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रिनाला खुर्द
ईशमधु तलवार
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002
प्रथम संस्करण-2019
पृष्ठ सं-160
मूल्य- पेपरबैक्स- रू. 150
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“रिनाला खुर्द पढ़ने के बाद लगा, जैसे मैं नीम का कोई पेड़ हो गया हूँ और उस पेड़ से लिपटकर कोई चुपचाप रो रहा है, क्योंकि जिससे वह प्यार करता है, उसने कहा था कि कभी रोना हो तो पेड़ से लग कर रोना, इंसान अब इस काबिल नहीं रहे.”
समकालीन उपन्यासों से कुछ अलग कथानक और संरचना-शिल्प के स्तर पर भी यह प्रेम के छोटे-छोटे प्रंसंगों के माध्यम से सरहदों पर खींची गई नफरत की दीवार की भयावहता को भी समझने की कोशिश करता है जिसमें मानवता और प्रेम के सूखते हुए स्त्रोत को बचाने का भरसक प्रयास है. इस राग और विराग से भरे बेहद पठनीय उपन्यास में एक साथ कई कहानियाँ एक दूसरे के समानांतर साथ-साथ चलती हैं.
हिंदुस्तान में मेवात के किसी छोटे से गाँव‘बगड़’ की रहने वाली मासूम खूबसूरत लेकिन निडर लड़की जंगल में भेड़-बकरियाँ चराने वाली नरगिस बंटवारे के बाद सरहद के उस पार पाकिस्तान में लाहौर के पास किसी इलाके में रहने उस मुल्क की मशहूर लोक-गायिका बन चुकी है. इधर बचपन में नरगिस के साथ स्कूल जाने वाला, खेलने वाला, राबड़ी खाने वाला और दिन-रात उसके साथ रहने वाला, उससे शादी करने के सपने देखने देखने वाला नायक मधु सरहद के इस पार भारत में भूगोल की उच्च शिक्षा के बाद पुरातत्व-आर्कियोलोजी का विशेषज्ञ बन चुका है.
नायक मधु की माँ जिसे वह ‘चाई जी’ कह कर पुकारता है, वह सरहद के उस पार पाकिस्तान में विभाजन के समय ‘रिनाला खुर्द ’में अपना घर, खेत, असबाब- सामान ही नही, अपना एक ऐसा जरूरी संदूक भी छोड़ आई हैं जिसमें उनकी कई रचनाएं कविता- कहानी,पत्र जो रिसालों में छपी और जीवन भर की पूरी-अधूरी जीवन भर की यादें भी हैं. इस पूरे उपन्यास में चाई जी उन दर्द भरी स्मृतियों और साझे अनुभवों के बक्से से कुछ न कुछ निकाल कर याद करके रो देती और भावुक हो जाती हैं जिसमें उनकी तड़प को महसूस किया जा सकता है और खो चुके रिनाला खुर्द की गलियों के लिए उनके असीम लगाव को पाठक भी संवेदना के स्तर पर अनुभव करता है.
तुम्हारी याद के परचम खुले हैं राहों में
यहाँ की धरती यहाँ के लोग भी बिल्कुल एक जैसे हैं और दोनों मुल्कों में मोह्ब्बत का पुल बनाना चाहते हैं. सलमा यहाँ आकार एक विख्यात गायिका बन गई लेकिन न वह बचपन के गाँव की मधुर यादों और न अपने प्रेमी मधु को कभी भूल पाई थी. सलमा और मधु जब दोबारा मिलते हैं तो जैसे उनके अनकहे प्यार की, दर्द की एक नदी फिर से प्रवाहित होने लगती है. पति के द्वारा आरम्भ से ही शारिरिक-मानसिक प्रताड़ना सहने वाली सलमा के कडवे, उदास और निरर्थक जीवन में मधु जैसे पुन: एक उम्मीद और प्रेम का स्त्रोत बनकर दाखिल होता है. स्त्री के शोषण और नियति, उसके स्वतंत्र अस्तित्व से जुड़े त्रासद सवाल दोनों मुल्कों में एक जैसे ही हैं. अपने अतीत और खोये हुए सच्चे प्यार को याद करके मधु और सलमा अपने सुख-दुख बांटते हुए भविष्य में फिर एक साथ रहने के सपने देखते हैं लेकिन बीच में सरहद की कँटीली दीवारें और फासले आ जाते हैं जिसकी वज़ह से अपने-अपने दुखों के साथ उन्हें जुदा होना पड़ता है.
वापसी के आखिरी दिन रिनाला खुर्द पहुंच कर मधु किसी तरह चाई जी के उस बक्से को तलाश कर लेता है जो उनके जीवन का एकमात्र सपना था. लेकिन वहाँ की पुलिस उसे उसे संदेहास्पद गतिविधि समझकर बंदी बनाकर रख लेती है. जेल में अनेक यातनाएं सहने के बाद मधु को अपने मित्र इरशाद अमीन की मदद और भारत सरकार के पुख्ता सबूतों की वज़ह से उसे रिहा किया जाता है. हिन्दुस्तान वापस आने तक चाई जी इस गम से बेहद बीमार हो चुकी हैं और उनकी भी मृत्यु हो जाती है. पैतृक गाँव बगड़ में चाई जी का अंतिम संस्कार करने के बाद मधु को खबर मिलती है कि सलमा ने भी पाकिस्तान में मधु से बिछड़ने के गम और नाउम्मीदी में आत्महत्या कर ली. इस दोहरे दुख और त्रासद अंत के साथ मधु ज़िन्दगी में जैसे अपना सब कुछ खो देता है. सरहदो के फासलों ने उस प्रेम की नदी को फिर से विलुप्त कर दिया था जो दोनों देशों के दिलों को जोड़ने का कारण बन सकती थी –
सामने ही नीम का पेड़ था. मैंने नीम का पेड़ बाहों में भरा और मेरी आंखों से आंसू बह निकले. सलमा के शब्द मेरे कानों मे गूंज रहे थे- “पेड़ से चिपक कर ही रोना. इंसानों के सामने रोने से कोई फायदा नहीं.” आँसुओं के बीच एक ऐसी नदी थी जो बाहर से भीतर आ रही थी और एक नदी जो भीतर से बाहर निकल कर उफन रही थी. ..सरहदों के नीचे आज एक और नदी दफन हो गई थी. पुल भी टूट गया था. अब पता नहीं सरहद से कब किस नदी के सोते फूटेंगे?… मुझे सपने से जगाने वाली चाई जी नहीं थी. मेरी नींद टूटी. अब सलमा कभी नहीं मिलेगी.
इस उपन्यास में मधु अपनी नरगिस को नहीं, या चाईजी अपनी संदूक को ही नहीं खोजते, इसमें सियासत की शतरंज पर बिसात बनाकर दो टुकड़ों में बाँट दिये गए दो शरीर, अपने अलग कर दिए गए रिश्तों, खेतों-खलिहानों, घर- बगीचों और जैसे अपने ही जिस्म से अलग काट दिए अंगों की खोज में विकल भटकते हैं. 1947 में देश विभाजन पर बहुत सी कहानियाँ-उपन्यास लिखे गए हैं, फिल्में बनी हैं. लेकिन यह उपंयास अपने लघु आकार में बड़ी कथा इसलिए भी कहता है कि यह विभाजन के बाद की स्मृतियों का विचलन कारी वृतांत है. महत्वपूर्ण यह है कि ये स्मृतियाँ सिर्फ कुछ पात्रों की निजी स्मृतियां नहीं रह जातीं, वे दो देशों, दो समुदायों, दो इतिहासों और मिथकों के अटूट, अविभाज्य, निरंतर अंतर्संबंधों की कहानी भी बन जाती हैं.
हिंसा, रेगिस्तान, उजाड़, फौज, सियासत, संदेह और युद्ध के साये तले दहशत से साँस लेती धरती के गर्भ में, चुपचाप बहती हुई विलुप्त नदी सरस्वती की तलाश सिर्फ ‘सप्तसिंधु’या हड़प्पा सभ्यता की खोज भर नहीं रह जाती, वह बुल्ले शाह, वारिस शाह, परवीन शाकिर,मेहदी हसन, नूरजहाँ, मंटो, नुसरत फतेह अली खाँ के करीब जाने और भीष्म साहनी-बलराज साहनी के पिता के पेशावर से जुड़े जीवन के संघर्ष को देखने के हासिल में भी बदल जाती है.”
मधु ने जीवन भर चाई जी को दर्द के इस दरिया से गुज़रते हुए बचपन से अब तक देखा था. रिनाला खुर्द की नहरें, बाग-बगीचेचाई जी की यादों में बसे थे जो उम्र भर उन्हें बेचैन करते रहे. पाकिस्तान में भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो अपनी ज़मीन छोड़ने की टीस को आज तक जख्म की तरह सीने में लिए बैठे हैं. भौगोलिक हलचलों से दोनों मुल्कों को जोड़ने वाली नदियाँ दफन होती रहीं, वक्त के साथ रास्ता बदलती रहीं, सरहद के कंटीले तारों में इन्सानी रिश्ते भी दम तोड़ने को मजबूर हुए लेकिन अवाम के दिलों में बहने वाली मोहब्बत की नदी अभी पूरी तरह सूखी नहीं. मानवीय संवेदनाओं से जुड़े रोचक और भावुक किस्सों के अनेक स्त्रोत भी इस उपन्यास में पाठक का ध्यान अंत तक नहीं हटने देते.
उपन्यास की कथा की धुरी तो वर्तमान है जहाँ से अतीत में दाखिल होते हुए भविष्य के स्वप्न भी मधु और सलमा संजोते हैं. संबंधों के टूटते-बिखरते लम्हे और कथासूत्रों को इतिहास की एक वृहद रेंज तक फैलाना- निर्वाह करना एक दुष्कर काम है जिसे ईशमधु तलवार जी ने बतौर कथाकार बहुत खूबी से संयोजित किया है. स्मृतियों के सहारे घटनाओं और प्रसंगों को सजीव करनाऔर कथा को खूबसूरत बनाने के लिये प्रत्येक अध्याय के उपशीर्षक के बाद उर्दू शायरी और अशआरों से कथा को फिर से सूत्रबद्ध करना, सलमा के गाये मेवाती मारवाड़ी लोक-गीतों और पाकिस्तान के पंजाबी संगीत की विरासत से जुड़े जीवन के विभिन्न पक्षों को सघन बुनावट के साथबहुत संवेदनशील और कलात्मक रूप से कथा में गूँथा गया है जो पाठकों को एक प्रभावपूर्ण तरीके से आकर्षित कर लेते हैं और कथा जैसे भावनाओं की एक स्वच्छंद नदी की तरह कल-कल करती प्रवाहित होती रहती है –
मोहे पिया मिलन की आस वा
राजस्थानी- मेवाती लोक शब्दों के साथ पंजाबी-उर्दू का खूबसूरत समन्वय भाषा शैली को कलात्मक व आत्मीय स्तरपर स्थानीय संदर्भों और मिट्टी की खुशबू से कथा को जोड़े रखता है. लेखक की संवेदनशीलदृष्टिकथ्य और शिल्प के विलक्षण तालमेल में इतने कौशल से मधु और सलमा की जीवन कथा के माध्यम से अनेक प्रसंगों से जुड़ती–टकराती, दोनों मुल्कों के मार्मिक प्रसंगों को उघाड़ती इतिहास के हादसों और वर्तमान के रिश्तों को इस बारीकी से खोलती जाती हैं कि संवेदना के स्तर पर पाठक भी अत्यंत गहराई से उनसे जुड़ जाता है. यहाँ विभाजन कोई दहशतनाक घटना या दुर्घटना भर बन कर नहीं आता,बल्कि वह इतिहास का एक जलता हुआ टुकड़ा है जो इस उपन्यास के सभी किरदारों के रूप में मनुष्य की रूह में दाखिल हो गया है. इस जलते हुए नासूर ने इन्हें जीवन भर कभी धधकाया और कभी बुरी तरह झुलसाया.
आत्मा को ज़ख्मी करने वाली यह तकलीफ ताज़िंदगी इन का पीछा करती रही और चेतन-अवचेतन को बार-बार घेरती रचनाकार को मानवता के लिए बची हुई गुंजाईश को बचाए रखने के लिए प्रेरणा स्त्रोत देती रही.समकालीन परिस्थितियों और राजनीतिक-वैश्विक संदर्भों में सरहद की सीमाओं को लाघंकर अनेक मानवीय कोणों से, एक नयी और प्रासंगिक ईमानदार दृष्टि से लिखा गया यह उपन्यास हमारे समय से भी और उन प्रश्नों से भी जुड़ जाता है जिसमें तमाम भिन्नताओं और विरोधों के बावज़ूद हम मनुष्य है और मानवीय संवेदनाओं का विभाजन नामुमकिन है. यह उपन्यास इस सच की तसकीद भी करता है कि भारत-पाकिस्तान को युद्ध, डिफ़ेंस और रक्षा- बजट न बढ़ाकर आपसी मोहब्बतों का बजट बढ़ाना चाहिये.
अपने मुक्कमल रूप में यह उपन्यास पाठकों की चेतना में अपनी इसी अंतरंगता और गतिशीलता के साथ जीवंत रूप में घटित होता है जो ‘रिनाला खुर्द’के रूप में समकालीन उपन्यास की सफलता और उपलब्धि भी है.