोचना के क्षेत्र में लेखक-आलोचक की सृजनात्मक पहल है जिसमें आलोचना की किसी निश्चित परंपरा और सिद्धांतों से’ उसे न बाँधते हुए रचना और आलोचना के नये, जनतांत्रिक, स्वतंत्र परिसरों का निर्माण किया गया है. जैसे रचना अपनी पूर्ववती प्रवृतियों का अतिक्रमण करती है वैसी भी आलोचना भी बने-बनाये प्रतिमानों मापदंडों को तोड़कर उससे आगे बढ‌कर  आधुनिकतम रूप से विकसित होती है. समय के साथ साहित्य की प्रवृतियाँ, विधा, कथ्य-शिल्प सब बदलता है, दुनिया रोज बनती- बदलती है तो आलोचना को भी जड़ और संकीर्ण ढाचों से बाहर निकलकर विस्तार करना होता है. इसी आधार पर ‘आलोचना को लोकतांत्रिक समाज में साहित्य का सतत किंतु रचनात्मक प्रतिपक्ष’ मानने वाले हिंदी के वरिष्ठ आलोचक प्रो. ‘गोपेश्वर सिंह’ की यह नवीन पुस्तक भी आलोचना के क्षेत्र में आये नये बदलाव का प्रमाण है. कला और समाज को अलग-अलग रूप में देखने की भारतीय-पाश्चात्य शिविरबद्ध आलोचना पद्धति यों- विचारधाराओं से मुक्त करके यह नयी और मौलिक आलोचना दृष्टि को स्थापित करने में अपनी भूमिका निभाती है. 


रचना जिस तरह जीवन की विविधता, विस्तार और गहराई को मूर्त रूप देने की कोशिश है और प्रत्येक बड़ा रचनाकार अपनी नयी रचना में पिछले परिसर का विस्तार और एक नया परिसर उद्घाटित करने की कोशिश करता है. उसी तरह आलोचना को भी एक निश्चित रूप और परिभाषा में नहीं पारिभाषित किया जा सकता. मानवीय जीवन की तरह उसके भी बहुत से आयाम और अनेक परिसर हो सकते हैं जिनके अंदर-बाहर वो स्वतंत्र रूप से आवाजाही कर सकती है. यही आलोचना जीवंत और समसामयिक हो सकती है और समाज व साहित्य के संबंधों की नयी दिशाओं का अन्वेषण कर सकती है. आज के तीव्रता से बदलते समय में नये अर्थों और मूल्यों की खोज के लिये नयी आलोचना दृष्टियों का होना भी अनिवार्य है जिसका गम्भीर प्रतिपादन इस पुस्तक का केंद्र बिंदु है.
 
इस पुस्तक में मुख्यत: तीन खंडों के अंतर्गत- हिंदी कवि और कविता, हिंदी गद्य के विविध रंग और अंतिम भाग आलोचना और समाज में एक व्यापक फलक पर साहित्य और समाज के बनते-बिगड़ते संबंधों, अंतर्विरोधों, समय और रचनाकार के अंतर्बाह्य संघर्षों और विरोधाभासों के बीच किस प्रकार कोई कवि, रचना और लेखक नये मूल्यों का स्थापक बना और क्या नयी दिशा समाज और राजनीति को उसने दी, एक तरफ वह स्वंय अपने समय, समाज और परिवेश से प्रभावित होता है तो अपनी रचनाओं से भी वह समाज को प्रभावित करता है. इन सभी गंभीर और जरुरी विषयों को इन तीनो खंडों में 37लेखों में नई समसामयिक दृष्टि से मूल्यांकित किया गया है जिनके केंद्र में समाज के सरोकार और चिंताएँ हैं. हिंदी पत्रकारिता की मौलिक सशक्त आवाज़ ‘ राजकिशोर’ जी की स्मृति को समर्पित यह पुस्तक जिनकी भाषा और सोच में गांधी की खादी का खुरदरापन और सत्याग्रह की नैतिक आभा एक साथ थी, वास्तव में यह पुस्तक भी प्रतिरोध की समकालीन संस्कृति रचती है और नयी मूल्य-दृष्टि के लिये संघर्ष करती है. रचना और रचनाकार का अपना पाठ तैयार करती है और कृति से शुरु करके वह अपने समय की व्याख्या करती है और रचना तक ही आलोचना को सीमित न करके उसके बाहर भी देखती और परखती है.
 
पहले खंड ‘कवि और कविता’ – में हिंदी कविता के इतिहास में बहुत से नये आयामों के आधार पर महात्मा गांधी और भक्ति कविता, तार सप्तक और अज्ञेय, एक शमशेर भी हैं, नागार्जुन: जन आंदोलनों का कवि, जेपी आंदोलन और नागार्जुन, प्रगतिवाद और मुक्तिबोध , ‘अँधेंरे में’ कविता और हिंदी कविता के पचास वर्ष, अंत:करण और मुक्तिबोध ,जनकवि और जनकविता, गीत को देश निकाला, तात्कालिकता और कविता, कवि वेणु गोपाल और कविता में मितकथन का सौंदर्य शीर्षक लेखों में आधुनिक हिंदी कविता के मुख्य पड़ावों से गुजरते हुए कविता, कवि और समाज तथा राजनीति के साथ होने वाले अंतर्संघर्षों के बीच के तनाव और द्वंद्वों के संदर्भों मे इन सभी को नयी कसौटियों पर मूल्यांकित करने का गंभीर प्रयास किया गया है. इन कवियों के लिये कविता जैसे उनका जीवन- संघर्ष, प्रतिरोध की आवाज़, मानवता का स्वप्न, सौंदर्य, आत्मचिंतन और जीवन-संस्कृति रही. इन कवियों की भाषा, कला- भंगिमा, सच के लिये प्रतिबद्धता और अटूट जनपक्षधरता को समकालीन संन्दर्भों में लेखक-आलोचक नें एक सहज निर्भीकता, गहराई और विचारों की व्यापक पड़ताल के आधार पर नवनिर्मित परिसरों के आलोक में देखने का प्रयास किया है.
   
महात्मा गाँधी की जीवन-दृष्टि, विचारधारा और सत्याग्रह की परिकल्पना पर भक्ति कविता का प्रभाव रहा जिसमें ‘वैष्णव जन’ का वर्ग, जाति, वर्ण से परे मानवतावाद का वैश्विक स्वर है, टैगोर के ‘एकला चलो’ का प्रभाव साहित्य, समाज और राजनीति के समन्वित सबंधो को जनक्रांति के साथ कविता के रूप में जिस तरह आत्मसात किया, वह अभूतपूर्व है. इसलिये लेखक गाँधी को बीसंवी सदी में भक्ति कविता का आधुनिक भाष्य मानते हैं. तार सप्तक के प्रकाशन से आधुनिक हिंदी कविता में जो युगांतकारी परिवर्तन किया उसमें नि:संदेह अज्ञेय की केंद्रीय भूमिका रही. नयी कविता के रूप में प्रयोगवाद के नाम से नया बदलाव आया उसमें इन सभी कवियों को किसी निश्चित विचारधारा के न होकर राहों के अन्वेषी कवि कहा गया. कवियों के कवि कहे जाने वाले शमशेर की कविता में मौलिक काव्यानूभूति की प्रेम, प्रकृति की सौंदर्यवादी चेतना और बिम्बधर्मिता उन्हे अलग स्तर का दुर्लभ कवि बनाती है जिसे नामवर सिंह ‘ आत्मा की अभिव्यक्ति का भवन’ कहते हैं. शमशेर की कविता में हिंदी-उर्दू के दोआब का अनोखा सौंदर्य है. 


जन आंदोलन और जयप्रकाश नारायण के साथ-साथ चलती नागार्जुन की कविता तत्कालीन सामाजिक- राजनीतिक यथार्थ में सत्ता केंद्रित व्यवस्था के प्रतिरोध में जिन परिवर्तनकारी और क्रांतिकारी शक्तियों की पहचान करती हैं उसे आलोचना की समसामयिक जमीन पर परखा गया है. मुक्तिबोध की कविता ‘अ‍ॅँधेरे में’ आज पचास वर्षों के बाद भी अगर पाठक और आलोचकों के सामने मूल्यांकन की नयी चुनौती रखती है तो इसका कारण कवि का आत्मसंघर्ष और परिवेश से भीषण द्वंद्व और तनाव है, इसकी संवादधर्मिता है जो हिंदी कविता के नये परिसर खोलती है. मुक्तिबोध के ‘अंत:करण के आयतन’ को अटूट जनशक्ति की प्रेरणा के रूप में आज की कविता में घटित होते देखना और जनकविता और जनप्रियता के आधार पर कबीर, सूरदास, तुलसीदास, मैथिलीशरण गुप्त, हरिवंशराय बच्चन से होते हुए केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र, शमशेर, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय जैसे बड़े कवियों की कविता को जनप्रतिबद्धता, लोकप्रियता और संप्रेषणीयता जैसे संदर्भों से जोड़कर पुनर्मूल्यांकित करने की नयी दृष्टि का प्रमाण है-
जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ
जनकवि हूँ, सत्य कहूँगा, क्यों हकलाऊँ ? ( नागार्जुन)

अस्सी के दशक के प्रसिद्ध हिंदी कवि- ‘वेणु गोपाल’ की दुर्लभ उपस्थिति और उनकी अदम्य जिजीविषा, आर्थिक संघर्षों , शारिरिक कष्टों, अनूठी सिद्धातंवादिता और इन सब के बीच कविता की मशाल को आखिर तक जलाए रखना, जिनके लिये कविता ही जीवन का अर्थ और संस्कृति रही, एक आत्मीय संस्मरण में ऐसे विरल बौद्धिक कवि वेणु गोपाल को याद करना भी कविता की आलोचना में कुछ अनछुए आयामों को उद्घाटित करता है -हवाएँ चुप नहीं रहती, चट्टानों का जलगीत. कविता से शुरु होकर यह खंड कविता पर आकर मुकम्मल होता है जिसमे आलोचना के कई नये प्रतिमान सामने आते हैं.
दूसरा खंड- ‘हिंदी गद्य के विविध रंग’ मे कई विषयों पर गम्भीर विमर्श करते हुए सैद्धांतिक और रचनात्मक बदलावों को देखा गया है. अन्य साहित्य रूपों की अपेक्षा गद्य साहित्य अपने समय और समाज से सीधे संबद्ध होता है. समाज में घटित परिवर्तन रचना की प्रकृति और रचना प्रक्रिया को भी प्रभावित करते हैं. इन लेखों में – महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण के प्रश्न, प्रेमचंद की नज़र में राष्ट्र, आलोचना के शुक्ल पक्ष पर प्रश्न, रामविलास शर्मा: अपनी जनता का आलोचक, आलोचक नलिन विलोचन शर्मा, भीष्म साहनी: सादगी का सौंदर्य, रेणु: सार्वजनिक उपस्थिति का कलाकार. साही: चकाचौंध से परे एक रोशनी, बदरीविशाल पित्ती और ‘ कल्पना’ , कसप: प्यार की उदासी का राग, शाह के पुरस्कृत होने पर, दूधनाथ सिंह का महादेवी विमर्श, एक दलित लेखक की आत्मकथा और समीक्षा की साख जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर तार्किक विश्लेषण है. इन सभी बड़े आलोचकों के बहसधर्मी चिंतन और लेखकों के माध्यम से परस्पर विरोधी विचार-दृष्टियों का संघर्ष यह संकेत भी करता है कि साहित्य और कला हमेशा एक अतिरेकहीन और समावेशी संस्कृति को लेकर चलती है और उसमें इन सभी अंत:संघर्षों के बीच ही मुक्ति के नये गंभीर आलोचनात्मक विमर्श सामने आते हैं. जैसे दूधनाथ सिंह अपनी पुस्तक में ये कहते हैं- 

‘महादेवी इस देश की पहली मुक्त स्त्री है जिसके सिर पर आंचल है.\’ तो वे उस महादेवी को प्रस्तुत कर रहे हैं जिसे हिंदी पाठक ने देखा नहीं. अंतत: श्रेष्ठ रचना की कोई सर्वमान्य कसौटी नहीं होती क्योंकि फिर तो किसी रचना को लेकर कोई विवाद ही नहीं होता. रचना को पढ़ने और पाठ-प्रक्रिया के बीच अपने समय के संदर्भों में उसे देखने के बीच ही वे स्थापनाएँ बनती है, प्रतिमान निकलते हैं जो उसे पुनर्मूल्यांकन की, निर्णय की, न्याय और विवेक की कसौटी प्रदान करती हैं.
समाज और साहित्य का अन्योन्याश्रित संबंध आलोचना के क्षेत्र में भी सटीक हैं क्योंकि सामाजिक संरचना और राजनीतिक मूल्यों में होने वाले नये बदलाव, विचारधाराओं के संकट, हाशिये के विमर्श, अस्मिता बोध, बाजारवाद और उपभोक्ता संस्कृति तेजी से सभी प्रतिमानों और आदर्शों को बदल रहे है तो मूल्यांकन के नियम भी बदलते हैं. इस व्यापक दृष्टि-बोध के अनुसार तीसरे खंड- ‘आलोचना और समाज’ में इन सभी विषयों को केंद्र में रखकर एक गहन विश्लेषण है, पुनर्विचार है,मौलिक प्रस्थापनाएँ हैं जिनमे प्रमुख हैं- सौंदर्य : दृष्टि और दृश्य का द्वंद्व, स्वतंत्रता एक अधूरा शब्द है, उपवास और प्रतिरोध, गाँधी का ‘ अभय’ मंत्र, हिन्द स्वराज: एक पुनर्विचार, अब तो सारा मुल्क ही चम्पारण है!, लोहिया की संस्कृति चिंता, दलित राजनीति पर कुछ विचार, लेखक संघों की हकीकत और सरकार पोषित संस्थाएँ और लेखक- जैसे समसामयिक आलोचनात्मक लेख संकलित हैं. पिछले दो-तीन दशकों में यथार्थ और उत्तर आधुनिकता का संघर्ष साहित्य के साथ आलोचना का भी केंद्रीय मुद्दा रहा है. 

भाषा, कथ्य, रूप- शिल्प से अलग भी अब पाठक और आलोचक अपने तरीके से पाठ करने के लिये स्वतंत्र है जिसका कारण आज का जटिल यथार्थ है. साहित्य के जनतंत्र के साथ अब आलोचना में भी लोकतांत्रिक मूल्यों की बात होने लगी है और आलोचना प्रतिरोध की संस्कृति के रूप में नया रूप ले रही है. नि:संदेह सार्थक आलोचना वही है जो समकालीन रचनाशीलता में हस्तक्षेप करे और साधारण और कालजयी रचना के अंतर को रेखांकित करे. इसके लिए उसे जरूरी और अपने समय के वैचारिक टकरावों और संघर्षों से भी नहीं बचना चाहिए. साहित्य और समाज के अंत:सबंधो  की पड़ताल करते हुए यही आलोचना की विश्वसनीयता है जो किसी रचना को मूल्यवान बनाती है. यह आलोचक का विचारधारात्मक संघर्ष ही होता है जो निष्पक्ष निर्णय और न्याय के आधार पर एक नया दृष्टिकोण स्थापित करता है.
  
आज स्त्री विमर्श के साथ ही हाशिये की अस्मिताओं के प्रश्नों को मुख्यधारा में लाने के लिये दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी विमर्शों के नये परिसर सामने आए हैं जिससे मूल्यांकन और सौंदर्य के नये प्रतिमान विकसित हुए हैं.समकालीन समाज- राजनीति और व्यवस्था में मार्क्सवाद, समाजवाद, गांधीवाद जैसी बड़ी विचारधाराओं के साथ ही  जाति-वर्ग से मुक्त लोहिया,आंबेडकर आदि की वैचारिकी भी अस्तित्व में आई है जिससे प्रतिरोध के नये स्वर और आलोचना की नयी दृष्टियाँ भी नये रूपों में विकसित हुई. इस खंड में नयी रचनाशीलता को इन व्यापक संदर्भों में देखते हुए आलोचना, समाज और राजनीति के बहुआयामी संबंधों और विरोधों के बीच आलोचना की नयी दिशाएँ उद्घाटित होती हैं और गाँधी के व्यापक प्रभाव और आजादी के बाद के मौलिक चिंतक-राजनीतिक विचारक लोहिया से लेकर आज की हाशिये की दलित अस्मिताओं का इतिहास जैसे साथ-साथ चलता है जिसमें पाठक के सामने एक पूरा युग जीवंतता से प्रस्तुत होता है. वैचारिक आलोचना को समकालीनता की एक ठोस जमीन के आधार पर खड़े करते हुए हिंदी साहित्य के इतिहास के महत्वपूर्ण और जरूरी पड़ावों-अध्यायों को, अकादमिक विमर्शों की केंद्रीय चिंताओं और प्रश्नों को लेकर चलते यह पुस्तक आज की गंभीर आलोचना के परिदृश्य में सार्थक उपस्थिति दर्ज़ कराती है.
 
नि:सदेह दुनिया के साहित्य में जो विविधता और विस्तार आया है और आधुनिक सूत्रों ने जो दूरियाँ कम की हैं उससे हिंदी साहित्य भी अछूता नहीं रह सकता. अत: इन बदलावों के साथ यथास्थिति और ज‌ड़ एवं संकीर्ण सोच के विरुद्ध आलोचना की सृजनात्मक पहल भी जरूरी है. रूढिवादी, परंपरागत, वर्गबद्ध परिपाटियों, पूर्वाग्रहों से मुक्त नये समाज, संस्कृति और साहित्य को आलोचना ही नयी दिशा में सोचने की प्रेरणा दे सकती है. इसमें ही साहित्य और समाज की अंतश्चेतना विकसित होकर उसे एक सही रूप-आकार देती है. इस कसौटी पर आलोचना के परिसर पुस्तक हिंदी आलोचना की एक नयी संस्कृति का निर्माण करती है. लेखक-आलोचक गोपेश्वर सिंह का इस विषय में खुद मानना है- ‘अच्छी आलोचना अंत:करण से ही उत्पन्न होती है. वह रचना में शब्दों के पीछे छिपे अर्थ को और नयी संभावनाओं को खोजती है.‘ 

सर्जनात्मक संकट के इस बाजारवादी दौर में वैचारिक स्वतंत्रता के लिये, साहित्य में जनसरोकारों की चिंताओं को पहचानते हुए आलोचकीय विवेक और निष्पक्षता को बनाए रखते हुए यह पुस्तक आधुनिक हिंदी साहित्य के एक विराट और समृद्ध इतिहास का नया मूल्यांकन करती है और हिंदी के गंभीर अध्येताओं और पाठकों के लिये सार्थक व जरुरी पुस्तक है.

_______________

मीना बुद्धिराजा
9873806557
Tags: आलोचना के परिसर
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