‘पूर्णावतार’, ‘शिलावहा’ और अवतारवादविनोद शाही |
अवतारवाद की पौराणिक धारणा, एक अर्से से भारतीय धर्म-संस्कृति की मुख्य पहचान होती चली गयी है. हालांकि उसकी जड़ें न वेदों में हैं और न ही उपनिषदों में. इस बारे में थोड़ी खोज करें, तो आसानी से पता चल जायेगा कि यह धारणा, उत्तर पुराणकाल में ही कहीं जाकर अपने मौजूदा रूप में गठित होती है. यह दसवीं शती के आसपास का काल है. इसलिये इसके सनातन होने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता.
इसके बावजूद, राम और कृष्ण के अवतार होने की बात, भारत की धार्मिक सांस्कृतिक पहचान का पर्याय हो गयी है. इतना ही नहीं, यह धारणा भारतीय जनमानस की चेतना में इतनी गहराई में उतर गयी है, कि इसके अनादि होने के बारे में, आम तौर पर किसी को कोई संदेह नहीं होता.
राम और कृष्ण के सह समांतर शिव, पार्वती और गणेश के अवतार होने की बात भी प्रचलित अवश्य है, परंतु उनकी व्याप्ति तुलनात्मक रूप में इतनी नहीं है.
छठी शताब्दी के बाद रचे गये अग्नि और गरुड़ जैसे पुराणों में राम और कृष्ण को विष्णु के दशावतारों में स्थान दिया गया था, परंतु दसवीं शताब्दी के आसपास, भागवत पुराण ने राम और कृष्ण को ‘परब्रह्म’ के ‘साक्षात प्रकट होने वाले सगुणावतार’ की तरह स्थापित कर दिया.
राम और कृष्ण का यह रूप अपने पूर्ववर्ती अवतारी रूप से बहुत अलग है, हालांकि समय और आस्था के असर में यह भेद धीरे-धीरे भुला दिया गया.
इस अंतर को समझने के लिये हमें अवतारवाद के उस आरंभिक रूप को देखना होगा, जिसका संबंध विष्णु के दशावतारों से है और जिसे भगवद्गीता में ‘संभवामि युगे युगे’ के रूप में अभिव्यक्ति मिली.
इस धारणा का संबंध इस विचार से है कि हर युग या कल्प के ‘अलग हालात’ के मद्देनज़र, विष्णु ‘अलग रूप में’ अवतरित होते हैं. हालांकि मकसद वही होता है. दुष्कर्म करने वालों का विनाश और शुभ कर्म करने वालों की रक्षा. पर रूप अलग होता है. इसलिये त्रेता और द्वापर में विष्णु राम और कृष्ण के रूप में जन्म लेते हैं.
परंतु दसवीं शती के बाद भागवत पुराण और वैष्णव भक्ति के आचार्यों ने राम और कृष्ण के स्वयं विष्णु होने और साक्षात परब्रह्म होने की बात करनी आरंभ कर दी.
इसके बाद उनके किसी नये अवतार के रूप में जन्म लेने की संभावना का अंत हो गया.
यह दावा किया गया कि भक्तों की पुकार सुन कर वे अपने उसी मूल रूप में, यानी दशरथ पुत्र राम और यदुवंशी वासुदेव कृष्ण की शक्ल में ही साकार प्रकट हो जाते हैं. इन दावों को विश्वसनीय बनाने के लिये तुलसीदास जैसे भक्त कवि ने यहां तक कह दिया कि उनकी प्रार्थना पर राम ने धनुर्धर के रूप में उन्हें दर्शन दिये और चित्रकूट के घाट पर उन्हें तिलक देने के लिये स्वयं उपस्थित हो गये. इस तरह भक्ति के प्रताप से अवतारवाद की मूल धारणा को ही आमूलचूल बदल दिया गया.
यहां दिलचस्प बात ये है कि राम और कृष्ण के दशरथ-सुत और यदुवंशी रूप को अनादि और सर्वव्यापी बना देने के बाद, विष्णु के दशावतार वाली धारणा की कमर ही टूट जाती है. त्रेता और द्वापर के, विष्णु के राम और कृष्ण वाले अवतार, कलिकाल में भी, भक्ति के द्वारा सहज सुलभ और ग्राह्य बना दिये जाते हैं. नतीजतन विष्णु के जो दो अवतार कलिकाल से ताल्लुक रखते थे, उनकी ऐसी मिट्टीपलीत होती है कि वे फिर खोजे से भी नहीं मिलते.
विष्णु के ये दो कलियुगीन अवतार हैं- बुद्ध और कल्कि. ये भी विष्णु के ही अवतार हैं, इस बात को अब आग्रह करके याद दिलाना पड़ता है, फिर भी बहुत कम हैं जिन्हें इस बात पर यकीन होता है.
बुद्ध को विष्णु का अवतार मानने वालों पर तो उलटे, पौराणिक भक्त-जन संदेह करने लगते हैं कि ऐसा कहने वाला व्यक्ति या तो हिंदू विरोधी दलित होगा, या चीन, जापान, कोरिया या थाईलैंड से आया कोई विदेशी बौद्ध भिक्षु होगा. और कल्कि की भी अब किसी को ज़रूरत महसूस नहीं होती. हमारा प्रयोजन सिद्ध करने के लिये अब राम और कृष्ण ही पर्याप्त से अधिक हो गये हैं.
तथापि अगर हम वैष्णव अवतारवाद के इतिहास में थोड़ा गहरे में उतरें, तो पाएंगे कि वैष्णव अवतारवाद के एक धारणा की तरह गठित होने से अनेक सदियों पहले ही बौद्धों के यहां ‘मैत्रेय’ की चर्चा खासी लोकप्रिय हो जाती है. वह संभवतः भारत में किसी भी अवतारवादी विचार के पनपने का आधार प्रतीत होती है. बुद्ध की मैत्रेय के रूप में जो मूर्तियां मिलती हैं, वे पहली शती की ग्रीको गांधार कला का उदाहरण हैं. इससे यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि गौतम बुद्ध के मैत्रेय के रूप में अवतरित होने की बात उससे काफी पहले से प्रचलित रही होगी.
भगवद्गीता का रचनाकाल भी पहली शताब्दी के आसपास माना जाता है. उसमें अवतारवाद की धारणा की मौजूदगी का संबंध बौद्ध दर्शन के मैत्रेय से है या नहीं, यह विवेचन विश्लेषण का मुद्दा है. परंतु इन दोनों के बीच जो समानताएं हैं, वे हमारा ध्यान अवश्य खींचती हैं.
पहली बात अवतार के विविध युगों में, अलग रूपों में संभव होने की है. बौद्ध वज्रयान में ‘बोधि चेतना के अवतरण’ को विविध ‘कल्पों’ में विभाजित किया गया है.
दूसरी बात ‘महाभारत’ में कृष्ण के दर्शन के सार की है. भगवद्गीता के उपदेश के बहुत अर्सा बाद उद्धव के आग्रह पर कृष्ण ने अपने दर्शन के सार के रूप में ‘मैत्री’ की बात की है.
इस बात का गौतम बुद्ध के भविष्य में ‘मैत्रेय’ के रूप में अवतरित होने की संभावना से है या नहीं, इसे इन दोनों बातों के दरम्यान मौजूद समानता को, महज़ संयोग कह कर खारिज नहीं किया जा सकता.
एक अन्य बात, जो अग्नि और गरुड़ जैसे आरंभिक पुराणों से संबंध रखती है, गौरतलब है. वह यह है कि वहां विष्णु के सातवें और आठवें अवतार के रूप में राम और कृष्ण के नाम आते हैं, तो नौवें अवतार के रूप में गौतम बुद्ध हैं. इससे स्पष्ट हो जाता है कि भागवत अवतारवाद की जड़ें और कहीं नहीं, बौद्ध दर्शन में हैं.
हालांकि बौद्ध दर्शन में पुनर्जन्म और अवतारवाद को सीधे तौर पर स्वीकार नहीं किया जाता है, परंतु ये दोनों एक भिन्न अर्थ और रूप में वहां भी दिखाई देते हैं. वहां अहम् के विलय के कारण यह माना जाता है कि मृत्यु के उपरांत निर्वाण संभव है. तथापि उच्चतर चेतना कुछ समय अपने कारण शरीर में करुणावश निवास कर सकती है और उसका किसी अन्य रूप, जिसे ‘स्कंध’ या ‘विग्रह’ कहा गया, में अवतरण भी हो सकता है. इस आधार पर बोधि चेतना के मैत्रेय के रूप में लौटने की बात की गयी.
वैष्णव ब्राह्मणवाद के द्वारा, बौद्धों की ऐसी धारणाओं को, भागवत अवतारवाद के रूप में आत्मसात कर लिया गया. बुद्ध का प्रभाव उस दौर में इतना बढ़ गया था कि विष्णु के दशावतारों में उन्हें भी स्थान दे दिया गया. परंतु अवतारवाद की वह जो आरंभिक धारणाएं थीं, वे धीरे धीरे पीछे छूट गयीं या बदल गयीं.
बदलाव ये आये कि भागवत पुराण ने राम और कृष्ण के सर्वोपरि होने पर मोहर लगा दी. इसके बाद भक्ति काल में राम और कृष्ण का महत्व, विष्णु से भी अधिक हो गया और वे साक्षात परब्रह्म का अवतार मान लिये गये. सोच के इस परिवर्तन के पीछे भक्तिकाल में इस्लाम की चुनौती मुख्य कारण बनी.
रामचंद्र शुक्ल ने तो भक्ति को पराजित हिंदू जाति के हत-पौरुष की क्षतिपूर्ति की तरह ही देखा था. तब हिंदू समाज को ऐसे अवतारों की ज़रूरत पड़ी, जो दरपेश संकट से उबारने के लिये, भक्तों की पुकार सुनकर, जब तब साक्षात प्रकट हो सकते हों. इसलिये उस दौर के अनेक भक्त-जन राम और कृष्ण के साकार होने और उनका साक्षात दर्शन करने की बात करते अक्सर दिख जाते हैं.
वे ऐसी कथाओं को बार-बार दोहराते हैं, जिनमें भक्तों की पुकार सुन कर ये अवतार, उनकी मदद के लिये दौड़े चले आते हैं. इन में प्रह्लाद, अजामिल, गणिका, गज आदि की ऐसी बहुत सी पुराण कथाओं की चर्चा को अक्सर दृष्टांत के रूप में दोहराया जाता रहा है. पर इससे भारतीय जनमानस का मनोवैज्ञानिक रूप में जो नुकसान हुआ, उसकी भरपाई, आज तक संभव दिखाई नहीं देती.
इससे हताश हिंदू जाति के रामभरोसे अकर्मण्य बैठे रह जाने की जिस मानसिकता का जन्म हुआ, उसने एक ओर भारतीय समाज के विकास को रोका, दूसरी ओर उसे पराश्रित बनाकर गुलाम बने रहने की दशा में ठेल दिया.
इसका एक और नुकसान ये हुआ कि अवतारों में दृढ़ आस्था ने हिंदू समाज के एक बड़े तबके को सांप्रदायिक बना दिया. अन्य धर्मों के प्रति सहनशीलता कम होती चली गयी. इस्लाम को शत्रु के रूप में देखते हुए, राम और कृष्ण को धर्म की पुनः संस्थापना के लिये पुकारना, आम बात हो गयी.
इसके बाद आधुनिक काल आता है. इस दौर में ज्ञान विज्ञान के अभूतपूर्व विकास विस्तार के बावजूद, भक्तिवादी मानसिकता के संदर्भ में बहुत अंतर नहीं पड़ता.
भारतेंदु से लेकर द्विवेदी काल तक, हमारे कवि उसी परंपरागत अवतारवादी मानसिकता से पूर्ववत घिरे रहते हैं. उनमें वैष्णवता से मुक्ति का भाव सिर उठाता भी है, तब भी वे उस पर सीधे चोट नहीं करते.
हमारे आधुनिक दौर के ये कवि लेखक, अधिक से अधिक, वेदांत या बौद्ध करुणा की बात, समांतर रूप में इस तरह करने लगते हें, कि वैष्णव भक्ति और अवतारवाद में उनकी आस्था पर, कोई खास आंच न आये.
द्विवेदी काल के बाद वाले छायावादी और नयी कविता के दौर में यही प्रवृत्तियां प्रभावी बनी रहती हैं. निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ हो, या नरेश मेहता की ‘संशय की एक रात’, दोनों में राम का अवतारी रूप संकटग्रस्त तो दिखाई देता है, खंडित नहीं होता.
किसी कवि में ऐसा साहस नहीं है कि कह सके कि राम या कृष्ण के अवतार होने या उनके पर-ब्रह्म का साकार साक्षात पर्याय होने की बात न विवेक सम्मत है और न युगानुरूप.
हालांकि ‘प्रिय प्रवास’ जैसी कृतियां उन्हें महामानव की तरह देखती हैं, पर उससे उनकी अवतारवादी आस्था के, समांतर रूप में बचे रह जाने की स्थिति में, कोई खास फर्क नहीं पड़ता.
इस मामले में बाल मुकुंद गुप्त से लेकर परसाई, शरद जोशी और समकालीन दौर के प्रेम जनमेजय जैसे व्यंग्यकार ही हैं, जो साहस पूर्वक अवतारवादी वैष्णवता पर, सीधा निशाना साधते हैं. परंतु इस साहित्य की विडंबना यह है कि इसे व्यंग्य विधा के एक अलग खांचे में डाल कर, मुख्यधारा के हिंदी साहित्य के हाशिये पर बिठा दिया जाता है. फिर इसे गंभीरता से लेने की ज़रूरत किसी को अधिक परेशान नहीं करती.
दो)
अब हम हिंदी के समकालीन परिदृश्य की ओर रुख कर सकते हैं. इसमें कुछ ऐसी कृतियां हमारे सामने हैं, जो राम भरोसे बैठे हिंदी साहित्य की आत्म सम्मोहित मानसिकता की नींद तोड़ने की कोशिश कर रही है. कुछ लेखक हिम्मत करके, भक्तिवाद और अवतारवाद से संबंधित कुछ ज़रूरी सवाल पूछने के लिये आगे आ रहे हैं. ये ऐसे सवाल हैं, जिन पर सदियों से पर्दा डाल कर रखा गया है. इस वजह से हम यह समझने लगे हैं कि ऐसे सवाल पूछने लायक ही नहीं होते. पर अब कुछ लेखक इस संबंध में गहरे संशय से भर गये हैं. वे खुद को उस ओर जाने से रोक नहीं पा रहे हैं. इसलिये उनके साथ संवाद करना, हमारा भी ऐतिहासिक दायित्व हो जाता है.
तीन)
इस कड़ी में पहली कृति है हेतु भारद्वाज का काव्य नाटक ‘पूर्णावतार’.
इस कृति की भूमिका में हेतु भारद्वाज अपने आसपास मौजूद जनमानस की अवतारवादी सोच और उससे उपजने वाली अकर्मण्यता को प्रश्नांकित करते हुए कहते हैं:
“धुर बचपन में ऐसा वातावरण मिला जिसमें अलौकिक तथा अविश्वसनीय घटनाओं के घटने की बहुत गुंजाइश थी. बिना श्रम के भगवत कृपा से ही सब कुछ प्राप्त हो सकता है, यह विश्वास मुझे वातावरण से ही मिला. अनेक तरह की आराधनाओं तथा कल्पनाओं के बावजूद बिना श्रम कुछ भी प्राप्त न हो सका. … मुझे ऐसा लगा कि हमारे मानस में पूरी जड़ता से जन्मी अवतारवाद की धारणा ने हमें कभी क्रान्ति की ओर बढ़ने ही नहीं दिया. मनुज तथा देवतागण सदैव नये अवतार की प्रतीक्षा करते रहे. …पर अनुभव ने कहा कि बिना पुरुषार्थ और श्रम के कुछ भी प्राप्ति सम्भव नहीं है.”
यहां भारतीय जनमानस में परिव्याप्त उस कुंठा को पहचानने की कोशिश की गयी है, जो समाज में यथास्थितिवाद के लिये ज़िम्मेवार है. अवतारवाद में गहरी आस्था के कारण लोगों को लगता है कि उन्हें हालात को बदलने के लिये निजी और सामूहिक रूप में प्रयास और संघर्ष करने की कोई ज़रूरत नहीं है. वे अभाव में जी लेते हैं, आधी अधूरी सफलता से ही संतुष्ट बने रहते हैं और इतना ही नहीं, अपने साथ हो रहे अन्याय के विरुद्ध भी उठ कर खड़े नहीं होते. उन्हें लगता है कि अगर संकट और गहरा होता है, तो उनके पास उपाय है. वे निजी तौर पर भक्तिभाव से युक्त होकर अपने राम या कृष्ण के प्रति कातर प्रार्थना तो कर ही सकते हैं. उनके मन में इस बात को बिठा दिया गया है कि अगर कोई दत्त-चित्त होकर अपने राम को ठीक से पुकारता है, तो उसकी प्रार्थना अनसुनी नहीं रहेगी. राम उसे दर्शन नहीं भी देंगे, तब भी इतने भर से उसके हालात ज़रूर सुधर जायेंगे. लोगों की इस आस्था को सदियों से इतनी शिद्दत से पाला पोसा गया है कि अब वे इसकी सत्यता पर कोई सवाल नहीं उठाते.
पर यह कृति हिम्मत करती है और कुछ ऐसे सवाल उठाती है, जिन्हें पूछना वर्जित माना जाता रहा है,
“मेरे पोते अपूर्वम ने पूछा-
बाबा! धरती पर राक्षसों का जोर बढ़ा तो
भगवान को अवतार लेना पड़ा
उन्हें मारने को,
क्या देवता उन्हें नहीं मार सकते थे?
प्रश्न बहुत गम्भीर?
देवताओं ने किया ही क्या-
विलास और विश्राम ही करते रहे,
सोमरस पीते रहे
अप्सराओं को नचाते रहे
इन्द्र के गुण गाते रहे.”
यह सवाल भोलेपन से पूछा गया है. यह सामान्य मनोविज्ञान से संबंधित सोच से कुछ खास अलग भी नहीं है. यहां अवतारवाद को बचाने के लिये एक अन्य परिकल्पना को कटघरे में लाकर खड़ा कर लिया गया है.
देवता भी मानव मन की उसी तरह की एक अन्य परिकल्पना हैं, ठीक वैसी ही जैसी किसी के ईश्वर और उसका अवतार होने की बात है. दुनिया से बुराई के अंत के लिये देवताओं की सामर्थ्य का संदेहास्पद होना, एक तरह से अवतारवाद के ज़रूरी होने पर मुहर लगाता है. परंतु जो बात देवताओं पर लागू होती है, वह उतनी ही किसी के ईश्वर का अवतार होने के बारे में भी सच है. परंतु जिसे आप ईश्वर का अवतार मानते हैं, उस पर संदेह करने से आदमी अचानक निहत्था हो जाता है. इसलिये देवताओं की बलि देकर भी आप अपने ईश्वर को बचाना चाहते हैं. लेकिन फिर आप जैसे ही अपने उस ईश्वर के अवतार के चरित को देखते हैं, आपको लगता है कि आपके सवाल अब भी ज्यों के त्यों खड़े हैं. दुष्कर्म करने वाले पापियों के विनाश के बावजूद, दुष्कर्मों का खात्मा नहीं होता. ईश्वर, अपने अवतार रूप में विजयी होकर भी, आखिर दुष्कर्मों की बद्धमूल परंपराओं के हाथों पराजित हुआ दिखाई देने लगता है. तथापि यह देखना और इस आधार पर अवतार में अपनी आस्था को डगमग होते पाना, किसी भक्त-जन के लिये सबसे कठिन सवाल के रूबरू होना है.
यह कृति धीरे-धीरे हमें ऐसे कठिन सवाल पूछने की दिशा में ले जाती है. कृष्ण, जो खुद को पूर्णावतार तक घोषित कर चुके हैं, आखिर अपनी मृत्यु के सम्मुख जा खड़े होते हैं. फिर वे अपने प्रति भक्ति भाव रखने वाले लोगों को संबोधित करके उन्हें बताते हैं कि ‘देखो मुझे, तुम्हारा ईश्वर भी एक सामान्य मनुष्य की तरह मर रहा है.’:
“देख लो पहली बार
कोई अवतार
हो रहा मृत्यु को प्राप्त
कोई ब्रह्मलीन हुआ
किसी ने ली समाधि तो कोई अदृश्य हुआ
किसी का पता नहीं क्या हुआ?
देख लो
पहली बार परमब्रह्म तीनलोक का स्वामी
मरने को अभिशप्त है.”
यहां से इस कृति में, ईश्वर के एक अवतार की आत्म स्वीकारोक्ति सामने आती है. एक तरह से यह किसी के ‘पूर्णावतार’ हो सकने के झूठ का पर्दाफाश करने जैसी बात है:
“पूर्णावतार बन आया मैं
रहा पूर्णत: असफल
मेरे अपनों ने किया मुझे अपमानित
कर दिया अप्रासंगिक
अवतार की प्रक्रिया को.”
इन पंक्तियों को ध्यानपूर्वक देखिये. एक पूर्णावतार के असफल हो जाने का जो परिणाम निकलता है, वह एक बहुत गहरे सत्य का उद्घाटन करता है. वह आखिरकार किसी के भी ‘अवतार होने की प्रक्रिया को ही अप्रासंगिक’ बना देता है.
यह ज़रूरी भी है, क्योंकि इसके बिना, मनुष्य समाज को अपने भरोसे खड़े होने के लिये तैयार नहीं किया जा सकता. ‘राम भरोसे’ रहने वाले भक्त समाज को, खुद अपनी सामर्थ्य को जानने समझने लायक बनाये बिना यह मुमकिन नहीं कि हम अवतारवाद के झूठ को झूठ मान सकेंगे और उसकी गिरफ्त से निकल जायेंगे.
यह कृति हमें बड़ी हिम्मत के साथ आखिर उस सच के साथ खड़ा होने के लिये कहती है. इसलिये कृष्ण के मुख से यह कहलवाया जाता है:
“अब तुम लोग मेरे भरोसे मत रहना
कह देना सारे जग से
मेरी प्रतीक्षा मत करना
अपने संकटों से मुक्ति के लिए
अपने बल पर लडऩा.”
चार)
किरण सिंह का उपन्यास ‘शिलावहा’, अवतारवाद पर ज़रूरी सवाल खड़े करने की दृष्टि से, एक महत्वपूर्ण कृति है. इसमें राम के अवतार होने के पीछे छिपे सच को साहसपूर्वक बेपर्दा किया गया है. वह इस बात को सिरे से ही खारिज कर देती है कि कोई अवतार होता या हो सकता है.
राम के अवतार होने को किरण सिंह, ब्राह्मणों और देवताओं की मिलीभगत से उपजा एक छल मानती हैं. उपन्यास के निशाने पर पितृसत्ता हुए. इसलिये राम को ईश्वर घोषित करने के पीछे उन्हें पितृसत्ता के आत्म ग्रस्त पाखंड की भूमिका दिखाई देती है. पितृसत्ता को स्थापित करने के लिये ईश्वर की ज़रूरत महसूस की जाती है. इसलिये राम को विधिवत घोषणा करके ईश्वर बना दिया जाता है. फिर वह स्त्री के स्त्री के रूप में दमन के लिये आधारभूत नियम और मर्यादाओं का विधान करता है. रावण से मुक्त करवाई गयी सीता से कहा जाता है कि वह, परपुरुष के अधीन रह कर आने के कारण विवाह की मर्यादा और बंधन से मुक्त हो गयी है. इसलिये वह स्वेच्छया से जिस पुरुष का वरण करना चाहे, कर सकती है. इस कृति में राम को ईश्वर बनाने के मूल कारण पितृसत्तात्मक सोच में छिपे हैं.
तथापि यह मामला पितृसत्ता की स्थापना से कहीं अधिक व्यापक मालूम पड़ता है. इसे समझने के लिये हमें इस उपन्यास के मूलपाठ में उतरना होगा.
ब्राह्मणों, ऋषियों और देवों की जिस सभा में राम को ईश्वर बनाने का निर्णय लिया जाता है, उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं:
“धर्म को दंड से फलित करना होगा.’’
‘‘हमें धरती पर ईश्वर को उतारना होगा.’’
“ब्रह्मदेव! धरती का जीवन बहुत कठिन है. वहाँ देवता चार दिन न रह पाएँगे.’’
‘‘इसी कारण…हमें मनुष्य को ही स्वर्ग से अवतरित घोषित करना है. … हमें एक पुरुष चाहिए…जो ईश्वर का चेहरा बने. जो उत्तर से दक्षिण तक के वनों को, धर्म-योद्धा तैयार करने वाले गुरुकुलों के लिए खाली कराए. चतुर्वर्ण व्यवस्था की आदत डलवाए…भूमि द्विजों के अधीन करे…आर्य संस्कृति के प्रसार के लिए राज्य विस्तार करे.’’
यहां जो बात ज़ोर देकर कही गयी है, वह यह है कि कोई मनुष्य ईश्वर नहीं होता, न हो सकता है, परंतु किसी खास आदमी को चुन कर समाज के वर्चस्वी लोग उसके ईश्वर होने की घोषणा करते हैं.
फिर प्रचार के द्वारा उसका ईश्वरत्व स्थापित किया जाता है.
परंतु सवाल ये है कि कोई किसी को भी ईश्वर बना दे, क्या यह संभव है? इसके लिये ज़रूरी है कि वह व्यक्ति कुछ ऐसे काम करे जो ऐतिहासिक महत्व के ही नहीं, युगांतरकारी हों.
यहां उन बातों की ओर इशारा किया गया है, परंतु उन्हें पितृसत्ता की छलपूर्ण व्यवस्था की स्थापना के कुछ कारकों की तरह प्रस्तुत किया गया है. जैसे गुरुकुलों के लिये वन भूमि को खाली करवाने, चतुर्वर्ण को समाज की नयी मर्यादा के रूप मे स्थापित करने और भूमि पर विप्रो के अधिकार का विस्तार करने के काम हैं, जिन्हें यहां पितृसत्ता के पक्ष में धर्म योद्धा तैयार करने की तरह देखा दिखाया गया है.
यह उपन्यास इसे स्त्रियों की स्वच्छंद यौनेच्छा का नियंत्रण करके, उन्हें पुरुष के अधीन करने की कोशिश की तरह प्रस्तुत करता है. फिर वह अहिल्या को राम के ईश्वरत्व के विकल्प की तरह खड़ा करने लगता है.
अधेड़ गौतम के पितृसत्तात्मक नियमन को चुनौती देने के लिये, अहिल्या विवाहिता होकर भी इंद्र से यौन संबंध स्थापित करती है. इंद्र स्वेच्छाचारिणी अप्सराओं के हृदय में निवास करते हैं. अकाल पड़ने पर इंद्र से वर्षा कराने के लिये अहिल्या भी अन्य स्त्रियों की तरह निर्वसन होकर उसे रिझाने का प्रयास करती है. यहां हम पितृसत्ता को स्त्रियों के प्रेम और काम के दमन के अस्त्र के रूप में लाये गये छल की तरह देखते हैं.
इस कृति में पितृसत्ता, किसी पुरुष को ईश्वर बना कर उसकी मर्यादाओं को, स्त्रियों पर थोपती है और उसकी मदद से उन्हें नियंत्रित करने का असफल प्रयास करती है. इस तरह अहिल्या का इंद्र से समागम पितृसत्ता के स्त्री विरोधी रूप के खिलाफ एक विद्रोह की तरह दिखाई देता है.
तथापि युगबोधक दृष्टि से यह स्त्रीवाद, सभ्यतामूलक विकास के यथार्थ की गहराई में उतरने से चूक जाता है. यहां यथार्थ के इकहरे और सरलीकृत रूप के द्वारा राम के ईश्वरत्व या अवतारवाद का जो खंडन किया गया है, वह अवतारवाद के झूठ के बखिये उधेड़ने के बावजूद, अंततः अपर्याप्त ही साबित होता है. इतना ही नहीं, वह खुद अपनी ही स्थापनाओं के विरूद्ध खड़ा भी दिखाई देने लगता है.
राम को ईश्वर बनाना जितना बड़ा झूठ है, उतना ही बड़ा झूठ है, मातृसत्ता के पतनशील अवशेषों को, स्त्री की संभावित और प्राकृतिक मुक्ति के रूप में प्रस्तुत करना.
यह कथा, कृषि सभ्यता मूलक एक नये समाज के निर्माण के लिये प्रस्तुत कार्यों को, स्त्री विरोधी, प्रेम विरोधी और स्वच्छंद यौनाचार विरोधी मर्दवाद की तरह प्रस्तुत करती है.
ऊपर दिये गये उद्धरण से स्पष्ट है कि जो लोग राम को ईश्वर बनाने की कोशिश कर रहे हैं, उसके पीछे असल कारण है, कृषि सभ्यता को विकास के एक नये अध्याय की तरह खोजना और स्थापित करना. अकाल पड़ जाने से सूख रहे वन अब बढ़ती जनसंख्या की भूख मिटाने के लिये पर्याप्त नहीं रह गये हैं. इसलिये सदानीरा से सिंचित भूमि को खेती के लायक बनाना और जोतना ज़रूरी हो गया है.
जनक खेत जोतते हैं, तो खेत में लावारिस पड़ी कन्या को, पिता की तरह पालने के लिये विवश हैं. लोग अपनी बेटियों को ठीक से पालने की स्थिति में नहीं रह गये हैं. अब लोगों को वन की भूमि को साफ करके खेती में लगाना पड़ेगा. इसलिये श्रम विभाजन ज़रूरी हो गया है. इसके लिये ऋषि चतुर्वर्ण व्यवस्था ला रहे हैं. अपनी भूमि जोतने वालों को अपने वंश की संतानों के रूप में वारिसों की ज़रूरत है. इसलिये विवाह संस्था लाई जा रही है. स्त्री के लिये ही नहीं, पुरुष के लिये भी नियम बन रहे हैं कि वे एक स्त्री या एक पुरुष के साथ जीवन यापन करना सीखें.
पर वनों में स्वेच्छाचार को जीवन और प्रेम की कसौटी मानने वाले पुरुष और स्त्रियां अब भी, इंद्र और अहिल्या की तरह, परिवार की मर्यादा और बंधन में बंधने को राज़ी नहीं हैं.
उधर कृषि सभ्यता के नये नायकों के रूप में प्रस्तुत, राम और लक्ष्मण जितेन्द्रिय हैं. वे पिता दशरथ की तरह अनेक विवाह नहीं करते. इस तरह राम परिवार की मर्यादा के संस्थापक पुरुष की तरह उभरते हैं. लक्ष्मण वन की रानी शूर्पनखा और प्रतीक रूप में उसके स्वेच्छाचार के, नाक कान काट कर उसे दंडित करते हैं.
यह सब जो उस दौर में हो रहा है, वह न स्त्री विरोधी छल है और न वन के स्वच्छंद स्वेच्छाचार का अकारण किया गया दमन ही है.
तथापि हर नयी व्यवस्था की तरह परिवार की मर्यादा को स्थापित करने वाली पितृसत्ता के भी अपने अंतर्विरोध हैं, कमजोरियां हैं, जो इस व्यवस्था के लागू होते ही सामने आकर खड़ी हो जाती हैं.
इसलिये वाल्मीकि राम को ईश्वर के रूप में प्रस्तुत नहीं करते. हालांकि इस उपन्यास की कहानी में वाल्मीकि तक का ऐसा आदर्शवादी व अलौकिक रूप चित्रित हुआ है, जैसे वे राम के दौर के कोई कवि न होकर त्रिकालदर्शी हों. वे राम का चित्रण एक सामान्य राजा की तरह करते हैं और राम की कमजोरियों पर पर्दा नहीं डालते. परंतु किरण सिंह इसे भी उनकी एक योजना की तरह पेश करती हैं. जैसे कि वे ‘राम के ईश्वरत्व और अवतारत्व का खंडन’ करने के लिये जानबूझकर वह सब लिख रहे हों. उन्हें इस रूप में चित्रित करते हुए हम उन्हें नहीं, अहिल्या को ही जैसे उनके मुख से बोलता देख सकते हैं.
‘‘मैं ईश्वर में अविश्वास के सूत्र लिख रहा हूँ.’’
‘‘यह अक्षर-अक्षर आत्महत्या की ओर बढ़ना है.’’
‘‘मैं ईश्वर की, सामान्य मानव से भी गई-बीती दुर्बलताएँ लिखूँगा.
क्योंकि ईश्वर भी विकल्प नहीं गढ़ सकता. वह अपना वंश लेने स्त्री के ही द्वार आएगा.’’
वाल्मीकि रामायण की ऐसी व्याख्या उस कृति के साथ न्याय नहीं करती, तथापि हम उसे इस दृष्टि से अवश्य महत्वपूर्ण मान सकते हैं कि किसी ईश्वर के मनुष्य होने की बात ही दरअसल अहम होती है. राम को, बाद के कवियों ने, जिस यरह ईश्वर बनाया है, उनकी आंखें खोलने के लिये, वाल्मीकि निश्चय ही एक अनुकरणीय उदाहरण हैं. उन्होंने एक मनुष्य के सच को सच सच कहने में कोई कोताही नहीं की. उसे ईश्वर नहीं बनाया. हालांकि ऐसा वे त्रिकालज्ञ होने के कारण जानबूझ कर कर रहे थे, यह बात भी उनके काव्य पर अपने पूर्वाग्रह को लादने से अधिक कुछ नहीं है.
‘शिलावहा’ को उसकी अपनी कथा की असंगतियों और दृष्टिकोण की एकांगिता के बावजूद, इसलिये न केवल पढ़ सकते हैं, उसे निस्संदेह एक महत्वपूर्ण कृति भी कह सकते हैं, क्योंकि वह अवतारवाद के छल और झूठ का विखंडन करने से ज़रा भी हिचकिचाती नहीं.
एकांगी होने के बावजूद, इस कृति का साहस अपने आप में विस्मित करता है. और इतना ही नहीं, वह उस मनुष्य की उस महिमा को फिर से स्थापित करने में भी हमारा पथ प्रदर्शन करता है, जिसे मनुष्य ‘राम भरोसे’ नहीं, ‘अपने भरोसे’, अपने श्रम और आत्मविवेक से पाता है.
यहां आकर, अपने इस मानवीय दर्शन की वजह से इस कृति की अहिल्या अचानक एक बेजोड़ पात्र की तरह हमारे सामने उभरती है:
“नहीं! कोई देवता नहीं.. ऋषि-महर्षि कुछ नहीं. त्राहि जीवनं तृणादि च…अहम् एव सर्वम् अस्मि! किसी भी बिपदा में स्वयं को पुकारो! स्वयं को याद करो!”
विनोद शाही
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इस आलेख में उपलब्ध साहित्य के आधार पर परमात्मा के अवतरण से जिस मुक्ति की बात की गई है वह इसलिए सही है क्योंकि लोगों को विवेक के आधार पर निर्णय लेने के बीच उनकी आस्था और विश्वास (अंध) बीच में आ जाता है. यहाँ ‘अवतार’ शब्द का कोई निश्चित अर्थ नहीं है. और परमात्मा के स्वरूप के बारे भी कोई स्थिर मान्यता नहीं है. उक्त आलेख में चर्चित आख्यानों के परिणामस्वरूप मनुष्य के मन में परमात्मा के अवतरण को लेकर कोई रूचि नहीं रह जाती. परमात्मा के अवतरण में विश्वास रखने वाले लोगों में कुछ यह कहते हैं कि परमात्मा का अवतरण नहीं होता. और कुछ कहते हैं कि अवतरण होता है. तीसरी प्रकार के लोग कहते हैं कि परमात्मा का अवतरण होता हो या न होता हो हमें इस झमेले में पड़ने की आवश्यकता नहीं है. हमें तो नित्यप्रति परमात्मा का धन्यवाद कर देना ही काफी है. बी के जगदीश अपनी पुस्तक ‘परमात्मा का अवतरण’ में प्रश्न उठाते हैं कि क्या हम परमात्मा को माने या न माने या तठस्थ रहें?
डॉ साही ने परमात्मा के अवतरण को लेकर जिन मान्यताओं को उजागर किया है वे विवेकसंगत मालूम नहीं होतीं. इसलिए मनुष्य के मन में सवाल उठता है कि क्या ऐसे अवतारों से हमारा संपर्क हो सकता है? इसके लिए एक कविता और एक उपन्यास का उदाहरण सार्थक है.
लेकिन जगदीश जी की पुस्तक इस बात को सिद्ध करती है कि परमात्मा का अवतरण होता है . इसे स्पष्ट करने के लिए वे गीता का उदाहरण देते हैं. गीता में भगवान के महावाक्य हैं ‘मैं अव्यक्त रूप हूँ’ अर्थात मेरा रूप तो है परंतु दैहिक (व्यक्त) नहीं है. आगे यह भी कहा कि इस आकाश तत्त्व के पार एक अव्यक्त तत्व है उससे परे एक अव्यक्त लोक है. वह मेरा परमधाम है. भगवान ने यह भी कहा है कि ‘मेरा जन्म और मेरे कर्म दिव्य हैं मैं साधारण मनुष्य की तरह जन्म नहीं लेता बल्कि प्रकृति को वश करके साकार होता हूँ.
यदि डॉ विनोद साही जी इस पुस्तक को भी एक बार देख लेते तो शायद उनकी राय कुछ भिन्न होती.