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Home » परख : तुमड़ी के शब्द (बद्री नारायण) : सदाशिव श्रोत्रिय

परख : तुमड़ी के शब्द (बद्री नारायण) : सदाशिव श्रोत्रिय

राजकमल से प्रकाशित बद्री नारायण के नवीनतम कविता संग्रह \’तुमड़ी के शब्द\’ की समीक्षा सदाशिव श्रोत्रिय कर रहें हैं.                                 बद्री नारायणतुमड़ी के शब्दों  का अंतर्लोक                  सदाशिव श्रोत्रिय कविता का अस्तित्व ही अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि मानव जीवन के समस्त अनुभवों को तर्कसंगत […]

by arun dev
January 7, 2020
in समीक्षा
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राजकमल से प्रकाशित बद्री नारायण के नवीनतम कविता संग्रह \’तुमड़ी के शब्द\’ की समीक्षा सदाशिव श्रोत्रिय कर रहें हैं. 

                              
बद्री नारायण
तुमड़ी के शब्दों  का अंतर्लोक                 
सदाशिव श्रोत्रिय
कविता का अस्तित्व ही अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि मानव जीवन के समस्त अनुभवों को तर्कसंगत के दायरे  में नहीं लाया जा सकता. जो भौतिक, ठोस और मूर्त है केवल वही जीवन की वास्तविकता नहीं है. बद्री नारायण के नव प्रकाशित काव्य-संग्रह तुमड़ी के शब्द (राजकमल पेपरबैक्स, 2019) को पढ़ते समय हमें लगता है कि एक संवेदनशील कवि इस तथ्य को न केवल अनुभव करने बल्कि उसे अपने काव्य में व्यक्त करने की भी क्षमता रखता है. कामना-पूर्ति  की असम्भाव्यता और मानव जीवन की नश्वरता का दार्शनिक–आध्यात्मिक स्वर इस संग्रह की पहली कविता “सिर्फ़ चार दिन” (पृष्ठ 9)  में ही हमें सुनाई दे जाता है :
पहले दिन इच्छा जगी
दूसरे दिन आस
तीसरे दिन जग गई मुझमें पाने की चाह
चौथे दिन, हां चौथे दिन जब मैंने पाने के लिए हाथ बढ़ाया
सेमल का फूल उपह गया बीच आकाश
जीवन कितना छोटा है मेरी हिरण !
                                                    
इस कविता में ‘हिरण’ का प्रयोग हमें तुरंत कबीर के उन पदों की याद दिला देता है जिन्हें कुमार गन्धर्व ने अपना स्वर देकर हमारी सांस्कृतिक विरासत का स्थाई भाग बना दिया है. कबीर इस कवि की कल्पना में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाए हैं इस बात का एहसास हमें इस संग्रह की “भदोही बस स्टैंड पर ” (पृष्ठ 10) जैसी कविता पढ़ते हुए तुरंत हो जाता है :
बांधे मुरैठा
सर में पंख खोंसे
खूंट में सुर्ती बांधे
…………..
कबीर खड़े थे भदोही बस स्टैंड पर
बस के इंतज़ार में  !
यहां तो हद-बेहद दोनों चला गया
अब यहां रह कर क्या होगा

चलो और कहीं चलें.

पर शीघ्र ही इस कविता के कबीर को यह अहसास हो जाता है कि आज वे जहां जाएंगे वहीं उस स्थान को अपने लिए अनुपयुक्त पाएंगे :
चला जाऊंगा गाज़ियाबाद
वहीं लगाऊंगा अपना ठौर

पर गाज़ियाबाद में भी
जहां जाऊंगा बुनने-कातने
वह जगह – वह करघा भी
कोई न कोई खरीद रहा होगा,
कोई न कोई बेच रहा होगा

खंजड़ी की आवाज़ को मन में सुमिरते
सोचा कबीर ने
कोई बात नहीं
………
सूरत चला जाऊंगा
यह सोचते कबीर यह भूल गए थे कि
सहमत के अनहद नाद के बावजूद
वहां पिजाए जा रहे थे कई खंजर
उनके इंतज़ार में

इस संग्रह की कविता “बेगमपुरा एक्सप्रेस ” (पृष्ठ 45) जो पहले  आलोचना में प्रकाशित हुई थी, आज के नितांत भौतिकता की ओर बढ़ते संसार में  उस बेफिक्री और फक्कड़पन–जनित आनंद की ओर हमारा ध्यान खींचती है  जिसे केवल प्रेम का ‘ढाई आखर’ जानने वाले घाना,पीपा और सेना नाई जैसे संतों द्वारा ही हासिल किया जा सकता है :
कहते हैं कि पैसे से मिल जाता है सब कुछ
पर लोग हाथ में ले खड़े हैं पैसे, रुपये व एटीम कार्ड
टिकट बाबू फिर भी उन्हें टिकट नहीं देता

क़त्ली, ख़ूनी, बलात्कारी ,
बेईमान, चालू, फ़ॉड, लम्पट,
हिंसक, झूठे,बवाली,
सुल्तान, साहेब, मालिक
इन सबको नहीं मिलेगा टिकट
दम्भी कवि, सत्ता के बौद्धिक
सब खड़े रह जाएंगे और नहीं मिलेगी
उन्हें इस ट्रेन की टिकट
…………….
लहरों से होकर आए तारों को
कोमल मन सुकुमारों को
सराय के मालिकों को तो नहीं
पर सराय में रुकने वालों को
मिल जाएगी टिकट

जो हमारे आसपास घटित हो रहा है उसे महसूस तो हर व्यक्ति करता है पर उसे शब्दों में अभिव्यक्त करना एक संवेदनशील कवि के लिए ही सम्भव होता है. इस तरह किसी कवि का प्रमुख काम उसके समय के यथार्थ को मुखरित करना होता है. कवि की इस भूमिका का निर्वाह बद्री नारायण अपनी इस नई कविता पुस्तक में  बखूबी करते हैं .  “हम” (पृष्ठ 105) में वे कहते हैं:
कुछ हमें सताते हैं ,
कुछ को हम सताते हैं
एक दूसरे को सताते हुए
हम इस सभ्यता को आगे बढ़ाते हैं 
……………
कुछ का हम तेल चुआते हैं
कुछ हमारा तेल चुआते हैं
कुछ हमें दुखाते हैं
कुछ को हम दुखाते हैं
एक-दूसरे  से ऐसे ही जुड़कर हम
एक राष्ट्र बनाते हैं
………….
अनेकताओं के कत्ल पर
‘एकता ‘यहां लेती है आकार
खंड –खंड को मार-मार
‘अखंडता’ आती है
हुजूर ! माई-बाप, सरकार
क्या कहूं, क्या न कहूं
ऐसे जनतंत्र की जम्हाई से
आती है फासीवाद की बास  
                    
हमारे समय के जिस एक महत्वपूर्ण विषय को कवि इस संग्रह में एकाधिक बार उठाता है वह हमारे देशज विचारों की निरंतर मृत्यु का है  .“लगाओ गुहार ”( पृष्ठ 41) में वह कहता है :
तीसरी दुनिया में अभी भी चल रहा है
विचार का एक दुर्धर्ष संग्राम
और दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि
देशज विचार लगभग हारने के क़रीब हैं

……..थोड़े क्षण के लिए दिल्ली और केपटाउन की माया से मुक्त होओ
बचाओ अपने को क्रिओल में बदलने से
लगाओ गुहार
कि बच सके देशज विचार
और कहीं नहीं तो
गिरि-पर्वत , जंगल-झाड़ में ही
उनके भी पक्ष में चलाओ
एक हस्ताक्षर अभियान

अपनी  इस बात को कवि  इसी संग्रह की एक अन्य कविता “विचार मृत्यु ”( पृष्ठ 39) में अधिक स्पष्ट रूप से कह पाता है :
नये नये गेजेट्स
मोटोरोला ,…नोकिया
यूनिनॉर,…….
एयरटेल
ये मात्र मशीनें नहीं हैं
विचार हैं
……..
विचारों के प्रवाह के मार्ग हैं
उनमें स्वप्न देखता है
सिलिकॉन वैली
दिल्ली की आंखों से

मोदी आएं या केजरीवाल
आंखें तो वही रहेंगी
और वही रहेंगी पुतलियां
निक्सन रहें , क्लिंटन
या ओबामा
स्वप्न भी वही रहेंगे
मड़ियाहूं को तो जीत लिया
चिली,मकाऊ और
नदियावां पर भी राज करना है

गांव सिर्फ़ गांव नहीं थे
विचार थे

धीरे-धीरे मर रहे हैं गांवों के विचार
यह हम समझ नहीं पा रहे हैं
पर स्वर्ग में गांधी जी
और जंगीगंज में रात में रोते हुए सियार
इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं
हमारे समय में  लोगों के जीवन  की  कई अन्य विशेषताओं की ओर भी यह कवि हमारा ध्यान खींचता है. उदाहरण के लिए हम  “सपने सरकारी” (पृष्ठ 101) को देखें :
मेरे पास
क्या नहीं है  ?
हाथी है ,घोड़ा है ,
हीरा और मोती है
नग और नगीना है
बांकी हिरनिया है
प्रधानी, प्रमुखी, चेयरमैनी है

फिर क्यों हर क्षण मेरे मन में आता रहता है
भिक्षावृत्ति का भाव

मैं मांगता ही रहता हूं
कभी इससे
कभी उससे
जैसे रस्सी में ऐंठन होती है
वैसे ही मेरी नसों में
क्यों भरा रहता है जी हजूरी का भाव
……..
मेरे मन का रंग खाकी है
और सपनों का रंग सरकारी

इसी तरह “रानी तेरा नौकर” (पृष्ठ 34) में वह जहां एक ओर आरक्षण नीति से प्रभावित उच्चवर्गीय लोगों  की प्रतिक्रिया के बारे में प्रश्न करता है वहीं वह उससे लाभान्वित लोगों का अंतिम लक्ष्य उस उच्चवर्ग का ही एक हिस्सा हो जाने के बारे में भी  काव्यात्मक टिप्पणी करता है :
रानी तेरा नौकर
जो तुम्हारा चप्पल चमकाता था
तेरे घोड़ों की करता था मालिश
आज सूटेड-बूटेड
तेरे राजभवन में किताब पढ़ रहा है .
तुझे खुशी हुई कि दुख  !
तुझे हैरानी हुई कि परेशानी 
………………..
तुझे …जानकर आश्चर्य होगा रानी
कि तुझसे आज़ादी के इतने सालों बाद भी
…………
वह तुम्हारी जीवनी पढ़ रहा है
……..
और मुग्ध हो किलक-किलक
अपने बच्चों को भी सुना रहा है
तुम आज भी उसमें कितनी जीवंत हो रानी  !


अपने मूल स्थानों से निरंतर उखड़ते जाते लोगों के सन्दर्भ में भी इस कवि के मन में कई तरह के विचार आते हैं जिन्हें हम इस संग्रह की अंतिम कविता “पहचान” (पृष्ठ 111) में भली भांति देख पाते हैं
अजब कन्फ्यूजन है इस समय में
सब अपनी –अपनी पहचान से त्रस्त हैं
किसी के लिए पहचान शक्ति है
किसी के लिए सज़ा
……….
कोई असली खांटी मूल निवासी
होने का दम भरता है
पर सच तो यह है लोगों 
जो अपने को जहां का समझता है
सच मानो वह वहां का नहीं है


इस कविता  में बद्री नारायण लौकिक  का वर्णन करते हुए अपनी कुशल सहजता से एक दार्शनिक आयाम भी जोड़ देते हैं :

…यह दुनिया कंजूस मालकिन की
सराय है
जहां पर हर क्षण सबको अपना बिस्तरबन्द
पैक रखना है
कब  हो जाए जाने का आदेश
कोई ठीक नहीं .

बुरूंस के फूल (पृष्ठ 27)  उस विशिष्ट प्रकार की प्रेम कविता है  जिसमें प्रेमिका की अनुपलब्धि को ही प्रेमी अपनी उपलब्धि के रूप देखता है . इसे एक तरह से   ग़ालिब के “ये न थी हमारी किस्मत कि विसाले-यार होता ” वाले प्रेम-भाव का  विस्तार कहा जा सकता है :
आकाश में उड़ता एक लाल पतंग मुझे समझाता है
कृष्ण भी तो राधा से कितना दूर रहे थे
कि मालूशाही भी कितना तड़पा था
राजुला के लिए
……….
कि नेहरू को भी लेडी माउंटबेटन कहां मिली
 ……..
कि बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन जिस
भीलनी औरत के प्यार में थे पागल
वह भीलनी उन्हें मिलकर भी कहां मिल पाई
कि मिलने की सम्भावना का बिल्कुल न होना
कि मिलते मिलते न मिल पाना
कि न मिल पाने के लिए छूट जाना
कि मिल मिल कर छूट जाना
यह सब तो है पार्ट ऑफ लाइफ
समझा रहा है मुझे
आकाश में उड़ता पतंग  .
न केवल इस संग्रह की कविता “स्थायी भाव”( पृष्ठ 73) में बल्कि “मेरे पास कुछ नहीं था ”( पृष्ठ 78) और “कोई नहीं है ”( पृष्ठ 97) जैसी कुछ अन्य कविताओं में भी बद्री नारायण अकेलेपन को हमारे समय के स्थायी भाव के रूप में देखते हैं :
उड़ते पीले पतिंगे को ड्यूटी पर जाना है 
गौरेया के लिए एक ज़रूरी मीटिंग पहले से तय है
तितली का किसी के संग डेट है
………
किसी के पास भी वक्त नहीं है कि
उस पत्ते से पूछ सके कि
………
क्या दुख है तुम्हें
बगल में डाल के पत्ते अपने-अपने
परिवार में मशगूल हैं
यह कैसी दुनिया
तू बना रहा है हे खुदा
जिसमें इस पत्ते से
इसका दुख पूछने वाला कोई नहीं है .
जिसे सिर्फ तर्कसंगत से व्यक्त नहीं किया जा सकता उसी को अभिव्यक्त करने की कोशिश लोक-कथाएं और मिथक करते हैं . हमारे आज के भौतिक,वैज्ञानिक और तर्कसंगत तथ्यों का मिथकीय और लोक-कथात्मक के साथ फ़्यूज़न बद्रीनारायण जैसे आधुनिक  कवि की संवेदना की अपेक्षा रखता है . उनके इस गुण को हम उनकी “ कुरता और लड़की” (पृष्ठ 54) जैसी कविताओं में देखते हैं जहां वे कविता के इन परम्परिक औजारों से मानवीय प्रेम के एक गहरे स्तर का अन्वेषण करने में सफल होते हैं   :
एक कुरता था
एक लड़की
……..
जब भी वह उसे
मेरे देह पर देखती
मुग्ध हो जाती

धीरे-धीरे वह कुरता पुराना
होता गया
……..
धीरे-धीरे वह लड़की
उस कुरते से उदासीन होती गई ,
…………
मैं उस कुरते को ले कोरी के पास गया
कोरी ! कोरी ! इस कुरते के धागों को फिर से नया कर दो
उसने कहा, यह मेरे बस में नहीं

फिर रंगरेज के पास गया
रंगरेज  ! रंगरेज  ! इस कुरते को फिर से रंग दे
उसने कहा, यह मेरे बस में नहीं,
उसी वक्त करवा चौथ के लिए आकाश
पर आए चांद ने कहा,
यह काम न दुनिया कर सकती है , न देवता
उसे नया सिर्फ़ वह लड़की कर सकती है ,
जो इस पर पहली बार
मुग्ध हुई थी.

बेकसूर के साथ अन्याय और ज़्यादतियों से जो करुणा-भाव उत्पन्न होता है वह किसी संवेदनशील कवि के लिए नया नहीं है. वस्तुत: वही भाव उसे अतीत के कवियों से जोड़ता भी है. इसी तरह किसी के प्रति तीव्र प्रेम से उत्पन्न पूर्वजन्म के बन्धन का भाव भी साहित्य में बार-बार अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाता है. इस संग्रह की कविताओं “मेरा कोई एक पता नहीं है” (पृष्ठ 18) और “पिछले जन्म की याद ” (पृष्ठ 21) को समझने के लिए हमें कविता की इन परम्परिक विशेषताओं की ओर ध्यान देना होगा .
हमारे समय के तेज़ी से पनपते भोगवाद, बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद  को बद्री नारायण  स्पष्टत: मृत्यु से जुड़ा देखते हैं :
आनंद, वैभव, खुशियों की तलाश में
मॉल, हाइवे,फ्लाइओवर से गुज़रते
तुम पहुंच  रहे हो
एक महाबाज़ार में
उसी बाज़ार के बिल्कुल बग़ल से
खुलता है मृत्यु लोक का एक महाद्वार
………
ज़िन्दगी की हंसी खिलखिलाहटों के बीच
यह दुनिया है एक महाश्मशान
हीरे में भी पत्थर होता है तुम क्यों नहीं समझते
…………
तुम चाहते हो इस जीवन के हर आनन्द को भोग लेना
परंतु तुम यह क्यों नहीं समझते
कि चार्वाक दिल्ली में महाभोग के बाद भी कितना दुखी है
और शाहदरा की किसी गली में बैठा फूट-फूट रो रहा है

“बेगमपुरा एक्सप्रेस” की तरह ही इस कविता में भी वे इस भौतिकता से जुड़ी मृत्यु और दरिद्रता क विकल्प कबीर जैसे संतों की वाणी में देखते हैं:
…तुम फिर से उस हंसा को
क्यों नहीं करते याद
जो हरे गाछ से उड़ान भरने को
न जाने कब से खड़ा है
तैयार !
भौतिक इच्छाओं, इन्द्रियभोगों और सत्ता-कामना के पीछे अन्धाधुंध भागते और उन्हीं की अग्नि में जल मरते आज के औसत इंसान का वर्णन हम इस संग्रह की कविता “एक पन्डुक की रिपोर्टिंग” (पृष्ठ  24) में भी पाते हैं :
मेरे साथ आई महरि चिड़िया
आज भी रहती है
यहीं कहीं साउथ दिल्ली में
रोज आधी रात के बाद
मैं जली !  मैं जली !!
चीखती हुई . 


मेरी मान्यता है कविता का आकाश जहां केवल मूर्त और भौतिक से भरता जा रहा हो वहां तुमड़ी के शब्द  जैसे काव्य-संग्रह का प्रकाशन हिन्दी के पाठकों को पुन: कविता के उस समृद्ध  अनुभव-संसार की सैर करवाने में सफल होगा जिससे उनका सम्पर्क छूटता जा रहा है.
___________
सदाशिव श्रोत्रिय
5/126, गोवर्द्धन विलास हाउसिंग बोर्ड कोलोनी,
हिरन मगरी , सेक्टर 14,
उदयपुर –313001  (राजस्थान)
मोबाइल –8290479063 
Tags: बद्री नारायण
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