मीना बुद्धिराजा
समकालीन हिंदी कथा-परिदृश्य में स्त्री-लेखन तमाम भेदभावों जाति, वर्ग, वर्ण, लिंग की सीमाओं के बहुत परे अपनी वैश्विक पहचान और अस्तित्व को खोलता हुआ सामने आया है. यह साहित्य स्त्री-अस्मिता, उसकी संवेदना और वैचारिकता को समकालीन परिसर में देखनें का अभूतपूर्व प्रयास है. इक्कीसवीं सदी में उत्तर आधुनिक विमर्शों के दबाव और हाशिये के विमर्शों की केंद्र में उपस्थिति ने पितृसत्ता के खिलाफ स्त्री-कथा लेखन का एक मजबूत पक्ष तैयार किया है. धर्म, राजनीति और परंपरागत पितृसत्ता के घालमेल ने स्त्री की स्वतंत्र अस्मिता, उसके जरूरी मुद्दे और पहचान को सभ्यता के इतिहास में हमेशा हाशिये पर रखा. ऐसे मानवीय संकट के समय में जब एक सशक्त स्त्री रचनाकार की रचनात्मक शक्तियाँ अपने समय से जीवंत संवाद कायम करती हैं तो इतिहास में सदियों से चला आ रहा भेदभाव, असमानता और स्त्री शोषण-उत्पीड़न का अमानवीय चेहरा बेनकाब हो जाता है. आज के कथा-परिदृश्य में ‘किरण सिंह’ इस दृष्टि से सबसे प्रखर, निर्भीक और समसामयिक कथाकार हैं जो परंपरागत लीक से हटकर कर कथा-वस्तु और शिल्प के नये प्रयोगों का इस हद तक जोखिम उठाती हैं कि सभी पुराने प्रतिमानों को ध्वस्त कर देती हैं. स्त्री के पक्ष में उनका साहसपूर्ण लेखन वर्तमान और भविष्य के लिए उसकी स्वतंत्र पहचान का संघर्ष और मुक्ति की उम्मीद के रूप में अत्यंत सजग-सचेत उपस्थिति है.
उनकी कहानियाँ संझा, द्रौपदी पीक, यीशू की कीलें जैसी प्रख्यात रचनाएँ उन तमाम तरह की सत्ता संरचनाओं के खिलाफ भीषण विद्रोह- बगावत हैं जो धर्म, लिंग, जाति, राजनीति, रूढियों और पितृसत्ता के रूप में सदियों से पंरपरा में, समाज की संरचना की भीतरी जडों में समाहित हो चुकी हैं. किरण सिंह का कथा-साहित्य स्त्री-मुक्ति के साथ मानव-मुक्ति के इस अभियान में निरंतर समय की चुनौतियों को स्वीकार कर गहरा सक्रिय हस्तक्षेप है और मानवीय अस्मिता का रचनात्मक-सामाजिक विमर्श उत्पन्न करता है.
इस सृजन-संघर्ष की यात्रा में कथाकार ‘किरण सिंह’ का नवीनतम उपन्यास ‘शिलावहा’ शीर्षक से इसी वर्ष‘ आधार प्रकाशन’ से प्रकाशित होकर आया है जो स्त्री-विमर्श के नये संदर्भों को पारिभाषित करने के लिए बेहद चर्चित और सार्थक उपलब्धि माना जा रहा है. यह उपन्यास ‘अहल्या’ के चरित्र के आधार पर इतने अछूते विषय के साथ लिखा गया है कि पाठक पढ़ कर स्तब्ध-चमत्कृत रह जाता है और उसके बहुत से बने-बनाए मिथ-विश्वास टूट जाते हैं.
सदियों से समाज की बनी-बनाई आस्थाएँ दरक जाती हैं. यहाँ उपन्यासकार किरण सिंह धर्म, संस्कृति और समाज के बनाए बेबुनियाद रुग्ण-छद्म ढांचे को कड़ा प्रहार और आघात करके गिराती चलती हैं. परंपरा और मूल्यों की आड़ में संकीर्ण अमानवीय छत्रछाया में घोर सामंती स्त्री-विरोधी मूल्यों को रचने और उन्हें समाज की मानसिकता पर थोपने वाली पितृसत्ता के षड्यंत्र के बारे में इस उपन्यास में बेबाकी से कथाकार उदघाटित करती हैं. स्त्रियों की मानसिक गुलामी को सदियों तक सामाजिक संरचना की अनेक परतों के अंदर बनाए रखने के षडयंत्र-प्रपंच को ‘शिलावहा’ की कथा न केवल सामने लाती है बल्कि इससे मुक्त होने का अनथक प्रयास भी करती है.
किरण सिहं की साहसिक कलम से अवतरित आज की ‘अहल्या’ अपने प्राचीन मिथकीय चरित्र से बिल्कुल विपरीत एक क्रांतिकारी, निर्भीक और प्रखर बौद्धिक स्त्री है जिसके पास तर्क और विवेक है, जो धर्म की क्रूर व्यवस्था के सभी कुटिल मंसूबों को, पितृसत्ता के हथियार के रूप में जम चुकी रूढियों की विराट शिला को अपने प्रचंड प्रवाह से बहा देने में सक्षम है.कालके इतिहास में अहल्या की स्त्री-आत्मा की यह संवेदना भी दर्ज़ है जो स्त्री चिंतन की राहें तय करते हुए ‘शिलावहा’ में उसे समकालीनता की नज़र से देखनें का लेखिका ‘किरण सिंह’ का महत प्रयास है और जो स्त्री-मुक्ति का नया स्त्रीवादी पुनर्पाठ भी तैयार करता है.
इस औपन्यासिक कृति का आधार लघु होने पर भी रचना फलक अपने विषय में बहुत व्यापक है जिसमें विचार और संवेदना से लेकर अंतर्दृष्टि और सृजन कार्य तक कथाकार नें अपनी क्षमताओं का निरंतर विकास किया है, उसे अधिक निखारा और अचूक बनाया है. कथा की पृष्ठभूमि का आधार और केंद्र पौराणिक चरित्र ‘अहल्या’ है जिसकी परंपरा से चली आ रही मिथकीय कथा को जनमानस में स्थापित किया गया. अहल्या वह स्त्री थी जिसने अपने पति गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में अन्य पुरुष राजा इंद्र से प्रेम संबंध बनाया. इस रहस्य का पता चलते ही दंडस्वरूप उसे गौतम ने पाषाण यानि पत्थर की शिला बन जाने का शाप दे दिया. जिसके अनुसार बहुत वर्षों के बाद राम के वन में आने पर उनके स्पर्श से पुन: उसे स्त्री का रूप मिलेगा और तब अहल्या का उद्धार होगा.
इस प्रचलित कथा को निरस्त करते हुए कथाकार ईश्वर के रूप में राम को प्रश्नांकित और पूरी सांस्कृतिक संरचना को ही चुनौती देती हैं कि अवतार के रूप में उनका ईश्वरत्व ब्रह्म(सत्ता), ऋषिग़ण (धर्म) और दशरथ (पूँजी का स्त्रोत) के गठजोड़ की बिसात पर उत्पन्न एक मोहरा हैं. इसलिए उपन्यास में लेखिका कथानक का सूत्र महाकाव्य वाल्मीकि रामायण की यथार्थवादी कथा के ऐतिहासिक संदर्भों से ग्रहण करती हैं जो मानवीय दृष्टि से अधिक तर्कसंगत है. वाल्मीकि रामायण के बाद सभी रचे गये ग्रंथों और कथाओं में अहल्या ने अपना मूल स्वतंत्र अस्तित्व जैसे खो दिया जबकि रामायण में वह स्वतंत्र चेतना संपन्न नारी है. इतिहास और सामाजिक संरचना में स्त्री-शोषण की परंपरा को बनाये रखने के लिए ‘अहल्या’ के स्वतंत्र निर्णय की शक्ति और दुस्साहस की कथा के पुनर्पाठ से और मिथकों के समय सापेक्ष विमर्श से इस सदी का साहित्य हमेशा क्यों बचता रहा? जबकि सीता, उर्वशी, उर्मिला और द्रोपदी जैसे चरित्रों को बहुत बार नये रूपों में व्याख्यायित किया जाता रहा.
कथाकार ‘किरण सिंह’ अह्ल्या के सदियों से उपेक्षित चरित्र के पुनर्पाठ का, उसके अस्तित्व में निहित संभावनाओं का अन्वेषण करती हैं और उसे आज की प्रासंगिकता के साथ भविष्य को भी एक नयी दृष्टि और स्त्री-चेतना प्रदान करती हैं। नि:संदेह यह एक दुस्साध्य कार्य है जिसे उनकी सशक्त–अपराजेय स्त्री रचनात्मकता ने साकार किया है और यह विलक्षण उपलब्धि है, एक आंदोलन है, सतत संघर्ष यात्रा है.
लोक प्रचलित कथा के अनुसार अहल्या एक मिथक चरित्र है जो योनिजा नहीं है वह एक प्रयोग है. एक यंत्र मात्र और एक दोषरहित सौंदर्य की प्रतिमूर्ति जो सम्पूर्ण ब्रह्मांड में अद्वितीय थी. उसकी रचना ही इसलिए हुई है कि– ‘आर्यावर्त की स्त्रियाँ देखें कि चमत्कारों की अधिष्ठात्री कितने दुख सहकर भी व्यवस्था का पालन कर रही है तो हमारी क्या बिसात.’ इसलिए उसके जन्म के साथ ही ब्रह्म और ऋर्षियों द्वारा इस निर्देश के साथ भरथरियों को प्रचार के लिए भेजा जाता है कि अहिल्या को रुदन, व्यथा के पर्याय के रूप में प्रचारित करते हुए समूची भारतीय स्त्री-जाति के ह्र्दय में असुरक्षा, त्याग, सहनशीलता, संयम और विवशता के भाव को मजबूत किया जा सके. लेकिन किरण सिंह ने स्त्री-जाति की अस्मिता की प्रतिनिधि रचनाकर के रूप में इस प्राचीन मिथक के मर्म को ही उलट दिया है और उसे चुनौती देते हुए उसके स्वतंत्र मौलिक अस्तित्व और स्व की पहचान को स्थापित किया है. मिथकों में अहल्या ब्रह्म पुत्री मानी गई लेकिन शिलावहा में कथाकार ने उसे अपनी सृजन शक्ति और विचार-पुत्री के प्रतीक के रूप में गढा है.
अहल्या के विलक्षण व्यक्तित्व में –‘ताप में तनी रहने वाली बबूल की पत्तियाँ’- अर्थात स्वाभिमान और दृढ संकल्प की शक्ति और ‘रेत में खिलने वाला भटकटैया का पीला फूल जिसे छूने पर इकतारे सा बजता है‘- यानि कठोर और विपरीत हालातों में भी अपने जीवन का उत्सव मनाने की सृजनात्मक-रागात्मक जिजीविषा, आशा, संवेदना और इकहरे बाँस के अंदर की तरलता जो पाताल से भी जल की नमी खींच सकता है- जिनका सामूहिक रूप है ‘शिलावहा’ का शाश्वत स्त्री- चरित्र. ‘अहल्या’ जो अपनी मूल संरचना में इस उपन्यास में सदानीरा की तरह एक उद्दाम नदी के रूप में प्रवाहित-स्पंदित होती है और उसकी लड़ाई जड़ता के विरुद्ध है-
‘’मुझे बहने को न मिले तो मैं मर ही जाऊँ.‘’
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(अहल्या : राजा रवि वर्मा) |
वाल्मीकि रामायण में इस उपन्यास के नामकरण का स्रोत मिलता है जब भरत वन मार्ग से अयोध्या लौटते हैं- ‘’तदनंतर सत्यप्रतिज्ञ भरत ने पवित्र होकर ‘शिलावहा’ नाम की नदी का दर्शन किया जो अपनी प्रखर धारा से शिलाखंडों, बड़ी बड़ी चटटानों को भी बहा ले जाने के कारण उक्त नाम से प्रसिद्ध थी. उस नदी का दर्शन करके वे आगे बढ़ गए और पर्वतों को लाँघते हुए चैत्ररथ नामक वन में जा पहुँचे.
सत्यसंध: शुचिभूत्वा प्रेक्षमाण: शिलावहाम.
अभ्यगात स महाशैलान वनं चैत्ररथं प्रति.‘’
‘शिलावहा’ उपन्यास में कथाकार एक सचेतन जीवंत स्त्री अहिल्या को शिला बना दी जाने वाली कथा को पीड़ा, आक्रोश और स्त्री-शोषण की अनंत त्रासदी के रूप में देखती हैं. इस नयी और मौलिक कथा-चरित्र की रचना के केंद्र में सदियों से स्थापित पितृसत्तात्मक सँस्कृति की जडों को समूल नष्ट करने का स्त्री का आह्वान, प्रतिरोध और विद्रोह की घोषणा के रूप में स्त्री-मुक्ति का आख्यान है. जिसमें सिर्फ देह मुक्ति ही नहीं वैचारिक गुलामी का विरोध, संघर्ष और कर्म सौंदर्य के रूप में स्त्री की दृढ़ता के साथ व्यापक मानवीय अस्मिता का विमर्श भी शामिल है. अहिल्या के मिथकीय चरित्र के आवरण को हटाकर यह महागाथा ब्राहमणवादी पितृसत्ता, वर्णव्यवस्था,परंपरा, समाज और धर्म के नीति-नियामकों कीस्त्री-विरोधी कुटिल चालों को बेनकाब करती हुई सपूंर्ण व्यवस्था पर ही प्रश्न चिन्ह खड़े करती है.
यह नई स्त्री-चेतना और मुक्ति का आंदोलन अहल्या के मूलत: जेंडर समानता, न्याय, आत्मसम्मान और स्त्री-पुरुष के मानवीय संबंधों के लिए छेड़े गये संघर्ष की भूमिका है. यह उसके मिथकीय चरित्र का पुनर्पाठ और स्त्री के लिए समाज व सत्ता की सोच को अधिक उदार और जिम्मेदार बनाने का व्यापक प्रयास है जो समूची मानव जाति के सामाजिक, सांस्कृतिक और सभ्यतामूलक विकास के लिए भी अनिवार्य है. अहिल्या की स्त्री-चेतना यहाँ हाशिये की अस्मिताओं, वंचितों, दलितों, उपेक्षितों और शोषितों की सामूहिक मुक्ति के स्वर में अपने को जिस तरह समर्पित करके अपनी हिस्सेदारी निभाती है वह क्रांतिचेतना उत्तर आधुनिक यथार्थ की विमर्शभूमि है. इसमें स्त्री-मुक्ति की चुनौती पुरुषवर्चस्वी समाज संरचनाओं में अपनी स्वतंत्र संभावनाओं की खोजकर के भविष्य के अज्ञात अध्यायों को खोलने की भूमिका निभाने का है. यह निश्चय ही एक कठिन और साहसिक कार्य है जिसमें स्त्री को एक पूरे युग को अपने अंदर नये सिरे से रूपातंरित करना होगा जिसे ‘शिलावहा’ में ‘अहिल्या’ के चरित्र में रचनाकार ने उठाने का जोखिम स्वीकार किया है.
स्त्री के दैहिक, वैचारिक परिष्कार द्वारा उसे यौन-शोषण, लैंगिक-आर्थिक-मानसिक उत्पीड़न से मुक्त करके अस्मिता- आंदोलनों को रचनात्मक स्तर पर आगे बढ़ाना जो स्त्री-मुक्ति की बुनियादी चिंता है. धर्मशास्त्रों के विधि- विधान पर खड़ी व्यवस्था जिसके तहत स्त्री के जरूरी मुद्दों को दबा दिया गया, उन ज्वलंत प्रश्नों से आज का स्त्री विमर्श जूझ और टकरा रहा है. स्त्री मुक्ति का मुद्दा यूटोपिया ही रहेगा या हमारे सामाजिक जीवन का यथार्थ भी बनेगा, यहआज की स्त्री कथाकार की केंद्रीय चिंता है.
इस पूरी पितृसत्ता की सांस्कृतिक-धार्मिक सरंचना के माध्यम से जो षडयंत्र और कुटिलप्रपंच सदियों से इतिहास में स्थापित किया गया. जिसमें ब्रहर्षि गौतम के निर्देशन में समाज के नये संविधान बनाने का सुनियोजित कार्य चलता रहा और इसके तहत उनका मानना था-
‘हमें एक ऐसी व्यवस्था तैयार करनी है कि एक-एक माँस्वंय अपनी बेटी को दूध के साथ ये पिलाए कि वह बेटों से हीन है. स्त्री के मुख से यह निकले कि स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी शत्रु होती है. जब रक्त- मज्जा, हवा- पानी, पत्ती-पत्ती यह मान ले कि स्त्री नीच होती है…तब वह व्यवस्था जिसे क्रांति कहते हैं वह आ जाए तो भी रसातल में पहुँच चुकी स्त्री, कितना भी उपर चढ़े, दोयम श्रेणी की ही बनी रहेगी. अपमान और पराधीनता उसके स्वभाव में आ जाए. हमें प्रलय तक स्त्री को आर्थिक..मानसिक..दैहिक रूप से थूर देना होगा. इसके लिए स्त्री के क्रोध और विचारशक्ति को चार युगों और इसके बाद तक कोई भी युग हो..तब तक के लिये पोंछ दो..’
पितृसत्ता की मुख्य चिंता यही है कि-
‘क्योंकि स्त्री के उठते ही उसकी झुकी हुई रीढ़ और ग्रीवा पर रखा देव युग गिर जाएगा.’इतना भर ही नहीं स्त्री को प्रताड़ित करने के दुर्भाव से योजना यह भी बनी कि- ‘सभी मिल कर कहें-नारी नरक का द्वार..स्त्री योनि पाप का मूल..और यह भी कि लगातार उन्हें स्मरण कराते रह्कर कि तुम सिर्फ दो सूत योनि हो. न बुद्धि न मन.’
यह विधान परंपरा के नाम पर अब तक तक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समाज को संचालित करता रहा है. सृष्टि के पितामह का कथन- ‘समाज को यही बताना कि स्त्री किसी की पुत्री नहीं है..किसी की भगिनी नहीं .. और हम अपनी पुत्रीवत से विवाह करें तो भी देवता हैं..संत हैं.’
शिलावहा में धर्मशास्त्रों के इस पूर्वनिर्धारित षडयंत्र को अहिल्या के तर्कों द्वारा परत दर परत उघाड़ कर रख दिया गया है. आज भूमंडलीकरण के दौर में भी इक्कीसवीं सदी में स्त्री का संघर्ष अधिक जटिल और उस का शोषण इकहरा न होकर दोहरा-तिहरा है. इस के मूल में सांस्कृतिक पारंपरिक कुरीतियाँ. पूर्वाग्रह और स्त्री-विरोधी मानसिकता की गहरी और सूक्ष्म व्यूह रचना है जिसने हमेशा समाज की सोच को नियंत्रित किया है. स्त्री को हीन और भोग्या बनाकर और पुरुष को अधिक वर्चस्ववादी शक्तियाँ देकर लैंगिक विभाजन और दमन-उत्पीड़न की व्यवस्था समाज में हमेशा चलती रही जिसका किसी ने विरोध नहीं किया. किरण सिंह का लेखन स्त्री को पराधीन बनाने वाली इस पितृसत्ता में निहित विवाह, परिवार,धर्म, जाति, वर्ग, लिंग आदि संस्थाओं की स्त्रीविरोधी भूमिका को हमेशा सामने लाता है. स्त्री को शक्तिहीन और विवश करने की यह प्रक्रिया बेहद सूक्ष्म, जटिल और संश्लिष्ट है जिसमें उसे इतिहास में कभी किसी संवाद, विवाद और प्रश्न का अवसर नहीं दिया गया.
‘शिलावहा’ में अहल्या अपने नयी स्थापना में इन्हीं प्रश्नों से सीधी मुठभेड़ करके समाज की संकीर्ण मानसिकता से टकराने का जोखिम उठाती है. वह धर्मसत्ता के पाखंड और उनके बनाए संविधान को चुनौती देते हुए सामाजिकता और दैहिकता के प्रश्नों को समानंतर लेकर चलते हुए पितृसत्ता पर ठीक उन्हीं तर्कों से प्रहार करती है जो उसकी अपनी पहचान के भी सवाल हैं. जनसभा में इंद्र के साथ अपने संबंध को साहस से स्वीकारने पर ब्रहादेव के वर्णव्यवस्था के इस विधान और कठोर नियम परवह प्रश्न करती है-
‘’अहल्या ! तुम जन के समक्ष सोच समझकर राष्ट्रभावना और नये संविधान की हँसी उड़ा रही हो. तुम अच्छी तरह जानती हो कि स्त्री की यौन इच्छा पर कठोर नियंत्रण का नियमरक्त गोत्र की शुद्धता, संपत्ति का हस्तांतरण और सामाजिक अनुशासन के लिए बनाया गया है.‘’
अह्ल्या इसका जो प्रत्युत्तर देती है वह पूरी सास्कृतिक-सामाजिक संरचना में स्त्री पर थोपे हुए नैतिक मूल्यों- आदर्शों के विरुद्ध स्त्रीत्व का प्रखर विद्रोह है और अपनी स्वतंत्र अस्मिता की घोषणा है-
‘’ब्रह्मदेव !.. मेरा हथियार तो प्रेम है जिसे आप हथकंडा कहते- कहते स्वंय प्रेम से दूर हो गये. एक समय में कई कई स्त्रियों को पालतू बनाकर जोतना चाहते हैं…पर प्रेम किसी से नहीं करते. इसलिए एक को भी संतुष्ट नहीं कर सके. ऐसे में स्त्री की यौन इच्छाएँ नहीं दबी तो. नपुंसक समाज ही स्त्री की यौनेच्छा से डरता है. देवताओं. यह बंधुआ और बधिया जीवन मुझे नहीं चाहिए.’
अह्ल्या यहाँ स्त्री-मुक्ति की चेतना से संपृक्त और अपने अधिकारों के लिए सजग- निर्भीक स्त्री के रूप में चित्रित की गयी है. जो फैसले के समय पूरे जनसमाज में यह घोषित कर देती है कि उसकी दोनो संताने गौतम ऋषि की न होकर इंद्र के लिए एकनिष्ठ प्रेम के परिणाम से उत्पन्न हुई हैं. वह साहस और स्वाभिमान के साथ अवसाद और रुदन न करते हुए उपस्थित पितृसत्ता को अपना अंतिम निर्णय सुनाती है जो अभूतपूर्व है-
‘’आप मुझे धर्म ध्वजा थमाने चले थे. मैंने धर्म की धज्जी उड़ा दी. सम्मान और संतान दोनों से हार गए श्रेष्ठ नस्ल के उत्पादक.‘’
प्रख्यात स्त्री-कथा आलोचक ‘रोहिणी अग्रवाल’ नें इस उपन्यास की प्रामाणिक और विशेष भूमिका में यह कहा है कि-
‘शिलावहा उपन्यास में किरण सिंह अहल्या को पत्थर की निर्जीव शिला में रूपायित न कर प्रेम की क्रमिक यात्रा की आत्मान्वेषी पथिक बनाती हैं. सोचती हूँ कि लोक स्मृतियों में पत्थर बन जाने के अभिशाप को ढोती स्त्री के व्यक्तित्व को इतना निस्सीम आसमान और प्रचंड प्रखरता देने की ताकत और प्रेरणा लेखिका ने कहाँ से पाई होगी. क्या हमारे समय के कंटीले यथार्थ से जो अपने मूल चरित्र में अधिकाधिक स्त्रीद्वेषी और परम्परा भक्त होता जा रहा है? लेखिका अपनी कहानियों में पहले से ही अपने स्तर पर पौराणिक कथाओं और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों से मुठभेड़ करती रही हैं. इसलिये किरणसिंह अहल्या को एक बड़ा कर्मक्षेत्र उपलब्ध कराती हैं, सामाजिक कुटिलताओं से ग्रस्त हाशियाग्रस्त अस्मिताओं के हाहाकर को चित्रित करती हैं और अहल्या स्त्री की मानवीय अस्मिता को बचाने का संघर्ष भी करती है.
शिलावहा वर्चस्ववादी शक्तियों के विरुद्ध जिस प्रति- संस्कृति का निर्माण करती है उसमें सांस्कृतिक संरचनाएँ राजनीतिक सत्ता के चरित्र का ही अक्स हैं जिसका अह्ल्या विरोध करती है… शिलावहा स्त्री को पत्थर बना देने की मंशा रखने वाली व्यवस्था पर करारा तमाचा है.यह उपन्यास कथा के प्रवाह से छिटक कर विचार करने का स्पेस देता है कि सजा के कठोर कानूनी प्रावधान होते हुए भी क्यों यौन हिंसा के जघन्यतम अपराधी दंड की हदबंदियों से मुक्त हो समाज (और राजनीति में भी) बाहुबलि की बढ़ी-चढी हैसियत के साथ घूमते हैं.…किरण सिंह पितृसत्ता और वर्ण व्यव्स्था को धर्म सत्ता के सबसे ज्यादा मारक और धारदार हथियारों के रूप में देखती हैं.
‘द्रौपदी पीक’ कहानी में राजनीतिक. आर्थिक,धार्मिक, संरक्षण प्राप्त नागा साधुओं के पाखंड और अपराध को वे अपनी सधी शैली में पहले ही व्यक्त कर चुकी हैं जहाँ पर्दाफाश एक बड़ी सनसनी की तरह नहीं आता, चरित्र के भीतर गहरी पैठ के कारण उसके संवेगों, प्रतिक्रियाओं और कार्यशैली के जरिए बेआवाज़ आता है. ..परिवार,संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति- मनुष्य की सभ्यता यात्रा के तीन महत्वपूर्ण मोडों को एंगिल्स पहले ही स्त्री की परधीनता के मूलभूत कारक मान चुके हैं, लेकिन विडंबना यह है कि स्त्री फिर भी पुरुष को डराती रही है- संवेदना, सहनशीलता में गुथी सृजनात्मकता और क्रांति की दीपशिखा के कारण.’
यह वक्तव्य उपन्यास की कथा के मिथकीय आवरण को हटाकर आज के धरातल पर स्थापित करता है जहाँ पितृसत्ता और धार्मिक-सामाजिक व्यवस्था की पड़ताल करके जिन प्रश्नों को अहल्या के माध्यम से कथाकार ने उठाया है। जिन आदर्शों और स्त्री शोषण के नियमों की नींव पर यह समूची टिकी है, उसकी एक-एक ईंट हिल जाती है और यह अमानवीय ढांचा गिरने लगता है.
अहल्या विकटतम परिस्थियों में भी अपने अस्तित्व के लिये जूझती है, अंत तक संघर्ष करती है और कभी पराजय स्वीकार नहीं करती. इस कथा में परपंरागत कथ्य-वस्तु और शिल्प की परिपाटी को भी कथाकार तोड़ देती हैं और स्त्री के पक्ष में इन रूढियों को तोड़ना जरूरी भी है. उपन्यास के आरंभ की कथा में दशरथ की स्त्री लोलुपता, भोगवादी पुरुष मानसिकता के साथ प्रकारांतर से कौशल्या, सुमित्रा की विवशता और बहुत कम आयु की कैकेयी से अनमेल विवाह की त्रासदी के मर्म को छूने में भी कथाकार की नयी दृष्टि और स्त्री-उत्पीड़न का प्रतिरोध कई बडे प्रश्नों को उठाता है और सीता के संदर्भ में भी लोक मानस में बसी कथा का वास्तविक पुनर्पाठ करने की सार्थक कोशिश करता है. स्त्री के पक्ष में सभी खतरे उठाने का साहस कथाकार को प्रेरित करता है और पाठक की चेतना को जाग्रत कर विमर्श के नये बिंदु पर केंद्रित कर देता है जब एक वाल्मीकि कवि राजसत्ता के विरुद्ध घोषणा करता है-
‘’मैं ईश्वर की सामान्य मानव से भी गई-बीती दुर्बलताएँ लिखूंगा.‘’
शिलावहा की मूल स्थापना यही है कि आज के दौर की हीनहीं किसी भी समय की स्त्री अह्ल्या की तरह पत्थर नहीं बन सकती. स्त्री की यौनिकता की बहस उसके जीवन को किस तरह असहनीय बना देती है जिसके दंश और पीड़ा को झेलना प्रत्येक युग की स्त्री- नियति बन चुकी है लेकिन अह्ल्या आत्मसपर्पण नहीं करती. उपन्यास के अंत में न्याय- जनसभा के समक्ष अहल्या-गौतम का संवाद पितृसत्ता की व्यवस्था को कायम रखने के मूल में पुरुष की कायरता और पाखंडपूर्ण दृष्टि को सत्य के रूप में सामने रखता है-
“स्त्री की ओर चरित्रहीनता का चक्र फेंको और घर बैठे मजा लो.” और आखिरी चोट के रूप में गौतम ऋषि का शाप- “योनि के लिए तुम इतनी प्रताड़ित की जाओ कि तुम्हें अपनी योनि से वितृष्णा हो जाए.. खुल कर प्रेम न कर सको. पत्थर बनो.” और अहल्या को शिला पर पटककर घायल करके आत्मग्लानि लिए हुए घने जंगल में भूखा-प्यासा हवा पर ज़िंदा रहने और मिट्टी पर सोने के लिए नारीत्व के प्रायश्चित के लिए छोड़ दिया गया. परंतु यहाँ अहल्या इस दंड और शेष अवधि को जीवन की नयी संभावनाओं में बदल लेती है. अपने संकल्प को पृथ्वी की तरह अथाह धैर्य, उर्वरता, प्रकृति के साहचर्य, श्रम-संस्कृति और मानव-प्रेम के साथ दलित, शोषित जनों और असहाय स्त्रियों का सम्बल बनकर जननायक की भूमिका का पालन करती है.
निर्जन श्मशान चैत्य की तलहटी और बंजर भूमि को अपने प्रेम और कर्म- श्रम सौंदर्य से बिरवे रोपकर हरे-भरे पेड़ों से और जन-जन से लहलहा देती है. सोलह वर्ष के पश्चात जब शुन:शेप राम के आने की सूचना देता है तो इस नयी कथा में राम अह्ल्या को शापमुक्त और स्त्री-उद्धार करने नहीं प्रकृति, कृषि की उन्नति और दुर्भिक्ष से राज्य को मुक्त करने के लिए अनुभवी-कर्मठ ‘अह्ल्या’ से उपाय और विचार-विमर्श करने के लिए चलकर आते हैं. उपन्यास का यह अंतिम दृश्य अहल्या की अदम्य शक्ति, दृढ़ संकल्प व स्त्री-गरिमा की पराकाष्ठा है-
श्मशान चैत्य की अंतिम सीढी पर अहल्या खड़ी थी. उसने पहली सीढी पर खड़े राम को देखा-
“राम जो जानकारी चाहिये, दी जाएगी. इसके बदले मुक्ति शुल्क नहीं चाहिये. जानते हो, सीता तुम्हें स्वामी नहीं, बार-बार ‘राजा राम’ कह रही थी. आज मुझे इसका अर्थ समझ में आया.. राजा का अर्थ है, अपना राज्य बचाने वाला वणिक. मैं शास्त्रियों के ग्रंथों से तर्क निकालकर अपना कहा सिद्ध कर दूँगी.‘’
राम गर्दन उठाये समझ रहे थे- पतला लंबा शरीर, खुली हथेलियों में कुदाल चलाने से पड़ी गाँठें, पीले गालों पर झांई, सफेद केश…कहीं देखा है इन्हें, हाँ अकाल की सदानीरा में गाड़े गए सूखे बाँस की तरह..जो पाताल से पानी खींच लाता है….
मैं उनसे सच लिखने को कहूँगा.
सच्चाई यह है कि हम अपनी मुक्ति का श्रेय किसी को नहीं देना चाहतीं. दूर-दूर तक देखो, मेरे रोपे हुए पौधे ब्रहमपुरी के बादलों को खींच लेने के लिए बड़े हो रहे हैं. मेरी शाखाएँ, देवत्व की चिता जलाने के लिए तैयार हैं.
और इंद्र से मेरा संदेशा कहना कि लड़ाईयाँ भुजाओं से नहीं कलेजे से लड़ी जाती हैं.‘’
ये संवाद जो किसी भी सुप्तमानवीय चेतना को आंदोलित-जाग्रत करने में समर्थ हैं वही अह्ल्या इसके साथ ये भी कहती रही- ‘’प्रेम में डूबी स्त्रियों के चेहरे सँसार के सबसे सुंदर चेहरे हैं.‘’
प्रेम और क्रांति को एक साथ लेकर जीने वाली अह्ल्या के अप्रतिम चरित्र में मिथक की पुरानी कथा-रूढि को ध्वस्त कर यह उपन्यास नये संदर्भों में स्थापित और रेखाँकित करता है. धर्मसत्ता, समाज और सामंती परम्परा के सभी नियमों को चुनौती देते हुए अह्ल्या जिन विपरीत परिस्थितियों में जीवन और अस्मिता का संघर्ष करती है वह आज स्त्री के सम्मान, न्याय और गरिमा की पुनर्प्राप्ति का भी अनथक आंदोलन व स्त्री का रचनात्मक प्रतिशोध है. वह समाज की संकीर्ण मानसिकता से टकराने का जोखिम उठाकर पुरुष को बेहतर सत्ता का मनुष्य मानने वाले समाज से प्रश्न करती है कि स्त्री आधी आबादी है तो फिर उसे मानवीय गरिमा से वंचित क्यों रखा गया है. स्त्री अब पुरुष सता से किसी अतिरिक्त दया या सहानुभूति की अपेक्षा नहीं रखती और अपने आक्रोश व असहमति को व्यक्त कर रही है.
‘अहल्या’ का संघर्ष मात्र देह्मुक्ति का नहीं बल्कि बौद्धिक रूप से अधिक सक्षम, सामाजिक रूप से ज्यादा सचेत और परिपक्व है. ‘अहल्या’ के माध्यम से स्त्री की वास्तविक स्थिति, संभावनाओ और सदियों की दासता की दारुण स्थितियों से मुक्ति की दिशाओं का उद्घाटन हुआ है. स्त्री की नयी पहचान को स्थापित करते हुए कथाकार ने यह प्रमाणित किया है कि समाज में हर तरह के शोषण और अत्याचार का उपभोक्ता प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से स्त्री ही होती है चाहे वह धार्मिक कुरीतियाँ हो, यौन हिंसा या आर्थिक पराधीनता सबसे बुरा प्रभाव स्त्री पर हुआ है.
अहल्या इन बंधनों को तोड़कर त्याग और संयम जैसे आरोपित मूल्यों को नकार कर स्त्री की स्वंतत्र अस्मिता को मानवीय ईकाई के रूप में मुक्ति का मुख्य मुद्दा बनाती है. इस संघर्ष पथ पर तैनात रहने के लिए ज्यादा तर्कसंगत दृष्टि, सुलझा हुआ गंभीर व्यक्तित्व और संकल्प शक्ति जैसी क्षमताएं उसके पास हैं. शिलावहा में‘ अहल्या’ के रूप में कथाकार किरण सिंह की यह नयी संकल्पना हिंदी कथा-साहित्य में अभूतपूर्व है. इस उपन्यास के केंद्र में स्त्री जीवन की ज्वलंत और भयावह समस्याएँ हैं, उन मर्यादाओं की तीक्ष्ण-कड़ी आलोचना है जिन्होनें वस्तु से व्यक्ति बनने की प्रक्रिया में हमेशा स्त्री समाज का खुला दमन और शोषण किया. आज स्त्री अपनी भूमिका पहचान कर रही है अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठा रही है. वर्जीनिया वुल्फ ने कहा है- ‘’स्त्री का लेखन स्त्री का लेखन होता है, स्त्रीवादी होने से बच नहीं सकता. अपने सर्वोत्तम में वह स्त्रीवादी ही होगा.” इस अर्थ में यह उपन्यास स्त्री को व्यवस्था की गुलामी से मुक्त करके उसे एक आत्मनिर्णायक स्वतंत्र व्यक्ति की पहचान के रूप में स्थापित करने का सार्थक प्रयास है.
एक मिथकीय और अनछुई कथा और स्त्री-चरित्र को नये कलेवर में प्रस्तुत करके कथाकार ने जिस तार्किक, समकालीन एवं जेडंर संवेदनशील दृष्टि का परिचय देने का साहस किया है वह ‘अहल्या’ के मिथक को समसामयिक विमर्श और बहस के दायरे में ला देता है कि इस दृष्टि और नये आयाम से पहले इस पर क्यों नहीं सोचा या लिखा गया ?
‘शिलावहा’ ने अहल्या को एक नयी पहचान दी है और यह नयी कथावस्तु अपनी तह में डूबे पौरुषपूर्ण समाज के कई विरोधाभासों और छुपे पहलुओं को उजागर करती है. वैचारिक स्तर पर पाठकों को सत्ता, धर्म, हिंसाऔर नैतिकता के पाखंड तले छिपे दंभ, लोलुपता, शोषण और दोहरेपन से रूबरू कराती है. शिलावहा की रचना हमेशा से धैर्य, नैतिकता और त्याग के दबाव से मौन करा दी गई स्त्री और किसी भी पितृसत्तात्मक पौराणिक महाआख्यान की रचना के पीछे के छदम और कुटिल षडयंत्र को, स्त्री यौनिकता को अपने स्वार्थों, आकाक्षांओं के अनुसार गढने की पूर्वपरंपरा को ध्वस्त करके उससे मुक्ति दिलाने का एक महत उपक्रम है. आज की जटिल सामाजिक संरचना में अपनी अस्मिता के प्रति चेतनाशील हुए, अन्याय-शोषण का विरोध किए बिना स्त्री मुक्ति संभव नहीं है. उपन्यास में कहीं-कहीं अहल्या के तर्क, संवाद और संदर्भ पाठक को अतिरंजित, विवादित और बोल्ड लग सकते हैं, उसकी भाषा आक्रामक और नुकीली है जो बार-बार पितृसत्ता को घायल करती है. लेकिन अपने समय का सच लिखने, नये विमर्श को स्थापित करने, नये स्त्रीवादी पाठ के लिए मिथक की सीमाओं में ही नयी संभावनाओं की तलाश रचनाकार को करनी पड़ती है जिसमें लेखिका की सजग, जिम्मेदार और प्रतिबद्ध दृष्टि के साथ न्याय करने में यह उपन्यास सक्षम है.
स्त्रियों के अधिकारों के मामले में धर्म कितना क्रूर रहा है और मर्दवादी व्यवस्था कैसे उसे अपने हथियार के रूप में इसे इस्तेमाल करती है. यहाँ अहल्या इन सभी रूढियों को अपने प्रचंड आवेग से ध्वस्त कर देने में सक्षम है. उपन्यास की कथा-संरचना में अहल्या की भाषा का स्वर लाउड और निर्मम है लेकिन संकीर्ण मानसिकता पर चोट करने के लिए ऐसी मजबूत भाषा ही अपेक्षित है. ‘शिलावहा’ उपन्यास एक बार फिर से किरण सिंह के सशक्त रचनात्मक किरदार को स्थापित करने में समकालीन स्त्री- कथा परिदृश्य की एक विशिष्ट उपलब्धि है.
यह उपन्यास उनका बड़ा वैचारिक फलक, गहन स्त्री संवेदना, मानव संबंधों व परिस्थितियों की जटिलता को , उसकी बारीकी में देखने- पकड़ने की अद्भुत क्षमता, सामंतवादी समाज की प्रखर विरोधी एंव उदार आधुनिक दृष्टि का विलक्षण उदाहरण है.
इस उपन्यास के विधा-विन्यास को लेकर प्रश्न उठे हैं कि इसे किस विधा के अंतर्गत रखा जाए? आकार और विषय-विस्तार की दृष्टि से इसे लंबी कहानी न कह कर लघु उपन्यास कहना अधिक न्यायोचित और तर्कसंगत है. कथा-संरचना में नये प्रयोगों और संदर्भों को लेकर जिस तरह उदय प्रकाश की रचना ‘मोहनदास’, कृष्णा सोबती की ‘मित्रो मरजानी, जैनेंद्र के परख और त्यागपत्र जैसी कृतियों को उपन्यास के रूप में देखा गया.
‘शिलावहा’ में भी कथा का संवेदनात्मक और वैचारिक फलक अहल्या के जीवन के व्यापक विस्तार को समेटता है और अपनी सघन बुनावट में जिन बड़े युगीन प्रश्नों को प्रतीकात्मक रूप से सूत्रबद्ध करता है वह कथाकार के रचनात्मक कौशल का प्रमाण है. किरण सिंह अपनी हर रचना में कथा दृष्टि और कथा-भूमि बदलती चलती हैं, लीक से हटकर पंरपरागत कथा-रूढियों को तोड़ने का जोखिम उठाती हैं इसलिये विषयवस्तु की बहुआयामिता के साथ शिल्प का ढांचा बदलना स्वाभाविक है.
‘शिलावहा’ में लोक प्रचलित मिथक और स्मृतियों की पुनर्व्याख्या नये संदर्भों में करने के लिये लेखिका जिन नाटकीय युक्तियों और कथा-तत्वों का प्रयोग करती हैं वह स्त्री-जीवन से जुड़े सभी पक्ष और त्रासदी को जीवंत करने के लिए ही कार्य करते हैं. आज जब समकालीन परिदृश्य में पारम्परिक कथ्य की विधाएँ पूरी तरह बदल रही हैं, टूट रही हैं और एक दूसरे में समाहित हो रही हैं. लेखक अपनी अनुभूति और रुचि के अनुसार कला की आज़ादी खुद रचता है, नये प्रयोगों को भी अपनाता है और कई बार विषयवस्तु भी अपनी विधा स्वंय चुन लेती है.
इस उपन्यास में कथाकार ने स्त्री के सामाजिक-सांस्कृतिक जटिल यथार्थ के मूल स्त्रोत को पकड़कर जिस समकालीन विराट विमर्शों की निर्मिति तक पहुँचकर इसे अधिक प्रासंगिक बनाया है उसे केंद्र में रखते हुए ‘शिलावहा’ को उपन्यास कहना सर्वथा उचित है. पितृसत्ता,वर्णव्यवस्था और धर्मसत्ता के गठजोड़ से प्रत्येक युग में ही नहीं आज भी स्त्री के प्रति जातीय, वर्गीय, लैंगिक, सामाजिक, आर्थिकशोषण, यौन उत्पीड़न अधिक क्रूर, व्यापक, निरंकुश और संगठित रूप से कायम है जिनमें स्त्री-मुक्ति के प्रश्न और चुनौतियाँ बिल्कुल सामने खड़े हैं.
‘शिलावहा’ की महागाथा में अतीत के पूर्वाग्रहों से मुक्त स्त्री-अस्मिता के आंदोलन के रूप में ‘अहल्या’ का विद्रोह एक विकल्पहीन व्यवस्था में अपनी स्वतंत्रता के विकल्प की खोज का, नये भविष्य का संघर्ष है जिसके लिए कथाकार किरणसिंह ने पितृसत्तात्मक परम्परा से अलग अपना नया सौंदर्यशास्त्र और कथा-शिल्प गढ़ा है.
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मीना बुद्धिराजा
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