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Home » परख : वैधानिक गल्‍प (चन्दन पाण्डेय) : श्रीकान्‍त दुबे

परख : वैधानिक गल्‍प (चन्दन पाण्डेय) : श्रीकान्‍त दुबे

राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित कथाकार चन्दन पाण्डेय का उपन्यास ‘वैधानिक गल्प’ इसी पुस्तक मेले में लोकार्पित हुआ है. इस उपन्यास पर यह पहली समीक्षा श्रीकान्‍त दुबे द्वारा आपके लिए.  धधकते वर्तमान का आईना है उपन्‍यास ‘वैधानिक गल्‍प’ श्रीकान्‍त दुबे चंदन पांडेय के नवलिखित और पहले ही उपन्‍यास ‘वैधानिक गल्‍प’ का वाचक नैतिक पशोपेश की अवस्‍था […]

by arun dev
January 7, 2020
in समीक्षा
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राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित कथाकार चन्दन पाण्डेय का उपन्यास ‘वैधानिक गल्प’ इसी पुस्तक मेले में लोकार्पित हुआ है. इस उपन्यास पर यह पहली समीक्षा श्रीकान्‍त दुबे द्वारा आपके लिए. 





धधकते वर्तमान का आईना है उपन्‍यास ‘वैधानिक गल्‍प’
श्रीकान्‍त दुबे


चंदन पांडेय के नवलिखित और पहले ही उपन्‍यास ‘वैधानिक गल्‍प’ का वाचक नैतिक पशोपेश की अवस्‍था में एक जगह सोचता है कि, ‘‘उन सिपाहियों के सामने मेरुदंड निकालकर मेरा रख देना मनुष्‍यता में गिना जाएगा या नहीं?’’ इस वाक्‍य में ‘उन सिपाहियों’ की जगह ‘तंत्र’ अथवा ‘व्‍यवस्‍था’ शब्‍द रख दिया जाय, तो जिस पशोपेश को दर्शाने वाला वाक्‍य मिलेगा, वह एक वाक्‍य ही इस उपन्‍यास का निचोड़ और हासिल है.
यह उपन्‍यास, कठिन समय में रचनात्‍मक प्रतिबद्धता का स्‍वरूप कैसा हो, के प्रश्‍न का उत्‍तर अप्रतिम तरीके से देता है. यह कहना कहीं से भी हड़बड़ी नहीं होगी कि कुल 141 पृष्‍ठों के इस उपन्‍यास के साथ चंदन के लेखक ने जो ऊंचाई हासिल की है, वह न सिर्फ हिंदी बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के लेखकों के लिए मिसाल सरीखी है, और यह बात मैं पूरी जिम्‍मेदारी के साथ कह रहा हूँ. यूँ तो ‘वैधानिक गल्‍प’ से पहले की चंदन की रचनाओं, जो कहानियां रहीं हैं, में वर्णित तत्‍काल की राजनीति के बारे में भी उनकी अचूक समझ की झलक मिलती रही है, लेकिन किसी समय की ‘राजनीति’ को ही रचना की थीम बना लेने का जोखिम उन्‍होंने पहली बात उठाया है और क्‍या खूब निभाया है.
जबकि हमारे वर्तमान में दुनिया की दस फीसद से अधिक की आबादी द्वारा बोली जाने वाली हिंदी भाषा के ज्‍यादातर लेखक/बुद्धिजीवी समय के विरुद्ध लड़ाई में या तो खुद को अप्रासंगिक पा रहे हैं या फिर विद्रूपों के समक्ष घुटने टेकते नज़र आ रहे हैं, चंदन ने ऐसे ही एक लेखक अर्जुन को अपने उपन्‍यास का वाचक चुना है. उपन्‍यास की कथा जिस बिंदु से उठती है, स्‍पष्‍ट है कि वह समय हमारे आज के जैसा ही कोई विक्षुब्‍ध समय है, लेखक अर्जुन जिससे सामंजस्‍य बिठाते हुए अपने ‘कंफर्ट जोन’ में जी रहा है. ऐसे में (कु)तंत्र की मार उसके अपने ही अतीत के किसी बेहद करीबी शख्‍स अनसूया पर पड़ती है जिसका पति रफीक लापता हो गया है. ऐसे में अनसूया के पास मदद के लिए दुनिया में सिर्फ और सिर्फ अर्जुन का ही विकल्‍प शेष है. लेखक अर्जुन नहीं, व्‍यक्ति अर्जुन. अपने जीवन के अनसूया वाले अध्‍याय के चलते अपने पारिवारिक जीवन के प्रभावित होने की आशंका, और फिर अनसूया तक पहुंचने और उसके बाद हालात को ठीक करने की कोशिशों के क्रम में पेश आने वाली दुश्‍वारियों की सोच वह उसकी पुकार को टाल जाना चाहता है. लेकिन तभी लेखक अर्जुन की पत्‍नी अर्चना खुद आगे आकर अगली ही उड़ान से अनसूया के पास पहुंचने के बंदोबस्‍त करती है तथा अनसूया के लापता पति को तलाशने के लिए अपने तईं हर संभव कोशिश अलग से करती है.
लेखक अर्जुन द्वारा मामले को टाल जाना जहां हमारे समाज के प्रबुद्ध वर्ग के दोहरे चरित्र को दिखाता है, वहीं अर्चना का मामले में आगे आना अपने आसपास से लेकर दूर-दराज तक घटित हो रहे ‘ग़लत’ के प्रति आम जन-मानस की जागरूकता का परिचय देता है और यह दोनों ही हमारे समय का यथार्थ हैं.
(चन्दन पाण्डेय)

कथा के साथ साथ नायक के आगे बढ़ने के क्रम में लगातार उस प्रक्रिया की पोलपट्टी खुलती जाती है, जिसके तहत तंत्र अपनी सुविधानुसार सत्‍य (Convenient Truth) को न सिर्फ तैयार करवाता है, बल्कि हर संभव माध्‍यम से उसका प्रचार-प्रसार कर अपने पक्ष में एक भीड़ भी तैयार कर लेता है. यह सब कुछ चंदन ने जिस भौगोलिक परिवेश में संभव किया है, वह  सुविधासंपन्‍न महानगरीय जीवन से बहुत दूर का एक कस्‍बा है, लेकिन तंत्र के प्रपंच का विस्‍तार वहां तक भी उसी रूप में दिखाई देता है. पेशेवर नैतिकता, जिसका स्‍तर हमारे आज के संचार माध्‍यमों के मामले में पहाड़ों में रात के तापमान की तरह गिरता जा रहा है, के पतन की पराकाष्‍ठा के रूप में एक स्‍थानीय पत्रकार सामने आता है, जो प्रचलित धारणा के आधार पर अनसूया के मुस्लिम पति और उसी के कॉलेज की एक हिंदू छात्रा के लापता होने को एक साथ जोड़कर इसे ‘लव ज़ेहाद’ की आशंका नहीं, मुकम्‍मल खबर छाप देता है. और जैसा कि ऐसे मामलों में आजकल हो रहा है, उसके पास इस बात का कोई आधार नहीं होता है. फिर क्‍या, समूचा पुलिस तंत्र इस मामले को सांप्रदायिक रंग देने तथा ‘लव ज़ेहाद’ साबित करने के लिए सबूत की Manufacturing में लग जाता है और सफल भी होता है.

कहना न होगा कि कथा के समानांतर यहां तक पहुंचते हुए देश में बीते चंद वर्षों में हुई अनेक घटनाएं याद आती रहती हैं और उनके पीछे का सच कैसा रहा होगा तथा किस तरह से तंत्र ने उसे छुपाने या फिर निगल जाने के हर संभव जतन किए होंगे, के भेद खुलते जाते हैं. वे घटनाएं, मसलन, जेएनयू के छात्र नज़ीब का गायब हो जाना, तथा देशव्‍यापी मांग और आंदोलनों के बावजूद उसका पता न चल पाना. विभिन्‍न छात्र आंदोलनों से जुड़े विडियो फुटेज़ को संपादित कर उन्‍हें बहुसंख्‍यक तबके में उन्‍माद भड़काने लायक बना प्रसारित करना तथा बाद में उस विडियो के गलत साबित होने की बात सामने आने पर व्‍यवस्‍था द्वारा पूरी ताकत लगा इस उद्घाटन को ही ग़लत साबित करना, फिर अचानक ही चुप हो जाना तथा समय समय पर सुविधानुसार उस झूठ को सत्‍य के रूप में उद्धृत कर अपने राजनैतिक हित साधना.
यहां, यानी सत्‍य, तक पहुंच जाने के बाद, जबकि लेखक अर्जुन को राहत की सांस लेनी थी, वह अपने सामने और अधिक अंधेरा पाता है. मानो वह झूठ के ऐसे ब्‍लैक होल के पास खड़ा हो, जिसके सामने आने वाले हरेक सच को वह अपने भीतर खींचकर गायब कर देगा और सत्‍य के रूप में देखने को केवल वह झूठा चेहरा ही शेष रहेगा. क्‍या हमारे वर्तमान का य‍थार्थ यही नहीं है?
उपन्‍यास लिखना कोई दो-चार रोज का काम नहीं होता है और यह प्राय: महीनों से लेकर वर्षों की तैयारी की मांग करता है. तिस पर भी यदि लेखक का नाम चंदन पांडेय हो, तो उनकी धैर्यपूर्ण तैयारी में लगने वाले समय की गणना और मुश्किल हो जाती है (उनकी लिखी कहानियों के बीच के समय के अंतराल तथा उनकी भाषा से लेकर शिल्‍प तक में बरते गए धैर्य के मद्देनजर). लेकिन कई बार रचना का विषय इतना सघन होता है कि उसके प्रभाव में लेखक चंद महीनों में ही कई दसक का जीवन जी लेता है (पेरू के उपन्‍यासकार मारियो बार्गास य्योसा की कथेतर पुस्‍तक ‘युवा उपन्‍यासकार के नाम पत्र’ इस बात को अनेक उदाहरणों से समझाती है). ऐसे में चंदन के उपन्‍यास में ठीक वैसी ही घटनाओं की बहुलता चौंकाती है जो उपन्‍यास के छपकर पाठक के हाथ में आने के दिन और समय पर आस-पास में घटित हो रही है. यह न सिर्फ उपन्‍यासकार को एक चेतस प्रेक्षक बल्कि ऐसे लेखक के रूप में भी स्‍थापित करता है जो अपने दायित्‍व के प्रति जितना ईमानदार है उतना ही चौकन्‍ना भी है. अपने वर्तमान के व्‍यवस्‍था‍जनित खतरों का उद्घाटन चंदन ने जिस सटीकता और तीक्ष्‍णता के साथ किया है, उसे ध्‍यान में रखते हुए पुस्‍तक के विमोचन के समय ‘आने वाले समय’ के संदर्भ में एक प्रश्‍न का चंदन द्वारा दिया गया उत्‍तर डराने वाला होता है, जब वह कहते हैं कि आने वाले समय में यह खतरे और बढ़ेंगे.
उपन्‍यास इतना सशक्‍त है कि यदि सीमित शब्‍दों में उस पर बात करनी हो, तो वह समूची शब्‍द सीमा उसके कथ्‍य के बारे में जरूरी बातें करने में ही चुक जाएगी, जैसा इस मामले में मेरे साथ भी हो रहा है, जबकि उपन्‍यास की भाषा और शिल्‍प जैसे पहलुओं की बात भी कथ्‍य के जैसी ही चुस्‍त और अभिनव है.
(श्रीकान्त दुबे)

इस बाबत आश्‍वस्‍त होते हुए कि बिना किसी पूर्वाग्रह के उपन्‍यास को पढ़ने के बाद ज्‍यादातर सुधी पाठकों की राय भी ऐसी ही होगी, मैं यह कहना चाहूंगा कि ‘वैधानिक गल्‍प’ न सिर्फ पाठकों के बेशुमार प्‍यार का हक़दार है बल्कि हर प्रबुद्ध व्‍यक्ति द्वारा इसे अपने समय के जलते यथार्थ के आईने के रूप में लेते हुए इसके प्रसार (प्रचार नहीं) के यत्‍न करने चाहिए. लेखक के कहे हुए के अनुसार ‘वैधानिक गल्‍प’, जो कि हर मायने में एक राजनैतिक उपन्‍यास है, उनके एक उपन्‍यास-त्रयी का पहला भाग है तथा उसका दूसरा भाग भी लगभग तैयार है. ‘वैधानिक गल्‍प’ के पढ़े जाने के बाद उपन्‍यासकार चंदन को लेकर जो उम्‍मीदें बढ़ी हैं, उनके लिहाज़ से यह आश्‍वस्तिकारक है.  

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shrikant.gkp@gmail.com
Tags: वैधानिक गल्प
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